श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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घर घुमणवाणी भाई ॥ पाप पथर तरणु न जाई ॥ भउ बेड़ा जीउ चड़ाऊ ॥ कहु नानक देवै काहू ॥४॥२॥

पद्अर्थ: घर = घरों का मोह। घुंमण वाणी = घुमण घेर। भाई = हे भाई! तरणु न जाई = पार नहीं लांघा जा सकता। भउ = परमात्मा का डर अदब। चढ़ाऊ = सवार, बेड़ी का मुसाफिर। काहू = किसी विरले को।4।

अर्थ: हे भाई! घरों के मोह दरिया के (पानी की लहरों के) घुम्मन-घेरियों (चक्रों की तरह) हैं, पापों के पत्थर लाद के जिंदगी की बेड़ी इन बवण्डरों में से पार नहीं लांघ सकती।

अगर परमात्मा के डर-अदब की बेड़ी तैयार की जाए, और उस बेड़ी में जीव सवार हो, तब ही (संसार-समुंदर के विकारों के बवण्डरों में से) पार लांघा जा सकता है। पर हे नानक! कह: ऐसी बेड़ी किसी विरले को ही परमात्मा देता है।4।2।

मारू महला १ घरु १ ॥ करणी कागदु मनु मसवाणी बुरा भला दुइ लेख पए ॥ जिउ जिउ किरतु चलाए तिउ चलीऐ तउ गुण नाही अंतु हरे ॥१॥

पद्अर्थ: करणी = आचरण। कागदु = कागज। मसु = स्याही। मसवाणी = दवात। पए = पड़ जाते हैं, लिखे जाते हैं। दुइ = दो किस्म के। किरतु = किया हुआ काम, किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह (जो हमारे स्वभाव का रूप धार लेता है)। तउ गुण अंतु = तेरे गुणों का अंत। हरे = हे हरि!

अर्थ: हे हरि! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता (तूने आश्चर्यजनक खेल रची है कि तेरी कुदरति में जीवों का) आचरण, मानो, कागज है, मन दवात है (उस बन रहे आचरण-कागज़ पर मन के संस्कारों की स्याही से) अच्छे-बुरे (नए) लेख लिखे जा रहे हैं (भाव, मन में अब तक के इकट्ठे हुए संस्कारों की प्रेरणा से जीव जो नए अच्छे-बुरे काम करता है, वह काम आचरण-रूप कागज़ पर नए अच्छे-बुरे संस्कार उकरते जाते हैं)। (इसी तरह) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह-रूप स्वभाव ज्यों-ज्यों जीवों को प्रेरित करता है वैसे वैसे ही वह जीवन-राह पर चल सकता है।1।

चित चेतसि की नही बावरिआ ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चित = हे चिक्त! चित बावरिआ = हे कमले चिक्त! बिसरत = बिसरते हुए। गलिआ = गल रहे हैं, कम हो रहे हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे कमले मन! तू परमात्मा को क्यों याद नहीं करता? ज्यों-ज्यों तू परमात्मा को बिसार रहा है, त्यों-त्यों तेरे (अंदर से) गुण घटते जा रहे हैं।1। रहाउ।

जाली रैनि जालु दिनु हूआ जेती घड़ी फाही तेती ॥ रसि रसि चोग चुगहि नित फासहि छूटसि मूड़े कवन गुणी ॥२॥

पद्अर्थ: रैनि = रात। जेती घड़ी = जितनी भी घड़ियां हैं उम्र की। तेती = वह सारी। रसि = रस से, स्वाद से। चुगहि = तू चुगता है। फासहि = तू फसता है। मूढ़े = हे मूर्ख!।2।

अर्थ: (हे मन पंछी! परमात्मा को बिसारने से तेरी जिंदगी का हरेक) दिन और हरेक रात (तुझे माया में फसाने के लिए) जाल का काम दे रहा है, तेरी उम्र की जितनी भी घड़ियां हैं वह सारी ही (तुझे फसाने के लिए) फंदे बनती जा रही हैं। तू बड़े स्वाद ले ले के विकारों की चोग चुग रहा है और विकारों में दिन-ब-दिन और फंसता जा रहा है, हे मूर्ख मन! इनमें से कौन से गुणों के साथ खलासी हासिल करेगा?।2।

काइआ आरणु मनु विचि लोहा पंच अगनि तितु लागि रही ॥ कोइले पाप पड़े तिसु ऊपरि मनु जलिआ संन्ही चिंत भई ॥३॥

पद्अर्थ: आरणु = भट्ठी। विचि = (इस काया) में

(नोट: शब्द ‘विचि’ का संबंध शब्द ‘मनु’ के साथ नहीं है, अगर होता तो शब्द ‘मनु’ का रूप ‘मन’ होना था)।

पंच अगनि = कामादिक पाँचों अग्नियां। तितु = उस काया भट्ठी में। तिसु ऊपरि = उस भट्ठी के ऊपर। चिंत = चिन्ता।3।

अर्थ: मनुष्य का शरीर, मानो, (लोहार की) भट्टी है, उस भट्टी में मन, मानो, लोहा है और उस पर कामादिक पाँच आग्नियां जल रही हैं, (कामादिक की तपस को तेज करने के लिए) उस पर पापों के (जलते) कोयले पड़े हुए हैं, मन (इस आग में) जल रहा है, चिन्ता की संनी है (जो इसको पकड़ के हर तरफ से जलाने में मदद दे रही है)।3।

भइआ मनूरु कंचनु फिरि होवै जे गुरु मिलै तिनेहा ॥ एकु नामु अम्रितु ओहु देवै तउ नानक त्रिसटसि देहा ॥४॥३॥

पद्अर्थ: मनूरु = जला हुआ लोहा। कंचनु = सोना। तिनेहा = वैसा (जो मनूर से कंचन कर सके)। अंम्रितु = अमर करने वाला, आत्मिक जीवन देने वाला। त्रिसटसि = टिक जाता है। देहा = शरीर।4।

अर्थ: पर हे नानक! अगर समर्थ गुरु मिल जाए तो वह जल के निकम्मा लोहा हो चुके मन को भी सोना बना देता है। वह आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम देता है जिसकी इनायत से शरीर टिक जाता है (भाव, इंद्रिय विकारों से हट जाती हैं)।4।3।

मारू महला १ ॥ बिमल मझारि बससि निरमल जल पदमनि जावल रे ॥ पदमनि जावल जल रस संगति संगि दोख नही रे ॥१॥

पद्अर्थ: बिमल...जल = बिमल (सरोवर के) निर्मल जल मझारि बससि। बिमल = मल रहत, साफ। मझारि = में। बससि = बसता है। पदमनि = कमल, कमल का फूल। जावल = जाला। रे = हे मेंढक! संगि = संग में, साथ (करने) में। दोख = ऐब, नुक्स।1।

अर्थ: हे मेंढक! साफ सरोवर के साफ-सुथरे पानी में कमल-फूल और जाला बसते हैं। कमल फूल उस जाले और पानी की संगति में रहता है, पर उनकी संगति में उसको कोई दाग नहीं लगता (कमल-फूल हमेशा निर्लिप ही रहता है)।1।

दादर तू कबहि न जानसि रे ॥ भखसि सिबालु बससि निरमल जल अम्रितु न लखसि रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रे दादर = हे मेंढक! भखसि = तू खाता है। सिबालु = जाला। न लखसि = तू कद्र नहीं समझता।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेंढक! तू कभी भी समझदारी नहीं करता। तू साफ-सुथरे पानी में बसता है, पर तू उस साफ-पवित्र पानी को पहचानता नहीं (उसकी कद्र नहीं जानता, और सदा) जाला ही खाता रहता है (जो उस साफ पानी में पड़ जाता है)।1। रहाउ।

बसु जल नित न वसत अलीअल मेर चचा गुन रे ॥ चंद कुमुदनी दूरहु निवससि अनभउ कारनि रे ॥२॥

पद्अर्थ: बसु = बासु, वास, बसने वाले। अलीअल = भौरा। मेर = चोटी, कमल फूल की चोटी। चचा = चुसता। गुन = रस। चंद = चाँद को। कुमुदनी = अथवा कंमी (जैसे कमल का फूल सूरज की रौशनी में खिलता है वैसे ही कुमुदनी चाँद की चाँदनी में खिलती है)। निवससि = (खिल के) सिर झुकाती है। अनभउ = दिल की खींच।2।

अर्थ: हे मेंढक! (तेरा) सदा पानी का वास है, भौरा (पानी में) नहीं बसता, (फिर भी) वह (फूल की) चोटी का रस लेता है (चूसता है)। कुमुदनी चाँद को दूर से (देख के खिल उठती है और) सिर झुका देती है, क्योंकि उसके अंदर चाँद के लिए दिल से कसक है।2।

अम्रित खंडु दूधि मधु संचसि तू बन चातुर रे ॥ अपना आपु तू कबहु न छोडसि पिसन प्रीति जिउ रे ॥३॥

पद्अर्थ: दुधि = दूध में। मधु = शहद, मिठास। अंम्रित = उत्तम। संचसि = (परमात्मा) इकट्टी करता है। तू रे = हे मेंढक! बन चातुर = हे पानी के (बसने वाले) चतुर मेंढक! आपु = खुद को। पिसन = चिच्चड़। पिसन प्रीति = चिच्चड़ की प्रीति (खून से)। अपना आपु = अपने स्वभाव को।3।

अर्थ: (थन के) दूध में (परमात्मा) खण्ड और शहद (जैसी) अमृत (मिठास इकट्टी करता है), पर जैसे (थन से चिपके हुए) चिच्चड़ की (लहू के साथ) प्रीति है (दूध से नहीं, वैसे ही) हे पानी के चतुर मेंढक! तू (भी) अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता (पानी में बसते कमल के फूल की तुझे समझ नहीं, तू पानी का जाला ही खुश हो हो के खाता है)।3।

पंडित संगि वसहि जन मूरख आगम सास सुने ॥ अपना आपु तू कबहु न छोडसि सुआन पूछि जिउ रे ॥४॥

पद्अर्थ: पंडित संगि = विद्वानों की संगति में। वसहि = बसते हैं। जन = लोग। आगम = वेद। सास = शास्त्र। सुने = सुन के। न छोडसि = तू नहीं छोड़ता। सुआन पूछि = कुत्ते की पूँछ।4।

अर्थ: विद्वानों की संगति में मूर्ख लोग बसते हैं, उनसे वे वेद-शास्त्र भी सुनते हैं (पर, रहते मूर्ख ही हैं। अपनी मूर्खता का स्वभाव नहीं त्यागते)। जैसे कुत्ते की पूँछ (कभी अपना टेढ़ा-पन नहीं छोड़ती, वैसे ही हे मेंढक!) तू कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता।4।

इकि पाखंडी नामि न राचहि इकि हरि हरि चरणी रे ॥ पूरबि लिखिआ पावसि नानक रसना नामु जपि रे ॥५॥४॥

पद्अर्थ: इकि = कई। नामि = नाम में। पावसि = तू पाएगा। पूरबि = पूरब में, पहले जीवन काल में।5।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: कई ऐसे पाखण्डी लोग होते हैं जो परमात्मा के नाम से प्यार नहीं डालते (सदा पाखण्ड की ओर ही रुचि रखते हैं), कई ऐसे हैं (भाग्यशाली) जो प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ते हैं।

हे नानक! तू परमात्मा का नाम अपनी जीभ से जपा कर, धुर से परमात्मा से मिली बख्शिश के अनुसार तुझे ये दाति प्राप्ति हो जाएगी।5।4।

मारू महला १ ॥ सलोकु ॥ पतित पुनीत असंख होहि हरि चरनी मनु लाग ॥ अठसठि तीरथ नामु प्रभ नानक जिसु मसतकि भाग ॥१॥

नोट: देखें राग मारू के पहले शब्द वाला नोट। ये शलोक भी गुरु अरजन साहिब जी का है, और गूजरी की वार महला ५ में पौड़ी नं: 4 का दूसरा सलोक है। इस सलोक और इसके साथ के गुरु नानक देव जी के शब्द का केन्द्रिय भाव एक ही है।

पद्अर्थ: सलोकु: पतित = गिरे हुए, विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। असंख = बेअंत जीव। होहि = हो जाते हैं। अठसठि = अढ़सठ। मसतकि = माथे पर।1।

अर्थ: बेअंत वह विकारी मनुष्य भी पवित्र हो जाते हैं जिनका मन परमात्मा के चरणों में लग जाता है। अढ़सठ तीर्थ परमात्मा का नाम ही है, पर, हे नानक! (ये नाम उसको ही मिलता है) जिसके माथे पर (अच्छे) भाग्य हों।1।

सबदु ॥ सखी सहेली गरबि गहेली ॥ सुणि सह की इक बात सुहेली ॥१॥

पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गहेली = ग्रसी हुई। सह की = पति प्रभु की। सुहेली = सुखदाई।1।

अर्थ: हे अपने ही रस के गुमान में मस्त सखिए! (हे मेरे कान! हे मेरी जीभ!)। पति-प्रभु की ही महिमा की ही बात सुन (और कर), ये बात सुख देने वाली है।1।

जो मै बेदन सा किसु आखा माई ॥ हरि बिनु जीउ न रहै कैसे राखा माई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मै बेदन = मेरे (दिल की) पीड़ा। आखा = मैं कहूँ। माई = हे माँ! जीउ = जिंद। कैसे = (और कोई) ऐसा (तरीका नहीं) जिससे। राखा = मैं घबराहट से बच सकूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरी) माँ! मैं किसे बताऊँ अपने दिल की पीड़ा? (बेगानी पीड़ा की सार कोई नहीं समझ सकता)। हे माँ! परमात्मा (की याद) के बिना मेरी जिंद रह नहीं सकती। स्मरण के बिना मुझे और कोई तरीका सूझता नहीं जिससे मैं इसको घबराहट से बचा सकूँ।1। रहाउ।

हउ दोहागणि खरी रंञाणी ॥ गइआ सु जोबनु धन पछुताणी ॥२॥

पद्अर्थ: दोहागणि = दुर्भाग्य वाली। खरी = बहुत। रंञाणी = रंजाणी, दुखी। सु जोबन = वह जवानी (जो पति के साथ मिलाती है)। धन = स्त्री।2।

अर्थ: जिस स्त्री का जब वह जोबन गुजर जाता है जो उसको पति से मिल सकता है तब वह पछताती है, (इसी तरह अगर मेरी एक सांस भी प्रभु-मिलाप के बिना गुजरे तो) मैं (अपने आप को) बुरे भाग्यों वाली (समझती हूँ), मैं बड़ी दुखी (होती हूँ)।2।

तू दाना साहिबु सिरि मेरा ॥ खिजमति करी जनु बंदा तेरा ॥३॥

पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। दाना = (मेरे) दिल की जानने वाला। सिरि = सिर पर। खिजमति = ख़िदमति, सेवा

(नोट: अरबी शब्दों में ‘ज़’ और ‘द’ उच्चारण में कई बार एक-दूसरे के लिए प्रयोग होते हैं; जैसे ‘काज़ी’ और ‘कादी’; ‘नज़रि’ और ‘नदरि’; ‘काज़ियां’ और ‘कादियां’)।

करी = मैं करूँ। बंदा = गुलाम।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू मेरे सिर पर मालिक है, तू मेरे दिल की जानता है (मेरी तमन्ना है कि) तेरी चाकरी करता रहूँ, मैं तेरा दास बना रहूँ, मैं तेरा गुलाम बना रहूँ।3।

भणति नानकु अंदेसा एही ॥ बिनु दरसन कैसे रवउ सनेही ॥४॥५॥

पद्अर्थ: भणति = कहता है। अंदेसा = फिक्र, तौखला, चिन्ता। कैसे = (कोई) ऐसा (तरीका हो) जिससे। रवउ = मैं मिल सकूँ। सनेही = स्नेह करने वाला प्रभु, प्यारे प्रभु को।4।

अर्थ: नानक कहता है: मुझे यही चिन्ता रहती है कि मैं कहीं परमात्मा के दर्शनों से वंचित ही ना रह जाऊँ। कोई ऐसा तरीका हो जिससे मैं उस प्यारे प्रभु से मिल सकूँ।4।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh