श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1045 लख चउरासीह जीअ उपाए ॥ गिआनी धिआनी आखि सुणाए ॥ सभना रिजकु समाहे आपे कीमति होर न होई हे ॥२॥ पद्अर्थ: जीअ = जीव। आखि = कह के। समाहे = पहुँचाता है। आपे = आप ही। होर = किसी और तरफ से। कीमति = मूल्य।2। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! (उस परमात्मा ने ही) चौरासी लाख जूनियों के जीव पैदा किए हैं। समझदार मनुष्य और समाधियाँ लगाने वाले भी (यही बात) कह के सुना गए हैं। वह परमात्मा खुद ही सब जीवों को रिज़क पहुँचाता है। उस परमात्मा के बराबर की और कोई हस्ती नहीं है।2। माइआ मोहु अंधु अंधारा ॥ हउमै मेरा पसरिआ पासारा ॥ अनदिनु जलत रहै दिनु राती गुर बिनु सांति न होई हे ॥३॥ पद्अर्थ: अंधु अंधारा = घोर अंधेरा। हउमै मेरा पासारा = अहंकार और ममता का पसारा। अनदिनु = हर रोज। जलत रहै = जलता रहता है।3। अर्थ: हे भाई! (जगत में हर जगह) माया का मोह (भी प्रबल) है, (मोह के कारण जगत में) घोर अंधेरा बना हुआ है। (हर तरफ) अहंकार और ममता का पसारा पसरा हुआ है। जगत हर वक्त दिन-रात (तृष्णा की आग में) जल रहा है। गुरु की शरण के बिना शांति प्राप्त नहीं होती।3। आपे जोड़ि विछोड़े आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ सचा हुकमु सचा पासारा होरनि हुकमु न होई हे ॥४॥ पद्अर्थ: थापि = पैदा करके। उथापै = नाश करता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। होरनि = किसी और तरफ से।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) जोड़ के (यहाँ परिवारों में इकट्ठे करके) खुद ही (इनको आपस से) विछोड़ देता है। आप ही पैदा करके आप ही नाश करता है। हे भाई! परमात्मा का हुक्म अटल है, (उसके हुक्म में पैदा हुआ यह) जगत-पसारा भी सच-मुच अस्तित्व वाला है। किसी और द्वारा (ऐसा) हुक्म नहीं चलाया जा सकता।4। आपे लाइ लए सो लागै ॥ गुर परसादी जम का भउ भागै ॥ अंतरि सबदु सदा सुखदाता गुरमुखि बूझै कोई हे ॥५॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) आप ही। सो = वह मनुष्य। परसादी = कृपा से। जम = मौत। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। कोई = विरला।5। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, वह मनुष्य (प्रभु की भक्ति में) लगता है। गुरु की कृपा से (उसके अंदर से) मौत का डर दूर हो जाता है। उसके अंदर सदा आत्मिक आनंद देने वाला गुरु-शब्द बसा रहता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला ही कोई मनुष्य (इस भेद को) समझता है।5। आपे मेले मेलि मिलाए ॥ पुरबि लिखिआ सो मेटणा न जाए ॥ अनदिनु भगति करे दिनु राती गुरमुखि सेवा होई हे ॥६॥ पद्अर्थ: मेलि = (गुरु से) मिला के। पुरबि = पूर्बले जनम में। सो = वह लेख। अनदिनु = हर रोज। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। सेवा = भक्ति।6। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (पूर्बले लिखे अनुसार जीव को गुरु-चरणों में) जोड़ के (अपने साथ) मिलाता है। पूर्बले किए कर्मों के अनुसार जो लेख (माथे पर) लिखा जाता है, वह (जीव से) मिटाया नहीं जा सकता। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भक्ति करता है, गुरु की शरण पड़ने से ही भक्ति हो सकती है।6। सतिगुरु सेवि सदा सुखु जाता ॥ आपे आइ मिलिआ सभना का दाता ॥ हउमै मारि त्रिसना अगनि निवारी सबदु चीनि सुखु होई हे ॥७॥ पद्अर्थ: सेवि = सेव के, शरण पड़ कर। जाता = पहचान लिया, सांझ डाल ली। आइ = आ के। मारि = मार के। निवारी = दूर कर ली। चीनि = पहचान के।7। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर सदा आत्मिक आनंद पाया जा सकता है, सबको दातें देने वाला प्रभु भी (गुरु की शरण पड़ने से) आप ही आ मिलता है। (गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार मार के तृष्णा की आग बुझा लेता है। हे भाई! गुरु के शब्द को पहचान के ही सुख मिल सकता है।7। काइआ कुट्मबु मोहु न बूझै ॥ गुरमुखि होवै त आखी सूझै ॥ अनदिनु नामु रवै दिनु राती मिलि प्रीतम सुखु होई हे ॥८॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कुटंबु = परिवार। अखी = आँखों से। सूझै = सूझता है, दिख जाता है। रवै = स्मरण करता है। मिलि = मिल के।8। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को) शरीर का मोह (ग्रस रहा है) परिवार (का मोह ग्रस रहा है) (वह मनुष्य आत्मिक जीवन की खेल को) नहीं समझता। अगर मनुष्य गुरु की शरण पड़ जाए, तो इसको इन आँखों से सब कुछ दिखाई दे जाता है। वह मनुष्य हर वक्त दिन रात परमात्मा का नाम जपने लग जाता है, प्रीतम प्रभु को मिल के उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।8। मनमुख धातु दूजै है लागा ॥ जनमत की न मूओ आभागा ॥ आवत जात बिरथा जनमु गवाइआ बिनु गुर मुकति न होई हे ॥९॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। धातु = माया। दूजै = माया (के प्यार) में। जनमत = पैदा होते ही। की न = क्यों ना? आभागा = बद नसीब। आवत जात = पैदा होते मरते। मुकति = (जनम मरन के चक्कर में से) मुक्ति।9। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को माया (ग्रसे रखती है, वह मनुष्य) माया (के आहर) में व्यस्त रहता है। पर वह बदनसीब पैदा होते ही क्यों ना मर गया? वह जनम-मरण के चक्करों में पड़ा हुआ व्यर्थ जनम गवा जाता है। गुरु के बिना (इस चक्कर में से) खलासी नहीं होती।9। काइआ कुसुध हउमै मलु लाई ॥ जे सउ धोवहि ता मैलु न जाई ॥ सबदि धोपै ता हछी होवै फिरि मैली मूलि न होई हे ॥१०॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कुसुध = अपवित्र। सउ = सौ बार। धोवहि = धोते रहें। सबदि = शब्द से। धोपै = धोई जाए। मूलि न = बिल्कुल नहीं।10। अर्थ: हे भाई! वह शरीर अपवित्र है जिसको अहंकार की मैल लगी हुई है। अगर (ऐसे शरीर को तीर्थों आदि पर लोग) सौ-सौ बार भी धोते रहें, तो भी इसकी मैल दूर नहीं होती। (यदि मनुष्य का हृदय) गुरु के शब्द से धोया जाए, तो शरीर पवित्र हो जाता है, दोबारा शरीर (अहंकार की मैल से) कभी गंदा नहीं होता।10। पंच दूत काइआ संघारहि ॥ मरि मरि जमहि सबदु न वीचारहि ॥ अंतरि माइआ मोह गुबारा जिउ सुपनै सुधि न होई हे ॥११॥ पद्अर्थ: पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। संघारहि = नाश करते रहते हैं। मरि = मर के। मरि मरि = मर मर के, बार बार मर के। जंमहि = पैदा होते हैं। वीचारहि = (बहुवचन) विचारते। गुबारा = अंधेरा। सुधि = सूझ।11। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने मन में नहीं बसाते, कामादिक पाँचों वैरी उनके शरीर को गलाते रहते हैं; और वे जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। उनके अंदर माया के मोह का अंधेरा पड़ा रहता है, उनको अपने आप की सूझ नहीं होती, वे ऐसे हैं जैसे सपने में हैं।11। इकि पंचा मारि सबदि है लागे ॥ सतिगुरु आइ मिलिआ वडभागे ॥ अंतरि साचु रवहि रंगि राते सहजि समावै सोई हे ॥१२॥ पद्अर्थ: इकि = कई। मारि = मार के। सबदि = शब्द में। आइ = आ के। अंतरि = हृदय में। साचु = सदा स्थिर प्रभु। रवहि = स्मरण करते हैं। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समावै = लीन हो जाता है। सोई = वही मनुष्य।12। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! कई ऐसे भाग्यशाली हैं, जिनको गुरु आ मिला है, वे कामादिक पाँचों को मार के गुरु के शब्द में लीन रहते हैं; अपने हृदय में सदा-स्थिर प्रभु को याद करते रहते हैं, वे प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। (हे भाई! जो मनुष्य प्रेम-रंग में रंगा जाता है) वही आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।12। गुर की चाल गुरू ते जापै ॥ पूरा सेवकु सबदि सिञापै ॥ सदा सबदु रवै घट अंतरि रसना रसु चाखै सचु सोई हे ॥१३॥ पद्अर्थ: चाल = जीवन चाल, जीवन जुगति। ते = से। जापै = सीखी जा सकती है। सबदि = शब्द से, शब्द में जुड़ने से ही। सिञापै = पहचाना जाता है। रवै = बसाए रखता है। घट अंतरि = हृदय में। रसना = जीभ से। रसु सचु = सदा स्थिर रस, सदा स्थिर नाम रस। चाखै = चखता है (एकवचन)।13। अर्थ: हे भाई! गुरु वाली जीवन-जुगति गुरु से ही सीखी जा सकती है। गुरु के शब्द में जुड़ा हुआ मनुष्य ही पूरन सेवक पहचाना जाता है; वही मनुष्य अपनी जीभ से सदा-स्थिर नाम-रस चखता रहता है और अपने हृदय में गुरु का शब्द सदा बसाए रखता है।13। हउमै मारे सबदि निवारे ॥ हरि का नामु रखै उरि धारे ॥ एकसु बिनु हउ होरु न जाणा सहजे होइ सु होई हे ॥१४॥ पद्अर्थ: मारे = समाप्त कर देता है। सबदि = शब्द से। निवारे = स्वै भाव दूर करता है। उरि = हृदय में। रखै धारे = टिकाए रखता है। हउ = मैं। जाणा = मैं जानता। सहजे = अडोलता में, रज़ा में ही।14। अर्थ: हे भाई! (पूर्ण सेवक) गुरु के शब्द के माध्यम से अपने अहंकार को मार मुकाता है, स्वै भाव को दूर कर देता है, और परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाए रखता है। (पूर्ण सेवक यही यकीन रखता है:) एक परमात्मा के बिना मैं किसी और को (उस जैसा) नहीं समझता, जो कुछ उसकी रज़ा में हो रहा है वही ठीक हो रहा है।14। बिनु सतिगुर सहजु किनै नही पाइआ ॥ गुरमुखि बूझै सचि समाइआ ॥ सचा सेवि सबदि सच राते हउमै सबदे खोई हे ॥१५॥ पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। किनै = किसी ने भी। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सेवि = स्मरण करके। सबदि सच = सच्चे शब्द में, सदा स्थिर की महिमा की वाणी मैं। राते = मस्त। सबदे = शब्द द्वारा ही।15। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण के बिना किसी मनुष्य ने आत्मिक अडोलता प्राप्त नहीं की। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही इसको समझता है और सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु की वाणी में रति हुए मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण कर के गुरु के शब्द के द्वारा ही अहंकार दूर कर लेते हैं।15। आपे गुणदाता बीचारी ॥ गुरमुखि देवहि पकी सारी ॥ नानक नामि समावहि साचै साचे ते पति होई हे ॥१६॥२॥ पद्अर्थ: आपे = (तू) स्वयं ही। बीचारी = विचार के, योग्य समझ के। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। देवहि = तू देता है। पकी सारी = पक्की नर्दें, जीवन खेल में माहिर। नामि साचै = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। समावहि = लीन रहते हैं। ते = से। पति = इज्जत।16। अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही (योग्य पात्र) विचार के (जीवों को अपने) गुणों की दाति देने वाला है; जिन्हें तू गुरु के द्वारा (अपने गुणों की दाति) देता है वे इस जीवन-खेल में माहिर हो जाते हैं। हे नानक1 वह मनुष्य नाम में लीन रहते हैं, सदा-स्थिर प्रभु से ही उनको (लोक-परलोक की) इज्जत मिलती है।16।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |