श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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से वडभागी जिनी एको जाता ॥ घटि घटि वसि रहिआ जगजीवनु दाता ॥ इक थै गुपतु परगटु है आपे गुरमुखि भ्रमु भउ जाई हे ॥१५॥

पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। जिनी = जिन्होंने। एको जाता = एक परमात्मा को ही (व्यापक) जाना है। घटि घटि = हरेक शरीर में। इकथै = किसी जगह में। गुपतु = छुपा हुआ। आपे = प्रभु स्वयं ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से।15।

अर्थ: हे भाई! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जिन्होंने उस एक परमात्मा को (हर जगह) जाना है (जिन्होंने यह समझा है कि) जगत का सहारा दातार हरेक शरीर में बस रहा है। किसी जगह वह छुपा हुआ (बस रहा) है, किसी जगह प्रत्यक्ष दिखा दे रहा है; गुरु के द्वारा (ये निश्चय करके मनुष्य का) भ्रम और डर दूर हो जाता है (फिर ना कोई वैरी दिखता है और ना ही किसी से डर लगता है)।15।

गुरमुखि हरि जीउ एको जाता ॥ अंतरि नामु सबदि पछाता ॥ जिसु तू देहि सोई जनु पाए नानक नामि वडाई हे ॥१६॥४॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। देहि = देता है। नामि = नाम में। वडाई = इज्जत।16।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है उसके अंदर प्रभु का नाम बसता है, वह गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा को (हर जगह) पहचानता है।

हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस मनुष्य को तू अपना नाम देता है, वही मनुष्य तेरा नाम प्राप्त करता है। नाम से उसको (लोक-परलोक की) इज्जत प्राप्त होती है।16।4।

मारू महला ३ ॥ सचु सालाही गहिर ग्मभीरै ॥ सभु जगु है तिस ही कै चीरै ॥ सभि घट भोगवै सदा दिनु राती आपे सूख निवासी हे ॥१॥

पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। सालाही = मैं महिमा करता हूँ। गहिर = गहरा, अथाह। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। कै चीरै = के पल्ले में, के हुक्म में। सभि = सारे। सभि घट भोगवै = सारे शरीरों को भोग रहा है, सारे शरीरों में मौजूद है। आपे = स्वयं ही। सूख निवासी = सुखों का निवास स्थान, सुखों का श्रोत।1।

नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! मैं तो उस अथाह और बड़े जिगरे वाले परमात्मा की महिमा करता हूँ जो सदा कायम रहने वाला है, सारा जगत जिस के हुक्म में चल रहा है, जो सारे शरीर में मौजूद है और जो खुद ही सारे सुखों का श्रोत है।1।

सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ आपे आइ वसिआ घट अंतरि तूटी जम की फासी हे ॥२॥

पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। सची = सदा कायम रहने वाली। नाई = (स्ना) महिमा, बड़ाई। परसादी = कृपा से। मंनि = मन में। वसाई = बसाया जाता है। घट अंतरि = हृदय में। जम की फासी = मौत का फंदा, जनम मरण का चक्कर।2।

अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसकी महिमा भी सदा कायम रहने वाली है। गुरु की कृपा से उसको मन में बसाया जा सकता है। जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु खुद ही (मेहर कर के) आ बसता है, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।2।

किसु सेवी तै किसु सालाही ॥ सतिगुरु सेवी सबदि सालाही ॥ सचै सबदि सदा मति ऊतम अंतरि कमलु प्रगासी हे ॥३॥

पद्अर्थ: सेवी = मैं शरण पड़ू। तै = और। सालाही = मैं सलाहूँ। सबदि = गुरु के शब्द से। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। कमलु = हृदय कमल फूल। प्रगासी = खिला रहता है।3।

अर्थ: (हे भाई! अगर तू पूछे कि) मैं किस की सेवा करता हूँ और किसकी महिमा करता हूँ (तो इसका उक्तर यह है कि) मैं सदा गुरु की शरण पड़ा रहता हूँ और गुरु के शब्द से (परमात्मा की) महिमा करता हूं। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी की इनायत से मनुष्य की बुद्धि सदा श्रेष्ठ रहती है और मनुष्य के अंदर उसका हृदय-कमल फूल खिला रहता है।3।

देही काची कागद मिकदारा ॥ बूंद पवै बिनसै ढहत न लागै बारा ॥ कंचन काइआ गुरमुखि बूझै जिसु अंतरि नामु निवासी हे ॥४॥

पद्अर्थ: देही = शरीर। काची = नाशवान। कागद मिकदारा = कागज़ की तरह। बारा = चिर, समय। कंचन = सोना, सोने की तरह सुंदर अरोग्य। काइआ = काया। गुरमुखि = गुरु से।4।

अर्थ: हे भाई! मनुष्य का ये सारा शरीर कागज़ की तरह नाशवान है, (जैसे कागज़ के ऊपर पानी की एक) बूँद पड़ जाए तो (कागज़) गल जाता है (इसी तरह इस शरीर का) नाश होते हुए भी देर नहीं लगती। पर जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के (सही जीवन-राह) समझ लेता है जिस के अंदर परमात्मा का नाम बस जाता है, उसका ये शरीर (विकारों से बचा रह के) शुद्ध सोना बना रहता है।4।

सचा चउका सुरति की कारा ॥ हरि नामु भोजनु सचु आधारा ॥ सदा त्रिपति पवित्रु है पावनु जितु घटि हरि नामु निवासी हे ॥५॥

पद्अर्थ: सचा = सदा (पवित्र) रहने वाला। कारा = लकीरें। भोजनु = खुराक। सचु = सदा स्थिर प्रभु। आधारा = आसरा, सहारा। त्रिपति = तृप्ति, संतोख। पावनु = पवित्र। जितु = जिस में। घटि = हृदय में। जितु घटि = जिस हृदय में।5।

अर्थ: हे भाई! जिस हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, वह हृदय (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहता है उसका हृदय सदा पवित्र है, वह हृदय ही सदा (स्वच्छ) रहने वाला चौका है, प्रभु-चरणों में बनी हुई लगन उस चौके की लकीरें हैं (जो विकारों को, बाहर से आ के चौके को भ्रष्ट करने से अपवित्र करने से रोकते हैं)। ऐसे हृदय की खुराक परमात्मा का नाम है, सदा स्थिर परमात्मा ही उस हृदय की खुराक है।5।

हउ तिन बलिहारी जो साचै लागे ॥ हरि गुण गावहि अनदिनु जागे ॥ साचा सूखु सदा तिन अंतरि रसना हरि रसि रासी हे ॥६॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। तिन = उनसे। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। गावहि = (बहुवचन) गाते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागे = जाग हुए, (माया के हमलों की ओर से) सचेत रह के। अंतरि = अंदर। रसना = जीभ। रसि = रस में। रासी = रसी हुई, भीगी हुई।6।

अर्थ: हे भाई! मैं उन मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा में जुड़े रहते हैं, जो हर वक्त (माया के हमलों से) सचेत रह के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं। उनके अंदर सदा टिके रहने वाला आनंद बना रहता है, उनकी जीभ नाम-रस में रसी रहती है।6।

हरि नामु चेता अवरु न पूजा ॥ एको सेवी अवरु न दूजा ॥ पूरै गुरि सभु सचु दिखाइआ सचै नामि निवासी हे ॥७॥

पद्अर्थ: चेता = मैं याद करता हूँ। पूजा = पूजूँ, मैं पूजा करता हूँ। सेवी = सेवा करूँ। पूरे गुरि = पूरे गुरु ने। सभु = हर जगह। सचै नामि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में।7।

अर्थ: हे भाई! मैं तो परमात्मा का नाम ही सदा याद करता हूँ, मैं किसी और की पूजा नहीं करता। मैं एक परमात्मा की ही सेवा-भक्ति करता हूँ, किसी और दूसरे की सेवा मैं नहीं करता। हे भाई! (जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने सदा कायम रहने वाला हरि परमात्मा हर जगह दिखा दिया, वह सदा-स्थिर प्रभु के नाम में लीन रहता है।7।

भ्रमि भ्रमि जोनी फिरि फिरि आइआ ॥ आपि भूला जा खसमि भुलाइआ ॥ हरि जीउ मिलै ता गुरमुखि बूझै चीनै सबदु अबिनासी हे ॥८॥

पद्अर्थ: भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। फिरि फिरि = बार बार। खसमि = पति ने। भूला = गलत राह पर पड़ गया। भुलाइआ = गलत रास्ते पर डाल दिया। जा = जब। ता = तब। गुरमुखि = गुरु से। चीनै = परखता है।8।

अर्थ: हे भाई! जीव भटक-भटक के बार-बार जूनियों में पड़ा रहता है, (जीव के भी क्या वश?) जब मालिक प्रभु ने इसे गलत राह पर डाल दिया, तो ये जीव भी भटक गया। हे भाई! जब परमात्मा इसको मिलता है (इस पर दया करता है) तब गुरु की शरण पड़ कर ये (सही जीवन-राह) समझता है, तब अविनाशी प्रभु की महिमा की वाणी को (अपने हृदय में) तोलता है।8।

कामि क्रोधि भरे हम अपराधी ॥ किआ मुहु लै बोलह ना हम गुण न सेवा साधी ॥ डुबदे पाथर मेलि लैहु तुम आपे साचु नामु अबिनासी हे ॥९॥

पद्अर्थ: कामि = काम (के कीचड़) से। क्रोधि = क्रोध (के कीचड़) से। भरे = लिबड़े हुए। अपराधी = भूलनहार। बोलह = हम बोलें। लै = लेकर। किआ मुहु लै = कौन से मुँह ले के? किस मुँह से? बाधी = की। तुम आपे = तूने खुद ही। साचु = सदा स्थिर।9।

अर्थ: हे प्रभु! हम भूलनहार जीव काम-क्रोध (के कीचड़) से लिबड़े रहते हैं। तेरे आगे अर्ज करते हुए ही शर्म आती है। ना हमारे अंदर कोई गुण हैं, ना हमने कोई सेवा- भक्ति की है। (पर तू सदा दयालु है, मेहर कर) तू खुद हम डूब रहे पत्थरों को (विकारों में डूब रहे पत्थर-दिलों को) अपने नाम में लगा ले। तेरा नाम ही सदा अटल है और नाश रहित है।9।

ना कोई करे न करणै जोगा ॥ आपे करहि करावहि सु होइगा ॥ आपे बखसि लैहि सुखु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१०॥

पद्अर्थ: करणै जोगा = कर सकने की सामर्थ्य वाला। आपे करहि = तू खुद ही करता है। बखसि लैहि = जिस पर तू दयावान होता है। नामि = नाम में। निवासी = निवास रखने वाला।10।

अर्थ: हे प्रभु! (तेरी प्रेरणा के बिना) कोई भी जीव कुछ नहीं कर सकता, करने की सामर्थ्य भी नहीं रखता। जगत में वही कुछ हो सकता है जो तू खुद ही करता है और (जीवों से) करवाता है। जिस मनुष्य पर तू ही दयावान होता है, वह आत्मिक आनंद पाता है और सदा ही तेरे नाम में लीन रहता है।10।

इहु तनु धरती सबदु बीजि अपारा ॥ हरि साचे सेती वणजु वापारा ॥ सचु धनु जमिआ तोटि न आवै अंतरि नामु निवासी हे ॥११॥

पद्अर्थ: सबदु अपारा = बेअंत प्रभु की महिमा (का बीज)। बीज = (क्रिया)। सेती = साथ। सचु धनु = सदा कायम रहने वाला (नाम-) धन। जंमिआ = उग पड़ा, पैदा हो गया। तोटि = कमी। अंतरि = अंदर।11।

अर्थ: हे भाई! (अपने) इस शरीर को धरती बना, इस में बेअंत प्रभु की महिमा के बीज डाल। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ ही (उसके नाम का) वणज-व्यापार किया कर। (इस तरह) सदा कायम रहने वाला (नाम-) धन पैदा होता है, उसमें कभी कमी नहीं होती। (जो मनुष्य यह उद्यम करता है, उसके) अंदर परमात्मा का नाम सदा बसा रहता है।11।

हरि जीउ अवगणिआरे नो गुणु कीजै ॥ आपे बखसि लैहि नामु दीजै ॥ गुरमुखि होवै सो पति पाए इकतु नामि निवासी हे ॥१२॥

पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु! नो = को। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। सो = वह मनुष्य। पति = इज्जत। इकतु = एक में। नामि = नाम में। इकतु नामि = सिर्फ एक नाम में।12।

अर्थ: हे प्रभु जी! गुण-हीन जीव में गुण पैदा कर, तू स्वयं ही मेहर कर और इसको अपना नाम बख्श। हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वह (लोक-परलोक में) इज्जत कमाता है; वह सदा प्रभु के नाम में लीन रहता है।12।

अंतरि हरि धनु समझ न होई ॥ गुर परसादी बूझै कोई ॥ गुरमुखि होवै सो धनु पाए सद ही नामि निवासी हे ॥१३॥

पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। परसादी = कृपा से। कोई = कोई विरला। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। पाए = पा लेता है। सद = सदा। नामि = नाम में।13।

अर्थ: हे भाई! हरेक मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम-धन मौजूद है, पर मनुष्य को ये समझ नहीं है। कोई विरला मनुष्य गुरु की कृपा से (यह भेद) समझता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (अपने अंदर यह) धन पा लेता है, फिर वह सदा ही नाम में टिका रहता है।13।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh