श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुरमुखि जाता करमि बिधाता ॥ जुग चारे गुर सबदि पछाता ॥ गुरमुखि मरै न जनमै गुरमुखि गुरमुखि सबदि समाहा हे ॥१०॥

पद्अर्थ: करमि = (प्रभु की) बख्शिश से। करमु = बख्शिश, कृपा। बिधाता जाता = विधाता से सांझ डालता है। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। सबदि समाहा = गुरु के शब्द में लीन रहता है।10।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (प्रभु की) बख्शिश से विधाता प्रभु के साथ सांझ डालता है। हे भाई! चारों युगों में ही गुरु के शब्द के द्वारा ही प्रभु के साथ सांझ बनती है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ता वह गुरु के शब्द में लीन रहता है।10।

गुरमुखि नामि सबदि सालाहे ॥ अगम अगोचर वेपरवाहे ॥ एक नामि जुग चारि उधारे सबदे नाम विसाहा हे ॥११॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। सालाहे = महिमा करता है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। एक नामि = परमात्मा के नाम ने ही। उधारे = विकारों से बचाए हैं, उद्धारे। नाम विसाह = नाम का व्यापार किया जा सकता है।11।

अर्थ: हे भाई! गुरमुख मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ता है, गुरु के शब्द द्वारा अगम अगोचर बेपरवाह प्रभु की महिमा करता है। (हे भाई! गुरमुख जानता है कि) परमात्मा के नाम ने ही चारों युगों के जीवों का पार-उतारा किया है, और गुरु के शब्द से नाम का व्यापार किया जा सकता है।11।

गुरमुखि सांति सदा सुखु पाए ॥ गुरमुखि हिरदै नामु वसाए ॥ गुरमुखि होवै सो नामु बूझै काटे दुरमति फाहा हे ॥१२॥

पद्अर्थ: हिरदे = अपने हृदय में। वसाए = बसाता है। नामु बूझै = नाम के साथ सांझ पाता है। दुरमति = खोटी मति। फाहा = फांसी।12।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सदा आत्मिक ठंड और आत्मिक आनंद पाता है, वह अपने दिल में परमात्मा का नाम बसाए रखता है। हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह हरि के नाम से सांझ पा लेता है।12।

गुरमुखि उपजै साचि समावै ॥ ना मरि जमै न जूनी पावै ॥ गुरमुखि सदा रहहि रंगि राते अनदिनु लैदे लाहा हे ॥१३॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। उपजै = पैदा होता है। साचि = सदा कायम रहे वाले परमात्मा में। मरि = मर के। रहहि = रहते हैं (बहु वचन)। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।13।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उस सदा-स्थिर परमात्मा (की याद) में लीन रहता है जिससे वह पैदा हुआ है, (इसलिए) वह बार-’बार पैदा होता-मरता नहीं, वह जूनियों में नहीं पड़ता। हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे सदा परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, वे हर समय यह लाभ कमाते रहते हैं।13।

गुरमुखि भगत सोहहि दरबारे ॥ सची बाणी सबदि सवारे ॥ अनदिनु गुण गावै दिनु राती सहज सेती घरि जाहा हे ॥१४॥

पद्अर्थ: सोहहि = शोभा पाते हैं, आदर पाते हैं। (बहुवचन)। सच्ची बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी राहीं। सबदि = गुरु के शब्द की इनायत से। गावै = गाता है (एकवचन) सहज = आत्मिक अडोलता। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभु-चरणों में।14।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले भक्त परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं। सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से गुरु के शब्द की इनायत से उनके जीवन सुधर जाते हैं। हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त दिन रात परमात्मा के गुण गाता है, वह आत्मिक अडोलता से प्रभु-चरणों में टिका रहता है (उसका मन बाहर नहीं भटकता)।14।

सतिगुरु पूरा सबदु सुणाए ॥ अनदिनु भगति करहु लिव लाए ॥ हरि गुण गावहि सद ही निरमल निरमल गुण पातिसाहा हे ॥१५॥

पद्अर्थ: भगति = (शब्द ‘भगति’ और ‘भगत’ का फर्क भी याद रखें।) लाए = लगा के। गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। सद = सदा। निरमल = पवित्र जीवन वाले।15।

अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु शब्द सुनाता है (और कहता है कि) हर समय तवज्जो जोड़ के परमात्मा की भक्ति करते रहो। जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाते हैं, प्रभु-पातशाह के पवित्र गुण गाते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।15।

गुण का दाता सचा सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नानक जनु नामु सलाहे बिगसै सो नामु बेपरवाहा हे ॥१६॥२॥११॥

पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। बूझै = समझता है। बिगसै = विगसता है, खिलता है।16।

अर्थ: पर, हे भाई! (अपने) गुणों (के गायन) की दाति देने वाला वह सदा-स्थिर परमात्मा स्वयं ही है। गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य (इस बात को) समझता है।

हे नानक! परमात्मा का जो सेवक परमात्मा के नाम की बड़ाई करता है, बेपरवाह प्रभु का नाम जपता है, वह सदा खिला हुआ रहता है।16।2।11।

मारू महला ३ ॥ हरि जीउ सेविहु अगम अपारा ॥ तिस दा अंतु न पाईऐ पारावारा ॥ गुर परसादि रविआ घट अंतरि तितु घटि मति अगाहा हे ॥१॥

पद्अर्थ: सेविहु = स्मरण किया करो। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। पारावारा = पार+अवारा, इस पार उस पार का किनारा। परसादि = कृपा से। घट अंतरि = जिस हृदय में। तितु घटि = उस हृदय में। अगाहा = अथाह।1।

अर्थ: हे भाई! बेअंत और अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा का स्मरण करते रहा करो। उस (के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, (उसकी हस्ती) उसके इस पार-उस पार का छोर नहीं पाया जा सकता। हे भाई! गुरु की कृपा से जिस हृदय में परमात्मा आ बसता है, उस हृदय में बड़ी ऊँची मति प्रकट हो जाती है।1।

सभ महि वरतै एको सोई ॥ गुर परसादी परगटु होई ॥ सभना प्रतिपाल करे जगजीवनु देदा रिजकु स्मबाहा हे ॥२॥

पद्अर्थ: सभ महि = सब जीवों में। वरतै = मौजूद है। परसादी = कृपा से। प्रतिपाल = पालना। जग जीवनु = जगत का सहारा प्रभु। संबाहा = पहुँचाता है।2।

अर्थ: हे भाई! सिर्फ वह परमात्मा ही सब जीवों में व्यापक है, पर गुरु की कृपा से ही वह प्रकट होता है। वह जगत-का-सहारा प्रभु सब जीवों की पालना करता है, सबको रिजक देता है, सबको रिज़क पहुँचाता है।2।

पूरै सतिगुरि बूझि बुझाइआ ॥ हुकमे ही सभु जगतु उपाइआ ॥ हुकमु मंने सोई सुखु पाए हुकमु सिरि साहा पातिसाहा हे ॥३॥

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। बूझि = (स्वयं) समझ के। बुझाइआ = (जगत को) समझाया है (कि)। हुकमे = (अपने) हुक्म में ही। सिरि = सिर पर।3।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (खुद) समझ के (जगत को) समझाया है कि परमात्मा ने अपने हुक्म में ही सारा जगत पैदा किया है। जो मनुष्य उसके हुक्म को (मीठा करके) मानता है, वही आत्मिक आनंद पाता है। उसका हुक्म शाहों-पातशाहों के सिर पर भी चल रहा है (कोई उससे आकी नहीं हो सकता)।3।

सचा सतिगुरु सबदु अपारा ॥ तिस दै सबदि निसतरै संसारा ॥ आपे करता करि करि वेखै देदा सास गिराहा हे ॥४॥

पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर, अटल। सबदु = (गुरु का) शब्द (उपदेश) भी। अपारा = बहुत गहरा। दै सबदि = के शब्द से। निसतरै = (संसार समुंदर से) निस्तारा पार उतारा हो जाता है। करि = कर के। वेखै = संभाल करता है। सास = श्वास (बहुवचन)। गिराहा = ग्रास, रोजी।4।

नोट: ‘तिस दै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘दै’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! गुरु अभूल है, उसका उपदेश भी बहुत गहरा है। उसके शब्द से जगत (संसार-समुंदर से) पार लांघता है। (गुरु यह बताता है कि) परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके (उनकी) संभाल करता है, (सबको) साँसें (प्राण) भी देता है रोज़ी भी देता है।4।

कोटि मधे किसहि बुझाए ॥ गुर कै सबदि रते रंगु लाए ॥ हरि सालाहहि सदा सुखदाता हरि बखसे भगति सलाहा हे ॥५॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़। मधे = बीच में। किसहि = किसी विरले को। रंगु लाइ = रंग लगा के, प्यार से। सालाहहि = सलाहते हैं। सालाहा = महिमा।5।

नोट: ‘किसहि’ में से ‘किसु’ की ‘ु’ की मात्रा ‘हि’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! करोड़ों में से किसी विरले को (परमात्मा सही आत्मिक जीवन की) सूझ बख्शता है। हे भाई! जो मनुष्य प्यार से गुरु के शब्द में मस्त रहते हैं, और सारे सुखों के दाते हरि की सदा महिमा करते हैं, परमात्मा उनको भक्ति और महिमा की (और) दाति बख्शता है।5।

सतिगुरु सेवहि से जन साचे ॥ जो मरि जमहि काचनि काचे ॥ अगम अगोचरु वेपरवाहा भगति वछलु अथाहा हे ॥६॥

पद्अर्थ: सेवहि = सेवते हैं, शरण पड़ते हैं। साचे = ठहराव भरे जीवन वाले। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं, पैदा होते मरते रहते हैं। काच निकाचे = बिलकुल कच्चे, बहुत कमजोर आत्मिक जीवन वाले। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। अथाहा = अथाह, बहुत गहरा, बेअंत।6।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे अडोल जीवन वाले हो जाते हैं। पर जो जनम-मरण के चक्करों में पड़े हुए हैं, वे बहुत ही कमजोर आत्मिक जीवन वाले हैं। हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) अगोचर बेपरवाह और बेअंत परमात्मा भक्ति से प्यार करता है।6।

सतिगुरु पूरा साचु द्रिड़ाए ॥ सचै सबदि सदा गुण गाए ॥ गुणदाता वरतै सभ अंतरि सिरि सिरि लिखदा साहा हे ॥७॥

पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर हरि नाम। द्रिढ़ाए = (हृदय में) पक्का करता है। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। वरतै = व्यापक (दिखता) है। सिरि सिरि = हरेक (जीव) के सिर पर।7।

अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु जिस मनुष्य के दिल में सदा-स्थिर हरि का नाम पक्का करता है, वह मनुष्य शब्द से सदा स्थिर प्रभु के गुण गाता है, उसे इस तरह दिखता है कि गुण-दाता प्रभु सब जीवों में बस रहा है, और हरेक के सिर पर वह समय (साहा) लिखता है (जब जीवात्मा दुल्हन ने परलोक ससुराल चले जाना है)।7।

सदा हदूरि गुरमुखि जापै ॥ सबदे सेवै सो जनु ध्रापै ॥ अनदिनु सेवहि सची बाणी सबदि सचै ओमाहा हे ॥८॥

पद्अर्थ: हदूरि = अंग संग। जापै = प्रतीत होता है। सबदे = शब्द से। ध्रापै = (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। सची बाणी = महिमा की वाणी से। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी से। ओमाहा = खिलाव, आनंद।8।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा अंग-संग बसता दिखता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द से सेवा-भक्ति करता है वह मनुष्य (माया की तृष्णा से) तृप्त रहता है। हे भाई! जो मनुष्य महिमा वाली वाणी के द्वारा हर वक्त परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हैं, शब्द की इनायत से उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।8।

अगिआनी अंधा बहु करम द्रिड़ाए ॥ मनहठि करम फिरि जोनी पाए ॥ बिखिआ कारणि लबु लोभु कमावहि दुरमति का दोराहा हे ॥९॥

पद्अर्थ: अगिआनी = (आत्मिक जीवन से) बेसमझ मनुष्य। अंधा = (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य। बहु करम = (तीर्थ स्नान आदि) अनेक (निहित धार्मिक) कर्म। द्रिढ़ाए = जोर देता है। हठि = हठ से। बिखिआ = माया। कारणि = की खातिर। दोराहा = दो रास्तों का मेल (जहाँ ये पता ना लग सके कि असल रास्ता कौन सा है), दुचिक्तापन। दुरमति = खोटी मति।9।

अर्थ: हे भाई! (आत्मिक जीवन से) बेसमझ (और माया के मोह में) अंधा (हुआ) मनुष्य (हरि-नाम भुला के तीर्थ-स्नान आदि और-और ही) अनेक (निहित हुए धार्मिक) कर्मों पर जोर देता है। पर जो मनुष्य मन के हठ से (ऐसे) कर्म (करता रहता है, वह) बार-बार जूनियों में पड़ता है। हे भाई! जो मनुष्य माया (कमाने) की खातिर लब-लोभ (को चमकाने वाले) कर्म करते हैं, उनकी जीवन-यात्रा में खोटी मति का दु-चिक्ता-पन आ जाता है।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh