श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1090 पउड़ी ॥ दोवै तरफा उपाईओनु विचि सकति सिव वासा ॥ सकती किनै न पाइओ फिरि जनमि बिनासा ॥ गुरि सेविऐ साति पाईऐ जपि सास गिरासा ॥ सिम्रिति सासत सोधि देखु ऊतम हरि दासा ॥ नानक नाम बिना को थिरु नही नामे बलि जासा ॥१०॥ नोट: देखें मलार की वार महला १ पउड़ी नं: 5। गुरु अमरदास जी ने ये ख्याल वहाँ से लिया है। पद्अर्थ: दोवै तरफा = (देखें पौड़ी नं: 6,7,8,9) मन को जीतने वाले शूरवीर और माया की खातिर लड़ने वाले, ये दानों पक्ष। विचि = (इस सृष्टि में)। सकति = माया। सिव = आत्मा। गिरासा = ग्रास। सास गिरासा = (भाव,) खाते पीते। अर्थ: इस सृष्टि में माया और आत्मा (दानों का) वास है (इनके असर तले कोई अहंकार में दूसरों से लड़ते हैं और कोई नाम के धनी हैं) ये दोनों पक्ष प्रभु ने खुद बनाए हैं। माया के असर में रह के किसी ने (रब) नहीं पाया, बार-बार पैदा होता मरता है। पर गुरु के हुक्म में चलने से खाते-पीते नाम-जप के (हृदय में) ठंढ पड़ती है। (हे भाई!) स्मृतियाँ और शास्त्र (आदि सारे धार्मिक-पुस्तकों को बेशक) खोज के देख लो, अच्छे मनुष्य वे हैं जो प्रभु के सेवक हैं। हे नानक! ‘नाम’ के बिना कोई वस्तु स्थिर रहने वाली नहीं; मैं सदके हूँ प्रभु के नाम से।10। सलोकु मः ३ ॥ होवा पंडितु जोतकी वेद पड़ा मुखि चारि ॥ नव खंड मधे पूजीआ अपणै चजि वीचारि ॥ मतु सचा अखरु भुलि जाइ चउकै भिटै न कोइ ॥ झूठे चउके नानका सचा एको सोइ ॥१॥ पद्अर्थ: जोतकी = ज्योतिषी। मुखि = मुँह से (भाव,) जबानी। नव खंड = धरती के नौ ही खंडों में, सारी धरती पर। पूजीआ = पूजा जाऊँ। चजि = आचरण के कारण। वीचारि = (अच्छी) विचार बुद्धि के कारण। मतु भुलि जाइ = कहीं भूल ना जाए। भिटै = छू जाए, अपवित्र हो जाए। सचा अखरु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। चउकै = चौके में। झूठे = नाशवान। सदा = सदा स्थिर। सोइ = वह प्रभु ही।1। अर्थ: हे भाई! अगर मैं (धर्म-पुस्तकों का) विचारवान बन जाऊँ, ज्योतिषी बन जाऊँ, चारों वेद मुँह-ज़बानी पढ़ सकूँ; अगर अपने आचरण के कारण अपनी सद्-बुद्धि के कारण सारी ही धरती पर मेरी इज्जत हो; (अगर मैं बहुत स्वच्छता रखूँ कि) कहीं कोई (नीची जाति वाला मनुष्य मेरे) चौके को अपवित्र ना कर दे (तो यह सब कुछ व्यर्थ ही है)। हे नानक! सारे चौके नाशवान हैं, सदा कायम रहने वाला सिर्फ परमात्मा का नाम ही है (ध्यान इस बात का रखना चाहिए कि) कहीं सदा कायम रहने वाला हरि-नाम (मन से) भूल ना जाए।1। मः ३ ॥ आपि उपाए करे आपि आपे नदरि करेइ ॥ आपे दे वडिआईआ कहु नानक सचा सोइ ॥२॥ अर्थ: प्रभु स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है (सब कारज) स्वयं ही करता है, स्वयं ही (जीवों पर) मेहर की नजर करता है, स्वयं ही वडिआईयां देता है; कह, हे नानक! वह सदा कायम रहने वाला प्रभु स्वयं ही (सब कुछ करने के समर्थ) है।2। पउड़ी ॥ कंटकु कालु एकु है होरु कंटकु न सूझै ॥ अफरिओ जग महि वरतदा पापी सिउ लूझै ॥ गुर सबदी हरि भेदीऐ हरि जपि हरि बूझै ॥ सो हरि सरणाई छुटीऐ जो मन सिउ जूझै ॥ मनि वीचारि हरि जपु करे हरि दरगह सीझै ॥११॥ पद्अर्थ: कंटकु = काँटा। कालु = मौत, मौत का सहम। अफरिओ = अमोड़, जिसके रास्ते पर कोई रोक ना लगा सके। लूझै = अड़ता है, झगड़ता है। भेदीऐ = भेदा जाए। अर्थ: (मनुष्य के लिए) मौत (का डर ही) एक (ऐसा) काँटा है (जो हर वक्त दिल में चुभता है) कोई और काँटा (भाव, सहम) इस जैसा नहीं है। (यह मौत) सारे जगत में बरत रही है कोई इसको रोक नहीं सकता, (मौत का सहम) विकारी बंदों को (विशेष तौर पर) अड़ाता है (भाव, दबा के रखता है)। जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द से प्रभु के नाम में परोया जाता है जो अपने मन के साथ टकराव बनाता है वह स्मरण करके (अस्लियत को) समझ लेता है और वह प्रभु की शरण पड़ कर (मौत के सहम से) बच जाता है। जो मनुष्य अपने मन में (प्रभु के गुणों की) विचार करके बँदगी करता है वह प्रभु की हजूरी में स्वीकार होता है।11। सलोकु मः १ ॥ हुकमि रजाई साखती दरगह सचु कबूलु ॥ साहिबु लेखा मंगसी दुनीआ देखि न भूलु ॥ दिल दरवानी जो करे दरवेसी दिलु रासि ॥ इसक मुहबति नानका लेखा करते पासि ॥१॥ पद्अर्थ: साखती = बनावट, प्रभु के साथ जोड़। दरवानी = रक्षा, चौकीदारी। दिलु रासि = दिल को सीधे रास्ते पर रखना। रजाई = रजा के मालिक परमात्मा। अर्थ: परमात्मा के हुक्म में चलने से परमात्मा से बन जाती है, प्रभु की हजूरी में सच (भाव, स्मरण) स्वीकार है। हे भाई! दुनिया को देख के (स्मरण को भूलने की) गलती ना खा, मालिक (तेरे कर्मों का) लेखा माँगेगा। जो मनुष्य दिल की रक्षा करता है, दिल को सीधे राह पर रखने की फकीरी कमाता है, हे नानक! उसके प्यार मुहब्बत का हिसाब कर्तार के पास है (भाव, प्रभु उसके प्यार को जानता है)।1। मः १ ॥ अलगउ जोइ मधूकड़उ सारंगपाणि सबाइ ॥ हीरै हीरा बेधिआ नानक कंठि सुभाइ ॥२॥ पद्अर्थ: अलगउ = अलग, निर्लिप। जोइ = देखता है, निहारता है। मधूकड़उ = मधुकर, भौरा। (नोट: ‘मधूकड़उ’ का अर्थ ‘मधूकड़ी, जगह-जगह से माँगे हुए टूकड़े’ करना गलत है; ‘भौरे की तरह फकीर जगह-जगह से सार ग्रहण करने वाला’, इस अर्थ में भी मांग खाने की झलक पड़ती है; पर, गुरु नानक देव जी ने मंगतों का टोला पैदा नहीं किया। यहाँ भौरे की निर्लिपता का गुण ही लिया गया है, जैसे पिछले शलोक में ‘दिल दरवानी’ है)। कंठि = गले से, गले में। हीरा = आत्मा। सारंगपाणि = जिसके हाथ में सारंग धनुष है, परमात्मा। सबाइ = हर जगह। अर्थ: (जो जीव-) भौरा निर्लिप रह कर हर जगह परमात्मा को देखता है, जिसकी आत्मा परमात्मा में परोई हुई है, हे नानक! वह प्रभु-प्रेम के द्वारा प्रभु के गले से (लगा हुआ) है।2। पउड़ी ॥ मनमुख कालु विआपदा मोहि माइआ लागे ॥ खिन महि मारि पछाड़सी भाइ दूजै ठागे ॥ फिरि वेला हथि न आवई जम का डंडु लागे ॥ तिन जम डंडु न लगई जो हरि लिव जागे ॥ सभ तेरी तुधु छडावणी सभ तुधै लागे ॥१२॥ अर्थ: मन के गुलाम मनुष्य माया के मोह में मस्त रहते हैं, उनको मौत (का सहम) दबाए रखता है। जो मनुष्य माया के मोह में लूटे जा रहे हैं उनको (ये सहम) पल में मार के नाश करता है। जिस वक्त मौत का डंडा आही बजता है (मौत सिर पर आ जाती है) तब (इस मोह में से निकलने के लिए) समय नहीं मिलता। जो मनुष्य परमात्मा की याद में सचेत रहते हैं उनको जम का डंडा नहीं लगता (सहम नहीं मारता)। हे प्रभु! सारी सृष्टि तेरी ही है, तूने इसे माया के मोह से छुड़वाना है, सभी का तू ही आसरा है।12। सलोकु मः १ ॥ सरबे जोइ अगछमी दूखु घनेरो आथि ॥ कालरु लादसि सरु लाघणउ लाभु न पूंजी साथि ॥१॥ पद्अर्थ: सरबे = सारी सृष्टि। जोइ = देखता है (पौड़ी नं: 12 और 14 में भी यह शब्द ‘जोइ’ जोय आता है, वाणी भी गुरु नानक देव जी की है इसका अर्थ है ‘देखता है’) अगछमी = ना नाश होने वाली। आथि = है। सरु = सरोवर, सागर। लाभु = कमाई। पूंजी = राशि, मूल। अर्थ: (जो मनुष्य) सारी सृष्टि को ना नाश होने वाली देखता है उसे बड़ा दुख (व्यापता है), वह (मानो) कल्लर लाद रहा है (पर उसने) समुंदर पार लांघना है, उसके पल्ले ना मूल है ना कमाई।1। मः १ ॥ पूंजी साचउ नामु तू अखुटउ दरबु अपारु ॥ नानक वखरु निरमलउ धंनु साहु वापारु ॥२॥ अर्थ: (जिस मनुष्य के पास) प्रभु का नाम पूंजी है, जिस के पास (हे प्रभु!) तू ना समाप्त होने वाला और बेअंत धन है, जिसके पास ये पवित्र सौदा है, हे नानक! वह शाह धन्य है और उसका किया हुआ व्यापार धन्य है।2। मः १ ॥ पूरब प्रीति पिराणि लै मोटउ ठाकुरु माणि ॥ माथै ऊभै जमु मारसी नानक मेलणु नामि ॥३॥ पद्अर्थ: पिराणि = पहचान। माणि = भाव, स्मरण कर। माथै उभै = मुँह भार। अर्थ: (हे जीव!) प्रभु के साथ प्राथमिक मूल प्रीति को पहचान, उस बड़े मालिक को याद कर। हे नानक! प्रभु के नाम में जुड़ना जम को (भाव, मौत के सहम को) मुँह-भार मारता है।3। पउड़ी ॥ आपे पिंडु सवारिओनु विचि नव निधि नामु ॥ इकि आपे भरमि भुलाइअनु तिन निहफल कामु ॥ इकनी गुरमुखि बुझिआ हरि आतम रामु ॥ इकनी सुणि कै मंनिआ हरि ऊतम कामु ॥ अंतरि हरि रंगु उपजिआ गाइआ हरि गुण नामु ॥१३॥ अर्थ: परमात्मा ने स्वयं ही इस मनुष्य शरीर को सँवारा है और स्वयं ही इसमें अपना नाम (मानो) नौ-खजानों के रूप में डाल दिए हैं (नौ-निधि-नाम डाल रखा है)। पर, कई जीव उसने स्वयं ही भटकना में डाल के गलत रास्ते पर डाले हुए हैं, उनका (सारा) उद्यम असफल जाता है। कई जीवों ने गुरु के सन्मुख हो के (सब जगह) परमात्मा की ज्योति (व्यापक) समझी है, कई जीवों ने ‘नाम’ सुन के मान लिया है (भाव, ‘नाम’ में मन लगा लिया है) उनका ये उद्यम बढ़िया है। जो मनुष्य प्रभु के गुण गाते हैं, ‘नाम’ स्मरण करते हैं उनके मन में प्रभु का प्यार पैदा होता है।13। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |