श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1094 मः ३ ॥ मन की पत्री वाचणी सुखी हू सुखु सारु ॥ सो ब्राहमणु भला आखीऐ जि बूझै ब्रहमु बीचारु ॥ हरि सालाहे हरि पड़ै गुर कै सबदि वीचारि ॥ आइआ ओहु परवाणु है जि कुल का करे उधारु ॥ अगै जाति न पुछीऐ करणी सबदु है सारु ॥ होरु कूड़ु पड़णा कूड़ु कमावणा बिखिआ नालि पिआरु ॥ अंदरि सुखु न होवई मनमुख जनमु खुआरु ॥ नानक नामि रते से उबरे गुर कै हेति अपारि ॥२॥ पद्अर्थ: पत्री = वह पोथी जिसमें से ब्राहमण अपने जजमान आदिकों को तिथियाँ बताते हैं। वाचणी = पढ़नी। उधारु = पार उतारा। सारु = श्रेष्ठ। बिखिआ = माया। हेति = प्यार से। अपारि हेति = बेअंत प्यार से। अर्थ: (लोगों को तिथियाँ आदि बताने के लिए पत्री पढ़ने की जगह) अपने मन की पत्री पढ़नी चाहिए (कि इसकी कौन से वक्त क्या हालत है; ये पत्री वाचने से) सबसे श्रेष्ठ सुख मिलता है। (जो तिथियों की भलाई बुराई विचारने की जगह) ईश्वरीय विचार को समझता है उस ब्राहमण को ठीक समझो। जो (ब्राहमण) गुरु के शब्द द्वारा विचार करके प्रभु की महिमा करता है प्रभु का नाम पढ़ता है (और इस तरह) अपनी कुल का भी पार उतारा करता है उसका जगत में आना सफल है। प्रभु की हजूरी में (ऊँची) जाति की पूछ-पड़ताल नहीं होती, वहाँ तो (महिमा की) वाणी (का अभ्यास) ही श्रेष्ठ करनी (मिथी जाती) है, (महिमा के बिना) और पढ़ना और कमाना व्यर्थ है, माया के साथ ही प्यार (बढ़ाता) है (उस पढ़ाई और कमाई से) मन में सुख नहीं होता, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की जिंदगी ही बेलगाम हो जाती है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु (के चरणों) में बहुत प्रेम करके प्रभु के नाम में रंगे जाते हैं वह (‘बिखिआ’ के असर से) बच जाते हैं।2। पउड़ी ॥ आपे करि करि वेखदा आपे सभु सचा ॥ जो हुकमु न बूझै खसम का सोई नरु कचा ॥ जितु भावै तितु लाइदा गुरमुखि हरि सचा ॥ सभना का साहिबु एकु है गुर सबदी रचा ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ सभि तिस दे जचा ॥ जिउ नानक आपि नचाइदा तिव ही को नचा ॥२२॥१॥ सुधु ॥ पद्अर्थ: आपे = आप ही। सभु = हर जगह। सचा = अटल। कचा = डोलने वाला। हुकमु = रज़ा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य। रचा = रचा जा सकता है, मिल सकते हैं। जचा = चोज, तमाशे। अर्थ: प्रभु आप ही (जीवों को) पैदा करके आप ही संभाल करता है (क्योंकि) वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु हर जगह आप ही (मौजूद) है। पर जो मनुष्य (प्रभु की इस हर जगह मौजूद होने की) रज़ा को नहीं समझता, वह मनुष्य डोलता रहता है। जिस तरफ प्रभु की रजा हो उसी तरफ (हरेक जीव को) लगाता है, जिसको गुरु सन्मुख करता है वह प्रभु का ही रूप हो जाता है। (वैसे तो) सब जीवों का मालिक एक परमात्मा ही है, पर गुरु के शब्द के द्वारा ही (उसमें) जुड़ा जा सकता है; (सो) गुरु के सन्मुख हो के उसकी महिमा करनी चाहिए। (जगत के ये) सारे करिश्मे उस मालिक के ही हैं; हे नानक! जैसे वह स्वयं जीवों को नचाता है वैस ही जीव नाचता है।22।1। सुधु। मारू वार महला ५ डखणे महला ५ पउड़ी-वार भाव: परमात्मा ने यह जगत स्वयं ही पैदा किया है, त्रैगुणी माया भी उसने स्वयं ही बनाई है, सारे जीव भी परमात्मा के ही पैदा किए हुए हैं। उसकी रजा के अनुसार ही जीव माया के मोह में फंसे रहते हैं। ये नियम भी उसी ने बनाया हुआ है कि जीव गुरु के बताए रास्ते पर चल के माया के मोह से बचें। विधाता को भुला के जीव माया के मोह में फंस जाते हैं, और जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाते हैं। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह गुरु की शरण पड़ता है। गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के वह मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है। सिर्फ यही रास्ता है माया के मोह में से निकलने का। माया से तो मनुष्य का हर वक्त वास्ता पड़ता है, इस वास्ते उसके मोह में स्वाभाविक ही फस जाता है। पर परमात्मा इन आँखों से दिखता नहीं, उससे प्यार बनना बड़ी मुश्किल बात है। सो, जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है। गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है। माया रचने वाला भी और जीव पैदा करने वाला भी परमात्मा स्वयं ही है। उसकी अपनी ही रची यह खेल है कि जीव माया के मोह में फस के जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। जीवों के वश की बात नहीं। परमात्मा हर जगह व्यापक होता हुआ भी मनुष्य को इन आँखों से नहीं दिखता। मनुष्य की समझ से तो वह कहीं दूर जगह पर बस रहा है। फिर, मनुष्य उसकी याद में कैसे जुड़े? जिस पर वह स्वयं मेहर करता है, उसको गुरु मिलाता है। गुरु को मिल के मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है। मनुष्य अहंकार के कारण कामादिक विकारों में लिप्त रहता है, और, मनुष्य जन्म की बाजी हारता जाता है। उसकी ऐसी ही रज़ा है। जिस मनुष्य को अपनी मेहर से सत्संग में रहने का अवसर बख्शता है, उसको माया के पंजे में से निकाल के अपनी याद में जोड़े रखता है। परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य स्वै भाव दूर करके परमात्मा की भक्ति करता है उसके अंदर किसी के लिए वैर भावना नहीं रह जाती। गुरु की शरण पड़ कर उसके मन में सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। कोई विकार उसको अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकते। गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, कोई पाप-विकार उसके नजदीक नहीं फटकता। सारा जगत उसकी शोभा करता है। कोई दुख-कष्ट उसको छू नहीं सकता। परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य परमात्मा की महिमा में जुड़ता है, उसके अंदर से माया वाली भूख मिट जाती है। जहाँ माया की भूख ना रहे, वहाँ और दुख कौन सा? जगत, मानो, एक अखाड़ा है। इसमें कामादिक ठग सारे जीवों को ठग रहे हैं। पर जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की याद में टिकता है, उसका मन विकारों से पलट जाता है। कामादिक उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते। परमात्मा की मेहर के बिना मनुष्य को गुरु का मिलाप हासिल नहीं होता। और, गुरु की संगति के बिना मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर नहीं होता, अहं नहीं मिटता। अहं और गुरु-मिलाप- ये दोनों एक हृदय में नहीं टिक सकते। सो, गुरु की शरण पड़ कर साधु-संगत की इनायत से परमात्मा का स्मरण हो सकता है, और आत्मिक आनंद मिलता है। साधु-संगत में से ये सूझ मिलती है कि अपने अंदर से अहं-अहंकार दूर कर के जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करता है उसकी तवज्जो प्रभु चरणों में टिकी रहती है। धार्मिक पहरावे, व्रत, धार्मिक पुस्तकों के निरे पाठ, तिलक - इनके आसरे परमात्मा से मिलाप नहीं होता। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसको जीवन का सही रास्ता मिलता है। बाहरी धार्मिक पहरावों से परमात्मा नहीं मिलता, क्योंकि वह तो हरेक के दिल को जानता है। दूसरी तरफ, धन आदि का मान करना भी मूर्खता है, ये तो जगत से चलने के वक्त यहीं रह जाता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर का दरवाजा खुलता है उसको गुरु मिलता है, और गुरु के द्वारा वह मनुष्य प्रभु चरणों में जुड़ता है। माया के मोह में फसा मनुष्य परमात्मा की याद से टूटा रहता है। माया की खातिर वह ज़बान का भी कच्चा होता है। ऐसा मनुष्य आत्मिक मौत मरा रहता है, लोक-परलोक दोनों गवा लेता है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के नाम जपता है वह स्वयं विकार-लहरों भरे संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है, अपने साथियों को भी विकारों से बचा लेता है। उसकी तृष्णा मिट जाती है, वह दुनियां की लालचों में नहीं फसता। ये सारा दिखाई देता जगत नाशवान है। पर जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है उसका जीवन सदा के लिए अटल हो जाता है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता। तीर्थ-स्नानी, धर्म-पुस्तकों के विद्वान पाठी, छह भेषों के साधु, कवि, जती-सती सन्यासी - ये सारे व्यर्थ जीवन गुजार के संसार से कूच कर जाते हैं। भाग्यशाली जीवन होता है परमात्मा की भक्ति करने वालों का। साधु-संगत में टिक के परमात्मा की, की हुई महिमा ही एक ऐसा खजाना है जो सदा अटल रहता है। पूर्बले जनम में किए भले कर्मों का लेख जिसके माथे पर प्रकट होता है, वह गुरु की शरण पड़ कर ये नाम-खजाना इकट्ठा करता है। गुरु जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम-धन बख्शता है उसका आचरण पवित्र हो जाता है, उसका मन विकारों की तरफ नहीं डोलता, उसको आत्मिक मौत छू नहीं सकती। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है उसको गुरु की शरण में रख के नाम-जपने की दाति बख्शता है। उसकी मुँह-माँगी मुरादें पूरी करता है। सारे सुख उसके दास बन जाते हैं। परमात्मा ने जिस मनुष्य को गुरु की शरण बख्शी, उसने हृदय में नाम स्मरण किया। वह परमात्मा की मेहर का पात्र बन गया। दुनिया वाले सारे डर-सहम उसके अंदर से खत्म हो गए। गुरु-जहाज़ में बैठ के वह संसार-समुंदर से पार लांघ गया। जीव के अपने वश की बात नहीं। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है उसी को अपनी महिमा में जोड़ता है। क्रम-वार भाव: (1 से 5) जगत, जगत की त्रैगुणी माया, जगत के सारे जीव परमात्मा ने स्वयं ही रचे हैं, और, जगत में हर जगह वह व्यापक है। पर जीव को वह इन आँखों से नहीं दिखता। परमात्मा को भुला के जीव माया के मोह में फसे रहते हैं। उसकी अपनी ही मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर उसका नाम जपता है वह विकारों के हाथ चढ़ने से बच जाता है। यह मर्यादा प्रभु ने खुद ही बनाई है। यही है एक-मात्र रास्ता माया के मोह से बचने का। (6 से 10) यह जगत एक अखाड़ा है। इसमें कामादिक ठग जीवन के आत्मिक जीवन को लूटते जा रहे हैं। मनुष्य जीवन की बाजी हारता जाता है। परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर नाम जपता है, वह इनके हाथ नहीं चढ़ता। (11 से 15) धार्मिक पहरावे, व्रत, तिलक-स्नान आदि मनुष्य को विकारों की मार से बचा नहीं सकते। जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर का दरवाजा खुलता है वह गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरण करता है और माया के हमलों से बचा रहता है। (16 से 23) जगत नाशवान है। जो यहाँ आया वह आखिर कूच कर गया। यहाँ कामयाब जीवन वाला सिर्फ वही बना जिसने गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम जपा। पर यह बात मनुष्य के अपने वश की नहीं। परमात्मा स्वयं ही मेहर कर के मनुष्य को गुरु की शरण में रख के अपने नाम में जोड़ता है। मुख्य भाव: परमात्मा यह जगत-रचना करके इसमें हर जगह मौजूद है। पर जीवों को इन आँखों से दिखता नहीं। उसकी याद भुला के जीव माया के मोह में फसा रहता है, विकारों के हाथ चढ़ा रहता है। जगत का तथाकथित त्याग, तीर्थ-स्नान, धार्मिक पहरावे - ऐसे कोई भी उद्यम मनुष्य को माया की मार से नहीं बचा सकते। जिस पर उसकी अपनी ही मेहर हो, वह गुरु की शरण पड़ कर उसका नाम जपता है अपना जीवन कामयाब बनाता है। वार की संरचना: इस ‘वार’ में 23 पौड़ियां हैं। हरेक पउड़ी की आठ-आठ तुकें हैं। हरेक पौड़ी के साथ तीन-तीन शलोक हैं। हरेक शलोक की दो-दो तुकें हैं। सिर्फ पौड़ी नं: 21 और 22 के साथ तीसरा शलोक तीन-तीन तुकों वाला है। इन पौड़ियों में शब्द ‘नानक’ निम्न-लिखित पौड़ियों के आखिर में है: नं: 5,10,15,22 और 23। शब्द ‘नानक’ के प्रयोग को सामने रख के सारी ‘वार’ को पढ़ने से ये समझ आ जाती है कि इस ‘वार’ का क्रम वार भाव चार हिस्सों में बँटा हुआ है। अब देखें पौड़ियों की और शलोकों की बोली। सारे ही शलोक लहिंदी (पंजाबी) बोली के हैं। शीर्षक ‘सलोका डखणे’ भी यही बताता है। सारे शलोक ध्यान से पढ़ कर देखें। आपस में इनके कई शब्द मिलते हैं। यह सांझ ये जाहिर करती है कि शलोक एक ही वक्त के लिख हुए हैं। पौड़ियों की बोली से इन शलोकों की बोली बिल्कुल ही नहीं मिलती। सारी ‘वार’ की पौड़ियां पहले अलग लिखी गई हैं। जैतसरी की वार और मारू की वार का समानान्तर अध्ययन: जैतसरी की वार भी गुरु अरजन साहिब जी की है जैसे मारू की वार। उस ‘वार’ में 20 पौड़ियां हैं। पौड़ी नं: 5,10,15 और 20 के आखिर में शब्द ‘नानक’ बरता हुआ है। इसका भाव ये हैं कि इस ‘वार’ का क्रम-वार भाव चार हिस्सों में बँटा हुआ है। अब देखें शलोक और पौड़ियों की बोली। सारे शलोक सहस्कृति (संस्कृत) बोली में हैं, और पौड़ियां ठेठ पंजाबी में। पर मारू की वार की तरह यहाँ हम ये नहीं कह सकते कि पौड़ियां अलग लिखी गई हैं और शलोक अलग। ध्यान से पढ़ के देखो। जो शब्द शलोकों में प्रयोग हुए हैं, जो विचार शलोकों में दिए हैं, वही विचार वही ख्याल पौड़ियों में दोहराए गए हैं, वही शब्द पौड़ियों में आए हैं। हाँ, बोली बदल गई है। सो, ‘जैतसरी की वार’ की वार के बारे में यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि हरेक शलोक-जोड़ा और उनके साथ की पौड़ी साथ-साथ लिखी गई हैं। ‘जैतसरी की वार’ की हरेक पौड़ी में पाँच-पांच तुकें हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो-दो शलोक हैं। हरेक शलोक में दो-दो तुकें हैं। पर पौड़ी नं: 11 के पहले शलोक की तीन तुकें हैं। नोट: पाठकों की सहूलतों के लिए यहाँ जैतसरी की वार का भी पउड़ी-वार, क्रम-वार और मुख्य भाव दिया जा रहा है। उस ‘वार’ के टीके के साथ नहीं दिया गया। जैतसरी की वार महला ५ पौड़ी-वार भाव: सब ताकतों का मालिक परमात्मा ये सारी जगत-रचना रच के स्वयं ही इसमें हर जगह मौजूद है। यह सूझ परमात्मा खुद ही जीवों को बख्शता है। उस परमात्मा की महिमा करनी मनुष्य का जीवन-उद्देश्य है। परमात्मा की महिमा भुला के मनुष्य की जिंदगी सुखी नहीं हो सकती। इस तरह मनुष्य जीवन-की-बाज़ी हार के यहां से जाता है। जिंद, प्राण, शरीर, धन, स्वादिष्ट पदार्थ, घर, स्त्री, पुत्र - ये सब कुछ देने वाले परमात्मा को मन से कभी भुलाना नहीं चाहिए। उसका स्मरण करने से जीवन सुखी गुजरता है। ये सब कुछ देने वाले परमात्मा को भुला देना अकृत्यघ्नों वाला जीवन है। इन पदार्थों का क्या मान? प्राण निकलते ही ये शरीर राख की ढेरी हो जाता है। दुनिया वाले पदार्थ यहीं रह जाते हैं। दुनिया के पदार्थों का मोह तो सहम का कारण बनता है। परमात्मा का नाम ही दुखों और सहमों का नाश करने वाला है, और सदा का साथी है। परमात्मा से उसके नाम की दाति ही माँगा करो। दुनिया के सारे भोग-पदार्थ मनुष्य को मिले हुए हों, पर अगर वह ये पदार्थ देने वाले परमात्मा को भुला रहा है, तो उसको गंद का कीड़ा ही समझो। नाम के बिना आत्मिक सुख नहीं है। पर दूसरी तरफ, अगर मनुष्य टूटी हुई कुल्ली में रहता हो, उसके कपड़े फटे हुए हों, पल्ले धन ना हो, कोई साक-संबंधी भी ना हो, पर अगर वह परमात्मा के नाम में भीगा हुआ है तो उसको धरती का राजा समझो। उसके चरणों की धूल से मन विकारों से बचता है। दुनियां के मौज-मेलों में परमात्मा को भुला देने से सारी उम्र व्यर्थ हो जाती है। ये सब पदार्थ नाशवान हैं। इन्हें सदा टिके रहने वाला ना समझो। इनकी खातिर कामादिक विकारों में झल्ले ना हुए फिरो। यह इकट्ठी की हुई माया जगत से चलने के समय मनुष्य के साथ नहीं जाती। परमात्मा को विसरने से निरी माया से मनुष्य तृप्त भी नहीं होता। परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्यों को नाम के मुकाबले पर दुनिया के सारे पदार्थ बे-स्वादे प्रतीत होते हैं। गुरु की कृपा से उनके अंदर से आत्मिक जीवन का अंधकार दूर हो जाता है। उनका मन प्रभु-चरणों में परोया रहता है। जैसे मछली पानी के बिना, चात्रिक बरसात की बूँद के बिना, भौरा फूल के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही संत जन प्रभु की याद के बिना नहीं रह सकते। परमात्मा के भक्त सदा परमात्मा के दर्शनों के लिए ही आरजूएं करते हैं। भाग्यशाली हैं वह मनुष्य जो परमात्मा की महिमा सुनते हैं, जिनके हाथ प्रभु की महिमा लिखते हैं, जिनके पैर साधु-संगत की ओर चलते हैं। प्रभु की भक्ति करने वाले बंदों को जिंदगी का वह समय भाग्यशाली प्रतीत होता है ज बवह प्रभु की याद में जुड़ते हैं। वे जानते हैं कि सौभाग्य से ही साधु-संगत का मिलाप होता है जहाँ परमात्मा की महिमा में टिका जा सकता है। भक्ति करने वालों के साथ प्यार करना, और विकारों में गिरे हुओं को बचाना - परमात्मा का ये मुढ-कदीमी (आदि कुदरती) स्वभाव है। परमात्मा का नाम स्मरण करने से मनुष्य का मन शांत रहता है, माया की तपश से बचा रहता है। परमात्मा के नाम-जपने की इनायत से मनुष्य पर माया जोर नहीं डाल सकती। गुरु की शरण मे रह के परमात्मा की भक्ति की जा सकती है। गुरु नीचों को ऊँचा कर देता है। नाम-जपने की दाति के लिए सदा परमात्मा के दर पर अरदास करते रहो। क्रम-वार भाव: (1 से 5) दुनिया के सारे पदार्थ देने वाले परमात्मा की याद भुलानी अकृत्घ्न जीवन है। (6 से10) दुनियां के मौज-मेलों में परमात्मा को भुलाने से जीवन व्यर्थ चला जाता है। (11 से 15) परमात्मा के भक्त को नाम के मुकाबले पर दुनिया के पदार्थ बे-स्वादिष्ट प्रतीत होते हैं। (16 से 20) नाम स्मरण करने से मन विकारों के हमलों से बचा रहता है, पर यह नाम गुरु से ही मिलता है। (21 से 23) मुख्य भाव: परमात्म का नाम स्मरणा ही मनुष्य जीवन का असल उद्देश्य है। यह नाम गुरु की शरण पड़ने से मिलता है। ‘मारू की वार’ के बारे में ज़रूरी जानकारी: पाठक सज्जन ये याद रखें कि गुरु अरजन साहिब की यह ‘वार’ मारू राग में दर्ज ‘मारू की वार’ है ‘डखणे की वार’ नहीं है। ‘डखणे’ तो सिर्फ शलोक हैं, लहिंदी बोली में शलोक। मारू वार महला ५ डखणे मः ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तू चउ सजण मैडिआ डेई सिसु उतारि ॥ नैण महिंजे तरसदे कदि पसी दीदारु ॥१॥ पद्अर्थ: चउ = बताओ, कहो। सजण मैडिआ = हे मेरे सज्जन! डेई = मैं दूँ। सिसु = सीस, सिर। महिंजे = मेरे। पसी = मैं देखूँ। अर्थ: हे मेरे सज्जन! तुम कहो (भाव, अगर तू कहे तो) मैं अपना सिर भी उतार के भेंट कर दूँ, मेरी आँखें तरस रही हैं, मैं कब तेरे दर्शन करूँगी।1। मः ५ ॥ नीहु महिंजा तऊ नालि बिआ नेह कूड़ावे डेखु ॥ कपड़ भोग डरावणे जिचरु पिरी न डेखु ॥२॥ पद्अर्थ: नीह = नेह, प्रेम। तऊ नालि = तेरे साथ। बिआ = बीया, दूसरा। कूड़ावे = झूठे। डेखु = मैंने देख लिए हैं। पिरी = पति प्रभु। अर्थ: हे प्रभु! मेरा प्यार (अब सिर्फ) तेरे साथ है, दूसरे प्यार मैंने झूठे देख लिए हैं (मैंने देख लिया है कि दूसरे प्यार झूठे हैं)। जब तक मुझे पति के दर्शन नहीं होते, दुनियावी खाने-पहनने मुझे डराने लगते हैं।2। मः ५ ॥ उठी झालू कंतड़े हउ पसी तउ दीदारु ॥ काजलु हारु तमोल रसु बिनु पसे हभि रस छारु ॥३॥ पद्अर्थ: उठी = मैं उठूँ। झालू = झलांगे, सवेरे। कंतड़े = हे सुंदर कंत! हउ = मैं। पसी = देखूं। काजलु = काजल, सुरमा। तमोल = पान। हभि = सारे। छारु = राख। अर्थ: हे सुंदर कंत! सवेरे उठूँ तो (पहले) तेरे दर्शन करूँ। तेरे दर्शन किए बिना काजल, हार, पान का रस- ये सारे ही रस राख समान हैं।3। पउड़ी ॥ तू सचा साहिबु सचु सचु सभु धारिआ ॥ गुरमुखि कीतो थाटु सिरजि संसारिआ ॥ हरि आगिआ होए बेद पापु पुंनु वीचारिआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै गुण बिसथारिआ ॥ नव खंड प्रिथमी साजि हरि रंग सवारिआ ॥ वेकी जंत उपाइ अंतरि कल धारिआ ॥ तेरा अंतु न जाणै कोइ सचु सिरजणहारिआ ॥ तू जाणहि सभ बिधि आपि गुरमुखि निसतारिआ ॥१॥ पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। धारिआ = टिकाया हुआ, पैदा किया। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। गुरमुखि थाटु = गुरु के राह पर चलने का नियम। सिरजि = पैदा करके। नव = नौ। साजि = सजा के। वेकी = रंग बिरगे। अंतरि = (वह जीवों के) अंदर। कल = सत्ता, क्षमता। अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, और तूने अपना अटल नियम ही हर जगह कायम किया हुआ है। जगत पैदा करके तूने ये नियम भी बना दिया है कि (जीवों को) गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिए। हे हरि! तेरी ही आज्ञा के अनुसार वेद (आदिक धार्मिक पुस्तकें प्रकट) हुए, जिन्होंने (जगत में) पाप और पुण्य को अलग किया है, तूने ही ब्रहमा, विष्णू और शिव को पैदा किया, तूने ही माया के तीन गुणों का पसारा-रूप जगत बनाया है। हे हरि! यह नौ हिस्सों वाली धरती बना के तूने इसमें अनेक रंग सजाए हैं। अलग-अलग भांति के जीव पैदा करके तूने (जीवों के अंदर) अपनी सत्ता कायम की है। हे सदा-स्थिर विधाता! कोई जीव (तेरे गुणों का) अंत नहीं जान सकता। सब तरह के भेद को तू खुद ही जानता है, जीवों को तू गुरु के रास्ते पर चला के (संसार-समुंदर से) पार लंघाता है।1। डखणे मः ५ ॥ जे तू मित्रु असाडड़ा हिक भोरी ना वेछोड़ि ॥ जीउ महिंजा तउ मोहिआ कदि पसी जानी तोहि ॥१॥ पद्अर्थ: हिक = एक। भोरी = रक्ती भर। महिंजा = मेरा। जानी = हे प्यारे! तोहि = तुझे। पसी = देखूँ। अर्थ: अगर तू मेरा मित्र है, तो मुझे रक्ती भर भी (अपने से) ना विछोड़। मेरी जिंद तूने (अपने प्यार में) मोह ली है (अब हर वक्त मुझे तमन्ना रहती है कि) हे प्यारे! मैं कब तुझे देख सकूँ।1। मः ५ ॥ दुरजन तू जलु भाहड़ी विछोड़े मरि जाहि ॥ कंता तू सउ सेजड़ी मैडा हभो दुखु उलाहि ॥२॥ पद्अर्थ: जलु = जल जा। भाहड़ी = आग में। मैडा = मेरा। उलाहि = उतार दे, दूर कर दे। अर्थ: हे दुर्जन! तू आग में जल जा, हे विछोड़े! तू मर जा। हे (मेरे) कंत! तू (मेरी हृदय-) सेज पर (आ के) सो और मेरा सारा दुख दूर कर दे।2। नोट: अगले शलोक में साहिब लिखते हैं कि ये ‘दुर्जन’ और ‘विछोड़ा’ कौन हैं। मः ५ ॥ दुरजनु दूजा भाउ है वेछोड़ा हउमै रोगु ॥ सजणु सचा पातिसाहु जिसु मिलि कीचै भोगु ॥३॥ पद्अर्थ: दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) किसी और का प्यार। जिसु मिलि = जिस को मिल के। कीचै = कर सकते हैं। भोगु = आनंद। दुरजनु = दुश्मन। सचा = सच्चा, सदा कायम रहने वाला। अर्थ: (प्रभु के बिना) किसी और से प्यार (जिंद का बड़ा) वैरी है, अहंम का रोग (प्रभु से) विछोड़ा (देने वाला) है। सदा कायम रहने वाला प्रभु पातशाह (जिंद का) मित्र है जिस को मिल के (आत्मिक) आनंद लिया जा सकता है।3। पउड़ी ॥ तू अगम दइआलु बेअंतु तेरी कीमति कहै कउणु ॥ तुधु सिरजिआ सभु संसारु तू नाइकु सगल भउण ॥ तेरी कुदरति कोइ न जाणै मेरे ठाकुर सगल रउण ॥ तुधु अपड़ि कोइ न सकै तू अबिनासी जग उधरण ॥ तुधु थापे चारे जुग तू करता सगल धरण ॥ तुधु आवण जाणा कीआ तुधु लेपु न लगै त्रिण ॥ जिसु होवहि आपि दइआलु तिसु लावहि सतिगुर चरण ॥ तू होरतु उपाइ न लभही अबिनासी स्रिसटि करण ॥२॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सिरजिआ = पैदा किया। नाइकु = मालिक। सगल भउण = सारे भवनों का। सगल रउण = हे सर्व व्यापक! जग उधरण = जगत का बेड़ा पार करने वाला। धरणी = धरतियां। आवण जाणा = पैदा होना मरना। लेपु = असर, प्रभाव। त्रिण = तीले जितना भी। होरतु = और से। उपाइ = उपाय से। होरतु उपाइ = किसी और प्रभाव से। अर्थ: हे प्रभु! तू अगम्य (पहुँच से परे) है दयालु और बेअंत है, कोई जीव तेरा मूल्य नहीं पा सकता। ये सारा जगत तूने ही पैदा किया है, और सारे भवनों का तू ही मालिक है। हे मेरे सर्व-व्यापक मालिक! कोई जीव तेरी ताकत का अंदाजा नहीं लगा सकता। हे जगत का उद्धार करने वाले अविनाशी प्रभु! कोई जीव तेरी बराबरी नहीं कर सकता। हे प्रभु! सारी धरतियाँ तूने ही बनाई हैं ये चारों युग तेरे ही बनाए हुए हैं (समय बनाने वाला और समय की बाँट करने वाला तू ही है)। (जीवों के लिए) जनम-मरण का चक्कर तूने ही बनाया है, (जनम-मरण के चक्करों का) रक्ती भर भी प्रभाव तेरे पर नहीं पड़ता। हे प्रभु! जिस जीव पर तू दयालु होता है उसको गुरु के चरणों से लगाता है (क्योंकि) हे सृष्टिकर्ता अविनाशी प्रभु (गुरु की शरण के बिना) और किसी भी उपाय से तू नहीं मिल सकता।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |