श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तुखारी छंत महला १ बारहमाहा

पउड़ी वार भाव:

पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य इस जन्म में भी माया के मोह में फसा रहता है, और, दुखी जीवन गुजारता है। परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उसका आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी-पी के आत्मिक आनंद लेता है। यही है जनम-उद्देश्य।

नाम की इनायत से, महिमा की इनायत से मनुष्य अपनी सारी ज्ञान-इंद्रिय को मर्यादा में रख के मायावी पदार्थों के मोह से ऊँचा टिका रहता है। गुरु के शब्द द्वारा उसका जीवन पवित्र हो जाता है।

महिमा करते-करते मनुष्य के अंदर ऊँचा आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। मनुष्य को यकीन बन जाता है कि एक परमात्मा ही जीव के साथ सदा निभने वाला साथी है।

महिमा की इनायत से मनुष्य का मन विकारों से अडोल बना रहता है। उसके अंदर हर वक्त परमात्मा के मिलाप की खींच बनी रहती है।

बसंत का मौसम सोहावना होता है। हर तरफ फूल खिले होते हैं, कोयल आम पर बैठी मीठे बोल बोलती है। पर पति से विछुड़ी नारी को ये सब कुछ चुभने वाला लगता है। जिस मनुष्य का मन अदरूनी हृदय-कमल को छोड़ के दुनियावी रंग-तमाशों में भटकता फिरता है, उसका ये जीवन दरअसल आत्मिक मौत है। आत्मिक आनंद तब ही है जब परमात्मा हृदय में आ बसे।

जिस मनुष्य का मन परमात्मा की महिमा में रम जाता है, उसको कुदरति की सुंदरता भी परमात्मा के चरणों में ही जोड़ने के लिए सहायता करती है।

कामादिक विकारों की आग से संसारी जीवों के हृदय तपते रहते हैं। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा को हृदय में बसा के परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, उसका हृदय सदा शांत रहता है, वह मनुष्य विकारों की तपश-लौ से सदा बचा रहता है।

जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है, उसको इस जीवन-यात्रा में आसाड़ (हाड़) की कहर की तपश जैसा विकारों का सेक छू नहीं सकता।

महिमा की इनायत से जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा हो जाता है, इस प्यारे के मुकाबले में शरीरिक सुखों के कोई भी साधन उसके मन को नहीं बहका सकते।

गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के जिस मनुष्य का मन परमात्मा की महिमा में रम जाता है, परमात्मा की याद के बिना और किसी भी रंग-तमाशे में उसको आत्मिक आनंद नहीं मिलता।

जो मनुष्य दुनिया के झूठे मोह में फस जाता है, वह परमात्मा के चरणों से विछुड़ा रहता है। पर जो मनुष्य परमात्मा की मेहर से गुरु की शरण पड़ता है, वह माया के मोह के हमलों से अडोल हो जाता है, और उसको प्रभु-मिलाप का आनंद प्राप्त होता है।

जिस मनुष्य को परमात्मा अपनी महिमा की दाति देता है, उसके अंदर आत्मिक जीवन की सूझ देने वाले प्रकाश का, मानो, दीपक जग उठता है। वह मनुष्य परमात्मा की याद से एक घड़ी-पल का विछोड़ा भी सह नहीं सकता।

जो मनुष्य परमात्मा की महिमा में टिका रहता है, परमात्मा के साथ उसकी प्यार की गाँठ बँध जाती है। जगत का कोई भी दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता।

परमात्मा की याद भुलाने से मनुष्य के अंदर कोरापन जोर डाल देता है, वह कोरा पन उसके जीवन में से प्रेम-रस सुखा देता है। परमात्मा की महिमा ही मनुष्य के अंदर ऊँची आत्मिक अवस्था पैदा करती है और कायम रखती है।

माघी वाले दिन लोग प्रयाग आदि तीर्थों पर स्नान करने में पवित्रता मानते हैं। पर परमात्मा की महिमा हृदय में बसानी ही अढ़सठ तीर्थों का स्नान है।

जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर महिमा से अपने अंदर से स्वैभाव दूर करता है, उसको अपने अंदर बसता परमात्मा मिल जाता है। पर यह स्वैभाव दूर करना कोई आसान खेल नहीं, वह ही दूर करता है जिस पर परमात्मा मेहर करे।

नोट: इसी सारी वाणी का सारांश आखिरी तुक नंबर 17 में है।

जो मनुष्य परमात्मा की महिमा को अपनी जिंदगी का आसरा बनाता है, उसको किसी संक्रांति अमावस्या आदि की पवित्रता का भ्रम-भुलेखा नहीं रहता। वह मनुष्य किसी काम को आरम्भ करने के लिए कोई खास महूरत नहीं तलाशता; उसको यकीन होता है कि परमात्मा का आसरा लेने से सब काम रास आ जाते हैं।

एक और बारहमाह:

ये बारहमाह तुखारी राग में गुरु नानक देव जी का लिखा हुआ है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में एक और बारहमाह भी है। वह है श्री गुरु अरजन देव जी का लिखा हुआ, और वह है राग माझ में। साहित्यिक दृष्टिकोण से दोनों बाणियों का परस्पर समानान्तर अध्ययन पाठकों के लिए दिलचस्प होगा।

दोनों बाणियों को परस्पर समानान्तर अध्ययन

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: १

किरत करंमा पुरबि कमाइआ॥ सिरि सिरि सुख सहंमा...॥ ...
प्रिअ बाझु दुहेली, कोइ न बेली...॥ (पंना1107)

पउड़ी नं: 3

ना कोई मेरा, हउ किसु केरा...॥

पउड़ी नं: 4

उनवि घन छाए, बरसु सुभाए...॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: १

किरत करम के वीछुड़े...॥
हरि नाह न मिलीऐ साजनै, कत पाईऐ बिसराम॥ ...
प्रभ सुआमी कंत विहूणीआ, मीत सजण सभि जाम॥
नानक की प्रभ बेनती, करि किरपा दीजै नामु॥ (पंना 133)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 5

पिरु घरि नही आवै, धन किउ सुखु पावै....॥ ...
चेति सहजि सुखु पावै, जे हरि वरु घरि धन पाए॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 2

इकु खिनु तिसु बिनु जीवणा, बिरथा जनमु जणा॥ चेति गोविंदु अराधीऐ, होवै अनंदु घणा॥ (पंना 133)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 6

वैसाखु भला, साखा वेस करे॥ धन देखै हरि दुआरि, आवहु दइआ करे॥ (पंना1108)

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 3

वैसाखि धीरनि किउ वाढीआ, जिना प्रेम बिछोहु॥ ...
वैसाखु सुहावा तां लगै, जा संतु भेटे हरि सोइ॥ (पंना 133)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 7

माहु जेठु भला, प्रीतमु किउ बिसरै॥ (पंना1108)

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 4

साधू संगु परापते, नानक रंग माणंनि॥ हरि जेठु रंगीला तिसु धणी, जिस कै भागु मथंनि॥४॥ (पंना 134)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 8

...सूरजु गगनि तपै॥ ...अवगण बाधि चली, दुखु आगै, सुखु तिसु साचु समाले॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 5

आसाढ़ु तपंदा...॥ ...दुयै भाइ विगुचीऐ...॥ रैणि विहाणी पछुताणी...॥
आसाढ़ु सुहंदा तिसु लगै, जिसु मनि हरि चरण निवासु॥ (पंना 134)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 9

सावणि सरस मना...॥ हरि बिनु नीद भूख कहु कैसी...॥
नानक सा सोहागणि कंती पिर कै अंकि समावए॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 6

सावणि सरसी कामणी...॥ हरि मिलणै नो मनु लोचदा...॥
सावणु तिना सुहागणी, जिन राम नामु उरि हारु॥ (पंना 134)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 10

भादुउ भरमि भुली...॥ ...नानक पूछि चलउ गुर अपुने, जह प्रभ तह ही जाईऐ॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 7

भादुइ भरमि भुलाणीआ...॥ से भादुइ नरकि न पाईअहि, गुरु रखण वाला हेतु॥ (पंना 134)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 11

असुनि आउ पिरा, साधन झूरि मुई॥ ...मिलहु पिआरे सतिगुर भए बसीठा॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 8

असुनि प्रेम उमाहड़ा, किउ मिलीऐ हरि जाइ॥ ...संत सहाई प्रेम के...॥ (पंना 134)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 12

कतकि किरतु पइआ...अवगण मारी मरै...

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 9

कतकि करम कमावणे, दोसु न काहू जोगु॥
परमेसर ते भुलिआं, विआपनि सभे रोग॥ (पंना 135)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 13

मंघर माहु भला, हरि गुण अंकि समावए॥
गुणवंती गुण रवै, मै पिरु निहचलु भावए॥ ...राम नामि दुखु भागै॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 10

संघिरि माहि सुहंदीआ, हरि पिर संगि बैठड़ीआह॥ ...
तनु मनु मउलिआ राम सिउ...॥ मंघरि प्रभु आराधणा, बहुड़ि न जनमड़ीआह॥ (पंना 134)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 14

पोखि तुखारु पढ़ै, वणु तिणु रसु सोखै॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 11

पोखि तुखारु न विआपई, कंठि मिलिआ हरि नाहु॥

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 15

माघि पुनीत भई, तीरथु अंतरि जानिआ॥ ...
तुधु भावा सरि नावा॥ ...हरि जपि अठसठि तीरथ नाता॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 12

माघि मजनु संगि साधूआ, धूड़ी करि इसनानु॥
हरि का नामु धिआइ सुणि...अठसठि तीरथ सगल पुंन...॥ (पंना 136)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 16

फलगुनि मनि रहसी...॥ अनदिनु रहसु भइआ...॥ ...
नानक मेलि लई गुरि अपणै घरि वरु पाइआ नारी॥

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 13

फलगुणि अनंद उपारजना...संत सहाई राम के, करि किरपा दीआ मिलाइ॥ ... वरु पाइआ हरि राइ॥ (पंना 136)

अ. तुखारी महला १, पउड़ी नं: 17

बे–दस माह रुती थिती वार भले॥ घड़ी मूरत पल...॥ प्रभ मिले पिआरे कारज सारे...॥ (पंना 1109)

आ. माझ महला ५ पउड़ी नं: 14

...तिन के काज सरे॥ ...माह दिवस मूरत भले, जिस कउ नदरि करे॥

नोट: पाठक सज्जन ध्यान से पढ़ के देख लेंगे, कि गुरु नानक देव जी ने तुखारी राग के बारहमाह में जो दिल-तरंग मुश्किल बोली में लिखे हैं, वही दिल-तरंग मनोभाव गुरु अरजन साहिब ने माझ राग के बारहमाह में आसान बोली में बरत के लिख दिए हैं। दोनों तरफ पौड़ियों में कई-कई शब्द भी सांझे बरते गए हैं। बड़ा स्पष्ट प्रत्यक्ष दिख रहा है कि गुरु नानक देव जी के बारहमाह से प्रेरित होकर गुरु अरजन साहिब ने माझ राग में आसान बोली का प्रयोग करके अपना बारहमाह लिखा।

पाठकों की सहूलत के लिए यहाँ माझ राग के बारहमाह का भी पउड़ी-वार भाव दिया जा रहा है।

ੴ सतिगुर प्रसादि॥
बरहमाह माझ महला ५ घरु ४

पउड़ी-वार भाव:

किए कर्मों के संस्कारों के असर तले मनुष्य परमात्मा की याद भुला देता है, और, कामादिक विकारों की तपश से उसका हृदय जलती भट्ठी के समान बना रहता है। इस तरह मनुष्य अपनी सारी उम्र व्यर्थ गवा लेता है।

परमात्मा के नाम की इनायत से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद बना रहता हैं वही मनुष्य जीवित समझो जो परमात्मा का नाम स्मरण करता है। पर नाम की दाति साधु-संगत में से मिलती है।

परमात्मा का नाम स्मरण के बिना और जितने भी कर्म यहाँ करते हैं वे उच्च आत्मिक जीवन के अंग नहीं बन सकते। प्रभु की याद से वंचित मनुष्य दुखी जीवन ही गुजारता है। चौगिर्दे की मनमोहक सुहावनी कुदरति भी उसको बल्कि खाने को पड़ती है।

परमात्मा का नाम-धन सदा मनुष्य के साथ निभता है। नाम स्मरण वाला मनुष्य लोक-परलोक में शोभा कमाता है। नाम की दाति परमात्मा की मेहर से गुरु की शरण पड़ने पर ही मिलती है।

जो मनुष्य परमात्मा की याद भुला के परमात्मा का आसरा बिसार के दुनिया के लोगों के आसरे तलाशता फिरता है वह सारी उम्र दुखी होता रहता है। उसकी दुनिया वाली आशाएं भी सिरे नहीं चढ़तीं। जिसके हृदय में सदा परमात्मा की याद टिकी रहती है उसकी सारी जिंदगी सोहावनी बीतती है।

जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा का प्यार टिका रहता है जो मनुष्य परमात्मा के नाम को अपने जीवन का सहारा बनाए रखता है, वह दुनिया के रंग-तमाशों को इसके मुकाबले में होछे समझता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है उसको गुरु की शरण में रख के यह दाति बख्शता है।

जैसे खेत में जो कुछ बीजें वही फसल काटी जा सकती है, वैसे ही शरीर के द्वारा जिस तरह के भी कर्म मनुष्य करता है उस तरह के ही संस्कार उसके मन में इकट्ठे होते जाते हैं। सो, दुनिया के नाशवान पदार्थों के साथ बनाया हुआ प्यार मनुष्य को सारी उम्र गलत रास्ते पर ही डाले रखता है, और, इन पदार्थों वाला साथ ही आखिर समाप्त हो जाता है। गुरु की शरण पड़ कर कमाया हुआ प्रभु-चरणों का प्यार ही असल साथी है और सुखद है।

परमात्मा की याद के बिना सुख नहीं मिल सकता, सुख हासिल करने के लिए और कोई जगह ही नहीं। पर ये दाति मिलती है गुरु की शरण पड़ने से साधु-संगत में से। गुरु की शरण साधु-संगत का मेल परमात्मा की अपनी मेहर से ही नसीब होता है। सदा उसके दर पर अरदास करते रहना चाहिए- हे पातशाह! हमें अपने साथ जोड़े रख।

परमात्मा की याद से टूटने से दुनिया के सारे दुख-कष्ट प्रभाव डाल लेते हैं, परमात्मा से लंबे विछोड़े पड़ जाते हैं। जिस रंग-तमाशों की खातिर परमात्मा की याद भुलाई जाती है वह भी आखिर में दुखदाई हो जाते हैं। तब दुखी जीव की अपनी कोई पेश नहीं चलती। परमात्मा स्वयं मेहर करके जिस मनुष्य को गुरु की संगति में मिलाता है उसको माया के बंधनो से छुड़ा लेता है।

जो मनुष्य गुरु की संगति में रह के परमात्मा की याद में जुड़ता है, उसका तन-मन सदा खिला रहता है, वह मनुष्य लोक-परलोक में शोभा कमाता है, वह विकारों के हमलों के प्रति सदा सचेत रहता है। पर जो मनुष्य परमात्मा की याद भुलाए रखता है उसकी उम्र दुखों में बीतती है, कामादिक कई वैरी उसको सदा घेरे रहते हैं।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की महिमा करने को अपनी जिंदगी की असल कमाई समझता है, महिमा की इनायत से उसके अंदर से स्वार्थ वाला जीवन खत्म हो जाता है, उसके अंदर हर वक्त परमात्मा के दर्शनों की तमन्ना बनी रहती है। दर पर आ के गिरे की फिर परमात्मा भी इज्जत रखता है, और, उस पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।

जो मनुष्य गुरु की संगति में टिक के परमात्मा की महिमा करता है, उसका जीवन पवित्र हो जाता है; समझो कि उसने अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लिया है; काम क्रोध लोभ आदि किसी भी विकार तले वह दबता नहीं। जिंदगी के इस राह पर चल के वह जगत में शोभा कमा लेता है।

साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा करने से मनुष्य का जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि परमात्मा से उसकी दूरी मिट जाती है, उसके अंदर हर वक्त आनंद बना रहता है, दुख-कष्ट उस पर कोई असर नहीं डाल सकते। उसका ये लोक भी परलोक भी दोनों ही सँवर जाते हैं, संसार-समुंदर की विकारों की लहरों में से वह आसानी से पार लांघ जाता है।

जो भी मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है उसके दुनिया वाले काम भी सिरे चढ़ जाते हैं, और, वह परमात्मा की हजूरी में भी सही स्वीकार हो जाता है। उस मनुष्य के लिए तो सारे ही महीने भाग्यशाली हैं, सारे ही दिन भाग्यों भरे हैं, संग्रांद आदि की विशेष पवित्रता का उसको भुलेखा नहीं रहता। कोई काम करने के वक्त उसको कोई खास महूरत निकालने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती। वह मनुष्य हर वक्त, परमात्मा के दर पर ही अरदास करता है।

नोट: सारा बारहमास लिख के आखिर में गुरु अरजन साहिब जी गुरु नानक देव जी की तरह ही ये चेतावनी कराते हैं कि जो मनुष्य परमात्मा का आसरा लेता है उसके वास्ते सारे दिन एक ही समान हैं। संग्रांद-मसिया आदि वाले दिन कोई खास पवित्र नहीं हैं।

ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥

संग्रांद

बुरी रूहें:

मनुष्य जाति के जीवन में एक वह समय भी आया था कि जब मनुष्य ये समझता था कि कुदरति के हरेक अंग में, धरती हवा पानी में, वृक्षों और पर्वतों में, अंधेरी तुफानों में, कड़कती बिजली और भुचालों में, पशू-पक्षी और मछलियों में, सूर्य-चंद्रमा और तारों में, हर जगह ‘रूहें’ हैं जो मनुष्य की विरोधी हैं। मनुष्य का ये कर्तव्य समझा गया था कि मनुष्य इन ‘रूहों’ को प्रसन्न रखने के प्रयत्न करता रहे ताकि वे इसको सताने से रुकी रहें।

अच्छी रूहें:

फिर समय आया और ‘बुरी रूहों’ के साथ देवते भी शामिल हो गए, इनकी आपस की जंगों की चर्चा भी चल पड़ी। यूनान, चीन, इरान, हिन्दोस्तान पुरानी सभ्यता वाले सारे देशों में यही ख्याल प्रचलित था कि सारी रचना हर जगह कहीं देवताओं तो कहीं दैत्यों का राज है, और हर समय मनुष्य का सुख-दुख इनके ही वश में है। अच्छी रूहों (देवताओं) से कोई सुख हासिल करने के लिए, और, बुरी रूहों की बुरी नज़र से बचने के लिए इन देवताओं और दैत्यों के खास-खास दिन निहित किए गए।

एक ही सर्व-व्यापक विधाता:

धीरे-धीरे मनुष्य को यह बात समझ आ गई कि अलग-अलग रूहें नहीं, बल्कि इस सारी कुदरति को बनाने वाला एक ही विधाता परमात्मा है जो स्वयं ही सबकी पालना करने वाला है। ज्यों-ज्यों ये निष्चय बढ़ता गया, त्यों-त्यों मनुष्य और-और पूजाएं छोड़ के परमात्मा की प्रेमा-भक्ति करने लग पड़ा, देवते-दैत्य आदि बिसरते गए, और उनकी पूजा के लिए निहित किए हुए खास दिन भी भूलते गए। पर ऐसा प्रतीत होता है प्रकृति की और सारी रचना से ज्यादा सूर्य और चँद्रमा ने मनुष्य के मन पर असर डाला हुआ था। इनकी पूजा के लिए निहित किए गए दिन आज तक अपना प्रभाव डाले आ रहे हैं।

दस पर्व:

सूरज-चँद्रमा से संबंध रखने वाले निम्न-लिखित दस दिन पवित्र समझे जा रहे हैं: सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण, अमावस्या, पूर्णिमा, रौशन ऐतवार, संक्रांति (संग्रांद), दो एकादशियां और दो अष्टपदियां। इन दसों दिनों को ‘पुरब’ (पर्वन्) (पवित्र दिन) माना जाता है। सूरज देवते से संबंध रखने वाले इनमें से दो दिन हैं: सूर्य ग्रहण और संग्रांद। बाकी के दिन चँद्रमा के हैं। ‘रोशनी ऐतवार’ सूर्य और चाँद दोनों का है। अलग-अलग देवताओं की जगह एक परमात्मा की भक्ति का रिवाज बढ़ने के बावजूद भी इन दस पर्वों के द्वारा इन देवताओं की पूजा और प्यार अभी तक जोबन पर है।

इस प्रभाव का गहराई का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गुरु नानक गुरु गोबिंद सिंह जी की शिक्षा की इनायत से जो लोग ‘अन्य पूजा’ छोड़ कर अकाल पुरख को मानने वाले हो चुके थे वह भी अभी सूरज की याद मनानी नहीं छोड़ सके।

संग्रांद क्या है?

शब्द ‘संग्रांद’ संस्कृत के शब्द ‘सांक्रान्ति’ (सांत्रत्रंन्ति) का प्राक्रित व पंजाबी रूप है। इसका अर्थ है ‘सूरज का एक राशि से दूसरी राशि में गुजरना’। ‘सांक्रान्ति’ वह दिन है जब सूरज नई राशि में दाखिल होता है। बिक्रमी साल के इन बारह महीनों का संबंध सूरज की चाल के साथ है। हर देसी महीने की पहली तारीख को सूरज एक ‘राशि’ को छोड़ के दूसरी ‘राशि’ में पैर रखता है। बारह महीने हैं और बारह ही राशियां हैं। जो लोग सूर्य देवता के उपासक हैं, उनके लिए हरेक संक्रान्ति का दिन पवित्र है क्योंकि उस दिन सूर्य देवता एक ‘राशि’ को छोड़ के दूसरी में आता है। उस दिन विशेष तौर पाठ-पूजा की जाती है, ता कि सूर्य-देवता उस नई ‘राशि’ में रहके उपासक के लिए सारा महीना अच्छा गुजारे।

लोक गीत:

अपने देश के लोक-गीतों को ध्यान से देखें, जीवन-यात्रा की हरेक झांकी से संबंध रखते हैं: घोड़ियां, सुहाग, कामण, सिठणीयां, छंद, गिद्धा, लावां और अलाहणीआं आदिक हरेक किस्म के ‘गीत’ मिलते हैं। ऋतुओं के बदलने पर भी नई-नई ऋतुएं के नए-नए ‘लोक गीत’, होली सांवी आदि के गीत। इसी तरह कवियों ने देश-वासियों के जीवन में नए-नए हुलारे पैदा करने के लिए ‘वारें’, सि-हरफियां और ‘बारहमाह’ पढ़ने-सुनने का रिवाज पैदा कर दिया।

गुरु नानक देव जी ने भी:

गुरु नानक देव जी ने इस देश में एक नया जीवन पैदा करना था। वारतक से ज्यादा कविता आकर्षित करती है। कविता के जो छंद पंजाब में ज्यादा प्रचलित थे, सतिगुरु जी ने वही बरते। सतिगुरु जी ने एक ‘बारहमाह’ भी लिखा जो तुखारी राग में दर्ज है। गुरु अरजन साहिब ने भी एक ‘बारहमाह’ लिख के श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में माझ राग में दर्ज किया। पर इन दोनों ‘बारहमाहों’ का सूर्य की ‘संग्रांद’ के साथ कोई संबंध नहीं था रखा गया। ये तो देश में प्रचलित ‘काव्य छंदों’ में से एक किस्म थी। सारी वाणी में कहीं भी कोई ऐसा वचन नहीं मिलता, जहाँ सतिगुरु जी ने साधारण दिनों में से किसी एक खास दिन के अच्छा या बुरा होने का भेद भाव बताया हो।

एक भुलेखा:

कई मनुष्य ये ख्याल करते हैं कि ‘संग्रांद’ आदि दिन विशेष तौर पर मनाए जाने चाहिए, तांकि इस बहाने वे लोग भी अपने धर्म-स्थानों पर आ कर कुछ समय सत्संग में गुजार सकें जो आगे-पीछे कभी समय नहीं निकाल सकते। पर, ये ख्याल बहुत हद तक गलत रास्ते पर डाल देता है, मनुष्य की ‘अस्लियत’ उसके निरे बाहरी कामों से नहीं आँकी जा सकतीं एक मनुष्य किसी दीवान आदि के लिए किसी धार्मिक पंथक कार्य आदि के लिए रुपया दान करता है; पर निरे इस दान से ये अंदाजा लगाना गलत है कि ये मनुष्य मानवता के मापदण्डों पर खरा उतर पड़ा है। हो सकता है किवह धनवान मनुष्य लोगों में सिर्फ शोभा पाने के लिए और चौधरी बनने के लिए ये दान करता हो, और इस तरह ये दान उसके अहंकार को बढ़ाता जाता हो, और इन्सानियत से उसे गिराता जाता हो। ‘दान’ आदिक धार्मिक कर्म का असर मनुष्य के जीवन पर वैसा ही पड़ सकता है जैसी उस काम के करने के वक्त उसकी नीयत हो।

विशेष भाग्यशाली दिन:

जब मनुष्य किसी ‘संग्रांद’ आदि को एक विशेष भाग्यशाली दिन समझता है, और धर्म-स्थान पर जाता है, वह उस दिन ये भी तमन्ना रखता है कि ‘साल के दिन के दिन’ किसी भले के माथे लगूँ। सो, वह किसी खास व्यक्ति के मुँह से ‘महीना’ सुनता है। अगर उस सारे महीने में कोई कष्ट-तकलीफ़ आ जाए तो सहज-सुभाय कहता है कि इस बार ‘साल के दिन के दिन’ फलाना चंदरा माथे लगा था। जिस वहिम-प्रस्ती को हटाने के लिए, जो भेद-भाव दूर करने के लिए, सिख ने गुरुद्वारे जाना है, इस ‘संग्रांद’ को मनाने से वह वहम-प्रस्ती और भेदभाव बल्कि बढ़ते हैं।

रोजाना अरदास:

दरअसल बात ये है कि हरेक मनुष्य में ईश्वर की ज्योति है, और हरेक दिन एक समान है। भाग्यशाली समय सिर्फ वही है जब मनुष्य को परमात्मा चेते आता है। किसी खास दिन नहीं, बल्कि हर रोज सवेरे उठ के इसकी अरदास इस प्रकार होनी चाहिए, “सेई प्यारे मेल, जिनां मिलिआं तेरा नाम चित्त आए”।

प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यक्ता:

यही निरी फर्जी बात नहीं कि ‘संग्रांद’ के परचे के कारण वहम-प्रस्ती बढ़ रही है। संग्रांद वाले दिन गुरुद्वारे जा के देखें, इसके श्रद्धालुओं की उस दिन तमन्ना होती है कि आज ‘महीने’ वाला शब्द सुनाया जाए, हलांकि, सारी वाणी परमात्मा की महिमा वाली होने के कारण, जिंदगी की रहबरी वाली होने के कारण, एक ही दर्जा रखती है। ‘संग्रांद’ के वहम में ‘वाणी’– ‘वाणी’ में फर्क समझा जाता है, क्योंकि असल नीयत तो ‘वाणी’ सुनने की नहीं होती, सिर्फ ‘महीना’ सुनने की होती है। निरा यही नहीं, श्री दरबार साहिब में ‘संग्रांद’ वाले दिन जा के देखें, वहाँ और ही आश्चर्यजनक खेल बरतती है। ‘आसा दी वार’ के कीर्तन की समाप्ति उपरांत जब ‘बारहमाह’ में ‘महीना’ सुनाना शुरू किया जाता है, तब शुरू में शब्द ‘जेठ’ ‘हाड़’ आदि सुन के सारी पउड़ी को सुनने की जरूरत ही नहीं समझी जाती। ‘महीना’ सुन के ही ‘वाहिगुरू, वाहिगुरू’ कहती हुई बहुत सारी संगत उठ जाती है।

दुकानदारी:

कई दुकानदारों ने इस वहम-प्रस्ती से अजीब किस्म के लाभ उठाने की कोशिश की लगती है। अपनी छापी हुई ‘बीड़ों’ को शायद लोक-प्रिय करने के लिए इस ‘बारहमाह’ को भी वही विशेष रंग-बिरंगा बनाया गया है जैसा कि हरेक ‘राग’ के ‘आरंभ’ को बनाया जाता है।

सूर्य-प्रस्ती का प्रचार बेसमझी सा:

सो हर तरफ से संग्रांद के माध्यम से यह वहम बढ़ रहा है कि सूर्य के नई ‘राशि’ में आने वाला पहला दिन खास तौर पर भाग्यशाली है, और, इस तरह नासमझ सिखों में सूर्य-प्रस्ती का प्रचार किया जा रहा है। इस ‘संग्रांद’ के भ्रम से ‘साल के दिनों के दिन’ के वहम से भी और आगे के भ्रम बढ़ते जा रहे हैं कि आज ‘फलाने-फलाने दिन’ परदेस नहीं जाना, सवेरे-सवेरे हाथ से माया नहीं खरचनी इत्यादिक।

भाई गुरदास जी:

ऐसे भरमों को ही भाई गुरदास जी ने मनमति बता कर सिखों को इनके प्रति सचेत करने की कोशिश की थी, पर हम फिर उधर ही मुड़ते जा रहे हैं। आप लिखते हैं:

“सउण सगन बीचारने नउं ग्रह ‘बारह रासि’ वीचारा॥
कामण टूणे औंसीआं, कणसोई पासार पसारा॥
गदहुं कुत्ते बिलीआं, इल मलाली गिद्दड़ छारा॥
नारि पुरख पाणी अगनि, छिक पद्द हिडकी वरतारा॥
थिती ‘वार’ भद्रा भरम, दिशा सूल सहसा संसारा॥
वल छल करि विशवास लख, बहु चुखीं किउं रवै भतारा॥
गुरमुखि सुख फलु पार–उतारा॥8॥5॥ ”

(कीर्तन, अमृत, करामात आदि विषयों के संबंध में मेरे विचारों के लिए पढ़ें मेरी पुस्तक ‘बुराई दा टाकरा’। सिंघ ब्रदर्ज बाजार माई सेवां अमृतसर से मिलेगी)।

तुखारी छंत महला १ बारह माहा

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

तू सुणि किरत करमा पुरबि कमाइआ ॥ सिरि सिरि सुख सहमा देहि सु तू भला ॥ हरि रचना तेरी किआ गति मेरी हरि बिनु घड़ी न जीवा ॥ प्रिअ बाझु दुहेली कोइ न बेली गुरमुखि अम्रितु पीवां ॥ रचना राचि रहे निरंकारी प्रभ मनि करम सुकरमा ॥ नानक पंथु निहाले सा धन तू सुणि आतम रामा ॥१॥

पद्अर्थ: तू सुणि = हे हरि! तू (मेरी विनती) सुन। किरत = किए हुए। करंमा = काम। पूरबि = पूर्बले किए हुए, पहले जन्मों में। कमाइआ = कमाई। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक जीव के सिर पर। सहंमा = सहम, दुख। तू देहि = (जो) तू देता है। सु भला = वह (हरेक जीव के लिए) भला है। गति = हालत। दुहेली = दुखी। बेली = मदद करने वाला। गुरमुखि = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। निरंकारी रचना = निरंकार की रचना में। सु करमा = श्रेष्ठ कर्म। पंथु = रास्ता। निहाले = ताक रही है। साधन = जीव-स्त्री। आतम रामा = हे सर्व व्यापक परमात्मा! अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।

अर्थ: हे हरि! (मेरी विनती) सुन। पूर्बले कमाए हुए किए कर्मों के अनुसार हरेक जीव के सिर पर जो सुख और दुख (झेलने के लिए) तू देता है वही ठीक है।

हे हरि! मैं तेरी रची माया में (व्यस्त) हूँ। मेरा क्या हाल होगा? तेरे बिना (तेरी याद के बिना) एक घड़ी भी जीना- ये कैसी जिंदगी है? हे प्यारे! तेरे बिना मैं दुखी हूँ, (इस दुख में से निकालने के लिए) कोई मददगार नहीं है। (मेहर कर कि) गुरु की शरण पड़ कर मैं तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता रहूँ।

हम जीव निरंकार की रची हुई माया में ही फसे हुए हैं (ये कैसा जीवन है?), प्रभु को मन में बसाना ही सबसे श्रेष्ठ कर्म है (यही है मनुष्य के लिए जीवन का लक्ष्य)।

हे नानक! (कह:) हे सर्व व्यापक परमात्मा! तू (जीव-स्त्री की आरजू) सुन (और, उसको अपने दर्शन दे), जीव-स्त्री तेरा राह ताक रही है।1।

भाव: पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य इस जनम में भी माया के मोह में ही फसा रहता है, और, दुखी जीवन गुजारता है। परमात्मा की मेहर से जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह उसका आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी पी के आत्मिक आनंद पाता है। यही है जीवन-उद्देश्य।

बाबीहा प्रिउ बोले कोकिल बाणीआ ॥ सा धन सभि रस चोलै अंकि समाणीआ ॥ हरि अंकि समाणी जा प्रभ भाणी सा सोहागणि नारे ॥ नव घर थापि महल घरु ऊचउ निज घरि वासु मुरारे ॥ सभ तेरी तू मेरा प्रीतमु निसि बासुर रंगि रावै ॥ नानक प्रिउ प्रिउ चवै बबीहा कोकिल सबदि सुहावै ॥२॥ {पन्ना 1107}

पद्अर्थ: बाबीहा = पपीहा, चात्रिक। बाणीआ = मीठे बोल। साधन = जीव-स्त्री। सभि = सारे। चोलै = खाती है, माणती है। अंकि = अंक में, अंग से। प्रभ भाणी = प्रभु को प्यारी लगती है। सोहागणि = अच्छे भाग्यों वाली। नारे = नारी, जीव-स्त्री। नव घर = नौ गोलकें, नौ इन्द्रियों वाले शरीर को। थापि = टिका के, जुगति में रख के। ऊचउ = ऊँचा। महल घरु = प्रभु का निवास स्थान, प्रभु के चरण। निज घरि मुरारे = प्रभु के स्वै स्वरूप में, प्रभु के अपने घर में। निसि = रात। बासुर = दिन। रंगि = प्यार में। रावै = माणती है, सिमरती है। सबदि = शब्द से। सुहावै = सुंदर लगती है।

अर्थ: (जैसे) पपीहा ‘प्रिउ प्रिउ’ बोलता है जैसे कोयल (‘कू कू’ की मीठी) बोली बोलती है (वैसे ही जो जीव-स्त्री वैराग में आ के मीठी सुर से प्रभु-पति को याद करती है, वह) जीव-स्त्री (प्रभु-मिलाप के) सारे आनंद माणती है, और उसके चरणों में टिकी रहती है। जब वह प्रभु को अच्छी लग जाती है, (तब उसकी मेहर से) उसके चरणों में जुड़ी रहती है, वही जीव-स्त्री अच्छे भाग्यों वाली है। वह अपने शरीर को (शारीरिक इन्द्रियों को) जुगति में रख के प्रभु के अपने स्वरूप में टिक जाती है, और (मायावी पदार्थों के मोह से उठ के) प्रभु के ऊँचे ठिकाने पर जा पहुँचती है।

हे नानक! वह जीव-स्त्री प्रभु के प्यार में रंगीज के दिन-रात उसको सिमरती है, और कहती है: ये सारी सृष्टि तेरी रची हुई है, तू ही मेरा प्यारा खसम साई है। जैसे पपीहा ‘पिउ पिउ’ बोलता है जैसे कोयल मीठे बोल बोलती है, वैसे ही वह जीव-स्त्री गुरु-शब्द द्वारा (प्रभु की महिमा करके) सुंदर लगती है।2।

भाव: नाम की इनायत से, महिमा की इनायत से मनुष्य अपनी सारी ज्ञान-इंद्रिय को मर्यादा में रख के माया के पदार्थों के मोह से ऊँचा उठा रहता है। गुरु के शब्द के द्वारा उसका जीवन पवित्र हो जाता है।

तू सुणि हरि रस भिंने प्रीतम आपणे ॥ मनि तनि रवत रवंने घड़ी न बीसरै ॥ किउ घड़ी बिसारी हउ बलिहारी हउ जीवा गुण गाए ॥ ना कोई मेरा हउ किसु केरा हरि बिनु रहणु न जाए ॥ ओट गही हरि चरण निवासे भए पवित्र सरीरा ॥ नानक द्रिसटि दीरघ सुखु पावै गुर सबदी मनु धीरा ॥३॥

पद्अर्थ: हरि रस भिंने = हे रस भरे हरि! प्रीतम आपणे = हे मेरे प्रीतम! मनि = (मेरे) मन में। तनि = (मेरे) शरीर में। रवत रवंने = हे रमे हुए! न बीसरै = (मेरा मन) नहीं भुलाता। बिसारी = मैं बिसार सकूँ। हउ = मैं। गाए = गा के। केरा = का। रहणु न जाए = मन धीरज नहीं पकड़ता। गही = पकड़ी। द्रिसटि = दृष्टि, नज़र। दीरघ = लीं। दीरघ द्रिसटि = लंबी नजर वाला, बड़े जिगरे वाला। धीरा = धैर्य वाला।

अर्थ: हे मेरे प्रीतम! हे रस भरे हरि! हे मेरे मन-तन में रमे हुए! तू (मेरी आरजू) सुन, (मेरा मन तुझे) एक घड़ी भर के लिए भी नहीं भुला सकता।

मैं एक घड़ी के लिए भी तुझे नहीं बिसार सकता, मैं (तुझसे) सदा सदके हूँ, तेरी महिमा कर कर के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। (परमात्मा के बिना अंत तक साथ निभाने वाला) ना कोई मेरा (सदा का) साथी है ना ही मैं किसी का (सदा के लिए) साथी हूँ, परमात्मा की याद के बिना मेरे मन को धैर्य नहीं बँधता।

जिस मनुष्य ने परमात्मा का आसरा लिया है, जिसके हृदय में प्रभु के चरण बस गए हैं, उस का शरीर पवित्र हो जाता है। हे नानक! वह मनुष्य लंबे जिगरे वाला हो जाता है, वह आत्मिक आनंद पाता है, गुरु के शब्द से उसका मन धैर्यवान हो जाता है।3।

भाव: महिमा करते-करते मनुष्य के अंदर ऊँचा आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। मनुष्य को यकीन हो जाता है कि एक परमात्मा ही जीव के साथ सदा निभने वाला साथी है।

बरसै अम्रित धार बूंद सुहावणी ॥ साजन मिले सहजि सुभाइ हरि सिउ प्रीति बणी ॥ हरि मंदरि आवै जा प्रभ भावै धन ऊभी गुण सारी ॥ घरि घरि कंतु रवै सोहागणि हउ किउ कंति विसारी ॥ उनवि घन छाए बरसु सुभाए मनि तनि प्रेमु सुखावै ॥ नानक वरसै अम्रित बाणी करि किरपा घरि आवै ॥४॥

पद्अर्थ: बरसै = बरसती है। अंम्रित धार बूँद = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल के बूँदों की धारा। सहजि = सहज अवस्था में (टिके हुए को), आत्मिक अडोलता में (टिके हुए को)। सुभाइ = प्रेम में (टिके हुए को)। सिउ = साथ। मंदरि = मन्दिर में। जा = जब। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छा लगता है। धन = जीव-स्त्री। ऊभी = ऊँची (हो हो के), उतावली। सारी = संभालती है। घरि घरि = हरेक हृदय घर में। कंतु = प्रभु पति। रावै = रंग माणती है। हउ = मुझे। कंति = कंत ने, प्रभु पति ने। उनवि = झुक के, लिफ के, नीचे आ के, तरस कर के। घन = हे घन! हे बादल! बरसु = बरस, वर्षा कर। सुभाए = प्रेम से। सुखावै = सुखाता है, सुख देता है। घरि = घर में।

अर्थ: (जिस जीव-स्त्री के हृदय-घर में), प्रभु की महिमा की सोहावनी बूँदों की धारा बरसती है, उस अडोल अवस्था में टिकी हुई को प्रेम में टिकी हुई को सज्जन-प्रभु आ मिलता है, प्रभु के साथ उसकी प्रीति बन जाती है। (उस जीव-स्त्री का हृदय प्रभु-देव के ठहरने के लिए मन्दिर बन जाता है) जब प्रभु को अच्छा लगता है, वह उस जीव-स्त्री के हृदय-मन्दिर में आ ठहरता है, वह जीव-स्त्री उतावली हो हो के उसके गुण गाती है, (और कहती है:) हरेक भाग्यवान के हृदय-घर में प्रभु-पति रलियां माणता है, प्रभु-पति ने मुझे क्यों भुला दिया है? (वह तरले ले ले के गुरु के आगे यूँ अरदास करती है:) हे झुके घटा बन के आए बादल! प्रेम से बरस (हे तरस करके आए गुरु पातशाह! प्रेम से मेरे अंदर महिमा की बरखा कर), प्रभु का प्यार मेरे मन में, मेरे तन में आनंद पैदा करता है।

हे नानक! जिस (सौभाग्य भरे) हृदय-घर में महिमा की वाणी की बरखा होती है, प्रभु कृपा धार के स्वयं वहाँ आ टिकता है।4।

भाव: महिमा की इनायत से मनुष्य का मन विकारों से अडोल रहता है, उसके अंदर हर वक्त परमात्मा के मिलाप के प्रति आर्कषण बना रहता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh