श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1118 केदारा महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मन राम नाम नित गावीऐ रे ॥ अगम अगोचरु न जाई हरि लखिआ गुरु पूरा मिलै लखावीऐ रे ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हे मेरे मन = हे मेरे मन! नित = नित्य, सदा। गावीऐ = गाना चाहिए, स्मरणा चाहिए। अगम = अगम्य, अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरू = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे हो। न जाई लखिआ = समझा नहीं जा सकता। लखावीऐ = समझा जा सकता है। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा स्मरणा चाहिए। हे मन! वह परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, (मनुष्य की अपनी अक्ल से वह) समझा नहीं जा सकता। जब पूरा गुरु मिलता है तब उसको समझा जा सकता है। रहाउ। जिसु आपे किरपा करे मेरा सुआमी तिसु जन कउ हरि लिव लावीऐ रे ॥ सभु को भगति करे हरि केरी हरि भावै सो थाइ पावीऐ रे ॥१॥ पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। कउ = को। लिव = लगन, प्रीत। लावीऐ = लगती है। सभु को = हरेक जीव। केरी = की। हरि भावै = (जो मनुष्य) हरि को अच्छा लगता है। थाइ पावीऐ = जगह पर पाया जाता है, स्वीकार होता है।1। अर्थ: हे मेरे मन! मेरा मालिक प्रभु जिस मनुष्य पर स्वयं ही कृपा करता है, उस मनुष्य को प्रभु (अपने चरणों का) प्यार लगाता है। हे मन! (अपनी ओर से) हरेक जीव परमात्मा की भक्ति करता है, पर वही मनुष्य (उसके दर पर) स्वीकार होता है जो उसको प्यारा लगता है।1। हरि हरि नामु अमोलकु हरि पहि हरि देवै ता नामु धिआवीऐ रे ॥ जिस नो नामु देइ मेरा सुआमी तिसु लेखा सभु छडावीऐ रे ॥२॥ पद्अर्थ: अमोलकु = अमूल्य, जो किसी (दुनियावी) मूल्य से नहीं मिल सकता। पहि = पास। देवै = देता है। ता = तब। धिआवीऐ = स्मरण किया जा सकता है। देइ = देता है। तिसु लेखा = उस (के कर्मों का लेखा)। सभु = सारा। छडावीऐ = छुड़ाया जाता है, समाप्त किया जाता है।2। नोट: ‘जिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कासरण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम किसी दुनियावी मूल्य से नहीं मिल सकता, (उसका यह नाम उस) परमात्मा के (अपने) पास है। जब परमात्मा (किसी को नाम की दाति) देता है, तब ही स्मरण किया जा सकता है। हे मन! मेरा मालिक प्रभु जिस मनुष्य को अपना नाम देता है उस (के पिछले किए हुए कर्मों का) सारा हिसाब समाप्त हो जाता है।2। हरि नामु अराधहि से धंनु जन कहीअहि तिन मसतकि भागु धुरि लिखि पावीऐ रे ॥ तिन देखे मेरा मनु बिगसै जिउ सुतु मिलि मात गलि लावीऐ रे ॥३॥ पद्अर्थ: अराधहि = जपते है (बहुवचन)। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। धंनु जन = (धन्य) भाग्यशाली मनुष्य। कहीअहि = कहे जाते हैं। मसतकि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। भागु लिखि पावीऐ = अच्छी किस्मत लिख के पाई जाती है। तिन देखे = उनको देखा। बिगसै = खिल उठता है, खुश होता है। सुतु = पुत्र। मिलि मात = माँ को मिल के। गलि = गले से। लावीऐ = लगाया जाता है।3। अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वह मनुष्य भाग्यशाली कहे जाते हैं। उनके माथे पर धुर से ही प्रभु की हजूरी से लिखी अच्छी किस्मत उनको प्राप्त हो जाती है। हे भाई! उनके दर्शन करने से मेरा मन (इस तरह) खुश होता है, जैसे पुत्र (अपनी) माँ को मिल के (खुश होता है), वह माँ के गले से चिपक जाता है।3। हम बारिक हरि पिता प्रभ मेरे मो कउ देहु मती जितु हरि पावीऐ रे ॥ जिउ बछुरा देखि गऊ सुखु मानै तिउ नानक हरि गलि लावीऐ रे ॥४॥१॥ पद्अर्थ: बारिक = बच्चे, बालक (बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभु! मो कउ = मुझे। मती = शिक्षा। जितु = जिस (मति) से। पावीऐ = पाया जा सकता है। बछुरा = बछरा। देखि = देख के। गऊ सुखु मानै = गाय खुश होती है। हरि गलि = हरि के गले से। लावीऐ = लगाया जाता है।4। अर्थ: हे मेरे पिता-प्रभु! हम जीव तेरे बच्चे हैं। (हे प्रभु!) मुझे ऐसी मति दे, जिससे तेरा नाम प्राप्त हो सके। हे नानक! जैसे गाय (अपने) बछरे को देख के प्रसन्न होती है वैसे ही वह भाग्यशाली मनुष्य सुखी महसूस करता है जिसको परमात्मा अपने गले से लगा लेता है।4।1। केदारा महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मन हरि हरि गुन कहु रे ॥ सतिगुरू के चरन धोइ धोइ पूजहु इन बिधि मेरा हरि प्रभु लहु रे ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे मेरे मन = हे मेरे मन! कहु = उचारा कर। धोइ = धो कर। इन बिधि = इस तरह। लहु = ढूँढ लो। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के गुण गाया कर। गुरु के चरण धो-धो के पूजा कर (भाव, अहंकार छोड़ के गुरु के चरण पड़ा रह)। हे मन! इस तरीके से प्यारे प्रभु को ढूँढ ले। रहाउ। कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु बिखै रस इन संगति ते तू रहु रे ॥ मिलि सतसंगति कीजै हरि गोसटि साधू सिउ गोसटि हरि प्रेम रसाइणु राम नामु रसाइणु हरि राम नाम राम रमहु रे ॥१॥ पद्अर्थ: अभिमान = अहंकार। बिखै रस = विषियों के स्वाद। इन संगति ते = इनकी संगति से। रहु = हट जा। मिलि = मिल के। कीजै = करनी चाहिए। गोसटि = विचार। हरि गोसटि = परमात्मा के गुणों की विचार। साधू सिउ = गुरु से, गुरसिख से। रसाइणु = (रस+अयन) सारे रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस। रमहु = स्मरण करो।1। अर्थ: हे मन! काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, विषियों के चस्के - इनसे हमेशा दूर बना रह। हे मन! साधु-संगत में मिल के हरि-गुणों की विचार करनी चाहिए। हे मेरे मन! परमात्मा का प्यार सब रसों से श्रेष्ठ रस है, परमात्मा का नाम सारे रसों का घर है। सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |