श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1121

बूंद कहा तिआगि चात्रिक मीन रहत न घरी ॥ गुन गोपाल उचारु रसना टेव एह परी ॥१॥

पद्अर्थ: बूँद = (स्वाति नक्षत्र की बरखा की) बूँद। कहा तिआगि = कहाँ तयाग सकता है? नहीं छोड़ सकता। चात्रिक = पपीहा। मीन = मछली। घरी = घड़ी। रसना = जीभ से। टेव = आदत। परी = पड़ जाती है।1।

अर्थ: हे भाई! (देखो प्रीति के कारनामे!) पपीहा (स्वाति नक्षत्र की वर्षा की) बूँद को छोड़ के और (किसी) बूँद से तृप्त नहीं होता। मछली (का पानी से इतना प्यार है कि वह पानी के बिना) एक घड़ी भी जी नहीं सकती। हे भाई! अपनी जीभ से पृथ्वी के पालनहार प्रभु के गुण गाया कर। (जो मनुष्य सदा हरि-गुण उचारता है, उसको) यह आदत ही बन जाती है (फिर वह गुण उचारे बिना रह नहीं सकता)।1।

महा नाद कुरंक मोहिओ बेधि तीखन सरी ॥ प्रभ चरन कमल रसाल नानक गाठि बाधि धरी ॥२॥१॥९॥

पद्अर्थ: नाद = (घंडेहेड़े की) आवाज। कुरंक = हिरन। बेधि = भेद दिया जाता है। सर = तीर। तीखन सरी = तीक्ष्ण तीरों से, नुकीले तीरों से। रसाल = (रस+आलय, रसों का घर) मीठे। गाठि = गाँठ। बाधि धरी = बाँध ली।2।

अर्थ: हे भाई! (प्रीत का और भी करिश्मा देखो!) हिरन (घंडेहेड़े की) आवाज़ से मोहित हो जाता है (उसमें इतना मस्त होता है कि शिकारी के) नुकीले तीरों से छिद जाता है। (इसी तरह) हे नानक! (जिस मनुष्य को) प्रभु के सुंदर चरण मधुर लगते हैं, (वह मनुष्य इन चरणों से अपनी पक्की) गाँठ बाँध लेता है।2।1।9।

केदारा महला ५ ॥ प्रीतम बसत रिद महि खोर ॥ भरम भीति निवारि ठाकुर गहि लेहु अपनी ओर ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! रिद महि = (मेरे) हृदय में। बसत = बस रही है। खोर = खोट, कोरा पन। भीति = दीवार। निवारि = दूर कर। ठाकुर = हे ठाकुर! गहि लेहु = (मेरी बाँह) पकड़ ले। ओर = तरफ।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! (मेरे) हृदय में कोरापन (खोट) बसा हुआ है (जो तेरे चरणों से प्यार बनने नहीं देता)। हे ठाकुर! (मेरे अंदर से) भटकना की दीवार दूर कर (ये दीवार मुझे तेरे से दूर रख रही है)। (मेरा हाथ) पकड़ के मुझे अपने साथ (जोड़) ले (अपने चरणों में जोड़ ले)।1। रहाउ।

अधिक गरत संसार सागर करि दइआ चारहु धोर ॥ संतसंगि हरि चरन बोहिथ उधरते लै मोर ॥१॥

पद्अर्थ: अधिक = कई, बहुत सारे। गरत = गड्ढे। सागर = समुंदर। चारहु = चढ़ा लो। धोर = किनारे पर। संगि = संगति में। बोहिथ = जहाज़। उधरते = बचा लेते हैं। मोर लै = मुझे लेकर।1।

अर्थ: हे प्रीतम! (तेरे इस) संसार-समुंदर में (विकारों के) अनेक गड्ढे हैं, मेहर कर के (मुझे इनसे बचा के) किनारे पर चढ़ा ले। हे हरि! संतजनों की संगति में (रख के मुझे अपने) चरणों के जहाज़ (में चढ़ा ले), (तेरे ये चरण) मुझे पार उतारने के समर्थ हैं।1।

गरभ कुंट महि जिनहि धारिओ नही बिखै बन महि होर ॥ हरि सकत सरन समरथ नानक आन नही निहोर ॥२॥२॥१०॥

पद्अर्थ: गरभ कुंट महि = गर्भ कुंड में, माँ के पेट में। जिनहि = जिस (हरि) ने। धारिओ = बचाए रखा। बन = (वनां कानने जले) पानी। बिखै बन = विषियों का समुंदर। सकत = शक्ति वाला। सरन समरथ = शरण पड़े हुओं को बचा सकने की समर्थता वाला। निहोर = अधीनता। आन = अन्य।2।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने माँ के पेट में बचाए रखा, विषय-विकारों के समुंदर में (डूबते को बचानें वाला भी उसके बिना) कोई और नहीं है। हे नानक! परमात्मा सब ताकतों का मालिक है, शरण आए को बचाने में समर्थ है, (जो मनुष्य उसकी शरण आ पड़ता है, उसको) मुथाज़ी नहीं रह जाती।2।2।10।

केदारा महला ५ ॥ रसना राम राम बखानु ॥ गुन गुोपाल उचारु दिनु रैनि भए कलमल हान ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। बखानु = उचारा कर। रैनि = रात। कलमल = पाप। भए हान = नाश हो गए। रहाउ।

नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘गोपाल’ है यहाँ ‘गुपाल’ पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! (अपनी) जीभ से हर वक्त परमात्मा का नाम जपा कर, दिन-रात सृष्टि के पालनहार प्रभु के गुण गाया कर। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है, उसके सारे) पाप नाश हो जाते हैं। रहाउ।

तिआगि चलना सगल स्मपत कालु सिर परि जानु ॥ मिथन मोह दुरंत आसा झूठु सरपर मानु ॥१॥

पद्अर्थ: तिआगि = छोड़ के। संपत = धन पदार्थ। कालु = मौत। परि = पर। जानु = समझ रख। मिथन मोह = नाशवान पदार्थों का मोह। दुरंत = (दुर+अंत) कभी ना खत्म होने वाली। झूठु = नाशवान। सरपर = अवश्य। मान = मान ले।1।

अर्थ: हे भाई! सारा धन-पदार्थ छोड़ के (आखिर हरेक प्राणी ने यहाँ से) चले जाना है। हे भाई! मौत को (सदा अपने) सिर पर (खड़ी हुई) समझ। हे भाई! नाशवान पदार्थों का मोह, कभी ना खत्म होने वाली आशाएं - इनके निष्चित तौर पर नाशवान मान।1।

सति पुरख अकाल मूरति रिदै धारहु धिआनु ॥ नामु निधानु लाभु नानक बसतु इह परवानु ॥२॥३॥११॥

पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। पुरख = सर्व व्यापक। अकाल = अ+काल, मौत रहित। मूरति = स्वरूप। अकाल पूरति = जिसकी हस्ती मौत रहित है। रिदै = हृदय में। निधानु = खजाना। बसतु = वस्तु। परवानु = स्वीकार।2।

अर्थ: हे भाई! (अपने) हृदय में उस परमात्मा का ध्यान धरा कर जो सदा कायम रहने वाला है जो सर्व-व्यापक है और जो नाशवान अस्तित्व वाला है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम (ही असल) खजाना है (असल) कमाई है। यह वस्तु (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार होती है।2।3।11।

केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम को आधारु ॥ कलि कलेस न कछु बिआपै संतसंगि बिउहारु ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = का। आधारु = आसरा। कलि = झगड़े। कछु = कोई भी (विकार)। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। संगि = साथ, संगति में। बिउहारु = (हरि नाम का) व्यापार। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य को सदा) परमात्मा के नाम का आसरा रहता है, जो मनुष्य संत जनों की संगति में रहके हरि-नाम का वणज करता है, (दुनिया के) झगड़े-कष्ट (इनमें से) कोई भी उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। रहाउ।

करि अनुग्रहु आपि राखिओ नह उपजतउ बेकारु ॥ जिसु परापति होइ सिमरै तिसु दहत नह संसारु ॥१॥

पद्अर्थ: करि = कर के। अनुग्रहु = कृपा। राखिओ = रक्षा की। उपजतउ = पैदा होता। बेकारु = कोई (विकार)। परापति होइ = धुर से मिले। दहत नह = नहीं जलाता। संसारु = संसार के विकारों की आग।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं मेहर कर के जिस मनुष्य की रक्षा करता है, उसके अंदर कोई विकार पैदा नहीं होता। हे भाई! जिस मनुष्य को नाम की दाति धुर-दरगाह से मिलती है, वही हरि-नाम स्मरण करता है, फिर उस (के आत्मिक जीवन) को संसार (भाव, संसार के विकारों की आग) जला नहीं सकती।1।

सुख मंगल आनंद हरि हरि प्रभ चरन अम्रित सारु ॥ नानक दास सरनागती तेरे संतना की छारु ॥२॥४॥१२॥

पद्अर्थ: मंगल = खुशियाँ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। सारु = संभाल (हृदय में)। नानक = हे नानक! (कह-)। सरनागती = शरण आया है। छारु = चरणों की धूल।2।

अर्थ: हे भाई! हरि-प्रभु के चरण आत्मिक जीवन देने वाले हैं, इनको अपने हृदय में संभाल, (तेरे अंदर) आत्मिक सुख खुशियां आनंद (पैदा होंगे)।

हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरा दास तेरी शरण आया है तेरे संत जनों की चरण-धूल (माँगता है)।2।4।12।

केदारा महला ५ ॥ हरि के नाम बिनु ध्रिगु स्रोत ॥ जीवन रूप बिसारि जीवहि तिह कत जीवन होत ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार योग्य। स्रोत = कान। जीवन रूप = वह प्रभु जो सिर्फ जीवन ही जीवन है, जो सबका जीवन है। बिसारि = भुला के। जीवहि = (जो मनुष्य) जीते हैं। तिन = उनका। कत = कैसा?। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सुने बिना (मनुष्य के) कान धिक्कार-योग्य हैं (क्योंकि ये फिर निंदा-चुगली में ही व्यस्त रहते हैं)। हे भाई! जो मनुष्य सारे जगत के जीवन प्रभु को भुला के जीते हैं (जिंदगी के दिन गुजारते हैं), उनका जीना कैसा है? (उनके जीने को जीना नहीं कहा जा सकता)। रहाउ।

खात पीत अनेक बिंजन जैसे भार बाहक खोत ॥ आठ पहर महा स्रमु पाइआ जैसे बिरख जंती जोत ॥१॥

पद्अर्थ: बिंजन = व्यंञन, भोजन। बाहक = वाहक, ढोने वाला, उठाने वाला। खोत = गधा। स्रमु = श्रम, मेहनत, थकावट। बिरख = वृषभ, बैल। जंती = कोहलू (के आगे)। जंत = जोया हुआ।1।

अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम को बिसार के जो मनुष्य) अनेक अच्छे-अच्छे खाने खाते-पीते हैं, (वे ऐसे ही हैं) जैसे भार ढोने वाले गधे। (हरि-नाम को बिसारने वाले) आठों पहर (माया की खातिर दौड़-भाग करते हुए) बहुत थकते हैं, जैसे कोई बैल कोल्हू के आगे जोता हुआ होता है।1।

तजि गुोपाल जि आन लागे से बहु प्रकारी रोत ॥ कर जोरि नानक दानु मागै हरि रखउ कंठि परोत ॥२॥५॥१३॥

पद्अर्थ: तजि = त्याग के, भुला के। जि = जो मनुष्य। आन = अन्य तरफ। से = वह लोग। रोत = रोते हैं, दुखी होते हैं। कर = हाथ (बहुवचन)। जोरि = जोड़ के। मागै = माँगता है। रखउ = मैं रखूँ। कंठि = गले में। परोत = परो के।2।

नोट: ‘गुोपाल’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘गोपाल’ है यहाँ ‘गुपाल’ पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! सृष्टि के पालनहार (का नाम) त्याग के जो मनुष्य अन्य आहरों में लगे रहते हैं, वे कई तरीकों से दुखी होते रहते हैं। हे नानक! (कह:) हे हरि! (तेरा दास दोनों) हाथ जोड़ कर (तेरे नाम का) दान माँगता है (अपना नाम दे), मैं (इसको अपने) गले में परो के रखूँ।2।5।13।

केदारा महला ५ ॥ संतह धूरि ले मुखि मली ॥ गुणा अचुत सदा पूरन नह दोख बिआपहि कली ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धूरि = धूल, चरण धूल। ले = (जिस ने) ले कर। मुखि = (अपने) मुँह पर। अचुत = च्युत, to fall, अविनाशी। गुणा अचुत = अविनाशी प्रभु के गुण (हृदय में बसाने) से। पूरन = सर्व व्यापक। दोख कली = कलियुग के विकार, जगत के विकार (शब्द ‘कली’ यहाँ किसी विषोश युग का द्योतक नहीं है)। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने) संतजनों की चरण-धूल लेकर (अपने) माथे पर मल ली (और, संतों की संगति में जिसने परमात्मा के गुण गाए), अविनाशी और सर्व-व्यापक प्रभु के गुण हृदय में बसाने की इनायत से जगत के विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते। रहाउ।

गुर बचनि कारज सरब पूरन ईत ऊत न हली ॥ प्रभ एक अनिक सरबत पूरन बिखै अगनि न जली ॥१॥

पद्अर्थ: बचनि = वचन से। सरब = सारे। ईत ऊत = इधर उधर। हली = डोलता। बिखै अगनि = विषियों की आग (में)। जली = जलता।1।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य ने संतों की चरण-धूल अपने माथे पर लगाई) गुरु के उपदेश का सदका उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं, उसका मन इधर-उधर नहीं डोलता, (उसको इस तरह दिख जाता है कि) एक परमात्मा अनेक रूपों में सब जगह व्यापक है, वह मनुष्य विकारों की आग में नहीं जलता (उसका आत्मिक जीवन विकारों की आग में तबाह नहीं होता)।1।

गहि भुजा लीनो दासु अपनो जोति जोती रली ॥ प्रभ चरन सरन अनाथु आइओ नानक हरि संगि चली ॥२॥६॥१४॥

पद्अर्थ: गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। जोति = जीवात्मा। जोती = प्रभु की ज्योति में। अनाथु = निमाणा। संगि = साथ।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) प्रभु अपने जिस दास को (उसकी) बाँह पकड़ कर अपने चरणों में जोड़ लेता है, उसकी जिंद प्रभु के चरणों में लीन हो जाती है। जो अनाथ (प्राणी भी) प्रभु के चरणों की शरण में आ जाता है, वह प्राणी प्रभु की याद में ही जीवन-राह पर चलता है।2।6।14।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh