श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1128 चारे वरन आखै सभु कोई ॥ ब्रहमु बिंद ते सभ ओपति होई ॥२॥ पद्अर्थ: चारे = चार ही। वरन = वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र)। सभु कोई = हरेक मनुष्य। ते = से। बिंद = वीर्य, असल। ब्रहमु बिंद ते = परमात्मा की ज्योति रूप असल से। सभ = सारी। ओपति = उत्पक्ति।2। अर्थ: हे भाई! हरेक मनुष्य यही कहता है कि (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ये) चारों ही (अलग-अलग) वर्ण हैं। (पर, ये लोग यह नहीं समझते कि) परमात्मा की ज्योति-रूप असल से ही सारी सृष्टि पैदा होती है।2। माटी एक सगल संसारा ॥ बहु बिधि भांडे घड़ै कुम्हारा ॥३॥ पद्अर्थ: सगल = सारा। बहु बिधि = कई किस्मों के। घड़ै = घड़ता है।3। अर्थ: हे भाई! (जैसे कोई) कुम्हार एक ही मिट्टी से कई किस्मों के बर्तन घड़ लेता है, (वैसे ही) यह संसार है (परमात्मा ने अपनी ही ज्योति से बनाया है)।3। पंच ततु मिलि देही का आकारा ॥ घटि वधि को करै बीचारा ॥४॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। देही = शरीर। आकारा = शक्ल। को करै = कौन कर सकता है? घटि = थोड़े। वधि = बहुत, ज्यादा।4। अर्थ: हे भाई! पाँच तत्व मिल के शरीर की शक्ल बनती है। कोई ये नहीं कह सकता कि किसी (एक वर्ण) में बहुत तत्व हैं, और किसी (दूसरे वरण) में थोड़े तत्व हैं।4। कहतु नानक इहु जीउ करम बंधु होई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ॥५॥१॥ पद्अर्थ: कहतु = कहता है। जीउ = जीव। करम बंधु = अपने किए कर्मों का बँधा हुआ। भेटे = मिल के। मुकति = (कर्म के बंधनो से) मुक्ति, खलासी।5। अर्थ: नानक कहता है: (चाहे कोई ब्राहमण है, चाहे कोई शूद्र है) हरेक जीव अपने-अपने किए कर्मों (के संस्कारों) का बँधा हुआ है। गुरु को मिले बिना (किए हुए कर्मों के संस्कारों के बंधनो से) मुक्ति नहीं होती।5।1। भैरउ महला ३ ॥ जोगी ग्रिही पंडित भेखधारी ॥ ए सूते अपणै अहंकारी ॥१॥ पद्अर्थ: ग्रिही = गृहस्थी। पंडित = कई पंडित (बहुवचन)। भेखधारी = छह भेषों के साधु। ए = (बहुवचन) ये सारे। सूते = सोए हुए हैं। अपणै अहंकारी = अपने अहंकारि, अपने-अपने अहंकार में।1। अर्थ: हे भाई! जोगी, गृहस्थी, पण्डित, भेषों वाले साधु - ये सभी अपने-अपने (किसी) अहंकार में (पड़ कर प्रभु की याद से) गाफिल हुए रहते हैं।1। माइआ मदि माता रहिआ सोइ ॥ जागतु रहै न मूसै कोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मदि = नशे में। माता = मस्त। रहिआ सोइ = सो रहा है। जागतु रहै = जो सचेत रहता है। मूसै = ठगता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जीव माया के (मोह के) नशे में मस्त हो के प्रभु की याद से गाफिल हुआ रहता है (और, इस के आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी को कामादिक लूटते रहते हैं)। पर जो मनुष्य (प्रभु की याद की इनायत से) सचेत रहता है, उसको कोई विकार लूट नहीं सकता।1। रहाउ। सो जागै जिसु सतिगुरु मिलै ॥ पंच दूत ओहु वसगति करै ॥२॥ पद्अर्थ: जिसु = जिस को। दूत = वैरी। ओहु = वह मनुष्य। वसगति = वश में।2। अर्थ: हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य सचेत रहता है जिसको गुरु मिल जाता है। वह मनुष्य (नाम-जपने की इनायत से) कामादिक पाँचों वैरियों को अपने वश में करे रखता है।2। सो जागै जो ततु बीचारै ॥ आपि मरै अवरा नह मारै ॥३॥ पद्अर्थ: ततु = जगत का असल, परमात्मा। बीचारै = मन में बसाता है। मरै = (विकारों से) मरता है। अवरा = और लोगों को।3। अर्थ: हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य सचेत रहता है, जो परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसाता है। वह मनुष्य (विकारों से) अपने आप को बचाए रखता है, वह मनुष्य और पर जोर-जबरदस्ती नहीं करता।3। सो जागै जो एको जाणै ॥ परकिरति छोडै ततु पछाणै ॥४॥ पद्अर्थ: एको = सिर्फ परमात्मा को। जाणै = गहरी सांझ डालता है। परकिरति = (प्रकृति = माया) माया (का मोह)।4। अर्थ: हे भाई! सिर्फ वह मनुष्य (माया के मोह की नींद से) सचेत रहता है जो सिर्फ परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, जो माया (के मोह) को त्यागता है, और अपने असले-प्रभु के साथ जान-पहचान बनाता है।4। चहु वरना विचि जागै कोइ ॥ जमै कालै ते छूटै सोइ ॥५॥ पद्अर्थ: केइ = कोई विरला। जमै ते = जम से। कालै ते = काल से। जमै कालै ते = जनम मरण के चक्कर से, आत्मिक मौत से। छूटै = बच जाता है।5। अर्थ: हे भाई! (कोई ब्राहमण हो क्षत्रिय हो वैश्य हो व शूद्र हो) चारों वरणों में कोई विरला (माया के मोह की नींद से) सचेत रहता है (किसी खास वर्ण का कोई लिहाज़ नहीं)। (जो जागता है, वह) आत्मिक मौत से बचा रहता है।5। कहत नानक जनु जागै सोइ ॥ गिआन अंजनु जा की नेत्री होइ ॥६॥२॥ पद्अर्थ: जनु सोइ = वही मनुष्य। जा की नेत्री = जिसकी आँखों में। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अंजनु = सूरमा।6। अर्थ: नानक कहता है: वह मनुष्य माया के मोह की नींद से जागता है जिसकी आँखों में आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा पड़ा होता है।6।2। भैरउ महला ३ ॥ जा कउ राखै अपणी सरणाई ॥ साचे लागै साचा फलु पाई ॥१॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। साचे = साचि ही, सदा स्थिर हरि नाम में। साचा फलु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम फल। पाई = हासिल करता है।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य को अपने चरणों में जोड़े रखता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में जुड़ा रहता है, वह मनुष्य सदा कायम रहने वाला हरि-नाम हासिल करता है।1। रे जन कै सिउ करहु पुकारा ॥ हुकमे होआ हुकमे वरतारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे जन = हे भाई! कै सिउ = (परमात्मा को छोड़ के और) किस के आगे? करहु = तुम करते हो। हुकमे = हुक्म में ही। होआ = (जगत) बना। वरतारा = हरेक कार व्यवहार।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (कोई मुश्किल आने पर तुम परमात्मा को छोड़ कर) किसी और के आगे तरले ना करते फिरो। परमात्मा के हुक्म में ही जगत बना है, उसके हुक्म में ही हरेक घटना घटित हो रही है।1। रहाउ। एहु आकारु तेरा है धारा ॥ खिन महि बिनसै करत न लागै बारा ॥२॥ पद्अर्थ: आकारु = जगत। धारा = टिकाया हुआ। बिनसै = नाश हो जाता है। करत = पैदा करते हुए। बारा = बार, देर, चिर।2। अर्थ: हे प्रभु! ये सारा जगत तेरे ही आसरे है। (जब तू चाहे) यह एक छिन में नाश हो जाता है, इसको पैदा करते हुए (तुझे) समय नहीं लगता।2। करि प्रसादु इकु खेलु दिखाइआ ॥ गुर किरपा ते परम पदु पाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: करि = कर के। प्रसादि = कृपा। ते = से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।3। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा ने) मेहर करके (जिस मनुष्य को यह संसार) ये तमाशा सा ही दिखा दिया है, वह मनुष्य गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।3। कहत नानकु मारि जीवाले सोइ ॥ ऐसा बूझहु भरमि न भूलहु कोइ ॥४॥३॥ पद्अर्थ: मारि जीवाले = मारता है जिंदा रखता है। सोइ = वह (स्वयं) ही। भरमि = भटकना में (पड़ के)। न भूलहु = गलत रास्ते पर ना पड़ो।4। अर्थ: नानक कहता है: (हे भाई!) वह (परमात्मा) ही (जीवों को) मारता है और जिंदा रखता है। इस तरह (अस्लियत को) समझो, और, कोई भी भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर ना पड़ो।4।3। भैरउ महला ३ ॥ मै कामणि मेरा कंतु करतारु ॥ जेहा कराए तेहा करी सीगारु ॥१॥ पद्अर्थ: कामणि = स्त्री, जीव-स्त्री। कंतु = पति। करी = करूँ, मैं करती हूँ। सीगार = (आत्मिक जीवन का) श्रृंगार।1। अर्थ: हे सखी! मैं (जीव-) स्त्री हूँ, कर्तार मेरा पति है, मैं वैसा ही श्रृंगार करती हूँ जैसे खुद करवाता है (मैं अपने जीवन को उतना ही सुंदर बना सकती हूँ, जितना वह बनवाता है)।1। जां तिसु भावै तां करे भोगु ॥ तनु मनु साचे साहिब जोगु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जां = जब। तिसु भावै = उस (प्रभु-पति) को अच्छा लगता है। तां = तब। करे भोगु = (मुझे) अपने चरणों में जोड़ लेता है। साचे साहिब जोगु = सदा कायम रहने वाले मालिक के योग्य, सदा स्थिर प्रभु पति के हवाले कर दिया है।1। रहाउ। अर्थ: हे सखी! मैं अपना तन अपना मन सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु के हवाले कर चुकी हूँ, जब उसकी रजा होती है मुझे अपने चरणों में जोड़ लेता है।1। रहाउ। उसतति निंदा करे किआ कोई ॥ जां आपे वरतै एको सोई ॥२॥ पद्अर्थ: उसतति = शोभा। करे किआ कोई = किसी के किए हुए का मेरे पर कोई असर नहीं होता। आपे = प्रभु स्वयं ही। वरतै = (स्तुति करने वाले और निंदा करने वाले में) मौजूद है। सोइ = वही, वह स्वयं ही।2। अर्थ: हे सखी! जब (अब मुझे निश्चय हो गया है कि) एक परमात्मा ही सबमें बैठा प्रेरणा कर रहा है (स्तुति करने वालों में भी वही, निंदा करन वालों में भी वही), किसी की की हुई स्तुति अथवा निंदा का अब मेरे पर कोई असर नहीं पड़ता।2। गुर परसादी पिरम कसाई ॥ मिलउगी दइआल पंच सबद वजाई ॥३॥ पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। पिरम कसाई = प्यार की कसक। मिलउगी = मैं मिलूँगी। पंच सबद वजाई = पंच शब्द वजाय, (जैसे) पाँच किस्मों के साज बजा के (बहुत ही बढ़िया संगीतक रस बनता है, वैसे ही पूर्ण खिलाव आनंद से)।3। अर्थ: हे सखी! गुरु की कृपा से (मेरे अंदर प्रभु-पति के लिए) प्यार की कसक बन गई है, अब मैं उस दया के श्रोत प्रभु को पूर्ण खिड़ाव आनंद के साथ मिलती हूँ।3। भनति नानकु करे किआ कोइ ॥ जिस नो आपि मिलावै सोइ ॥४॥४॥ पद्अर्थ: भनति = कहता है। करे किआ कोइ = कोई क्या करे? कोई क्या बिगाड़ सकता है?।4। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: नानक कहता है: (हे सखी!) जिस जीव को वह प्रभु स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ लेता है, कोई और जीव उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।4।4। जरूरी नोट: इसी ही राग में भक्त नामदेव जी का शब्द नं: 4 पढ़ो, जिसकी पहली तुक है “मैं बउरी मेरा रामु भतारु”। भक्त नामदेव जी की वाणी के टीके में इन दोनों शबदों की सांझ के बारे में विचार पढ़ो। भैरउ महला ३ ॥ सो मुनि जि मन की दुबिधा मारे ॥ दुबिधा मारि ब्रहमु बीचारे ॥१॥ पद्अर्थ: मुनि = मौन धारी साधु। जि = जो। दुबिधा = दो चिक्तापन, मेर तेर। ब्रहमु = परमात्मा। बीचारे = मन में बसाता है।1। अर्थ: हे भाई! असल मौनधारी साधु वह है जो (अपने) मन की दुविधा मिटा देता है, और दोचिक्तापन (मेर-तेर) मिटा के (उस मेर-तेर की जगह) परमात्मा को (अपने) मन में बसाता है।1। इसु मन कउ कोई खोजहु भाई ॥ मनु खोजत नामु नउ निधि पाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = को। खोजहु = पड़ताल करते रहो। भाई = हे भाई! खोजत = पड़ताल करते हुए। नउ निधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। पाई = प्राप्त हो जाता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अपने इस मन को खोजते रहा करो। मन (की दौड़-भाग) की पड़ताल करते हुए परमात्मा का नाम मिल जाता है, यह नाम ही (मानो) धरती के नौ खजाने हैं।1। रहाउ। मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ ॥ ममता लाइ भरमि भुोलाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: मूलु = आदि। करि = कर के, बना के। करतै = कर्तार ने। ममता = (मम = मेरा) मल्कियत बनाने का स्वभाव, अपनत्व। भरमि = भ्रम में, भटकना में।2। नोट: ‘भुोलाइआ’ में अक्षर ‘भ’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘भुलाइआ’ यहाँ पढ़ना है ‘भोलाइआ’। अर्थ: हे भाई! (जगत रचना के) आदि मोह को बना के कर्तार ने जगत पैदा किया। जीवों में ममता चिपका के (माया की खातिर) भटकना में डाल के (उसने स्वयं ही) गलत रास्ते पर डाल दिया।2। इसु मन ते सभ पिंड पराणा ॥ मन कै वीचारि हुकमु बुझि समाणा ॥३॥ पद्अर्थ: ते = से। मन ते = मन से, मन के संस्कारों से। पिंड पराणा = शरीर के प्राण, जनम मरन के चक्कर। कै वीचारि = के विचार से। बुझि = समझ के। समाणा = (जनम मरन) समाप्त हो जाता है।3। अर्थ: हे भाई! यह मन (के मेर-तेर ममता आदि के संस्कारों) से ही सारा जनम-मरण का सिलसला बनता है। मन के (सही) विचारों से परमात्मा की रज़ा को समझ के जीव परमात्मा में लीन हो जाता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |