श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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महला २ ॥ कीता किआ सालाहीऐ करे सोइ सालाहि ॥ नानक एकी बाहरा दूजा दाता नाहि ॥ करता सो सालाहीऐ जिनि कीता आकारु ॥ दाता सो सालाहीऐ जि सभसै दे आधारु ॥ नानक आपि सदीव है पूरा जिसु भंडारु ॥ वडा करि सालाहीऐ अंतु न पारावारु ॥२॥

पद्अर्थ: कीता = पैदा किया हुआ जीव। करे = जो पैदा करता है। सोइ = उसी को। एकी बाहरा = एक प्रभु के बिना। जिनि = जिस (कर्तार) ने। आकारु = ये दिखाई देता जगत। जि = जो। सभसै = सबको। आधारु = आसरा। सदीव = सदा ही (कायम रहने वाला)। जिसु भंडारु = जिसका खजाना। पारावारु = परला और उरला छोर, (पार+अवार)।

अर्थ: पैदा किए हुए जीव की बड़ाई करने का क्या लाभ? उस (प्रभु) की महिमा करो जो (सबको पैदा) करता है; (क्योंकि) हे नानक! उस एक प्रभु के बिना कोई और दाता नहीं है।

जिस कर्तार ने यह सारा जगत बनाया है उसकी उपमा करो, उस एक दातार के गुण गाओ जो हरेक जीव को आसरा देता है।

हे नानक! वह प्रभु स्वयं सदा ही कायम रहने वाला है, उसका खजाना भी सदा भरा रहता है। उसको बड़ा कहो, उसकी उपमा करो, उस (की महिमा बड़ाई) का अंत नहीं पाया जा सकता, इस पार और उस पार का किनारा नहीं मिल सकता।2।

पउड़ी ॥ हरि का नामु निधानु है सेविऐ सुखु पाई ॥ नामु निरंजनु उचरां पति सिउ घरि जांई ॥ गुरमुखि बाणी नामु है नामु रिदै वसाई ॥ मति पंखेरू वसि होइ सतिगुरू धिआईं ॥ नानक आपि दइआलु होइ नामे लिव लाई ॥४॥

पद्अर्थ: निधान = खजाना। सेविऐ = अगर सेवें, अगर स्मरण करें। पति = इज्जत। पंखेरू = पंछी। नामे = नाम में ही। गुरमुखि बाणी नामु है = गुरमुखि की वाणी प्रभु का नाम है, गुरमुख नाम ही उचारता है। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। वसि = वश में।

अर्थ: परमात्मा का नाम (सारे सुखों का) खजाना है, जो नाम स्मरण करें तो सुख मिलता है।

मैं माया-रहित प्रभु का नाम स्मरण करूँ और इज्जत से (अपने) घर में जाऊँ - (गुरमुख की सदा यही तमन्ना होती है) गुरमुख सदा नाम ही उचारता है और नाम को हृदय में बसाता है। (ज्यों ज्यों) गुरु के द्वारा (गुरमुखि) नाम स्मरण करता है, पंछी (की तरह उड़ने वाली ये) मति (उसके) वश में आ जाती है।

हे नानक! (गुरमुख पर) प्रभु स्वयं दयाल होता है और वह नाम में ही लगन लगाए रखता है।4।

सलोक महला २ ॥ तिसु सिउ कैसा बोलणा जि आपे जाणै जाणु ॥ चीरी जा की ना फिरै साहिबु सो परवाणु ॥ चीरी जिस की चलणा मीर मलक सलार ॥ जो तिसु भावै नानका साई भली कार ॥ जिन्हा चीरी चलणा हथि तिन्हा किछु नाहि ॥ साहिब का फुरमाणु होइ उठी करलै पाहि ॥ जेहा चीरी लिखिआ तेहा हुकमु कमाहि ॥ घले आवहि नानका सदे उठी जाहि ॥१॥

पद्अर्थ: तिसु सिउ = उस (प्रभु) से।

(नोट: शब्द ‘जिसु’ ‘तिसु’ की (ु) मात्रा कई संबंधकों के साथ बनी रहती है; जैसे कि संबंधक ‘सिउ’ के साथ; पर कई संबंधकों के साथ ये ‘ु’ की मात्रा हट जाती है, जैसे कि तीसरी तुक में ‘जिस की’)।

पद्अर्थ: जि = जो। जाणु = अंतरजामी। चीरी = चिट्ठी, परवाना, हुक्म। ना फिरै = मोड़ी नहीं जा सकती। परवाणु = जाना माना। मीर = पातशाह। सलार = फौज के सरदार। कार = काम। हथि = हाथ में, वश में। करला = रास्ता, राह। करलै = रास्ते पर। पाहि = पड़ जाते हैं।

अर्थ: जो अंतरजामी प्रभु स्वयं ही (हरेक के दिल की) जानता है उसके आगे बोलना फबता नहीं (भाव, उसके आगे बोला नहीं जा सकता), वह जाना-माना मालिक है क्योंकि उसका हुक्म कोई मोड़ नहीं सकता। पातशाह मालिक और फौजों के सरदार सबको उसके हुक्म में चलना पड़ता है, (इस वास्ते) हे नानक! वही काम अच्छा (मानना चाहिए) जो उस प्रभु को अच्छा लगता है।

इन जीवों के वश में कुछ नहीं क्योंकि इन्होंने तो उसके हुक्म में ही चलना है, (जिस वक्त) मालिक का हुक्म होता है (ये जीव) उठ के रास्ते पर पड़ जाते हैं। जिस तरह का हुक्म लिखा हुआ आता है, (जीव) उसी तरह हुक्म की पालना करते हैं। हे नानक! (उस मालिक के) भेजे हुए (यहाँ जगत में) आ जाते हैं उसके बुलाए हुए (यहाँ से) उठ के चल पड़ते हैं।1।

महला २ ॥ सिफति जिना कउ बखसीऐ सेई पोतेदार ॥ कुंजी जिन कउ दितीआ तिन्हा मिले भंडार ॥ जह भंडारी हू गुण निकलहि ते कीअहि परवाणु ॥ नदरि तिन्हा कउ नानका नामु जिन्हा नीसाणु ॥२॥

पद्अर्थ: बखसीऐ = बख्शी जाती है, बख्शीश के तौर पर मिलती है। पोतेदार = खजानची। भंडार = खजाने। जह भंडारी हू = जिस (हृदय-रूप) भण्डारियों में से। निकलहि = प्रकट होते हैं। ते = वे (हृदय)। कीअहि = किए जाते हैं। परवाणु = स्वीकार। नदरि = मेहर की निगाह। नीसाणु = झण्डा।

अर्थ: वही मनुष्य असल खजानों के मालिक हैं, जिनको प्रभु की महिमा (प्रभु के दर से) बख्शिश के तौर पर मिली है; जिनको प्रभु (नाम के खजाने की) कूँजी खुद देता है उनको (महिमा के) खजानों के खजाने मिल जाते हैं। (फिर इस महिमा की इनायत से) जिस (हृदय-रूप) खजानों में से (प्रभु के) गुण निकलते हैं वे (प्रभु के दर पर) स्वीकार किए जाते हैं।

हे नानक! जिनके पास प्रभु का नाम (-रूप) झण्डा है, उन पर मेहर की निगाह होती है।2।

पउड़ी ॥ नामु निरंजनु निरमला सुणिऐ सुखु होई ॥ सुणि सुणि मंनि वसाईऐ बूझै जनु कोई ॥ बहदिआ उठदिआ न विसरै साचा सचु सोई ॥ भगता कउ नाम अधारु है नामे सुखु होई ॥ नानक मनि तनि रवि रहिआ गुरमुखि हरि सोई ॥५॥

पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजन) माया रहित। निरमला = मल रहित, पवित्र। सुणिऐ = अगर सुनें। मंनि = मनि, मन में। जनु कोई = कोई (विरला) मनुष्य। अधारु = आसरा। नामे = नाम में ही। गुरमुखि मनि तनि = गुरमुख के मन में तन में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। रवि रहिआ = बसा रहता है।

अर्थ: (प्रभु का) नाम माया (के प्रभाव से) रहत है और पवित्र है, अगर ये नाम सुनें (भाव, अगर इस नाम में तवज्जो जोड़ें) और जोड़-जोड़ के मन में बसा लें तो सुख (प्राप्त) होता है; (पर) कोई विरला मनुष्य (इस बात को) समझता है; (जो गुरमुख ये बात समझ लेता है उसको) वह सदा कायम रहने वाला सच्चा प्रभु उठते-बैठते कभी भी भूलता नहीं है; (गुरमुख) भगतों को (आत्मिक जीवन के लिए) नाम का आसरा हो जाता है, नाम में जुड़ने से ही उनको सुख (प्रतीत) होता है।

हे नानक! गुरमुख के मन में और तन में वह प्रभु सदा बसा रहता है।5।

सलोक महला १ ॥ नानक तुलीअहि तोल जे जीउ पिछै पाईऐ ॥ इकसु न पुजहि बोल जे पूरे पूरा करि मिलै ॥ वडा आखणु भारा तोलु ॥ होर हउली मती हउले बोल ॥ धरती पाणी परबत भारु ॥ किउ कंडै तोलै सुनिआरु ॥ तोला मासा रतक पाइ ॥ नानक पुछिआ देइ पुजाइ ॥ मूरख अंधिआ अंधी धातु ॥ कहि कहि कहणु कहाइनि आपु ॥१॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! तुलीअहि = तोले जाते हैं, तुलते हैं। तोल तुलीअहि = तोल तोले जाते हैं, तोल में पूरे उतरते हैं। जीउ = जिंद, स्वै। पिछै = पिछले छाबे में, तकड़ी के दूसरे छाबे में। बोल = वचन, प्रभु की महिमा के वचन। इकसु बोल न पुजहि = महिमा के एक-वचन से तोल पूरा नहीं हो सकता (पूजा नहीं जा सकता)। पूरे = पूर्ण प्रभु को। पूरा करि = तोल पूरा कर के। वडा आखणु = प्रभु को बड़ा कहना, प्रभु की महिमा करनी। भारा तोलु = वजनदार चीज। कंडै = काँटे पर। पाइ = रख के। देइ पुजाइ = पूरा कर दिखाता है, घर पूरा कर देता है। धातु = दौड़ भाग। अंधी धातु = अंधों वाली दौड़ भाग। कहाइनि = कहलाते हैं। आपु = अपने आप को। कहि कहि कहणु = कह कह के कहना, बार बार कहना।

अर्थ: हे नानक! अगर तराजू के दूसरे छाबे में जिंद रख दें तो तोल पूरा हो जाता है (भाव, मनुष्य के जीवन की प्रवानगी का एक ही माप-दण्ड है कि स्वै-भाव प्रभु पर से वार दिया जाए); अगर मनुष्य (प्रभु की महिमा के द्वारा मनुष्य-जीवन की प्रवानगी वाले तोल से अपने आप को) बराबर करके (प्रभु को) मिल जाए तो महिमा के शब्द के (और कोई उद्यम) बराबर (तुल्य और कुछ) नहीं हो सकता। प्रभु की महिमा वज़नदार चीज़ है (जिससे जिंद वाला छाबा प्रवानगी के तोल से बराबर का हो जाता है), (वरना, महिमा के बिना) और हर तरह की बुद्धि तुच्छ व अन्य (सभी प्रकार के) वचन हल्के हैं (बुद्धि व वचनों की मदद से जिंद वाला छाबा पूरा नहीं उतर सकता) (भला कोई) सोनियारा तोले-मासे-रक्तियाँ डाल के धरती-पानी और पर्वतों के भार को (छोटे से) तराजू में कैसे तोल सकता है? (यही हाल अन्य सभी मतों और बातों का समझें, जो, मानो, तोले मासे और रक्ती ही हैं); (पर) हे नानक! अगर (सोनियारे को) पूछें तो (वह बातों से) घर पूरा कर देता है।

(अंधे मूर्ख लोग प्रभु की महिमा छोड़ के) अपने आप को बड़ा कहलवाते हैं, और बार-बार (अपने आप को अच्छा) कहना मूर्ख अंधों की अंधों वाली दौड़-भाग है (भाव, ठोकरें खा के चोटें ही लगवाते रहते हैं)।1।

महला १ ॥ आखणि अउखा सुनणि अउखा आखि न जापी आखि ॥ इकि आखि आखहि सबदु भाखहि अरध उरध दिनु राति ॥ जे किहु होइ त किहु दिसै जापै रूपु न जाति ॥ सभि कारण करता करे घट अउघट घट थापि ॥ आखणि अउखा नानका आखि न जापै आखि ॥२॥

पद्अर्थ: आखणि अउखा सुनणि अउखा = (प्रभु का स्वरूप) किसी तरह से भी बयान करना मुश्किल है। आखि न जापी आखि = आखि आखि न जापी। न जापी = लगता नहीं, अनुभव नहीं होता, समझ में नहीं आता। आखि आखि = कह कह के, बार बार बयान करते हैं। भाखहि = उचारते हैं। अरध = नीचे। उरध = ऊपर। अरध उरध = ऊपर नीचे हो के, बड़ी मेहनत से। किहु = कुछ, कोई (पंच-तत्वी) स्वरूप। न जापै = नहीं दिखता। सभि = सारे। अउघट = मुश्किल। घट = जगह। थापि = बना के, थाप के।

(नोट: पहली और पाँचवीं तुक का हू-ब-हू एक ही भाव है; ‘आखि न जापी आखि’, ‘आखि न जापै आखि’, ‘जापी’, ‘जापै’; ‘आखणि अउखा सुनणि अउखा’, ‘आखणि अउखा’)।

अर्थ: (परमात्मा का स्वरूप) किसी भी तरह से बयान करना मुश्किल है, बार-बार बयान करने से भी समझ में नहीं आता। कई लोग बड़ी मेहनत से दिन-रात (लग के) (प्रभु का स्वरूप) बार-बार बयान करते हैं (और स्वरूप बयान करने वाले) शब्द बोलते हैं; पर, अगर कोई (पाँच-तत्वी) स्वरूप ही हो, और दिखाई भी दे, उसका ना तो कोई रूप प्रतीत होता है ना ही कोई जाति दिखती है।

हे नानक! मुश्किल-आसान जगहें (हरेक किस्म के बर्तन) स्वयं रच के प्रभु खुद ही (जगत के) सारे सबब बनाता है; उसका स्वरूप बयान करना मुश्किल है, बार-बार बयान करने से भी समझ में नहीं आता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh