श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक महला १ ॥ घरि नाराइणु सभा नालि ॥ पूज करे रखै नावालि ॥ कुंगू चंनणु फुल चड़ाए ॥ पैरी पै पै बहुतु मनाए ॥ माणूआ मंगि मंगि पैन्है खाइ ॥ अंधी कमी अंध सजाइ ॥ भुखिआ देइ न मरदिआ रखै ॥ अंधा झगड़ा अंधी सथै ॥१॥

पद्अर्थ: घरि = घर में। नाराइणु = ठाकुर की मूर्ति। सभा नालि = और मूर्तियों समेत। नावालि = नहला के, स्नान करा के। कुंगू = केसर। माणूआ = मनुष्यों से। अंधी कंमी = अंधे कामों में, अज्ञानता भरे कामों में। जिस कामों के करने से मनुष्य की मति अंधेरे में ही रहती है। अंध = अज्ञानता, अंधेरा। सजाइ = दण्ड। न देइ = नहीं देता। रखै = बचाता। झगड़ा = रेड़का। सथै = सथ में, सभा में।

अर्थ: (ब्राहमण अपने) घर में बहुत सारी मूर्तियों समेत ठाकुरों की मूर्ति की स्थापना करता है, उसकी पूजा करता है, उसको स्नान करवाता है; केसर चंदन और फूल (उस मूर्ति के आगे) भेट करता है, उसके पैरों पर सिर रख-रख के उसको प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है; (पर, रोटी कपड़ा और) मनुष्यों से माँग-माँग के खाता और पहनता है।

अज्ञानता वाले काम करने से (यही) सज़ा मिलती है कि और भी अज्ञानता बढ़ती जाती है, (मूर्ख यह नहीं जानता कि कि ये मूर्ति) ना भूखे को कुछ दे सकती है ना (भूख से मरते हुए को) मरने से बचा सकती है। (फिर भी मूर्ति-पूजक) अज्ञानियों की सभा में अज्ञानता वाला ये लंबा सिलसिला चलता ही जाता है (भाव, फिर भी लोक आँखें बंद करके प्रभु को छोड़ के मूर्ति-पूजा करते ही जा रहे हैं)।1।

महला १ ॥ सभे सुरती जोग सभि सभे बेद पुराण ॥ सभे करणे तप सभि सभे गीत गिआन ॥ सभे बुधी सुधि सभि सभि तीरथ सभि थान ॥ सभि पातिसाहीआ अमर सभि सभि खुसीआ सभि खान ॥ सभे माणस देव सभि सभे जोग धिआन ॥ सभे पुरीआ खंड सभि सभे जीअ जहान ॥ हुकमि चलाए आपणै करमी वहै कलाम ॥ नानक सचा सचि नाइ सचु सभा दीबानु ॥२॥

पद्अर्थ: सुरती = तवज्जो का जोड़ना। सुधि = सूझ, सद्बुद्धि। अमर = हुक्म। खान = खाने। माणस = मनुष्य। देव = देवता। पुरीआ = धरतियां। खंड = ब्रहमण्ड के हिस्से। जीअ जहान = जगत के जीव-जंतु। हुकमि = आज्ञा में। कलाम = (हुक्म की) कलम। करमी = (जीवों के) कर्मों के अनुसार। वहै = चलती है। सचि नाइ = सच्चे नाम से, सच्चे नाम में जुड़ने से। दीबानु = कचहरी।

अर्थ: जोग-मत के अनुसार तवज्जो जोड़नी, वेद पुराण (आदि के पाठ), तप साधन करने, (भजनों के) गीत और (उनकी विचारें), ऊँची मति और सद्-बुद्धि, तीर्थ-स्थान (आदि के स्नान), बादशाहियां और हकूमतें, खुशियां और अच्छे खाने, मनुष्य और देवते, योग की समाधियां, धरतियों के मण्डल और हिस्से, सारे जगत के जीव-जंतु - इन सब को परमात्मा अपनी आज्ञा में चलाता है, पर उसके हुक्म की कलम जीवों के किए कर्मों के अनुसार बहती है। हे नानक! वह प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसका दरबार सदा स्थिर रहने वाला है, उसके नाम में जुड़ने से उसकी प्राप्ति होती है। (भाव, कई जीव जोग के द्वारा तवज्जो जोड़ते हैं, कई वेद-पुराणों के पाठ करते हैं, कोई तप साधते हैं, कोई भजन गाते हैं, कोई ज्ञान-चर्चा करते हैं, कोई ऊँची अक्ल दौड़ाते हैं, कोई तीर्थों पर स्नान कर रहे हैं, कोई बादशाह बन के हकूमतें कर रहे हैं, कोई मौजें मना रहे हैं, कोई बढ़िया स्वादिष्ट खाने खा रहे हैं, कोई मनुष्य हैं कोई देवते, कोई समाधियां लगा रहे हैं - सारे जगत के जीव-जंतु अलग-अलग आहर में लगे हुए हैं। यह जो कुछ हो रहा है, प्रभु के हुक्म में हो रहा है, पर जीवों की ये अलग-अलग किस्म की रुचि उनके अपने किए कर्मों के अनुसार है, फल प्रभु की रजा में मिल रहा है)।2।

पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ सुखु ऊपजै नामे गति होई ॥ नाइ मंनिऐ पति पाईऐ हिरदै हरि सोई ॥ नाइ मंनिऐ भवजलु लंघीऐ फिरि बिघनु न होई ॥ नाइ मंनिऐ पंथु परगटा नामे सभ लोई ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ नाउ मंनीऐ जिन देवै सोई ॥९॥

पद्अर्थ: नाइ मंनिऐ = (पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute) यदि नाम मान लें, अगर ये मान लें कि नाम स्मरणा जिंदगी का असल उद्देश्य है, अगर मन नाम में पतीज जाए। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। भवजलु = संसार समुंदर। बिघनु = रुकावट। पंथु = (जिंदगी का असल) रास्ता। परगटा = प्रत्यक्ष। लोई = रोशनी, आत्मिक जीवन की समझ। सतिगुरि मिलिऐ = (पूरन पूरब कारदंतक) अगर गुरु मिल जाए। नाउ मंनीऐ = नाम को मान लेना चाहिए, ये मान लेना चाहिए कि नाम स्मरणा जिंदगी का ‘प्रकट पंथ’ है। सोई = वह प्रभु।

नोट: जिन्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (पढ़ना है ‘जिन्ह’)।

अर्थ: यदि मन नाम-स्मरण में पतीज जाए तो (मन में) सुख पैदा होता है, नाम में (पतीजने से) ही उच्च आत्मिक अवस्था बनती है, इज्जत मिलती है और हृदय में वह प्रभु (आ बसता है), संसार-समुंदर से पार लांघ जाया जाता है, और (जिंदगी के राह में) कोई रोक नहीं पड़ती, जीवन का रास्ता प्रत्यक्ष साफ दिखने लग जाता है क्योंकि नाम में सारी रौशनी है (आत्मिक जीवन की सूझ है)।

(पर) हे नानक! अगर सतिगुरु मिले तो ही नाम-स्मरण जिंदगी का ‘प्रकट पंथ’ माना जा सकता है (और ये दाति उनको ही मिलती है) जिनको वह प्रभु स्वयं देता है।9।

सलोक मः १ ॥ पुरीआ खंडा सिरि करे इक पैरि धिआए ॥ पउणु मारि मनि जपु करे सिरु मुंडी तलै देइ ॥ किसु उपरि ओहु टिक टिकै किस नो जोरु करेइ ॥ किस नो कहीऐ नानका किस नो करता देइ ॥ हुकमि रहाए आपणै मूरखु आपु गणेइ ॥१॥

पद्अर्थ: सिरि = सिर के भार हो के। इक पैरि = एक पैर के भार खड़े हो के। धिआए = ध्यान धरे। पउणु मारि = पवन को रोक के, प्राणायाम कर के। मनि = मन में। मुंडी = गर्दन। तले = नीचे। टिक टिकै = टेक टिकाता है, टेक बनाता है। जोरु = ताण, ताकत। किस नो कहीऐ = किसी को कहा नहीं जा सकता। रहाए = रखता है। आपु = अपने आप को। हुकमि आपणै = अपने हुक्म में। गणेइ = समझने लग जाता है।

अर्थ: अगर कोई मनुष्य सिर के बल हो के सारी धरतियों और धरती के सारे हिस्सों में फिरे, अगर एक पैर के भार खड़ा हो के ध्यान धरे, अगर प्राण रोक के मन में जप करे, अगर अपना सिर गर्दन के नीचे रखे (भाव, अगर शीर्षासन करके सिर के भार खड़ा रहे) - (तो भी इनमें से) किस साधन पर वह टेक रखता है? (भरोसा कर सकता है?) किस उद्यम को अपनी शक्ति बनाता है? (भाव, ये सारे भरोसे तुच्छ हैं, इनका आसरा कमजोर है)।

हे नानक! यह बात नहीं कही जा सकती कि कर्तार किसको मान-सम्मान बख्शता है। (प्रभु सब जीवों को) अपने हुक्म में चलाता है, पर मूर्ख अपने आप को (बड़ा) समझने लग जाता है।1।

मः १ ॥ है है आखां कोटि कोटि कोटी हू कोटि कोटि ॥ आखूं आखां सदा सदा कहणि न आवै तोटि ॥ ना हउ थकां न ठाकीआ एवड रखहि जोति ॥ नानक चसिअहु चुख बिंद उपरि आखणु दोसु ॥२॥

पद्अर्थ: कोटि कोटि = करोड़ों बार। कोटी हू कोटि कोटि = करोड़ों बार से भी ज्यादा करोड़ों बार। आखां = अगर मैं कहूं। आखूँ = मुँह से। कहणि = कहने में। तोटि = कमी। न ठाकीआ = ना मैं रूका रहूँ। जोति = नूर। एवड जोति = इतनी सत्ता। रखहि = तू डाल दे। चसिअहु = एक चसे से (चसा = पल, बहुत ही कम मात्रा)। चसिअहु चुख बिंद = एक चसे से भी बहुत कम अल्प बिंदु के बराबर। उपरि = ज्यादा। दोसु = भूल गलती।

अर्थ: अगर मैं करोड़ों-करोड़ों बार कहूँ कि परमात्मा सचमुच है, और करोड़ों बार से ज्यादा करोड़ों बार (यही बात) कहूँ, और मैं यही बात सदा ही अपने मुँह से कहता रहूँ, मेरे कहने में कोई कमी ना आए; (हे प्रभु!) अगर तू मेरे में इतनी सत्ता (ताकत) डाल दे कि मैं कहता-कहता ना तो थकूँऔर ना ही किसी के रोके रुकूँ, तो भी, हे नानक! (कह:) यह सारा प्रयत्न तेरी रक्ती भर कीर्ति के बराबर होता है, यदि मैं कहूँ कि इससे ज्यादा कीर्ति मैंने की है तो (यह मेरी) भूल है।2।

पउड़ी ॥ नाइ मंनिऐ कुलु उधरै सभु कुट्मबु सबाइआ ॥ नाइ मंनिऐ संगति उधरै जिन रिदै वसाइआ ॥ नाइ मंनिऐ सुणि उधरे जिन रसन रसाइआ ॥ नाइ मंनिऐ दुख भुख गई जिन नामि चितु लाइआ ॥ नानक नामु तिनी सालाहिआ जिन गुरू मिलाइआ ॥१०॥

पद्अर्थ: कुलु = खानदान। उधरै = (भवजल से) बच निकलता है। सबाइआ = सारा। रसन = जीभ। रसाइआ = एक रस कर लिया है। नामि = नाम में।

अर्थ: अगर मन नाम स्मरण में पतीज जाए तो (ऐसे मनुष्य की) सारी कुल सारा परिवार (भवजल में से) बच जाता है। नाम में मन पतीजने से जिस लोगों ने नाम को हृदय में बसा लिया है उनकी सारी संगति (संसार-समुंदर से) पार उतर जाती है। नाम में पतीज के जिन्होंने जीभ को नाम के साथ एक-रस कर लिया वे नाम सुन के (माया के प्रभाव से) बच जाते हैं। नाम में पतीज के जिन्होंने नाम में मन जोड़ लिया उनके दुख दूर हो जाते हैं उनकी (माया वाली) भूख मिट जाती है।

पर, हे नानक! वही लोग नाम स्मरण करते हैं जिनको प्रभु सतिगुरु मिलाता है।10।

सलोक मः १ ॥ सभे राती सभि दिह सभि थिती सभि वार ॥ सभे रुती माह सभि सभि धरतीं सभि भार ॥ सभे पाणी पउण सभि सभि अगनी पाताल ॥ सभे पुरीआ खंड सभि सभि लोअ लोअ आकार ॥ हुकमु न जापी केतड़ा कहि न सकीजै कार ॥ आखहि थकहि आखि आखि करि सिफतीं वीचार ॥ त्रिणु न पाइओ बपुड़ी नानकु कहै गवार ॥१॥

पद्अर्थ: दिह = दिन। थिती = चाँद के बढ़ने घटने से गिने जाने वाले महीनों की तारीखें। वार = हफते के दिनों के नाम। माह = महीने। धरतीं = धरतियां। लोअ लोअ = हरेक लोक (14 लोकों) के। आकार = स्वरूप, शरीर, जीव-जंतु। केतड़ा = कितना बड़ा? कहि न सकीजै = बयान नहीं किया जा सकता। कार = प्रभु की रचना। त्रिणु = तृण समान, रक्ती भर भी। बपुड़ी गवार = बेचारे गवारों ने। आखि आखि आखहि = बेअंत बार कहते हैं। थकहि = थक जाते हैं। बपुड़ी = बेचारों ने। नानक कहै = नानक कहता है।

अर्थ: रातें, दिन, तिथियां, वार, ऋतुएं, महीने; धरतियां और धरतियों पर पैदा हुए सारे पदार्थ, हवा, पानी, आग, धरती की निचली तरफ (के पदार्थ), धरतियों के मण्डल, ब्रहमण्ड के बेअंत हिस्से, हरेक लोक के (बेअंत किस्मों के) जीव-जन्तु - यह सारी रचना (कितनी है) बयान नहीं की जा सकती, (इस रचना को बनाने वाले प्रभु का) हुक्म कितना बड़ा है - यह भी पता नहीं लग सकता।

परमात्मा की सिफतों की विचार कर के लोग बार-बार बेअंत बार (उसकी वडिआईयाँ) बयान करते हैं और (बयान कर-कर के) थक जाते हैं, पर, नानक कहता है, बेचारे गँवारों ने प्रभु का रक्ती भर भी अंत नहीं पाया।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh