श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1248 पउड़ी ॥ सभु को लेखे विचि है मनमुखु अहंकारी ॥ हरि नामु कदे न चेतई जमकालु सिरि मारी ॥ पाप बिकार मनूर सभि लदे बहु भारी ॥ मारगु बिखमु डरावणा किउ तरीऐ तारी ॥ नानक गुरि राखे से उबरे हरि नामि उधारी ॥२७॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। लेखे विचि = हुक्म में, निहित मर्यादा में, उस मर्यादा में जो प्रभु ने संसार की जुगति को चलाने के लिए मिथ दी है। मनमुख = मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सिरि = सिर पर। मनूर = जला हुआ व जंग लगा लोहा (भाव, व्यर्थ भार)। मारगु = रास्ता, जीवन-यात्रा का मार्ग। बिखमु = मुश्किल। गुरि = गुरु ने। उबरे = बच निकले। नामि = नाम ने। किउ तरीऐ = पार लंघाना मुश्किल है। अर्थ: हरेक जीव (को उस) मर्यादा के अंदर (चलना पड़ता है जो प्रभु ने जीवन-जुगति के लिए मिथी हुई) है, पर मन का मुरीद मनुष्य अहंकार करता है (भाव, उस मर्यादा से आकी होने का प्रयत्न करता है), कभी प्रभु का नाम नहीं स्मरण करता (जिसके कारण) जमकाल (उसके) सिर पर (चोट) मारता है (भाव, वह सदा आत्मिक मौत सहेड़ी रखता है)। पापों और दुष्कर्मों के व्यर्थ व बोझल भार से लदे हुए जीवों के लिए जिंदगी का रास्ता बहुत मुश्किल और डरावना हो जाता है (इस संसार-समुंदर में से) उनके द्वारा तैरा नहीं जा सकता। हे नानक! जिनकी सहायता गुरु ने की है वे बच निकलते हैं, प्रभु के नाम ने उनको बचा लिया होता है।27। सलोक मः ३ ॥ विणु सतिगुर सेवे सुखु नही मरि जमहि वारो वार ॥ मोह ठगउली पाईअनु बहु दूजै भाइ विकार ॥ इकि गुर परसादी उबरे तिसु जन कउ करहि सभि नमसकार ॥ नानक अनदिनु नामु धिआइ तू अंतरि जितु पावहि मोख दुआर ॥१॥ पद्अर्थ: वारो वार = बार बार। ठगउली = ठग-बूटी, वह बूटी जो ठग किसी को खिला के बेहोश करके लूट लेते हैं। पाईअनु = पाई है उस (प्रभु) ने। बहु विकार = कई बुरे कर्मं। दूजै भाइ = (प्रभु को छोड़ के) किसी और के प्यार में। इकि = कई लोग। उबरे = बच जाते हैं। सभि = सारे जीव। करहि नमसकार = सिर झुकाते हैं। अनदिनु = हर रोज। अंतरि = हृदय में। जितु = जिस (स्मरण) की इनायत से। मोख दुआर = (मोह ठग-बूटी से) बचने का राह। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: सतिगुरु के बताए हुए राह पर चले बिना सुख नहीं मिलता (गुरु से टूटे हुए जीव) बार-बार पैदा होते मरते हैं, मोह की ठग-बूटी उस प्रभु ने (ऐसी) डाली है कि (ईश्वर से बे-ध्यान हो के) माया के प्यार में (फंस के) बहुत सारे बुरे कर्म करते हैं, पर कई (भाग्यशाली लोग) सतिगुरु की कृपा से (इस ठग-बूटी से) बच जाते हैं, (जो जो बचता है) उसको सारे लोग सिर झुकाते हैं। हे नानक! तू भी हर रोज (अपने) हृदय में प्रभु का नाम स्मरण कर, जिस (स्मरण की) इनायत से तू (इस ‘मोह ठगउली’ से) बचने का साधन हासिल कर लेगा।1। मः ३ ॥ माइआ मोहि विसारिआ सचु मरणा हरि नामु ॥ धंधा करतिआ जनमु गइआ अंदरि दुखु सहामु ॥ नानक सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ जिन्ह पूरबि लिखिआ करामु ॥२॥ पद्अर्थ: मोहि = मोह के कारण। सचु = अटल, सदा कायम रहने वाला। अंदरि = मन में। सहामु = सहता है। सेवि = सेवा करके, हुक्म में चल के। पूरबि = आदि से। करामु = कर्म, काम (भाव, गुरु की सेवा करने का काम)। सुखु = आत्मिक आनंद। अर्थ: मौत अटल है, प्रभु का नाम सदा-स्थिर रहने वाला है; पर, यह बात जिस मनुष्य ने माया के मोह में (फंस के) भुला दी है, उसका सारा जीवन माया के धंधे करते हुए गुजर जाता है और वह अपने मन में दुख सहता है। हे नानक! आदि से जिनके माथे पर (गुरु सेवा का लेख) लिखा हुआ है उन्होंने गुरु के हुक्म में चल के आत्मिक आनंद पाया है।2। पउड़ी ॥ लेखा पड़ीऐ हरि नामु फिरि लेखु न होई ॥ पुछि न सकै कोइ हरि दरि सद ढोई ॥ जमकालु मिलै दे भेट सेवकु नित होई ॥ पूरे गुर ते महलु पाइआ पति परगटु लोई ॥ नानक अनहद धुनी दरि वजदे मिलिआ हरि सोई ॥२८॥ पद्अर्थ: लेखु = चित्र, पापों विकारों का मन में संचय। दरि = दर पर, हजूरी में। सद = सदा। ढोई = पहुँच, आसरा। भेट दे मिलै = भेटा आगे रख के मिलता है, आदर सत्कार करता है। महलु = ठिकाना, असल घर, प्रभु का मिलाप। पति = इज्जत। लोई = जगत में, लोक में (कहत कबीर सुनहु रे लोई। रे लोई = हे जगत!)। अनहद = (अन+हद) एक रस, बिना बजाए बजने वाले। धुनी = सुर। अनहद धुनी = एक रस सुर वाले बाजे। दरि = दर पर, हजूरी में, प्रभु की हजूरी में रहने वाली अवस्था में। अर्थ: अगर हरि-नाम (स्मरण-रूपी) लेखा पढ़ें तो फिर विकार आदि के संस्कारों का चित्र मन में नहीं बनता; प्रभु की हजूरी में सदा पहुँच बनी रहती है, किसी विकार के बारे में कोई पूछ नहीं सकता (भाव, कोई भी ऐसा बुरा कर्म नहीं किया होता जिस के बाबत कोई उंगली उठा सके); जम काल (चोट करने की जगह) आदर-सत्कार करता है और सदा के लिए सेवक बन जाता है। पर यह मेल वाली अवस्था पूरे गुरु से हासिल होती है और जगत में इज्जत बन जाती है। हे नानक! जब वह प्रभु मिल जाता है, उसकी हजूरी में (टिके रहने पर, अंदर, जैसे) एक-रस सुर वाले बाजे बजने लग जाते हैं।28। सलोक मः ३ ॥ गुर का कहिआ जे करे सुखी हू सुखु सारु ॥ गुर की करणी भउ कटीऐ नानक पावहि पारु ॥१॥ पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। पारु = (‘भउ’ के) उस पार। पावहि = तू पा लेगा। अर्थ: अगर मनुष्य सतिगुरु के बताए हुए हुक्म की पालना करे तो सुखों में से चुनिंदा श्रेष्ठ सुख मिलता है। सतिगुरु के द्वारा बताया हुआ कर्म करने से डर दूर हो जाता है, हे नानक! (यदि तू गुरु वाली ‘करणी’ करेगा तो) तू (‘भउ’ का) उस पार का किनारा पा लेगा (भाव, ‘भउ’-सागर से पार लांघ जाएगा)।1। मः ३ ॥ सचु पुराणा ना थीऐ नामु न मैला होइ ॥ गुर कै भाणै जे चलै बहुड़ि न आवणु होइ ॥ नानक नामि विसारिऐ आवण जाणा दोइ ॥२॥ पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ बना प्यार। मैला = विकारों से गंदा। पुराणा = कमजोर। अर्थ: (हे भाई! यदि मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा के साथ प्यार डाल ले तो) परमात्मा के साथ बना हुआ वह प्यार कभी कमजोर नहीं होता। (जिस हृदय में) परमात्मा का नाम (बसता है, वह हृदय कभी) विकारों से गंदा नहीं होता। अगर मनुष्य गुरु की रज़ा में चले तो दोबारा उसको जनम (मरन का चक्कर) नहीं होता। हे नानक! अगर नाम बिसार दें तो जनम-मरीण दोनों बने रहते हैं (भाव, जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं)।2। पउड़ी ॥ मंगत जनु जाचै दानु हरि देहु सुभाइ ॥ हरि दरसन की पिआस है दरसनि त्रिपताइ ॥ खिनु पलु घड़ी न जीवऊ बिनु देखे मरां माइ ॥ सतिगुरि नालि दिखालिआ रवि रहिआ सभ थाइ ॥ सुतिआ आपि उठालि देइ नानक लिव लाइ ॥२९॥ पद्अर्थ: मंगत जनु = भिखारी (मै भिखारी)। जाचै = माँगता है। दानु = खैर। हरि = हे प्रभु! सुभाइ = स्वै भाइ, प्यार से। दरसनि = दर्शनों से, दीदार करने से। त्रिपताइ = तृप्त हो जाया जाता है, संतोख पैदा होता है। न जीवऊ = मैं जी नहीं सकता। माइ = हे माँ! सतिगुरि = गुरु ने। सभि थाइ = हर जगह। लिव लाइ = लगन लगा के। उठालि = जगा के। अर्थ: हे प्रभु! मैं जाचक (मैं मँगता) एक ख़ैर माँगता हूँ, अपने हाथ से (वह ख़ैर) मुझे दे, मुझे, हे हरि! तेरे दीदार की प्यास है, दीदार से ही (मेरे अंदर) शीतलता आ सकती है। हे माँ! मैं हरि के दर्शनों के बिना मरता हूँ एक पल भर घड़ी भर भी जी नहीं सकता। जब मेरे गुरु ने मेरा प्रभु मेरे अंदर ही दिखा दिया तो वह सब जगह व्यापक दिखाई देने लग पड़ा। हे नानक! (अपने नाम की) लगन लगा के वह स्वयं ही (माया में) सोए हुओं को जगा के (नाम की) दाति देता है।29। सलोक मः ३ ॥ मनमुख बोलि न जाणन्ही ओना अंदरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ थाउ कुथाउ न जाणनी सदा चितवहि बिकार ॥ दरगह लेखा मंगीऐ ओथै होहि कूड़िआर ॥ आपे स्रिसटि उपाईअनु आपि करे बीचारु ॥ नानक किस नो आखीऐ सभु वरतै आपि सचिआरु ॥१॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। कुथाउ = खराब जगह। चितवहि = सोचते हैं। दरगह = प्रभु की हजूरी में। उपाईअनु = उपाई है उस प्रभु ने। किस नो आखीऐ = किसी को भी बुरा नहीं कहा जा सकता। सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है। होहि = होते हैं। होहि कूड़िआर = नाशवान पदार्थों के व्यापारी ही साबित होते हैं। सचिआरु = सत्य का श्रोत प्रभु। नोट: ‘जाणनी, ओना’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है; जिसे पढ़ना है ‘जाणन्ही, ओन्हा’)। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले लोग सही बात करनी भी नहीं जानते क्योंकि उनके मन में काम क्रोध और अहंकार (प्रबल) होता है; वे सदा ही बुरी बातें ही सोचते हैं, उचित-अनुचित जगह भी नहीं समझते (भाव, उन्हें यह समझ भी नहीं होती कि यह काम यहाँ करना फबता भी है अथवा नहीं); जब प्रभु की हजूरी में किए कर्मों का हिसाब पूछा जाता है तब वह झूठे साबित होते हैं। पर, हे नानक! उस प्रभु ने स्वयं ही सारी सृष्टि पैदा की है, (भाव, सबमें व्यापक हो के) वह स्वयं ही हरेक विचार कर रहा है, सब जगह वह सच का श्रोत प्रभु स्वयं (ही) मौजूद है, सो, किसी (मनमुख) को (भी बुरा) नहीं कहा जा सकता।1। मः ३ ॥ हरि गुरमुखि तिन्ही अराधिआ जिन्ह करमि परापति होइ ॥ नानक हउ बलिहारी तिन्ह कउ जिन्ह हरि मनि वसिआ सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = वह लोग जो गुरु के सन्मुख रहते हैं। करमि = (प्रभु की) मेहर से। परापति होइ = मिला होता है, भाग्यों में लिखा होता है। हउ बलिहारी = मैं सदके। मनि = मन में। सोइ हरि = वह प्रभु। अर्थ: गुरु के सन्मुख रह के उन मनुष्यों ने प्रभु को स्मरण किया है जिनके भाग्यों में प्रभु की मेहर से ‘स्मरण’ लिखा हुआ है। हे नानक! (कह:) मैं उन लोगों से सदके हूँ, जिनके मन में वह प्रभु बसता है।2। पउड़ी ॥ आस करे सभु लोकु बहु जीवणु जाणिआ ॥ नित जीवण कउ चितु गड़्ह मंडप सवारिआ ॥ वलवंच करि उपाव माइआ हिरि आणिआ ॥ जमकालु निहाले सास आव घटै बेतालिआ ॥ नानक गुर सरणाई उबरे हरि गुर रखवालिआ ॥३०॥ पद्अर्थ: सभ लोकु = सारा जगत। बहु जीवन = लंबी उम्र। जाणिआ = जान के, समझ के। गढ़ = किले। बलवंच = ठगीयां। उपाव = उपाय, हीले। हिरि = चुरा के। आणिआ = लाए हैं। निहाले = देखता है, ध्यान से देखता है, गिनता है। आव = उम्र। बेतालिआ = भूतने जैसे मनुष्य की, सही जीवन चाल से टूटे हुए मनुष्य की। सास = सांस (बहुवचन)। जीवन कउ = जीने के लिए। चितु = दिल, तमन्ना। अर्थ: लंबी जिंदगी समझ के सारा जग (भाव, हरेक दुनियादार मनुष्य) आशाएं बनाता है, सदा जीने की तमन्ना (रखता है और) किले-मड़ियां आदि सजाता (रहता) है, ठगीयां और अन्य कई उपाय कर कर के (दूसरों का) माल ठग के ले के आता है, (ऊपर से) जमराज (इसकी) सांसें गिनता जा रहा है, जीवन-ताल से टूटे हुए इस मनुष्य की उम्र घटती चली जा रही है। हे नानक! (आशाओं के इस लंबे जाल में से) वही बचते हैं जो गुरु की शरण पड़ते हैं जिनका रखवाला गुरु अकाल-पुरख स्वयं बनता है।30। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |