श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला १ ॥ साची सुरति नामि नही त्रिपते हउमै करत गवाइआ ॥ पर धन पर नारी रतु निंदा बिखु खाई दुखु पाइआ ॥ सबदु चीनि भै कपट न छूटे मनि मुखि माइआ माइआ ॥ अजगरि भारि लदे अति भारी मरि जनमे जनमु गवाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली, अडोल। नामि = नाम में। त्रिपते = तृप्त होए हुए, माया की तृष्णा से पलटे हुए, संतुष्ट। हउमै = मैं मैं (मैं बड़ा मैं बड़ा = ये ही ख्याल)। रतु = रहित हुआ, मस्त। बिखु = जहर। चीनि = पहचान के, समझ के। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। अजगरि = अजगर में। भारि = भार तले। अजगरि भारि = बहुत बड़े भार के नीचे।1।

अर्थ: जिनकी तवज्जो अडोल हो के प्रभु के नाम में नहीं जुड़ी, वे माया की तृष्णा की तरफ से पलट नहीं सके (अतृप्त ही रहे), ‘मैं बड़ा बन जाऊँ, मैं बड़ा बन जाऊँ’ - ये कह: कहके उन्होंने अपना जीवन गवा लिया। उनका मन पराए धन पराई स्त्री और पराई निंदा में मस्त रहा है, वे (सदा पर धन पर नारी पर निंदा की) जहर खाते रहे (आत्मिक खुराक बनाए रखी), और दुख ही सहेड़ते रहे। महिमा की वाणी को विचार के (भी) उनके दुनिया वाले डर और छल (-कपट) ना खत्म हुए, उनके मन में भी माया (की लगन) ही रही, उनके मुँह में भी माया (की द्वंद-कथा) ही रही। वे सदा (माया के मोह के) बेअंत बड़े भार तले लदे रहे, जनम-मरण के चक्करों में पड़ के उन्होंने जीवन व्यर्थ ही गवा लिया।1।

मनि भावै सबदु सुहाइआ ॥ भ्रमि भ्रमि जोनि भेख बहु कीन्हे गुरि राखे सचु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। भावै = अच्छा लगता है। सुहाइआ = सुंदर हो गया। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।

अर्थ: जिनके मन को (प्रभु की महिमा की) वाणी प्यारी लगती है उनका जीवन सुंदर बन जाता है। (पर, महिमा की वाणी से टूट के) अनेक जूनियों में भटक-भटक के अनेक जूनियों के भेस धारते रहे (भाव, जनम लेते रहे)। जिस की रक्षा गुरु ने की, उनको सदा कायम रहने वाला ईश्वर मिल गया।1। रहाउ।

तीरथि तेजु निवारि न न्हाते हरि का नामु न भाइआ ॥ रतन पदारथु परहरि तिआगिआ जत को तत ही आइआ ॥ बिसटा कीट भए उत ही ते उत ही माहि समाइआ ॥ अधिक सुआद रोग अधिकाई बिनु गुर सहजु न पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। तेजु = क्रोध। निवारि = दूर कर के। भाइआ = अच्छा लगा। परहरि = दूर कर के। जत = जिस तरफ से। तत = उसी तरफ। उत ही ते = उसी कारण से। कीट = कीड़े। अधिकाई = बहुत। सहजु = अडोल अवस्था।2।

अर्थ: क्रोध दूर कर के उन्होंने आत्म-तीर्थ में स्नान नही किया, उनको परमात्मा का नाम प्यारा नहीं लगा, (तृष्णा के अधीन रह के) उन्होंने प्रभु का अमूल्य-नाम सदा के लिए त्याग दिया, जिस चौरासी में से निकल के मनुष्य जन्म में आए थे, उसी चौरासी में दोबारा चले गए, जैसे विष्टा के कीड़े विष्टा में ही पैदा होते हैं, और विष्टा में ही फिर मर जाते हैं। (विषौ-विकारों के) जितने भी ज्यादा स्वाद वे लेते गए, उतने ही ज्यादा रोग उनको व्यापते गए। गुरु की शरण ना आने के कारण उनको शांत-अवस्था हासिल नहीं हुई।2।

सेवा सुरति रहसि गुण गावा गुरमुखि गिआनु बीचारा ॥ खोजी उपजै बादी बिनसै हउ बलि बलि गुर करतारा ॥ हम नीच हुोते हीणमति झूठे तू सबदि सवारणहारा ॥ आतम चीनि तहा तू तारण सचु तारे तारणहारा ॥३॥

पद्अर्थ: रहसि = हर्ष में, पूरन खिड़ाव में। गावा = मैं गाऊँ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। बीचारा = मैं विचार करूँ। खोजी = खोज करने वाला। उपजै = पैदा हो जाता है, आत्मिक जीवन में पैदा होता है। बादी = झगड़ालू। बिनसै = आत्मिक मौत मरता है, विनाश होता है। हउ = मैं। बलि = बलिहार। गुर करतारा = हे गुरु! हे कर्तार! हुोते = थे, होते थे।

(नोट:‘हुोते’ में अक्षर ‘ह’ पर दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘होते’ है, यहां ‘हुते’ पढ़ना है)।

हीण मति = मूर्ख। आतम = आत्मा, अपना आप।3।

अर्थ: हे मेरे गुरु! हे मेरे कर्तार! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, (मेहर कर) मेरी तवज्जो तेरी सेवा (-भक्ति) में टिकी रहे, पूरन आनंद में टिक के मैं तेरे गुण गाता रहूँ; गुरु की शरण पड़ कर मैं सदा यह विचार करता रहूँ कि तेरे साथ मेरी गहरी सांझ बनी रहे। (तेरे साथ गहरी जान-पहचान के प्रयत्न) खोजने वाला मनुष्य आत्मिक जीवन में जनम ले लेता है, पर (नित्य माया के) झगड़े करने वाला जीव आत्मिक मौत मर जाता है।

हे प्रभु! हम (तृष्णा में फंस के बड़े) नीचे जीवन वाले हो चुके हैं, हम मूर्ख हैं, हम झूठे पदार्थों में फंसे हुए हैं; पर तू (अपनी महिमा की) वाणी में (जोड़ के) हमारा जीवन सवारने में समर्थ है। जहाँ स्वै की विचार होती है, वहाँ तू (संसार-समुंदर की विकार-लहरों से) बचाने के लिए आ पहुँचता है। तू सदा कायम रहने वाला है, तू उद्धार करने के समर्थ है, (हमारा) उद्धार कर ले।3।

बैसि सुथानि कहां गुण तेरे किआ किआ कथउ अपारा ॥ अलखु न लखीऐ अगमु अजोनी तूं नाथां नाथणहारा ॥ किसु पहि देखि कहउ तू कैसा सभि जाचक तू दातारा ॥ भगतिहीणु नानकु दरि देखहु इकु नामु मिलै उरि धारा ॥४॥३॥

पद्अर्थ: बैसि = बैठ के, टिक के। सु थानि = श्रेष्ठ जगह में, सत्संग में। कहां = मैं कहूँ। किआ किआ = क्या क्या? , कौन कौन से? कथउ = मैं कह सकता हूँ। नाथणहारा = नाथ के रखने वाला, अपने वश में रखने वाला। किसु पहि कहउ = किस के पास मैं कहूँ? देखि = देख के। सभि = सारे। जाचकु = भिखारी। हीणु = हीन, खाली। दरि = दर से। देखहु = ध्यान करो, मेहर की निगाह करो। उरि = हृदय में। धारा = धारण करूँ, मैं टिका के रखूँ।4।

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) सत्संग में टिक के मैं तेरे गुण गाता रहूँ। पर तू बेअंत है, तेरे सारे गुण मैं बयान नहीं कर सकता। तू अलख है, तू बयान से परे है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, तू जूनियों से रहित है। तू (बड़े-बड़े) नाथ कहलवाने वालों को भी अपने वश में रखने वाला है।

(हे प्रभु! तेरी रचना को) देख के मैं किसी के आगे यह कहने के लायक नहीं हूँ कि तू कैसा है (भाव, सारे संसार में तेरे जैसा कोई नहीं है)। सारे जीव (तेरे दर के) मँगते हैं, तू सबको दातें देने वाला है। (हे प्रभु!) तेरी भक्ति से टूटा हुआ (तेरा दास) नानक (तेरे) दर पर (आ गिरा है, इस पर) मेहर की निगाह कर। (हे प्रभु!) मुझे तेरा नाम मिल जाए, मैं (इस नाम को अपने) सीने से परो के रखूँ।4।3।

मलार महला १ ॥ जिनि धन पिर का सादु न जानिआ सा बिलख बदन कुमलानी ॥ भई निरासी करम की फासी बिनु गुर भरमि भुलानी ॥१॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। धन = स्त्री। जिनि धन = जिस जीव-स्त्री ने। सादु = स्वाद, मिलाप का आनंद। बिलख = (विलक्ष embarrassed) व्याकुल। बदन = मुँह। निरासी = जिसकी आशाऐ पूरी ना हों, टूटे दिल वाली। भरमि = भटकना में।1।

अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति के मिलाप का आनंद नहीं समझा (भाव, आनंद नहीं पाया) वह सदा (दुनियावी झमेलों में ही) व्याकुल रहती है, उसका चेहरा कुम्हलाया रहता है; (दुनिया वाली आशाएं पूरी ना होने के कारण) उसका दिल टूटा सा रहता है, अपने किए कर्मों के संस्कारों का फंदा उसके गले में पड़ा रहता है; गुरु की शरण ना आने के कारण भटकना में पड़ के वह जीवन के सही रास्ते से वंचित रहती है।1।

बरसु घना मेरा पिरु घरि आइआ ॥ बलि जावां गुर अपने प्रीतम जिनि हरि प्रभु आणि मिलाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बरसु = बरखा कर। घना = हे घन! हे बादल! घरि = (मेरे) हृदय में। आणि = ला के। जिनि = जिस (गुरु) ने।1। रहाउ।

अर्थ: हे बादल! बरखा कर (हे गुरु! नाम की बरसात कर, तेरे नाम-वर्षा की इनायत से) मेरा पति-प्रभु मेरे हृदय में आ बसा है। मैं अपने प्रीतम गुरु से बलिहार हूँ, जिसने हरि-प्रभु से मुझे मिला दिया है।1। रहाउ।

नउतन प्रीति सदा ठाकुर सिउ अनदिनु भगति सुहावी ॥ मुकति भए गुरि दरसु दिखाइआ जुगि जुगि भगति सुभावी ॥२॥

पद्अर्थ: नउतन = नई। सिउ = साथ। अनदिनु = हर रोज। सुहावी = सुखद। गुरि = गुरु ने। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। सुभावी = शोभा वाली।2।

अर्थ: जिस जीवों को गुरु नें प्रभु के दर्शन करवा दिए हैं, वे माया के बंधनो से आजाद हो जाते हैं, वे सदा परमात्मा की भक्ति करते और शोभा कमाते हैं, प्रभु के साथ उनकी नई प्रीत बनी रहती है। (भाव, प्यार वाली उमंग कभी कम नहीं होती), वे हर रोज प्रभु की भक्ति करते हैं जो उनको आत्मिक सुख दिए रखती है।2।

हम थारे त्रिभवण जगु तुमरा तू मेरा हउ तेरा ॥ सतिगुरि मिलिऐ निरंजनु पाइआ बहुरि न भवजलि फेरा ॥३॥

पद्अर्थ: थारे = तेरे। त्रिभवण जगु = तीन भवनों वाला जगत। हउ = मैं। सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया की कालिख से रहित। बहुरि = फिर, दोबारा। भवजलि = भवजल में, संसार समुंदर में।3।

अर्थ: हे प्रभु! हम तेरे पैदा किए हुए हैं, तीन भवनों वाला सारा ही संसार तेरा ही रचा हुआ है (अपनी रची हुई माया के मोह से तू खुद ही सब जीवों को बचाता है)। हे प्रभु! तू मेरा (मालिक) है, मैं तेरा (दास) हूँ (मुझे भी कर्मों के फंदों से बचाए रख)। अगर गुरु मिल जाए, तो माया से रहित प्रभु मिल जाता है, और संसार-समुंदर (के चक्कर) में नहीं आना पड़ता।3।

अपुने पिर हरि देखि विगासी तउ धन साचु सीगारो ॥ अकुल निरंजन सिउ सचि साची गुरमति नामु अधारो ॥४॥

पद्अर्थ: विगासी = खिल उठी। तउ = तब। साचु = सदा कायम रहने वाला, अटल। अकुल = जिसकी कोई खास कुल नहीं। सचि = सच्चे हरि में (जुड़ के)।4।

अर्थ: (जीव-स्त्री अपने प्रभु-पति को प्रसन्न करने के लिए कई तरह के धार्मिक उद्यम-रूपी श्रृंगार करती है, पर) जीव-स्त्री का श्रृंगार तब ही सदीवी समझो (तब ही सफल जानो) जब वह प्रभु-पति को देख के उल्लास में उमंग में आती है, जब सच्चे के स्मरण के द्वारा कुल-रहित माया-रहित प्रभु के साथ एक-रूप हो जाती है, जब गुरु की शिक्षा पर चल के प्रभु का नाम उसके जीवन का सहारा बन जाता है।4।

मुकति भई बंधन गुरि खोल्हे सबदि सुरति पति पाई ॥ नानक राम नामु रिद अंतरि गुरमुखि मेलि मिलाई ॥५॥४॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सबदि = शब्द में। पति = इज्जत। रिद = हृदय। मेलि = मेल में, संगति में।5।

अर्थ: जो जीव-स्त्री माया के बंधनो से आज़ाद हो गई, जिसके माया के बंधन गुरु ने खोल दिए, वह प्रभु की सिफति-सालाह की वाणी में तवज्जो जोड़ के (प्रभु की हजूरी में) आदर हासिल करती है; हे नानक! प्रभु का नाम सदा उसके हृदय में बसता है, गुरु की शरण पड़ कर वह प्रभु-पति के मिलाप में मिल जाती है (अभेद हो जाती है)।5।4।

महला १ मलार ॥ पर दारा पर धनु पर लोभा हउमै बिखै बिकार ॥ दुसट भाउ तजि निंद पराई कामु क्रोधु चंडार ॥१॥

पद्अर्थ: दारा = स्त्री। धनु = पदार्थ, माल। बिखै = विषौ। बिकार = बुरे कर्म। दुसट भाउ = बुरी नीयत। तजि = त्यागता है। चंडार = चंडाल।1।

अर्थ: (जो मनुष्य गुरु का शब्द हृदय में बसाता है और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस हासिल करता है, वह) पराई स्त्री (का संग), पराया धन, बहुत लालच, अहंकार, विषियों (वाली रुचि), बुरे कर्म, बुरी नीयत, पराई निंदा, काम और चंडाल क्रोध- यह सब कुछ त्याग देता है।1।

महल महि बैठे अगम अपार ॥ भीतरि अम्रितु सोई जनु पावै जिसु गुर का सबदु रतनु आचार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: महल = शरीर। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। भीतरि = (हृदय के) अंदर। सबदु रतनु = श्रेष्ठ शब्द। आचार = नित्य की क्रिया, नित्य का आहर।1। रहाउ।

अर्थ: अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु जी हरेक शरीर में बैठे हुए हैं (मौजूद हैं), पर वही मनुष्य प्रभु जी का नाम-अमृत हासिल करता है जिसकी नित्य की क्रिया गुरु का श्रेष्ठ शब्द (अपने अंदर बसाना) हो जाए।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh