श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला १ ॥ दुख महुरा मारण हरि नामु ॥ सिला संतोख पीसणु हथि दानु ॥ नित नित लेहु न छीजै देह ॥ अंत कालि जमु मारै ठेह ॥१॥

पद्अर्थ: मारण = मसाले। हथि = हाथ में। पीसणु = (कुश्ता पीस के बारीक करने के लिए पत्थर का) बट्टा, सिल। नित नित = हर रोज, सदा ही। लेहु = (यह दवाई) खाओ। देह = शरीर। न छीजै = छीजता नहीं। न छीजै देह = मनुष्य का शरीर छीजता नहीं, मनुष्य जनम से नीचे की तरफ नहीं जाया जाता, पतन से बचाया जाता है।

(नोट: ‘न छीजै देह’ का पहला ‘न’ अगली तुक के साथ भी अर्थ करते वक्त बरतना है। इसको ‘देहली दीपक’ अलंकार समझो)।

अंत कालि = आखिरी वक्त। मारै ठेह = पटक के मारता है।1।

अर्थ: (दुनिया के) दुख-कष्ट (इन्सानी जीवन के लिए) जहर (तुल्य) हैं, (पर, हे भाई!) (अगर इस जहर का कुश्ता करने के लिए) परमात्मा का नाम तू (जड़ी-बूटियों आदि) मसाले (की जगह) बरते, (उस कुश्ते को बारीक करने के लिए) संतोख की शिला (पत्थर की सिल जिस पर मसाला पीसा जाता है) बनाए, और (जरूरतमंदों की सहायता करने के लिए) दान को अपने हाथ में पीसने वाला पत्थर का बट्टा बनाए। (हे भाई! यह तैयार हुआ कुश्ता) अगर तू सदा खाता रहे, तो इस तरह मनुष्य-जनम से नीचे की जूनियों में जाया जाता, ना ही अंत के समय मौत (का डर) पटक के मारता है।1।

ऐसा दारू खाहि गवार ॥ जितु खाधै तेरे जाहि विकार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गवार = हे मूर्ख! जितु खाधै = जिस (दारू) के खाने से। विकार = बुरे कर्म।1। रहाउ।

अर्थ: हे मूर्ख जीव! ऐसी दवाई खा, जिसके खाने से तेरे बुरे कर्म (सारे) नाश हो जाएं।1। रहाउ।

राजु मालु जोबनु सभु छांव ॥ रथि फिरंदै दीसहि थाव ॥ देह न नाउ न होवै जाति ॥ ओथै दिहु ऐथै सभ राति ॥२॥

पद्अर्थ: सभु = यह सारा (आडंबर)। छांव = परछाई। रथि फिरंदै = रथ के फिरने से, जब सूरज का रथ फिरता है जब सूरज चढ़ता है। थाव = असली जगह ठिकाना। देह = शरीर। नाउ = मशहूरी, बड़ाई। ओथै = प्रभु की हजूरी में। राति = अज्ञानता का अंधेरा। दिहु = दिन, ज्ञान की रौशनी।2।

नोट: शब्द ‘थाव’, शब्द ‘थाउ’ का बहुवचन है।

अर्थ: (हे गवार जीव!) दुनिया का राज धन-पदार्थ और जवानी (जिनके नशे ने तेरी आँखों के आगे अंध्धेरा किया हुआ है) यह सब कुछ अस्लियत की परछाईयां हैं, जब सूरज चढ़ता है तो (अंधेरा दूर हो के) असली जगह (प्रत्यक्ष) दिख जाती है। (तू जवानी का, मशहूरी का, नाम का, उच्च जाति का मान करता है, प्रभु के दर पर) ना शरीर, ना नाम, ना ऊँची जाति कोई भी स्वीकार नहीं है, क्योंकि उसकी हजूरी में (ज्ञान का) दिन चढ़ा रहता है, और यहाँ दुनिया में (माया के मोह की) रात हुई रहती है।2।

साद करि समधां त्रिसना घिउ तेलु ॥ कामु क्रोधु अगनी सिउ मेलु ॥ होम जग अरु पाठ पुराण ॥ जो तिसु भावै सो परवाण ॥३॥

पद्अर्थ: साद = (दुनिया के पदार्थों के) स्वाद। समधां = हवन में बरते जाने वाला ईधन। त्रिसना = माया का लालच। अरु = और। तिसु = उस परमात्मा को। भावै = अच्छा लगता है। परवाण = स्वीकार करना, मान लेना।3।

अर्थ: (हे गवार जीव!) दुनिया के पदार्थों के स्वादों को हवन की लकड़ी बना, माया की तृष्णा को (हवन के लिए) घी और तेल बना; काम और क्रोध को आग बना, इन सबको इकट्ठा कर (और जला के हवन कर दे)। जो कुछ परमात्मा को भाता है उसको सिर-माथे पर मानना - यह है हवन, यही है यज्ञ, यही है पुराण आदिकों के पाठ।3।

तपु कागदु तेरा नामु नीसानु ॥ जिन कउ लिखिआ एहु निधानु ॥ से धनवंत दिसहि घरि जाइ ॥ नानक जननी धंनी माइ ॥४॥३॥८॥

पद्अर्थ: तपु = उद्यम आदि। नीसानु = परवाना, राहदारी। निधानु = खजाना। से = वह बँदे। दिसहि = दिखते हैं। घरि जाइ = घर में जा के, प्रभु की हजूरी में पहुँच के। जननी = माँ, जनम देने वाली, जननी। धंनी = धन्य, भाग्यशाली। माइ = माँ।4।

अर्थ: हे प्रभु! (तेरे चरणों में जुड़ने के लिए उद्यम आदि) तप (जीव के करणी-रूप) कागज़ है, तेरे नाम का स्मरण उस कागज़ पर लिखी राहदारी है। यह खजाना, ये लिखा हुआ परवाना जिस किसी व्यक्ति को मिल जाता है वे लोग प्रभु के दर पर पहुँच के धनवान दिखते हैं। हे नानक! ऐसे व्यक्ति को पैदा करने वाली माँ (बहुत) भाग्यशाली है।4।3।8।

नोट: संख्या जहर है। पर, कई किस्म की जड़ी-बूटियों का साथ मिला के आग में इसको मारा जाता है (भावना दी जाती है), इस मिश्रण को अच्छी तरह पीसा (कुश्ता किया) जाता है। यह कुश्ता, मरा हुआ संख्या एक बढ़िया दवाई बन जाता है, जो कई रोगों को दूर कर सकता है। दुनिया के दुख-कष्ट मनुष्य पर दबाव डाल के उसके आत्मिक जीवन को खत्म कर देते हैं। पर यही दुख दवाई भी बन सकते हैं। इस शब्द में वह आत्मिक विधि बताई गई है।

नोट: 'मारण' के बारे में (महुरे को कुश्ता करने के लिए जड़ी-बूटियाँ आदि) (Kushta is a traditional preparation originating from India and Pakistan, used as an aphrodisiac. The terms medically used for the preparation contains oxidized metals (zinc, arsenic, mercury, and lead) that are combined with a variety of herbs. Metal poisoning is a risk associated with application and use of kushta)।

मलार महला १ ॥ बागे कापड़ बोलै बैण ॥ लमा नकु काले तेरे नैण ॥ कबहूं साहिबु देखिआ भैण ॥१॥

पद्अर्थ: बागे = सफेद। कापड़ = कपड़े, पंख। बैण = (मीठे) बोल। बोलै = बोलती है। नैण = आँखें। भैण = हे बहन!।1।

अर्थ: (जैसे) सफेद पंखों वाली (कूँज मीठे) बोल बोलती है (वैसे) है बहन! (तेरा भी सुंदर रंग है, बोल भी मीठे हैं, तेरे नैन-नक्श भी तीखे हैं) तेरा नाम लंबा है, तेरे नेत्र काले हैं (भाव, हे जीव-स्त्री! तुझे परमात्मा ने सुंदर तीखे नैन-नक्शों वाला सुंदर शरीर दिया है, पर जिस ने ये दाति दी है) तूने कभी उस मालिक के दर्शन भी किए हैं (कि नहीं)?।1।

ऊडां ऊडि चड़ां असमानि ॥ साहिब सम्रिथ तेरै ताणि ॥ जलि थलि डूंगरि देखां तीर ॥ थान थनंतरि साहिबु बीर ॥२॥

पद्अर्थ: ऊडां = मैं उड़ती हूँ। ऊडि = उड़ के। चढ़ां = मैं पहुँचती हूँ। असमानि = आसमान में। साहिब = हे साहिब! तेरै ताणि = तेरी दी हुई ताकत से। डूंगरि = पहाड़ में। देखां = मैं देखती हूँ। तीर = दरियाओं के किनारे। थान थनंतरि = हर जगह में। बीर = हे वीर!।2।

अर्थ: हे सारी ताकतों के मालिक प्रभु! मैं (कुँज) तेरी दी हुई ताकत से (तेरे दिए हुए पंखों से) उड़ती हूँ, और उड़ के आसमान में पहुँचती हूँ (भाव, हे प्रभु! अगर मैं जीव-स्त्री इन सुंदर अंगों का इस सुंदर शरीर का मान भी करती हूँ तो भी ये सुंदर अंग तेरे ही दिए हुए हैं, ये सुंदर शरीर तेरा ही बख्शा हुआ है)।

हे वीर! (उस दाते की मेहर से) मैं पानी में, धरती में, पहाड़ों में, दरियाओं के किनारे (जिधर भी) देखती हूँ, वह मालिक हर जगह में मौजूद है।2।

जिनि तनु साजि दीए नालि ख्मभ ॥ अति त्रिसना उडणै की डंझ ॥ नदरि करे तां बंधां धीर ॥ जिउ वेखाले तिउ वेखां बीर ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। साजि = बना के। अति = बहुत। उडनै की डंझ = उड़ने की तमन्ना, भटकने की चाहत। डंझ = बहुत प्यास। बंधा धीर = मैं धीरज बाँधती हूँ। बीर = हे वीर!।3।

अर्थ: हे वीर! जिस (मालिक) ने यह शरीर बना के इसके साथ यह सुंदर (तीखे नैन-नक्श वाले) अंग दिए हैं, (माया की) बहुत सारी तृष्णा भी उसी ने लगाई है, भटकने की चाहत भी उसी ने ही (मेरे अंदर) पैदा की है।

जब वह मालिक मेहर की नजर करता है, तब मैं (माया की तृष्णा से) धीरज पाती हूँ (मैं भटकने से हट जाती हूँ), और जैसे-जैसे वह मुझे अपने दर्शन करवाता हूँ, वैसे-वैसे मैं दर्शन करती हूँ।3।

न इहु तनु जाइगा न जाहिगे ख्मभ ॥ पउणै पाणी अगनी का सनबंध ॥ नानक करमु होवै जपीऐ करि गुरु पीरु ॥ सचि समावै एहु सरीरु ॥४॥४॥९॥

पद्अर्थ: न जाइगा = सदा नहीं निभेगा। सनबंध = मेल। करम = बख्शिश। करि = कर के, धार के। सचि = सदा में, सदा स्थिर प्रभु में।4।

अर्थ: (हे वीर!) ना यह शरीर सदा साथ निभेगा, ना ही ये सुंदर अंग ही सदा कायम रहेंगें। यह तो हवा पानी आग आदि तत्वों का मेल है (जब तत्व बिखर जाएंगे, शरीर गिर जाएगा)। हे नानक! जब मालिक की मेहर की निगाह होती है, तब गुरु पीर का पल्ला पकड़ के मालिक-प्रभु को स्मरण किया जा सकता है, तब यह शरीर उस सदा-स्थिर मालिक में लीन रहता है (तब यह सुंदर ज्ञान-इन्द्रियाँ भटकने से हट के प्रभु में टिकी रहती हूँ)।4।4।9।

मलार महला ३ चउपदे घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

निरंकारु आकारु है आपे आपे भरमि भुलाए ॥ करि करि करता आपे वेखै जितु भावै तितु लाए ॥ सेवक कउ एहा वडिआई जा कउ हुकमु मनाए ॥१॥

पद्अर्थ: निरंकारु = (निर+आकार) जिसका कोई खास रूप नहीं। आकारु = यह दिखाई देता जगत। आपे = आप ही। भरमि = भटकना में (डाल के)। भुलाए = गलत रास्ते पर डाल देता है। करि = कर के। करता = कर्तार। जितु = जिस (काम) में। भावै = (उसको) अच्छा लगता है। तितु = उस (काम) में। वडिआई = इज्जत। जा कउ = जिस (सेवक) को।1।

अर्थ: हे भाई! यह सारा दिखाई देता संसार निरंकार स्वयं ही स्वयं है (परमात्मा का अपना ही स्वरूप है)। परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) भटकना के द्वारा गलत राह पर डालता है। (सारे काम) कर कर के कर्तार स्वयं ही (उन कामों को) देखता है। जिस (काम) में उसकी रजा होती है (हरेक जीव को) उस (काम) में लगाता है। जिस सेवक से अपना हुक्म मनवाता है (उसको हुक्म मीठा लगवाता है, आज्ञा में चलाता है), उसको वह यही इज्जत बख्शता है।1।

आपणा भाणा आपे जाणै गुर किरपा ते लहीऐ ॥ एहा सकति सिवै घरि आवै जीवदिआ मरि रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भाणा = रज़ा। ते = से। लहीऐ = ढूँढा जाता है, समझा जाता है। सकति = माया, माया वाली रुचि। सिवै घरि = शिव के घर में, प्रभु की तरफ। मरि रहीऐ = स्वैभाव से मरा जाता है, अपने अंदर से स्वैभाव खत्म कर लिया जाता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) खुद ही अपनी मर्जी जानता है, (उसकी रज़ा को) गुरु की मेहर से समझा जा सकता है। (जब प्रभु की रज़ा की समझ आ जाती है, तब) यह माया वाली रुचि परमात्मा (के चरणों) में जुड़ती है, और दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए ही अपने अंदर से स्वै भाव खत्म कर लिया जाता है।1। रहाउ।

वेद पड़ै पड़ि वादु वखाणै ब्रहमा बिसनु महेसा ॥ एह त्रिगुण माइआ जिनि जगतु भुलाइआ जनम मरण का सहसा ॥ गुर परसादी एको जाणै चूकै मनहु अंदेसा ॥२॥

पद्अर्थ: पढ़ै = (पंडित) पढ़ता है (एकवचन)। पढ़ि = पढ़ के। वादु = चर्चा, कथा कहानी। वखाणै = कहता है, सुनाता है। महेसा = शिव। त्रिगुण माइआ = (रजो, तमो, सतो) तीन गुणों वाली माया। जिनि = जिस (माया) ने। सहसा = सहम, खतरा। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। जाणै = सांझ डालता है। मनहु = मन से। अंदेसा = फिक्र।2।

अर्थ: (पर, हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर प्रभु की रज़ा समझने की जगह, पण्डित निरे) वेद (ही) पढ़ता रहता है, और, पढ़ के (उनकी) चर्चा ही (और लोगों को) सुनाता रहता है, ब्रहमा, विष्णू, शिव (आदि देवताओं की कथा-कहानियां ही सुनाता रहता है। इसका नतीजा यह होता है कि) यह त्रैगुणी माया जिसने सारे जगत को भटका रखा है, (गलत राह पर डाला हुआ है, उसके अंदर) जनम-मरण (के चक्कर) का सहम बनाए रखती है। हाँ, जो मनुष्य (गुरु की शरण आ के) गुरु की मेहर से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, उसके मन में से (हरेक) फिक्र दूर हो जाता है।2।

हम दीन मूरख अवीचारी तुम चिंता करहु हमारी ॥ होहु दइआल करि दासु दासा का सेवा करी तुमारी ॥ एकु निधानु देहि तू अपणा अहिनिसि नामु वखाणी ॥३॥

पद्अर्थ: हम = हम जीव। दीन = गरीब, निमाणे। अवीचारी = विचार हीन, बेसमझ। चिंता = फिक्र, ध्यान। करि = कर ले, बना ले। करी = मैं करता रहूँ। सेवा = भक्ति। निधानु = खजाना। अहि = दिन। निसि = रात। वखाणी = मैं उचारता रहूँ।3।

अर्थ: हे प्रभु! हम जीव निमाणे मूर्ख बेसमझ हैं, तू खुद ही हमारा ध्यान रखा कर। हे प्रभु! (मेरे पर) दयावान हो, (मुझे अपने) दासों का दास बना ले (ताकि) मैं तेरी भक्ति करता रहूँ। हे प्रभु! तू मुझे अपना नाम खजाना दे, मैं दिन-रात (तेरा) नाम जपता रहूँ।3।

कहत नानकु गुर परसादी बूझहु कोई ऐसा करे वीचारा ॥ जिउ जल ऊपरि फेनु बुदबुदा तैसा इहु संसारा ॥ जिस ते होआ तिसहि समाणा चूकि गइआ पासारा ॥४॥१॥

पद्अर्थ: कहत = कहता है। परसादि = कृपा से। करे वीचारा = ख्याल बनाता है, विचार करता है। फेनु = झाग। बुदबुदा = बुलबुला। जिस ते = जिस (परमात्मा) से। तिसहि = उस में ही। पासारा = खिलारा। चूकि गइआ = समाप्त हो जाता है।4।1।

नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: नानक कहता है: हे भाई! तुम गुरु की कृपा से ही (सही जीवन-मार्ग) को समझ सकते हो। (जो मनुष्य समझता है, वह जगत के बारे अपने) ख्याल इस प्रकार बनाता है जैसे पानी के ऊपर झाग है बुलबुला है (जो जल्द ही मिट जाता है) वैसे ही यह जगत है। जिस (परमात्मा) से (जगत) पैदा होता है (जब) उसमें लीन हो जाता है, तब ये सारा जगत-पसारा समाप्त हो जाता है।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh