श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1276 मलार महला ३ असटपदीआ घरु १ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ करमु होवै ता सतिगुरु पाईऐ विणु करमै पाइआ न जाइ ॥ सतिगुरु मिलिऐ कंचनु होईऐ जां हरि की होइ रजाइ ॥१॥ पद्अर्थ: करमु = (परमात्मा की) मेहर। पाईऐ = मिलता है। विणु करमै = मेहर के बिना। सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। कंचनु = सोना। जां = जब। रजाइ = मर्जी।1। अर्थ: हे भाई! जब परमात्मा की मेहर होती है तब गुरु मिलता है, परमात्मा की मेहर के बिना गुरु नहीं मिल सकता। अगर गुरु मिल जाए तो मनुष्य (शुद्ध) सोना बन जाता है। (पर, ये तब ही होता है) जब परमात्मा की रज़ा हो।1। मन मेरे हरि हरि नामि चितु लाइ ॥ सतिगुर ते हरि पाईऐ साचा हरि सिउ रहै समाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! नामि = नाम में। लाइ = लगा के रख। ते = से, के द्वारा। साचा = सदा कायम रहने वाला। सिउ = साथ। रहै समाइ = समाया रहता है, लीन रहता है, जुड़ा रहता है।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रख। सदा कायम रहने वाला परमात्मा गुरु के द्वारा मिलता है, (जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है वह मनुष्य) परमात्मा में लीन रहता है।1। रहाउ। सतिगुर ते गिआनु ऊपजै तां इह संसा जाइ ॥ सतिगुर ते हरि बुझीऐ गरभ जोनी नह पाइ ॥२॥ पद्अर्थ: ते = से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। संसा = शंका, सहम, भटकना। जाइ = दूर हो जाता है। बुझीऐ = समझा जाता है, सांझ बन जाती है। गरभ जोनी = जीवन मरण के चक्कर में।2। अर्थ: हे भाई! जब गुरु के द्वारा (मनुष्य के अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ पैदा होती है, तब मनुष्य के मन की भटकना दूर हो जाती है। हे भाई! गुरु के माध्यम से ही परमात्मा के साथ सांझ बनती है, और, मनुष्य पैदा होने-मरने के चक्करों में नहीं पड़ता।2। गुर परसादी जीवत मरै मरि जीवै सबदु कमाइ ॥ मुकति दुआरा सोई पाए जि विचहु आपु गवाइ ॥३॥ पद्अर्थ: परसादी = कृपा से। जीवत मरै = जीता और मरता है, दुनियावी मेहनत-कमाई करता माया के मोह से बचा रहता है। मरि = मर के, विकारों के असर से बच के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। कमाइ = कमा के, कमाई कर के, (शब्द अनुसार) आचरण बना के। मुकति = विकारों से खलासी। जि = जो मनुष्य। आपु = स्वै भाव।3। अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह से बचा रहता है। गुरु के शब्द के अनुसार अपना जीवन बना के मनुष्य विकारों से हट के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। हे भाई! वही मनुष्य विकारों से निजात का रास्ता पा सकता है, जो अपने अंदर से स्वै-भाव दूर करता है।3। गुर परसादी सिव घरि जमै विचहु सकति गवाइ ॥ अचरु चरै बिबेक बुधि पाए पुरखै पुरखु मिलाइ ॥४॥ पद्अर्थ: सिव घरि = शिव के घर में, परमात्मा के घर में। सकति = शक्ति, माया (का प्रभाव)। अचरु = अ+चरु, ना चरा जा सकने वाला, जिसको वश में लाना बहुत मुश्किल है, बेबस मन। चरै = वश में ले आता है। बिबेक = अच्छे बुरे कर्म की परख। बुधि = अकल, सूझ। पुरखै = गुरु पुरख द्वारा। पुरखु = परमात्मा।4। अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से मनुष्य अपने अंदर से माया का प्रभाव दूर करके परमात्मा के घर में पैदा हो जाता है (परमात्मा की याद में जुड़े रहके नया आत्मिक जीवन बना लेता है। (गुरु के द्वारा) मनुष्य इस ढीठ मन को (वश से बाहर हुए मन को) वश में ले आता है, अच्छे-बुरे कर्म के परख की सूझ हासिल कर लेता है, और, इस तरह गुरु-पुरख के द्वारा मनुष्य अकाल-पुरख को मिल जाता है।4। धातुर बाजी संसारु अचेतु है चलै मूलु गवाइ ॥ लाहा हरि सतसंगति पाईऐ करमी पलै पाइ ॥५॥ पद्अर्थ: धातुर = भाग जाने वाली, नाशवान। बाजी = खेल। अचेतु = गाफिल, मूर्ख। चलै = जाता है। मूलु = (आत्मिक जीवन की) संपत्ति। गवाइ = गवा के। लाहा = लाभ, नफा। पाईऐ = मिलता है। करमी = (परमात्मा की) मेहर से। पलै पाइ = प्राप्त करता है।5। अर्थ: हे भाई! यह जगत नाशवान खेल (ही) है। (वह मनुष्य) मूर्ख है (जो इस नाशवान खेल की खातिर अपने आत्मिक जीवन का सारी) संपत्ति गवा के (यहाँ से) जाता है। हे भाई! नफा परमात्मा (का नाम है, यह लाभ) साधु-संगत में मिलता है, (पर, परमात्मा की) मेहर से ही (मनुष्य यह फायदा) हासिल करता है।5। सतिगुर विणु किनै न पाइआ मनि वेखहु रिदै बीचारि ॥ वडभागी गुरु पाइआ भवजलु उतरे पारि ॥६॥ पद्अर्थ: किनै = किसी ने भी। मनि = मन में। रिदै = हृदय में। बीचारि = विचार के। वडभागी = बड़े भाग्यों से। भवजलु = संसार समुंदर। उतरे = पार लांघ गए।6। अर्थ: हे भाई! अपने मन में हृदय में बिचार करके देख लो, किसी भी मनुष्य ने (ये हरि-नाम-लाभ) गुरु (की शरण) के बिना हासिल नहीं किया। (जिस मनुष्यों ने) बड़े भाग्यों से गुरु को पा लिया, वे संसार-समुंदर से पार लांघ गए।6। हरि नामां हरि टेक है हरि हरि नामु अधारु ॥ क्रिपा करहु गुरु मेलहु हरि जीउ पावउ मोख दुआरु ॥७॥ पद्अर्थ: टेक = सहारा। अधारु = आसरा। हरि जीउ = हे प्रभु जी! पावउ = मैं पा लूं। मोख = मोक्ष, विकारों से निजात। मोख दुआरु = माया के मोह से खलासी का दरवाजा।7। अर्थ: हे भाई! (मेरे वास्ते तो) हरि परमात्मा का नाम (ही) सहारा है, हरि का नाम ही आसरा है। हे प्रभु जी! मेहर करो, (मुझे) गुरु से मिलाओ, मैं (गुरु के माध्यम से माया के मोह से खलासी का) रास्ता तलाश सकूँ।7। मसतकि लिलाटि लिखिआ धुरि ठाकुरि मेटणा न जाइ ॥ नानक से जन पूरन होए जिन हरि भाणा भाइ ॥८॥१॥ पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। लिलाटि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। ठाकुरि = ठाकुर ने, मालिक प्रभु ने। से जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। पूरन = संपूर्ण (आत्मिक जीवन वाले)। भाणा = रज़ा। भाइ = भाय, भाता है।8। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों के) माथे पर धुर-दरगाह से मालिक-प्रभु ने (गुरु-मिलाप के लेख) लिख दिए, (वह लेख किसी भी तरह से) मिटाए नहीं जा सकते। हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु-शरण की इनायत से) जिस मनुष्यों को परमात्मा की रज़ा प्यारी लग गई, वे मनुष्य संपूर्ण (पूरन आत्मिक जीवन वाले) बन गए।8।1। मलार महला ३ ॥ बेद बाणी जगु वरतदा त्रै गुण करे बीचारु ॥ बिनु नावै जम डंडु सहै मरि जनमै वारो वार ॥ सतिगुर भेटे मुकति होइ पाए मोख दुआरु ॥१॥ पद्अर्थ: बेद बाणी = (शास्त्रों) वेदों की (कर्मकांड में ही रखने वाली) वाणी मैं। वरतदा = परचा रहता है। त्रै गुण बीचारु = (माया के) तीनों गुणों का विचार। बिनु नावै = हरि नाम के बिना। डंडु = सजा। सहै = सहता है। मरि = मर के। वारो वार = बार बार। सतिगुर भेटे = (जो) गुरु को मिलता है। मुकति = (माया के मोह से) मुक्ति। मोख दुआरु = माया के मोह से मुक्ति का रास्ता।1। अर्थ: हे भाई! जगत (कर्मकांड में रखने वाले शास्त्रों-) वेदों की वाणी में परचा रहता है, माया के तीन गुणों की (ही) विचार करता रहता है (प्रभु का नाम नहीं स्मरण करता)। परमात्मा के नाम के बिना (जगत) जमदूतों की सज़ा सहता है, बार-बार जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है। (जो मनुष्य) गुरु को मिल जाता है, उसको माया के मोह से खलासी मिल जाती है वह मनुष्य माया के मोह से आजाद होने का राह ढूँढ लेता है।1। मन रे सतिगुरु सेवि समाइ ॥ वडै भागि गुरु पूरा पाइआ हरि हरि नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सेवि = शरण पड़ कर। समाइ = (हरि नाम में) लीन हुआ रह। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। धिआइ = ध्याता है।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरु की शरण पड़ कर (परमातमा के नाम में) लीन हुआ रह। (जिस मनुष्य ने) बड़ी किस्मत से पूरा गुरु पा लिया, वह सदा हरि का नाम ध्याता रहता है।1। रहाउ। हरि आपणै भाणै स्रिसटि उपाई हरि आपे देइ अधारु ॥ हरि आपणै भाणै मनु निरमलु कीआ हरि सिउ लागा पिआरु ॥ हरि कै भाणै सतिगुरु भेटिआ सभु जनमु सवारणहारु ॥२॥ पद्अर्थ: आपणे भाणै = अपनी रजा में। आपे = आप ही। देइ = देता है। अधारु = आसरा। निरमलु = पवित्र। सिउ = साथ। कै भाणै = की रजा में। भेटिआ = मिला। सभु = सारा। सवारणहारु = अच्छा बना देने की समर्थता वाला (गुरु)।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने अपनी रजा में ये जगत पैदा किया है, परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) आसरा देता है। (जिस मनुष्य का) मन परमात्मा ने अपनी रज़ा में (गुरु के द्वारा) पवित्र कर दिया है, उस मनुष्य का प्यार प्रभु-चरणों के साथ बन गया। सारे मनुष्य जीवन को अच्छा बना सकने वाला गुरु (उस मनुष्य को) परमात्मा की रज़ा मुताबिक मिल गया।2। वाहु वाहु बाणी सति है गुरमुखि बूझै कोइ ॥ वाहु वाहु करि प्रभु सालाहीऐ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ आपे बखसे मेलि लए करमि परापति होइ ॥३॥ पद्अर्थ: वाहु वाहु = महिमा। सति = सदा कायम रहने वाली। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। कोइ = कोई विरला। करि = कर के, कह के। सालाहीऐ = सलाहना चाहिए। तिसु जेवडु = उसके बराबर का। बखसे = बख्शिश करता है। करमि = (प्रभु की) मेहर से। परापति = मिलाप।3। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर (ही) कोई विरला मनुष्य (ये) समझता है (कि) परमात्मा की महिमा की वाणी ही सदा कायम रहने वाली है। हे भाई! (प्रभु) ‘आश्चर्य है आश्चर्य है’- ये कह: कह के परमात्मा की सिफतसालह करते रहना चाहिए, (उसके बराबर का कोई और है ही नहीं। हे भाई! प्रभु स्वयं ही जिस मनुष्य पर) बख्शिश करता है (उसको अपने चरणों में) मिला लेता है। (उसकी) मेहर से (ही उसका) मिलाप होता है।3। साचा साहिबु माहरो सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अम्रितु वरसै मनु संतोखीऐ सचि रहै लिव लाइ ॥ हरि कै नाइ सदा हरीआवली फिरि सुकै ना कुमलाइ ॥४॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। माहरो = महर, चौधरी, प्रधान। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। संतोखीऐ = संतोखी हो जाता है। सचि = सदा कायम रहने वाले नाम जल में। हरि कै नाइ = परमातमा के नाम (-जल) से। हरीआवली = (आत्मिक जीवन से) हरी भरी।4। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला प्रभु ही (सारे जगत का) प्रधान है मालिक है। जिस (मनुष्य को) गुरु ने उसके दर्शन करवा दिए; (उसके अंदर) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की बरखा होने लग जाती है, (उसका) मन संतोखी हो जाता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में तवज्जो जोड़े रखता है। हे भाई! (जैसे पानी के साथ खेती हरि हो जाती है और, ना सूखती है ना कुम्हलाती है, वैसे ही जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा के दर्शन करवा दिया, उसकी जिंद) परमात्मा के नाम (-जल) की इनायत से सदा हरी-भरी (आत्मिक जीवन वाली) रहती हैं, ना कभी सूखती है, (और ना ही कभी आत्मिक मौत सहेड़ती है) ना कभी कुम्हलाती है (ना कभी डोलती है)।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |