श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1287 सलोक मः १ ॥ राती कालु घटै दिनि कालु ॥ छिजै काइआ होइ परालु ॥ वरतणि वरतिआ सरब जंजालु ॥ भुलिआ चुकि गइआ तप तालु ॥ अंधा झखि झखि पइआ झेरि ॥ पिछै रोवहि लिआवहि फेरि ॥ बिनु बूझे किछु सूझै नाही ॥ मोइआ रोंहि रोंदे मरि जांहीं ॥ नानक खसमै एवै भावै ॥ सेई मुए जिन चिति न आवै ॥१॥ पद्अर्थ: राती दिन = दिन रात से; भाव ज्यों ज्यों दिन रात बीतते हैं। कालु = जिंदगी का समय। काइआ = शरीर। छिजै = पुराना हो रहा है, बिरध हो रहा है। परालु = पराली की तरह थोथा कमजोर। वरतणि = जगत का बरतण व्यवहार। जंजालु = फंदा, जाल। तप तालु = तप की विधि, बंदगी का तरीका। झेरि = झेड़े में, चक्कर में। लिआवहि फेरि = वापस ले आएं। रोंहि = रोते हैं। मरि जांही = खपते हैं। अर्थ: ज्यों ज्यों रात दिन बीतते हैं उम्र का समय कम होता है, शरीर बुड्ढा होता जाता है और कमजोर पड़ता जाता है; जगत का वर्तण-व्यवहार (जीव के लिए) सारा जंजाल बनता जाता है (इसमें) भूले हुए को बँदगी की विधि बिसर जाती है। (जगत के वर्तण-व्यवहार में) अंधा हुआ जीव (इसमें) झखें मार-मार के (किसी लंबे) झमेले में पड़ता है, और, (उसके मरने के) बाद (उसके सन्बंधी) रोते हैं (और विरलाप करते हैं कि उसे कैसे) वापस ले आएं। समझने के बिना जगत को (वर्तण-व्यवहार में) कुछ सूझता नहीं, (मरने वाला तो) मर गया, (पीछे बचे हुए) रोते हैं और रो-रो के खपते हैं। पर, हे नानक! पति-प्रभु को ऐसा ही अच्छा लगता है (कि जीव इसी तरह खपते रहें)। (असल में) आत्मिक मौत मरे हुए वही हैं जिनके हृदय में प्रभु नहीं बसता। मः १ ॥ मुआ पिआरु प्रीति मुई मुआ वैरु वादी ॥ वंनु गइआ रूपु विणसिआ दुखी देह रुली ॥ किथहु आइआ कह गइआ किहु न सीओ किहु सी ॥ मनि मुखि गला गोईआ कीता चाउ रली ॥ नानक सचे नाम बिनु सिर खुर पति पाटी ॥२॥ पद्अर्थ: वादी = वाद विवाद करने वाला, (वाद = झगड़ा) झगड़ों का मूल (जैसे ‘धन’ से ‘धनी’)। वंनु = रंग। दुखी देह = बेचारा शरीर। कह = कहाँ? किहु न सीओ = यह कुछ वह नहीं था। मनि = मन में। मुखि = मुँह से। गोईआ = कहीं। रली = रलियां। सिर खुर = सिर से पैरों तक, सारी की सारी। पति = इज्जत। (नोट: ऐसा मालूम होता है कि इस शब्द के उच्चारण के वक्त गुरु नानक साहिब के सामने अभी ऐमनाबाद के कत्लेआम की घटना ताज़ा थी, जहाँ स्त्रीयों की बेइज्जती के बारे में उन्होंने ये दर्द भरे वचन उचारे थे = ‘इकना पेरण सिरखुर पाटे इकना वासु मसाणी’)। अर्थ: (जब मनुष्य मर जाता है तो उसका वह) प्रीत-प्यार समाप्त हो जाता है (जो वह अपने सम्बन्धियों के साथ करता था) झगड़ों का मूल वैर भी खत्म हो जाता है; (शरीर का सुंदर) रंग-रूप नाश हो जाता है, बेचारा शरीर भी भूल जाता है (आग व मिट्टी आदि के हवाले हो जाता है)। (उसके संबन्धि व भाईचारे के लोग) मन में (विचार करते हैं) और मुँह से बातें करते हैं कि वह कहाँ से आया था और कहाँ चला गया। (भाव जहाँ से आया था वहीं चला गया) वह ऐसा नहीं था और इस प्रकार का था (भाव, उसमें फलाणे ऐब नहीं थे, और उसमें फलाणे गुण थे), वह बड़े चाव से रलियां माण गया है। पर, हे नानक! (लोग जो चाहे कहें) परमात्मा के नाम के बिना (लोगों द्वारा होई हुई) सारी की सारी इज्जत बेकार हो गई (समझो)।2। पउड़ी ॥ अम्रित नामु सदा सुखदाता अंते होइ सखाई ॥ बाझु गुरू जगतु बउराना नावै सार न पाई ॥ सतिगुरु सेवहि से परवाणु जिन्ह जोती जोति मिलाई ॥ सो साहिबु सो सेवकु तेहा जिसु भाणा मंनि वसाई ॥ आपणै भाणै कहु किनि सुखु पाइआ अंधा अंधु कमाई ॥ बिखिआ कदे ही रजै नाही मूरख भुख न जाई ॥ दूजै सभु को लगि विगुता बिनु सतिगुर बूझ न पाई ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए जिस नो किरपा करे रजाई ॥२०॥ पद्अर्थ: सखाई = सखा, मित्र। बउराना = कमला सा। सार = कद्र, सूझ। जोति = जिंद, सोच, ध्यान। मंनि = मन में। कहु किनि = बता किसने? (भाव,) किसी ने नहीं। अंधु = अंधापन, अंधों वाला काम। बिखिआ = माया। विगुता = दुखी होता है। रजाई = रजा का मालिक प्रभु। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। नावै = नाम की। जिसु मंनि = जिसके मन में। सभु को = हरेक जीव। लगि = लग के। दूजै = (परमात्मा के बिना) अन्य (के प्यार) में। बूझ = समझ। जोती = परमात्मा में। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: प्रभु का आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा सुख देने वाला है, आखिर (‘नाम’ ही) मित्र बनता है। पर, जगत, गुरु के बिना कमला सा हो रहा है, (क्योंकि गुरु के बिना इसको) नाम की कद्र नहीं पड़ती। जो लोग गुरु के कहे अनुसार चलते हैं (और इस तरह) जिन्होंने प्रभु में अपनी तवज्जो जोड़ी हुई है वे (प्रभु-दर पर) स्वीकार हैं। जिस मनुष्य को प्रभु अपना भाणा (मीठा करके) मनाता है वह सेवक वैसा ही हो जाता है जैसा प्रभु मालिक है। अपनी मर्जी के मुताबिक चलके कभी कोई मनुष्य सुख नहीं पाता, अंधा सदा अंधों वाले काम ही करता है; मूर्ख की (माया की) भूख कभी खत्म नहीं होती, माया में कभी वह तृप्त नहीं होता। माया में लग के हर कोई दुखी ही होता है, गुरु के बिना समझ नहीं पड़ती (कि माया का मोह दुख का मूल है)। जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है वह गुरु के कहे अनुसार चलता है और सुख पाता है।20। सलोक मः १ ॥ सरमु धरमु दुइ नानका जे धनु पलै पाइ ॥ सो धनु मित्रु न कांढीऐ जितु सिरि चोटां खाइ ॥ जिन कै पलै धनु वसै तिन का नाउ फकीर ॥ जिन्ह कै हिरदै तू वसहि ते नर गुणी गहीर ॥१॥ पद्अर्थ: पलै पाइ = मिल जाए। (नोट: ‘धनु पलै पाइ’ और ‘पलै धनु वसै’ में शब्द ‘पल्ला’ सांझा होने से ऐसा प्रतीत होता है कि शब्द ‘धन’ का अर्थ दोनों जगहों पर एक ही है। पर, ‘धनु पलै पाइ’ में ‘नाम धन’ का जिकर नहीं है। ‘सरमु धरमु दुइ’, ये शब्द बताते हैं कि गुरु नानक साहिब के सामने यह घटना मौजूद है जिस बाबत उन्होंने उचारा था ‘सरमु धरमु दुइ छपि खलोऐ’। आरम्भ में यह बताया गया है कि यह ‘वार’ ऐमनाबाद के कत्लेआम के तुरंत बाद ही लिखी गई लगती है, पर यह बात भी मजेदार है कि गुरु अरजन साहिब जी ने गुरु नानक देव जी के कुछ शलोक भी यहाँ दर्ज किए हैं जो उसी ही घटना की याद दिलवाते हैं)। कांढीऐ = कहा जाता है। सरमु = इज्जत। दुइ = दोनों। जितु = जिस (धन) से। सिरि = सिर पर। खाइ = खाता है, सहता है। कै पलै = के पल्ले में। हिरदै = हृदय में। गुणी गहीर = गुणों के समुंदर। अर्थ: हे नानक! (जगत समझता है कि) अगर धन मिल जाए तो इज्जत बनी रहती है और धर्म कमाया जा सकता है। पर, जिस (धन) के कारण सिर पर चोटें पड़ें वह धन मित्र (भाव, श्रम धर्म में सहायक) नहीं कहा जा सकता। जिनके पास धन है उनका नाम ‘कंगाल’ है; (वे आत्मिक जीवन में कंगाल हैं); और, हे प्रभु! जिनके हृदय में तू स्वयं आप बसता है वे हैं गुणों के समुंदर।1। मः १ ॥ दुखी दुनी सहेड़ीऐ जाइ त लगहि दुख ॥ नानक सचे नाम बिनु किसै न लथी भुख ॥ रूपी भुख न उतरै जां देखां तां भुख ॥ जेते रस सरीर के तेते लगहि दुख ॥२॥ पद्अर्थ: दुनी = दुनिया, माया। रूपी = रूप से, रूप देख देख के। रस = चस्के। दुखी = दुखों से। सहेड़ीऐ = जोड़ी जाती है। लगहि = लगते हैं। तेते = उतने ही। अर्थ: दुख सह-सह के धन इकट्ठा किया जाता है, अगर यह गायब हो जाए तो भी दुख ही मारते हैं। हे नानक! प्रभु के सच्चे नाम के बिना किसी की तृष्णा मिटती नहीं। ‘रूप’ देखने से (रूप देखने की) तृष्णा नहीं जाती (बल्कि) ज्यों-ज्यों देखते जाएं त्यों-त्यों और तृष्णा बढ़ती जाती है। जिस्म के जितने भी ज्यादा चस्के हैं, उतने ही ज्यादा इसको दुख व्यापते हैं।2। मः १ ॥ अंधी कमी अंधु मनु मनि अंधै तनु अंधु ॥ चिकड़ि लाइऐ किआ थीऐ जां तुटै पथर बंधु ॥ बंधु तुटा बेड़ी नही ना तुलहा ना हाथ ॥ नानक सचे नाम विणु केते डुबे साथ ॥३॥ पद्अर्थ: अंधी कंमी = उन कामों के कारण जो विचारहीन हो के किए जाएं। अंधु = अंधा, विचार से वंचित। तनु = (भाव,) ज्ञान-इंद्रिय। पथर बंधु = पत्थरों का बाँध, (भाव,) प्रभु के नाम की विचार। तुलहा = हल्की हल्की लकड़ियों का बँधा हुआ गट्ठा जो दरिया के किनारे पर लोग बेड़ी की जगह बरतते हैं। हाथ = गहराई, थाह। साथ = काफले। मनि अंधे = अगर मन अंधा हो जाए। चिकड़ि लाइऐ = अगर कीचड़ लगाया जाए। केते = अनेक। अर्थ: ज्यों-ज्यों विचार-हीन हो के बुरे काम किए जाएं, त्यों त्यों मन अंधा (भाव, विचारों से वंचित) होता जाता है; और मन विचार-हीन हुआ ज्ञान-इंद्रिय भी अंधी हो जाती हैं (भाव, आँखें-कान आदि भी बुरी तरफ ले चलते हैं)। सो, जब पत्थरों का बाँध (भाव, प्रभु के नाम के विचार का पक्का आसरा) टूट जाता है तब कीचड़ लगाने से कुछ नहीं बनता (भाव, और-और आसरे ढूँढने से)। (जब) बाँध टूट गया, ना बेड़ी रही, ना तुलहा रहा, ना (पानी का) थाह लग सका (भाव, पानी भी बहुत गहरा हुआ), (ऐसी हालत में) हे नानक! प्रभु के सच्चे नाम (-रूपी बाँध, बेड़ी, तुलहे) के बिना कई काफिले के काफिले डूब जाते हैं।3। मः १ ॥ लख मण सुइना लख मण रुपा लख साहा सिरि साह ॥ लख लसकर लख वाजे नेजे लखी घोड़ी पातिसाह ॥ जिथै साइरु लंघणा अगनि पाणी असगाह ॥ कंधी दिसि न आवई धाही पवै कहाह ॥ नानक ओथै जाणीअहि साह केई पातिसाह ॥४॥ पद्अर्थ: रुपा = चांदी। घोड़ी पातिसाह = घोड़ों वाले, (भाव,) रसालयों के मालिक बादशाह। साइरु = समुंदर। असगाह = बहुत गहरा, अथाह। कंधी = किनारा। धाही = धाहें मार के (रोना)। कहाह = शोर। धाही कहाह = हाय हाय का शोर। सिरि = सिर पर, से बड़े। अर्थ: लाखों मन सोना हो और लाखों मन चाँदी- ऐसे लाखों धनवानों से भी बड़े धनी हों, लाखों सिपाहियों की फौजें हों लाखों बाजे बजते हों, नेजे-बरदार लाखों फौजी रसालियों के मालिक बादशाह हों; पर, जहाँ (विकारों की) आग और पानी का अथाह समुंदर पार करना पड़ता है, (इस समुंदर का) किनारा भी नहीं दिखता, हाय-हाय की कुरलाहट का शोर भी मचा हुआ है, वहाँ, हे नानक! परखे जाते हैं कि (असल में) कौन धनी हैं और कौन बादशाह हैं (भाव, दुनिया का धन और बादशाही विकारों की आग में जलने और विकारों की लहरों में डूबने से बचा नहीं सकते; धन और बादशाहियत होते हुए भी ‘हाय-हाय’ नहीं मिटती)।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |