श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः १ ॥ मासु मासु करि मूरखु झगड़े गिआनु धिआनु नही जाणै ॥ कउणु मासु कउणु सागु कहावै किसु महि पाप समाणे ॥ गैंडा मारि होम जग कीए देवतिआ की बाणे ॥ मासु छोडि बैसि नकु पकड़हि राती माणस खाणे ॥ फड़ु करि लोकां नो दिखलावहि गिआनु धिआनु नही सूझै ॥ नानक अंधे सिउ किआ कहीऐ कहै न कहिआ बूझै ॥ अंधा सोइ जि अंधु कमावै तिसु रिदै सि लोचन नाही ॥ मात पिता की रकतु निपंने मछी मासु न खांही ॥ इसत्री पुरखै जां निसि मेला ओथै मंधु कमाही ॥ मासहु निमे मासहु जमे हम मासै के भांडे ॥ गिआनु धिआनु कछु सूझै नाही चतुरु कहावै पांडे ॥ बाहर का मासु मंदा सुआमी घर का मासु चंगेरा ॥ जीअ जंत सभि मासहु होए जीइ लइआ वासेरा ॥ अभखु भखहि भखु तजि छोडहि अंधु गुरू जिन केरा ॥ मासहु निमे मासहु जमे हम मासै के भांडे ॥ गिआनु धिआनु कछु सूझै नाही चतुरु कहावै पांडे ॥ मासु पुराणी मासु कतेबीं चहु जुगि मासु कमाणा ॥ जजि काजि वीआहि सुहावै ओथै मासु समाणा ॥ इसत्री पुरख निपजहि मासहु पातिसाह सुलतानां ॥ जे ओइ दिसहि नरकि जांदे तां उन्ह का दानु न लैणा ॥ देंदा नरकि सुरगि लैदे देखहु एहु धिङाणा ॥ आपि न बूझै लोक बुझाए पांडे खरा सिआणा ॥ पांडे तू जाणै ही नाही किथहु मासु उपंना ॥ तोइअहु अंनु कमादु कपाहां तोइअहु त्रिभवणु गंना ॥ तोआ आखै हउ बहु बिधि हछा तोऐ बहुतु बिकारा ॥ एते रस छोडि होवै संनिआसी नानकु कहै विचारा ॥२॥

पद्अर्थ: झगड़े = चर्चा करता है। गिआनु = ऊँची समझ, आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = ऊँची सोच, ध्यान। बाणे = बाण अनुसार, आदत अनुसार। फड़ु = पाखण्ड। सि लोचन = वह आँखें। रकतु = लहू। निपंने = पैदा हुए। निसि = रात को। मंधु = मंद। बाहर का मासु = बाहर से लाया हुआ मास। जीइ = जीव ने। अभखु = ना खाने वाली चीज़। केरा = का। कतेबीं = मुसलमानों की मज़हबी किताबों में। कमाणा = बरता जाता है। जगि = यज्ञ में। काजि = शादी ब्याह में। तोइअहु = पानी से। बिकारा = तब्दीलियां। संनिआसी = त्यागी। मारि = मार के। छोडि = छोड़ के। बैसि = बैठ के। नकु पकड़हि = नाक बँद कर लेते हैं। राती = रात को, छुप के। माणस खाणे = लोगों का लहू पीने की सोचें सोचते हैं। सूझै = सूझता (इनको)। किआ कहीऐ = समझने का कोई लाभ नहीं। कहै = (अगर कोई) कहे, अगर कोई समझाए। सुआमी = हे स्वामी! हे पण्डित! सभि = सारे। लइआ वासेरा = डेरा लगाया हुआ है। भखु = खाने योग्य चीज़। चतुरु = समझदार। सुहावै = शोभता है, अच्छा माना जाता है। ओइ = वे सारे। नरकि = नर्क में। सुरगि = स्वर्ग में। धिङाणा = (धिंगांणा) जोर जबरदस्ती की बात। रस = चस्के। एते रस = इतने सारे पदार्थों के चस्के। छोडि = छोड़ के। विचारा = विचार की बात। त्रिभवणु = सारा जगत।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: (अपनी तरफ़ से माँ का त्यागी) मूर्ख (पण्डित) मास-मास कह के चर्चा करता है, पर, ना इसको आत्मिक जीवन की समझ ना ही इसको सूझ है (वरना, ये ध्यान से बिचारे कि) माँस और साग में क्या फर्क है, और किस (के खाने) में पाप है। (पुराने समय में भी, लोग) देवताओं के स्वभाव के अनुसार (भाव, देवताओं को खुश करने के लिए) गैंडा मार के हवन और यज्ञ करते थे। जो मनुष्य (अपनी ओर से) माँस त्याग के (जब कभी कहीं माँस देखते हैं तो) बैठ के अपना नाक बँद कर लेते हैं (कि माँस की बदबू आ गई है) वे रात को मनुष्य को खा जाते हैं (भाव, छुप के मनुष्यों का लहू पीने के मनसूबे घड़ते हैं); (माँस ना खाने का यह) पाखण्ड करके लोगों को दिखाते हैं, वैसे इनको खुद ना समझ है ना ही सूझ है। पर, हे नानक! किसी अंधे मनुष्य को समझाने का कोई लाभ नहीं, (यदि कोई इसको) समझाए भी, तो भी ये समझाए समझते नहीं हैं।

(अगर कहो अंधा कौन है तो) अंधा वह है जो अंधों वाले काम करता है, जिसके दिल में वह आँखें नहीं हैं (भाव, जो समझ से विहीन है), (नहीं तो सोचने वाली बात है कि खुद भी तो) माता और पिता के रक्त से हुए हैं और मछली (आदि) के माँस से परहेज़ करते हैं (भाव, माँस से ही पैदा हो के मांस से परहेज़ करने का क्या भाव? पहले भी तो माता-पिता के मास से ही शरीर पला है)। (फिर,) जब रात को औरत और मर्द इकट्ठे होते हैं तब भी (माँस के साथ ही) मंद (भाव, भोग) करते हैं। हम सारे माँस के पुतले हैं, हमारा आरम्भ माँस से ही हुआ, हम माँस से ही पैदा हुए, (माँस का त्यागी) पण्डित (माँस की चर्चा छेड़ के ऐसे ही अपने आप को) समझदार कहलवाता है, (दरअसल,) इसको ना समझ है ना ही सूझ है। (भला बताओ,) पंडित जी! (ये क्या कि) बाहर से लाया हुआ माँस बुरा और घर का (बरता हुआ) माँस अच्छा? (फिर) सारे जीव-जंतु माँस से पैदा हुए हैं, जिंद ने (अर्थात प्राणों ने माँस में ही) डेरा लगाया हुआ है; सो, जिनको रास्ता बताने वाला खुद अंधा है वह ना-खाने-योग्य चीज (भाव, पराया हक) तो खाते हैं और खाने-योग्य चीज (भाव, जिस चीज से जिंदगी का आरम्भ हुआ) को त्यागते हैं। हम सभी माँस के पुतले हैं, हमारा आरम्भ माँस से ही हुआ है, हम माँस से ही पैदा हुए, (माँस का त्यागी) पंडित (माँस की चर्चा छेड़ के ऐसे ही अपने आप को) समझदार कहलवाता है, (असलियत में) इसको ना समझ है ना सूझ है।

पुराणों में माँस (का वर्णन) है, मुसलमानी मज़हबी किताबों में भी माँस (के प्रयोग का जिक्र) है; जगत के आरम्भ से माँस का उपयोग होता चला आया है। यज्ञ में, (शादी) ब्याह आदि कारजों में (माँस का प्रयोग) प्रधान है, उन जगहों पर माँस बरता जाता रहा है। औरत, मर्द, शाह, पातिशाह... सारे माँस से ही पैदा हुए हें। अगर ये सारे (माँस से बनने के कारण) नर्क में पड़ते दिखते हैं तो उनसे (माँस-त्यागी पंडित को) दान भी नहीं लेना चाहिए। (नहीं तो) देखिए, ये आश्चर्य भरे धक्केशाही की बात है कि दान देने वाले नर्क में जाएं और लेने वाले स्वर्ग में। (दरअसल) हे पंडित! तू खासा चतुर है, तुझे खुद को (माँस खाने के मामले की) समझ नहीं है, पर तू लोगों को समझाता है।

हे पंडित! तुझे ये पता ही नहीं कि माँस कहाँ से पैदा हुआ। (देख,) पानी से अन्न पैदा होता है, कमाद गन्ना उगता है और कपास उगती है, पानी से ही सारा संसार पैदा होता है। पानी कहता है कि मैं कई तरीकों से भलाई करता हूँ (भाव, जीव को पालने के लिए कई किसमों की खुराक़-पोशाक पैदा करता हूँ), ये सारी तब्दीलियां (भाव, बेअंत किस्मों के पदार्थ) पानी में ही हैं। सो, नानक यह विचार की बात बताता है (कि अगर सच्चा त्यागी बनना है तो) इन सारे पदार्थों के चस्के छोड़ के त्यागी बने (क्योंकि माँस की उत्पक्ति भी पानी से ही है और अन्न-कमाद आदि की उत्पक्ति भी पानी से ही है)।2।

पउड़ी ॥ हउ किआ आखा इक जीभ तेरा अंतु न किन ही पाइआ ॥ सचा सबदु वीचारि से तुझ ही माहि समाइआ ॥ इकि भगवा वेसु करि भरमदे विणु सतिगुर किनै न पाइआ ॥ देस दिसंतर भवि थके तुधु अंदरि आपु लुकाइआ ॥ गुर का सबदु रतंनु है करि चानणु आपि दिखाइआ ॥ आपणा आपु पछाणिआ गुरमती सचि समाइआ ॥ आवा गउणु बजारीआ बाजारु जिनी रचाइआ ॥ इकु थिरु सचा सालाहणा जिन मनि सचा भाइआ ॥२५॥

पद्अर्थ: दिसंतर = देश+अंतर, देशांतर, और-और देश। आपु = अपना आप। बाजारु = दिखावा। आवागउणु = जनम मरण का चक्कर। हउ = मैं। आखा = कहूँ। किन ही = किनि ही, किसी ने ही। इकि = कई। भवि = भटकना। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। बाजारी = दिखावा करने वाला, दिखावे का ढोंग रचने वाला, पाखण्डी। जिन मनि = जिनके मन में।

नोट: शब्द ‘आपु’ और ‘आपि’ के जोड़ और अर्थ में फर्क समझने योग्य है।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: (हे प्रभु!) मेरी एक जीभ है, मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करूँ? तेरा अंत किसी ने नहीं पाया, जो मनुष्य तेरी महिमा का शब्द विचारते हैं वे तेरे में ही लीन हो जाते हैं।

कई मनुष्य भगवा भेस बना के भटकते फिरते हैं, पर गुरु की शरण आए बिना (हे प्रभु!) तुझे किसी ने नहीं पाया, ये लोग (बाहर) देश-देशांतरों में भटकते खप गए, पर तुमने अपने आप को (जीव के) अंदर छुपा रखा है। सतिगुरु का शब्द (मानो) एक चमकता मोती है (जिस किसी को प्रभु ने) यह मोती बख्शा है, उसके हृदय में (प्रभु ने) खुद प्रकाश करके (उसको अपना आप) दिखाया है; (वह भाग्यशाली मनुष्य) अपनी अस्लियत को पहचान लेते हैं और गुरु की शिक्षा के माध्यम से सच्चे प्रभु में लीन हो जाते हैं।

(पर) जिस (भेषधारियों ने) दिखावे का ढोंग रचा हुआ है उन पाखण्डियों को जनम-मरण (का चक्कर) मिलता है; और, जिनको मन में सच्चा प्रभु प्यारा लगता है वे सदा स्थिर रहने वाले एक प्रभु के गुण गाते हैं।25।

सलोक मः १ ॥ नानक माइआ करम बिरखु फल अम्रित फल विसु ॥ सभ कारण करता करे जिसु खवाले तिसु ॥१॥

पद्अर्थ: करम = किए हुए कर्मों के अनुसार। बिरखु = (शरीर रूप) वृक्ष। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। विसु = (आत्मिक मौत लाने वाला मोह रूप) जहर। कारण = सबब, वसीले।

अर्थ: हे नानक! (जीवों के किए) कर्मों अनुसार (मनुष्य-शरीर रूप) माया का (रचा) वृक्ष (उगता) है (इसको) अमृत (भाव, नाम सुख) और जहर (भाव, मोह-दुख) दो किस्मों के फल लगते हैं। कर्तार स्वयं (अमृत और विष दो किस्मों के फलों के) सारे वसीले बनाता है, जिस जीव को जो फल खिलाता है उसको (वही खाना पड़त है)।1।

मः २ ॥ नानक दुनीआ कीआं वडिआईआं अगी सेती जालि ॥ एनी जलीईं नामु विसारिआ इक न चलीआ नालि ॥२॥

पद्अर्थ: जलीई = जली हुईयों ने, चंदरियों ने। अगी सेती = आग से। जालि = जला दे। एनी = इन्होंने।

अर्थ: हे नानक! दुनिया की वडियाइयो को आग से जला दे। इन चंदरियों ने (मनुष्य से) प्रभु का नाम भुलवा दिया है (पर, इनमें से) एक भी (मरणोपरांत) साथ नहीं जाती।2।

पउड़ी ॥ सिरि सिरि होइ निबेड़ु हुकमि चलाइआ ॥ तेरै हथि निबेड़ु तूहै मनि भाइआ ॥ कालु चलाए बंनि कोइ न रखसी ॥ जरु जरवाणा कंन्हि चड़िआ नचसी ॥ सतिगुरु बोहिथु बेड़ु सचा रखसी ॥ अगनि भखै भड़हाड़ु अनदिनु भखसी ॥ फाथा चुगै चोग हुकमी छुटसी ॥ करता करे सु होगु कूड़ु निखुटसी ॥२६॥

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर, हरेक का अलग अलग। निबेड़ = निर्णय, फैसला। जरवाणा = ज़ालिम।

(नोट: शब्द ‘जरवाणा’ बाबर के ऐमनाबाद वाले कत्लेआम का चेता करवाता लगता है। ‘जरवाणा कंनि् चढ़िआ नचसी’, ये शब्द मुग़ल फौजी सिपाहियों के अत्याचार आँखों के आगे लाते प्रतीत होते हैं)।

बोहिथु = जहाज। भड़हाड़ु = भड़कते शोले। अनदिनु = हर रोज। होगु = होगा। तेरै हथि = तेरे हाथ में। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगता। कालु = मोत। बंनि = बाँध के। जरु = बुढ़ापा। कंन्हि = कांधे पर। सचा = सदा कायम रहने वाला। भखै = भख रहा है, जल रहा है। हुकमी = प्रभु के हुकमि अनुसार ही।

अर्थ: (हे प्रभु! सारे जगत को तू) अपने हुक्म में चला रहा है (कहीं भेखी दिखावे का ढोंग रच रहे हैं, कहीं तुझे प्यार करने वाले तेरी महिमा कर रहे हैं; इनके कर्मों के अनुसार ‘आवागवन’ और तेरा प्यार तेरे ही हुक्म में) अलग-अलग फैसला (होता है), सारा फैसला तेरे ही हाथ में है, तू ही (मेरे) मन को प्यारा लगता है।

जब मौत, बाँध के (जीव को) ले चलती है, कोई इसको रख नहीं सकता; ज़ालिम बुढ़ापा (हरेक के) कंधे पर चढ़ के नाचता है (भाव, मौत का संदेशा दे रहा है जिसके आगे किसी की पेश नहीं चलती)। सतिगुरु ही सच्चा जहाज़ है सच्चा बेड़ा है जो (मौत के डर से) बचाता है।

(जगत की तृष्णा की) आग के शोले भड़क रहे हैं, हर वक्त भड़कते रहते हैं (इन शोलों में) फसा हुआ जीव चोगा चुग रहा है; प्रभु के हुक्म अनुसार ही इसमें से बच सकता है क्योंकि जो कुछ कर्तार करता है वही होता है। झूठ (का व्यापार, भाव, तृष्णा-अधीन हो के मायावी पदार्थों के पीछे दौड़ना) जीव के साथ नहीं निभता।26।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh