श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कलिआन महला ४ ॥ प्रभ कीजै क्रिपा निधान हम हरि गुन गावहगे ॥ हउ तुमरी करउ नित आस प्रभ मोहि कब गलि लावहिगे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! कीजै क्रिपा = कृपा कर। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने। हम = हम जीव। गुन गावहिगे = गुण गाएं, गुण गाते रहें। हउ = मैं। करउ = मैं करता हूँ। नित = सदा। मोहि = मुझे। गलि = गले से। लावहिगे = लाएंगे।1। रहाउ।

अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभु! मेहर कर, हम (जीव) तेरे गुण गाते रहें। हे प्रभु! मैं सदा तेरी (मेहर की ही) आस करता रहता हूँ कि प्रभु जी मुझे कब (अपने) गले से लगाएंगे।1। रहाउ।

हम बारिक मुगध इआन पिता समझावहिगे ॥ सुतु खिनु खिनु भूलि बिगारि जगत पित भावहिगे ॥१॥

पद्अर्थ: बारिक = बालक, बच्चे। मुगध = मूर्ख। इआन = अंजाने। सुत = पुत्र (एकवचन)। भूलि = भूलता है। बिगारि = बिगाड़ता है। भावहिगे = (बच्चे) प्यारे लगते हैं।1।

अर्थ: हे भाई! हम जीव मूर्ख अंजान बच्चे हैं, प्रभु पिता जी (हमें सदा) समझाते रहते हैं। पुत्र बार-बार हर वक्त भूलता है बिगड़ता है, पर जगत के पिता को (जीव बच्चे फिर भी) प्यारे (ही) लगते हैं।1।

जो हरि सुआमी तुम देहु सोई हम पावहगे ॥ मोहि दूजी नाही ठउर जिसु पहि हम जावहगे ॥२॥

पद्अर्थ: हरि सुआमी = हे हरि! हे स्वामी! हम पावहगे = हम जीव ले सकते हैं। मोहि = मुझे। ठउर = जगह, आसरा। पहि = पास।2।

अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! जो कुछ तू (स्वयं) देता है, वही कुछ हम ले सकते हैं। (तेरे बिना) मुझे कोई और जगह नहीं सूझती, जिसके पास हम जीव जा सकें।2।

जो हरि भावहि भगत तिना हरि भावहिगे ॥ जोती जोति मिलाइ जोति रलि जावहगे ॥३॥

पद्अर्थ: जो भगत = जो भक्त (बहुवचन)। हरि भावहि = हरि को प्यारे लगते हैं। तिना = उनको। हरि भावहिगे = प्रभु जी प्यारे लगते हैं। जोती = प्रभु की ज्योति में। जोति = जिंद। मिलाइ = मिला के। रलि जावहगे = एक मेक हो जाते हैं।3।

अर्थ: हे भाई! जो भक्त प्रभु को प्यारे लगते हैं, उनको प्रभु जी प्यारे लगते हैं। (वह भक्त) प्रभु की ज्योति में अपनी जिंद मिला के प्रभु की ज्योति से एक-मेक हुए रहते हैं।3।

हरि आपे होइ क्रिपालु आपि लिव लावहिगे ॥ जनु नानकु सरनि दुआरि हरि लाज रखावहिगे ॥४॥६॥ छका १ ॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। होइ = हो के। लिव लावहिगे = लगन पैदा करते हैं। दुआरि = (प्रभु के) दर पर। लाज = इज्जत।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभु जी स्वयं ही दयालु हो के (जीवों के अंदर) स्वयं (ही अपना) प्यार पैदा करते हैं। दास नानक प्रभु की शरण पड़ा रहता है, प्रभु के दर पर (गिरा) रहता है। (प्रभु जी दर पर पड़े हुए की) खुद ही इज्जत रखते हैं।4।6। छका।1।

कलिआनु भोपाली महला ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

पारब्रहमु परमेसुरु सुआमी दूख निवारणु नाराइणे ॥ सगल भगत जाचहि सुख सागर भव निधि तरण हरि चिंतामणे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: परमेसरु = (परम+ईसुरु) सबसे ऊँचा मालिक। दुख निवारण = दुखों का नाश करने वाला। जाचहि = माँगते हैं (बहुवचन)। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! भवनिधि = संसार समुंदर। तरण = जहाज़। भवनिधि तरण = हे संसार समुंदर से पार लंघाने वाले जहाज़! चिंतामणे = हे हरेक जीव की मनोकामना पूरी करने वाले!।1। रहाउ।

अर्थ: हे नारायण! हे स्वामी! तू (सभ जीवों के) दुख दूर करने वाला पारब्रहम परमेश्वर है। हे हरि! हे सबकी मनोकामना पूरी करने वाले! हे सुखों के समुंदर! हे संसार-समुद्र के जहाज़! सारे ही भक्त (तेरे दर से दातें) माँगते हैं।1। रहाउ।

दीन दइआल जगदीस दमोदर हरि अंतरजामी गोबिंदे ॥ ते निरभउ जिन स्रीरामु धिआइआ गुरमति मुरारि हरि मुकंदे ॥१॥

पद्अर्थ: जगदीस = हे जगत के ईश! दमोदर = (दाम+उदर। दाम = रस्सी। उदर = पेट, कमर, जिसके कमर पर तगाड़ी लिपटी हुई है) हे प्रभु! ते = वे (बहुवचन)। गुरमति = गुरु की मति पर चल के। मुरारि = (मुर+अरि। मुर दैत्य का वैरी) हे दैत्य दमन! मुकंदे = हे मुक्ति के दाते!।1।

अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले! हे जगत के ईश्वर! हे दामोदर! हे अंतजामी हरि! हे गोबिंद! हे मुरारी! हे मुक्ति दाते हरि! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति ले के (तुझे) श्री राम को स्मरण किया, उनको कोई डर छू नहीं सकता।1।

जगदीसुर चरन सरन जो आए ते जन भव निधि पारि परे ॥ भगत जना की पैज हरि राखै जन नानक आपि हरि क्रिपा करे ॥२॥१॥७॥

पद्अर्थ: पैज = सत्कार, इज्जत।2।

अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य जगत के मालिक के चरणों की शरण में आते हैं, वे मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। प्रभु स्वयं मेहर करके अपने भगतों की इज्जत रखता है।2।1।7।

रागु कलिआनु महला ५ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हमारै एह किरपा कीजै ॥ अलि मकरंद चरन कमल सिउ मनु फेरि फेरि रीझै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हमारै = हमारे ऊपर, मेरे ऊपर। कीजै = करो। अलि = भँवरा, भौरा। मकरंद = (Pollen dust) फूल की अंदर की धूल, फूल का रस। कमल = कमल फूल। सिउ = साथ। फेरि फेरि = बार बार। रीझै = लिपटा रहे।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! मेरे ऊपर मेहर कर कि (जैसे) भौरा फूल के रस से रीझा रहता है, (वैसे ही मेरा मन) (तेरे) सुंदर चरणों के साथ बार-बार लिपटा रहे।1। रहाउ।

आन जला सिउ काजु न कछूऐ हरि बूंद चात्रिक कउ दीजै ॥१॥

पद्अर्थ: आन = अन्य। जला सिउ = पानियों से। काजु = गर्ज, काम। कछूऐ = कोई भी। चात्रिक = पपीहा।1।

अर्थ: हे प्रभु! (जैसे) पपीहे को (वर्षा की बूँद के बिना) और पानियों से कोई गरज नहीं होती, वैसे ही मुझे पपीहे को (अपने नाम-अमृत की) बूँद दे।1।

बिनु मिलबे नाही संतोखा पेखि दरसनु नानकु जीजै ॥२॥१॥

पद्अर्थ: बिन मिलबे = मिले बिना। संतोखा = शांति। पेखि = देख के। जीजै = जीवित रहे।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे मिलाप के बिना (मेरे अंदर) ठंढक नहीं पड़ती, (मेहर कर; तेरा दास) नानक (तेरे) दर्शन कर के आत्मिक जीवन हासिल करता रहे।2।1।

कलिआन महला ५ ॥ जाचिकु नामु जाचै जाचै ॥ सरब धार सरब के नाइक सुख समूह के दाते ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जाचिकु = जाचक, मँगता। जाचै = माँगता है। जाचै जाचै = नित्य माँगता रहता है। सरब धार = हे सब जीवों के आसरे! नाइक = हे मालिक! समूह सुख = सारे सुख। दाते = हे देने वाले!।1। रहाउ।

अर्थ: हे सब जीवों के आसरे प्रभु! हे सभ जीवों के मालिक! हे सारे सुखों के देने वाले! (तेरे दर का) मँगता (तेरे दर से) नित्य माँगता रहता है।1। रहाउ।

केती केती मांगनि मागै भावनीआ सो पाईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: केती केती = बेअंत दुनिया। मांगनि मागै = हरेक माँग माँगती रहती है। भावनीआ = मन की मुराद। पाईऐ = प्राप्त कर ली जाती है।1।

अर्थ: हे भाई! बेअंत लुकाई (प्रभु के दर से) हरेक माँग माँगती रहती है, जो भी मन की मुराद होती है वह हासिल कर ली जाती है।1।

सफल सफल सफल दरसु रे परसि परसि गुन गाईऐ ॥ नानक तत तत सिउ मिलीऐ हीरै हीरु बिधाईऐ ॥२॥२॥

पद्अर्थ: सफल दरसु = वह जिसका दर्शन सारे फल देने वाला है। रे = हे भाई! परसि = छूह के। परसि परसि = नित्य छू के। गाईऐ = आओ गाते रहे। मिलिऐ = मिल जाता है। तत तत सिउ = (जैसे पानी आदि) तत्व (पानी) तत्व से। हीरै = हीरे से। हीर बिधाईऐ = हीरा भेद लिया जाता है।2।

अर्थ: हे भाई! प्रभु ऐसा है जिसका दर्शन सारे फल देने वाला है। आओ, उसके चरण सदा छू-छू के उसके गुण गाते रहें। हे नानक! (जैसे पानी आदि) तत्व (पानी) तत्व से मिल जाता है (वैसे ही गुण गाने की इनायत से) मन-हीरा प्रभु-हीरे से भेद लिया जाता है।2।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh