श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1325 महा अभाग अभाग है जिन के तिन साधू धूरि न पीजै ॥ तिना तिसना जलत जलत नही बूझहि डंडु धरम राइ का दीजै ॥६॥ पद्अर्थ: अभाग = दुर्भाग्य। साधू धूरि = संत जनों के चरणों की धूल। नही बूझहि = बुझते नहीं, शांत नहीं होते। डंडु = सज़ा। दीजै = दी जाती है।6। अर्थ: हे भाई! जिस लोगों के भाग्य बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं, उनको संत-जनों के चरणों की चरण-धूल नसीब नहीं होती। उनके अंदर तृष्णा की आग लगी रहती है, (उस आग में) हर वक्त जलते हुए के अंदर ठंढ नहीं पड़ती, (यह उनको) धर्मराज की सजा मिलती है।6। सभि तीरथ बरत जग्य पुंन कीए हिवै गालि गालि तनु छीजै ॥ अतुला तोलु राम नामु है गुरमति को पुजै न तोल तुलीजै ॥७॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। हिवै = बर्फ में। गालि = गला के। तनु छीजै = (अगर) शरीर नाश हो जाए। अतुला = ना तोला जा सकने वाला। को = कोई (भी उद्यम)। पुजै न = पहूँचता नहीं, बराबरी नहीं कर सकता। तुलीजै = अगर तोला जाए।7। अर्थ: हे भाई! अगर सारे तीर्थों के स्नान, अनेक व्रत, यज्ञ और (इस तरह के) पुण्य-दान किए जाएं, (पहाड़ों की खुंदरों में) बर्फ में गला-गला के शरीर नाश किया जाए, (तो भी इन सारे साधनों में से) कोई भी साधन परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकता। परमात्मा का नाम ऐसा है कि कोई भी तोल उसको तोल नहीं सकता, वह मिलता है गुरु की मति पर चलने से।7। तव गुन ब्रहम ब्रहम तू जानहि जन नानक सरनि परीजै ॥ तू जल निधि मीन हम तेरे करि किरपा संगि रखीजै ॥८॥३॥ अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरे गुण तू (स्वयं ही) जानता है (मेहर कर, हम जीव तेरी ही) शरण पड़े रहें। तू (हमारा) समुंदर है, हम जीव तेरी मछलियाँ हैं, मेहर करके (हमें अपने) साथ ही रखे रख।8।3। कलिआन महला ४ ॥ रामा रम रामो पूज करीजै ॥ मनु तनु अरपि धरउ सभु आगै रसु गुरमति गिआनु द्रिड़ीजै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रम = सर्व व्यापक। पूज = भक्ति। करीजै = करनी चाहिए। अरपि = भेटा कर के। धरउ = धरूँ, मैं धरता हूँ। सभु = सब कुछ। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। द्रिड़ीजै = हृदय में पक्का हो सके।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा सर्व-व्यापक परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। अगर कोई मेरे हृदय में गुरमति के द्वारा परमात्मा के नाम का आनंद और आत्मिक जीवन की सूझ पक्की कर दे तो मैं अपना मन अपना तन सब कुछ उसके आगे भेटा रख दूँ।1। रहाउ। ब्रहम नाम गुण साख तरोवर नित चुनि चुनि पूज करीजै ॥ आतम देउ देउ है आतमु रसि लागै पूज करीजै ॥१॥ पद्अर्थ: ब्रहम नाम = परमात्मा का नाम। ब्रहम गुण = परमात्मा की महिमा। साख तरोवर = वृक्ष की शाखाएं। चुनि चुनि = (यही) फूल चुन चुन के। पूज करीजै = पूजा करनी चाहिए। आतम देउ = परमात्मा ही देवता है। रसि लागै = रसि लागि, (परमात्मा के ही नाम-) रस में लग के।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही (पूजनीय) देवता है, (परमात्मा के नाम-) रस में लग के परमात्मा की ही भक्ति करनी चाहिए। परमात्मा का नाम परमात्मा के गुण ही वृक्ष की शाखाएं हैं (जिनसे नाम और महिमा के फूल ही) चुन-चुन के परमात्मा-देव की पूजा करनी चाहिए।1। बिबेक बुधि सभ जग महि निरमल बिचरि बिचरि रसु पीजै ॥ गुर परसादि पदारथु पाइआ सतिगुर कउ इहु मनु दीजै ॥२॥ पद्अर्थ: बिबेक बुधि = अच्छे बुरे कर्म की परख कर सकने वाली अक्ल। बिचरि बिचरि = (इस बुद्धि से) विचार विचार के। पीजै = पीना चाहिए। परसादि = कृपा से। पदारथु = हरि नाम। कउ = को। दीजै = देना चाहिए।2। अर्थ: हे भाई! (अन्य सभी चतुराईयों से) जगत में अच्छे-बुरे कर्म की परख कर सकने वाली बुद्धि (बिबेक) ही सबसे पवित्र है। (इसकी सहायता से परमात्मा के गुण मन में) बसा-बसा के (आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-) रस पीना चाहिए। ये नाम-पदार्थ गुरु की कृपा से (ही) मिलता है, अपना ये मन गुरु के हवाले कर देना चाहिए।2। निरमोलकु अति हीरो नीको हीरै हीरु बिधीजै ॥ मनु मोती सालु है गुर सबदी जितु हीरा परखि लईजै ॥३॥ पद्अर्थ: अति नीको = बहुत सुंदर। हीरो = हरि नाम हीरा। हीरै = (इस) हीरे से। हीरु = मन हीरा। बिधीजै = भेद लेना चाहिए, परो लेना चाहिए। सालु = सारु, श्रेष्ठ। सबदी = शब्द से। जितु = जिस (शब्द) की इनायत से। हीरा = नाम हीरा।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम हीरा बहुत कीमती है बहुत ही सुंदर है, इस नाम-हीरे से (अपने मन-) हीरे को सदा परो के रखना चाहिए। गुरु के शब्द से ये मन श्रेष्ठ मोती बन सकता है, क्योंकि शब्द की इनायत से नाम-हीरे की कदर-कीमत की समझ पड़ जाती है।3। संगति संत संगि लगि ऊचे जिउ पीप पलास खाइ लीजै ॥ सभ नर महि प्रानी ऊतमु होवै राम नामै बासु बसीजै ॥४॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। लगि = लग के। पीप = पीपल। पलास = छिछर। राम नामै = परमात्मा के नाम में। बासु = सुगंधि।4। अर्थ: हे भाई! संत-जनों की संगति में रह के संत-जनों के चरणों में लग के ऊँचे जीवन वाले बना जा सकता है। जैसे छिछरे को पीपल अपने में लीन कर (के अपने जैसा ही बना) लेता है, (इसी तरह मनुष्य में) परमात्मा के नाम की सुगंधि बस जाती है, वह मनुष्य सब प्राणियों में से ऊँचे जीवन वाला बन जाता है।4। निरमल निरमल करम बहु कीने नित साखा हरी जड़ीजै ॥ धरमु फुलु फलु गुरि गिआनु द्रिड़ाइआ बहकार बासु जगि दीजै ॥५॥ पद्अर्थ: निरमल = विकारों की मैल से बचाने वाले, पवित्र। साखा = शाखा। साखा हरी = हरी शाख। जड़ीजै = जड़ी जाती है, उगती है। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = दिल में पक्का कर दिया। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बहकार = महकार, सुगंधि। बासु = सुगंधि। जगि = जगत में। दीजै = दी जाती है।5। अर्थ: हे भाई! (गुरमति की इनायत से जिस मनुष्य ने) विकारों की मैल से बचाने वाले काम नित्य करने शुरू कर दिए, (उसके जीवन-वृक्ष पर, मानो, यह) हरि शाखा सदा उगती रहती है, (जिसको) धर्म-रूप फूल लगता रहता है, और गुरु से मिली आत्मिक जीवन की सूझ (का) फल लगता है। (इस फूल की) महक सुगन्धि (सारे) जगत में बिखरती है।5। एक जोति एको मनि वसिआ सभ ब्रहम द्रिसटि इकु कीजै ॥ आतम रामु सभ एकै है पसरे सभ चरन तले सिरु दीजै ॥६॥ पद्अर्थ: एको = एक (परमात्मा) ही। मनि = मन में। ब्रहम = परमात्मा। द्रिसटि = निगाह, नजर। आतम रामु = परमात्मा। पसरे = व्यापक। तले = नीचे।6। अर्थ: हे भाई! (सारे जगत में) एक (परमात्मा) की ज्योति (ही बसती है), एक परमात्मा ही (सबके) मन में बसता है, सारी लुकाई में सिर्फ परमात्मा को देखने वाली निगाह ही बनानी चाहिए। सारी सृष्टि में एक परमात्मा ही पसारा पसार रहा है, (इसलिए) सबके चरणों तले (अपना) सिर रखना चाहिए।6। नाम बिना नकटे नर देखहु तिन घसि घसि नाक वढीजै ॥ साकत नर अहंकारी कहीअहि बिनु नावै ध्रिगु जीवीजै ॥७॥ पद्अर्थ: नकटे = नाक कटे, आदर हीन। तिन नाक = उनका नाक। घसि घसि = बार बार घिस के। वढीजै = काटा जाता है। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। कहीअहि = कहे जाते हैं। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।7। अर्थ: हे भाई! देखो, जो मनुष्य परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं वे निरादरी ही करवाते हैं, उनकी नाक सदा कटती ही रहती है। परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य अहंकारी ही कहे जाते हैं। नाम के बिना जीया हुआ जीवन धिक्कारयोग्य ही होता है।7। जब लगु सासु सासु मन अंतरि ततु बेगल सरनि परीजै ॥ नानक क्रिपा क्रिपा करि धारहु मै साधू चरन पखीजै ॥८॥४॥ पद्अर्थ: सासु = साँस। सासु सासु = हरेक सांस। जब लगु = जब तक। ततु = तुरंत। बेगल = बे+गल, झिझक के बिना, श्रद्धा से। परीजै = पड़े रहना चाहिए। पखीजै = धोता रहूँ (पखालता रहूँ)।8। अर्थ: हे भाई! जब तक मन में (भाव, शरीर में) एक साँस भी आ रहा है, तब तक पूरी श्रद्धा से परमात्मा के चरणों में पड़े रहना चाहिए। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेरे पर) मेहर कर, मेहर कर, मैं तेरे संत-जनों के चरण धोता रहूँ।8।4। कलिआन महला ४ ॥ रामा मै साधू चरन धुवीजै ॥ किलबिख दहन होहि खिन अंतरि मेरे ठाकुर किरपा कीजै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रामा = हे राम! साधू = गुरु। धुवीजै = धोना, धोता रहूँ। किलबिख = पाप। दहन होहि = जल जाते हैं। ठाकुर = हे ठाकुर!।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे ठाकुर! हे मेरे राम! (मेरे ऊपर मेहर कर) मैं गुरु के चरण (नित्य) धोता रहूँ (गुरु की शरण पड़े रहने पर) एक छिन में सारे पाप जल जाते हैं।1। रहाउ। मंगत जन दीन खरे दरि ठाढे अति तरसन कउ दानु दीजै ॥ त्राहि त्राहि सरनि प्रभ आए मो कउ गुरमति नामु द्रिड़ीजै ॥१॥ पद्अर्थ: दीन = निमाणे। खरे = खड़े हैं। दरि = (तेरे) दर पर। ठाढे = खड़े हुए। अति तरसन कउ = बहुत तरस रहा हूँ। दीजै = दे। त्राहि = बचा ले। प्रभ = हे प्रभु! मो कउ = मुझे। द्रिड़ीजै = हृदय में पक्का कर।1। अर्थ: हे प्रभु! (तेरे दर के) निमाणे मँगते (तेरे) दर पर खड़े हुए हैं, बहुत तरस रहों को (यह) ख़ैर डाल। हे प्रभु! (इन पापों से) बचा ले, बचा ले, (हम तेरी) शरण आए हैं। हे प्रभु! गुरु की मति से (अपना) नाम मेरे अंदर पक्का कर।1। काम करोधु नगर महि सबला नित उठि उठि जूझु करीजै ॥ अंगीकारु करहु रखि लेवहु गुर पूरा काढि कढीजै ॥२॥ पद्अर्थ: नगर महि = शरीर नगर में। सबला = बलवान। उठि = उठ के। जूझु = युद्ध। करीजै = करना, मैं करता हूँ। अंगीकारु = पक्ष, मदद, सहायता। राखि लेवहु = बचा ले। काढि कढीजै = सदा के लिए निकाल दे।2। अर्थ: हे प्रभु! (हम जीवों के शरीर-) नगर में काम-क्रोध (आदि हरेक विकार) बलवान हुआ रहता है, हमेशा उठ-उठ के (इनके साथ) युद्ध करना पड़ता है। हे प्रभु! सहायता कर, (इनसे) बचा ले। पूरा गुरु (मिला के इनके पँजे में से) निकाल ले।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |