श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1335 प्रभाती महला ३ ॥ मेरे मन गुरु अपणा सालाहि ॥ पूरा भागु होवै मुखि मसतकि सदा हरि के गुण गाहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! सालाहि = उपमा किया कर, बड़ाई किया कर। भागु = भाग्य। मुखि = मुँह पर। मसतकि = माथे पर। गाहि = डुबकी लगाया कर। गुण गाहि = गुणों में डुबकी लगाया कर।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (सदा) अपने गुरु की शोभा किया कर, (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के गुणों में डुबकी लगाया कर। तेरे माथे पर पूरी किस्मत जाग उठेगी।1। रहाउ। अम्रित नामु भोजनु हरि देइ ॥ कोटि मधे कोई विरला लेइ ॥ जिस नो अपणी नदरि करेइ ॥१॥ पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। देइ = देता है। कोटि मधे = करोड़ों में से। लेइ = लेता है। नदरि = मेहर की निगाह। करेइ = करता है।1। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है, (उसको उसकी जिंद के लिए) खुराक (अपना) आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शता है, (पर) करोड़ों में से कोई विरला मनुष्य ही (यह दाति) हासिल करता है।1। गुर के चरण मन माहि वसाइ ॥ दुखु अन्हेरा अंदरहु जाइ ॥ आपे साचा लए मिलाइ ॥२॥ पद्अर्थ: वसाइ = बसाए रख। जाइ = दूर हो जाता है। अनेरा = अंधेरा, आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा। आपे = स्वयं ही। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु।2। अर्थ: हे भाई! गुरु के (सुंदर) चरण (अपने) मन में टिकाए रख (इस तरह) मन में से (हरेक) दुख दूर हो जाता है, (आत्मिक जीवन का) बेसमझी का (अज्ञानता भरा) अंधेरा हट जाता है (और) सदा कायम रहने वाला (प्रभु) स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिला लेता है।2। गुर की बाणी सिउ लाइ पिआरु ॥ ऐथै ओथै एहु अधारु ॥ आपे देवै सिरजनहारु ॥३॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। अधारु = (जिंदगी का) आसरा।3। अर्थ: हे भाई! सतिगुरु की वाणी से प्यार जोड़। (यह वाणी ही) इस लोक और परलोक में (जिंदगी का) आसरा है (पर यह दाति) जगत को पैदा करने वाला प्रभु स्वयं ही देता है।3। सचा मनाए अपणा भाणा ॥ सोई भगतु सुघड़ु सुोजाणा ॥ नानकु तिस कै सद कुरबाणा ॥४॥७॥१७॥७॥२४॥ पद्अर्थ: भाणा = रज़ा, मर्जी। मनाए = मानने के लिए मदद करता है। सुघड़ु = सुंदर मानसिक घाड़त वाला, कुशलता वाला। सुोजाणा = समझदार। तिस कै = उस से। सद = सदा।4। नोट: ‘सुोजाणा’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘सुजाणा’, यहां ‘सोजाणा’ पढ़ना है। ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा (गुरु की शरण में डाल के) अपनी रज़ा मीठी कर के मानने के लिए (मनुष्य की) सहायता करता है। (जो मनुष्य रज़ा को मान लेता है) वही है सुंदर-सदाचारी-समझदार भक्त। (ऐसे मनुष्य से) नानक सदा सदके जाता है।4।7।17।7।24। वेरवा अंकों का: प्रभाती महला ४ बिभास ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रसकि रसकि गुन गावह गुरमति लिव उनमनि नामि लगान ॥ अम्रितु रसु पीआ गुर सबदी हम नाम विटहु कुरबान ॥१॥ पद्अर्थ: रसकि = स्वाद से। रसकि सरकि = बार बार स्वाद से। गावह = आओ हम गाया करें। उनमनि = (प्रभु मिलाप की) तमन्ना में। नामि = नाम में। लगान = लग जाती है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। विटहु = से।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की मति पर चल के, आओ हम बार-बार स्वाद से परमात्मा के गुण गाया करें, (इस तरह) परमात्मा के नाम में लगन लग जाती है (प्रभु मिलाप की) तमन्ना में तवज्जो टिकी रहती है। हे भाई! गुरु के शब्द की इनायत से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीया जा सकता है। हे भाई! मैं तो परमात्मा के नाम से सदके जाता हूँ।1। हमरे जगजीवन हरि प्रान ॥ हरि ऊतमु रिद अंतरि भाइओ गुरि मंतु दीओ हरि कान ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जगजीवन हरि = जगत के जीवन प्रभु जी। प्रान = जिंद जान। रिद = हृदय। भाइआ = प्यारा लग जाता है। गुरि = गुरु ने। मंतु = उपदेश। कान = कानों में!। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जगत के जीवन प्रभु जी ही हम जीवों की जिंद-जान हैं (फिर भी हम जीवों को यह समझ नहीं आती)। (जिस मनुष्य के) कानों में गुरु ने हरि-नाम का उपदेश दे दिया, उस मनुष्य को उत्तम हरि (अपने) हृदय में प्यारा लगने लग जाता है।1। रहाउ। आवहु संत मिलहु मेरे भाई मिलि हरि हरि नामु वखान ॥ कितु बिधि किउ पाईऐ प्रभु अपुना मो कउ करहु उपदेसु हरि दान ॥२॥ पद्अर्थ: संत = हे संत जनो! भाई = हे भाईयो! मिलि = मिल के। वखान = उचारें। कितु = किस से? कितु बिधि = किसी बिधि से? किउ = कैसे? मो कउ = मुझे।2। अर्थ: हे संत जनो! हे मेरे भाईयो! आओ, मिल बैठो। मिल के परमात्मा का नाम जपें। हे संत जनो! प्रभु-मिलाप का उपदेश मुझे बतौर दान देवो (और मुझे बताओ कि) प्यारा प्रभु कैसे किस ढंग से मिल सकता है।2। सतसंगति महि हरि हरि वसिआ मिलि संगति हरि गुन जान ॥ वडै भागि सतसंगति पाई गुरु सतिगुरु परसि भगवान ॥३॥ पद्अर्थ: हरि गुन जान = प्रभु के गुणों के साथ सांझ बनती है। भागि = किस्मत से। परसि = छू के।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा साधु-संगत में सदा बसता है। साधु-संगत में मिल के परमात्मा के गुणों की सांझ पड़ सकती है। जिसको बड़ी किस्मत से साधु-संगत प्राप्त हो गई, उसने गुरु सतिगुरु (के चरण) छूह के भगवान (का मिलाप हासिल कर लिया)।3। गुन गावह प्रभ अगम ठाकुर के गुन गाइ रहे हैरान ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी हरि नामु दीओ खिन दान ॥४॥१॥ पद्अर्थ: गावह = आओ हम गाएँ। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गाइ = गा के। हैरान = विस्माद अवस्था में। गुरि = गुरु ने।4। अर्थ: हे भाई! आओ, अगम्य (पहुँच से परे) ठाकुर प्रभु के गुण गाया करें। उसके गुण गा-गा के (उसकी बड़ाई आँखों के सामने ला-ला के) हैरत में गुंम हुआ जाता है। हे नानक! जिस दास पर गुरु ने मेहर की, उसको (गुरु ने) एक छिन में परमात्मा का नाम दान दे दिया।4।1। प्रभाती महला ४ ॥ उगवै सूरु गुरमुखि हरि बोलहि सभ रैनि सम्हालहि हरि गाल ॥ हमरै प्रभि हम लोच लगाई हम करह प्रभू हरि भाल ॥१॥ पद्अर्थ: सूरु = सूरज। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बोलहि = बोलते हैं। रैनि = रात। समालहि = संभालते हें, याद करते हें। हरि गाल = हरि की (महिमा की) बातें। हमरै प्रभि = हमारे प्रभु ने, मेरे प्रभु ने। लोच = तमन्ना। हम = मुझे, हमें। हम करह = हम करते हैं, मैं करता हूं। भाल = तलाश।1। अर्थ: हे भाई! (जब) सूर्य उदय होता है गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा का नाम जपने लग जाते हैं, सारी रात भी वे परमात्मा की महिमा की बातें ही करते हैं। मेरे प्रभु ने भी मेरे अंदर ये लगन पैदा कर दी है, (इसलिए) मैं भी प्रभु की तलाश करता रहता हूँ।1। मेरा मनु साधू धूरि रवाल ॥ हरि हरि नामु द्रिड़ाइओ गुरि मीठा गुर पग झारह हम बाल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साधू = गुरु। रवाल = चरण धूल। द्रिढ़ाइओ = हृदय में पक्का कर दिया है। गुरि = गुरु ने। गुर पग = गुरु के पैर। झारह हम = हम झाड़ते हैं। बाल = केसों से।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु ने परमात्मा का मीठा नाम मेरे हृदय में पक्का कर दिया है। मैं (अपने) केसों से गुरु के चरण झाड़ता हूं। मेरा मन गुरु के चरणों की धूल हुआ रहता है।1। रहाउ। साकत कउ दिनु रैनि अंधारी मोहि फाथे माइआ जाल ॥ खिनु पलु हरि प्रभु रिदै न वसिओ रिनि बाधे बहु बिधि बाल ॥२॥ पद्अर्थ: साकत कउ = प्रभु से टूटे हुए लोगों को। अंधारी = अंधेरी। मोहि = मोह में। जाल = फंदे। रिदै = हृदय में। रिनि = कर्जे से (ऋण = करज़ा)। बाल बाधे = बाल बाल बचे रहते हैं।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों के लिए (सारा) दिन (सारी) रात घोर अंधेरा होता है, (क्योंकि वह) माया के मोह में, माया (के मोह) के फंदों में फसे रहते हैं। उनके हृदय में परमात्मा एक छिन भर भी एक पल भर भी नहीं बसता। वह कई तरीकों से (विकारों के) करज़े में बाल-बाल बँधे रहते हैं।2। सतसंगति मिलि मति बुधि पाई हउ छूटे ममता जाल ॥ हरि नामा हरि मीठ लगाना गुरि कीए सबदि निहाल ॥३॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। हउ = अहंकार। ममता जाल = अपनत्व के फंदे। गुरि = गुरु ने। सबदि = शब्द से। निहाल = प्रसन्न, शांत।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने साधु-संगत में मिल के (ऊँची) मति (ऊँची) बुद्धि प्राप्त कर ली, (उनके अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है, माया के मोह के फंदे टूट जाते हैं। उनको प्रभु का नाम प्यारा लगने लग जाता है। गुरु ने (उनको अपने) शब्द की इनायत से निहाल कर दिया होता है।3। हम बारिक गुर अगम गुसाई गुर करि किरपा प्रतिपाल ॥ बिखु भउजल डुबदे काढि लेहु प्रभ गुर नानक बाल गुपाल ॥४॥२॥ पद्अर्थ: हम = हम जीव। बारिक = बच्चे। गुर = बड़ा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गुसाई = धरती का पति। (गो = धरती। सांई = पति)। गुर = हे गुरु! प्रतिपाल = रक्षा कर। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। भउजल = संसार समुंदर। प्रभ = हे प्रभु! गुपाल = हे गुपाल! हे सृष्टि के रखवाले!।4। अर्थ: हे गुरु! हे अगम्य (पहुँच से परे) मालिक! हम जीव तेरे (अंजान) बच्चे हैं। हे गुरु! मेहर कर, हमारी रक्षा कर। हे नानक! (कह:) हे गुरु! हे प्रभु! हे धरती के रखवाले! ळम तेरे (अंजान) बच्चे हैं, आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के समुंदर में हम डूबते हुओं को बचा ले।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |