श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1339 आठ पहर पारब्रहमु धिआई सदा सदा गुन गाइआ ॥ कहु नानक मेरे पूरे मनोरथ पारब्रहमु गुरु पाइआ ॥४॥४॥ पद्अर्थ: धिआई = मैं ध्यान धरता हूँ। पाइआ = पा लिया है, पाया।4। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) मुझे गुरु मिल गया है (गुरु की कृपा से) मुझे परमात्मा मिल गया है, मेरी सारी मनोकानाएं पूरी हो गई हैं। अब मैं आठों पहर उसका नाम स्मरण करता हूँ, सदा ही उसके गुण गाता रहता हूँ।4।4। प्रभाती महला ५ ॥ सिमरत नामु किलबिख सभि नासे ॥ सचु नामु गुरि दीनी रासे ॥ प्रभ की दरगह सोभावंते ॥ सेवक सेवि सदा सोहंते ॥१॥ पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। किलबिख = पाप। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरि = गुरु ने। रासे = राशि, संपत्ति, धन-दौलत, पूंजी। सेवि = सेवा कर के, भक्ति कर के। सोहंते = सुंदर लगते हैं।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए सारे पाप नाश हो जाते हैं। (जिस को) गुरु ने सदा-स्थिर हरि-नाम की राशि-पूंजी बख्शी, परमात्मा की दरगाह में वे इज्जत वाले बने। हे भाई! परमात्मा के भक्त (परमात्मा की) भक्ति कर के सदा (लोक-परलोक में) सुंदर लगते हैं।1। हरि हरि नामु जपहु मेरे भाई ॥ सगले रोग दोख सभि बिनसहि अगिआनु अंधेरा मन ते जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भाई = हे भाई! दोख = ऐब, पाप। सभि = सारे। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझ। ते = से। जाई = दूर हो जाता है।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा करो। (नाम-जपने की इनायत से साथ मन के) सारे रोग दूर हो जाते हैं, सारे पाप नाश हो जाते हैं, आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा मन से दूर हो जाता है।1। रहाउ। जनम मरन गुरि राखे मीत ॥ हरि के नाम सिउ लागी प्रीति ॥ कोटि जनम के गए कलेस ॥ जो तिसु भावै सो भल होस ॥२॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। राखे = समाप्त कर दिए, रख दिए, ठहरा दिए। मीत = हे मित्र! सिउ = साथ। कोटि = करोड़ों। तिसु भावै = उस परमात्मा को अच्छा लगता है। भल = भला। होस = होगा।2। अर्थ: हे मित्र! (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम में (जिस मनुष्यों का) प्यार बना, गुरु ने (उनके) जनम-मरण (के चक्कर) समाप्त कर दिए। (हरि-नाम जल प्रीति की इनायत से उनके) करोड़ों जन्मों के दुख-कष्ट दूर हो गए। (उनको) वह कुछ भला प्रतीत होता है जो परमात्मा को अच्छा लगता है।2। तिसु गुर कउ हउ सद बलि जाई ॥ जिसु प्रसादि हरि नामु धिआई ॥ ऐसा गुरु पाईऐ वडभागी ॥ जिसु मिलते राम लिव लागी ॥३॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। सद = सदा। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। प्रसादि = कृपा से। धिआई = मैं ध्याता हूँ। लिव = लगन।3। अर्थ: हे भाई! मैं उस गुरु से सदा सदके जाता हूँ, जिसकी मेहर से मैं परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता हूँ। हे भाई! ऐसा गुरु बड़ी किस्मत से ही मिलता है, जिसके मिलने से परमात्मा के संग प्यार बनता है।3। करि किरपा पारब्रहम सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ आठ पहर अपुनी लिव लाइ ॥ जनु नानकु प्रभ की सरनाइ ॥४॥५॥ पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रहम! घर = शरीर, हृदय। अंतरजामी = हे अंदर की जानने वाले! लिव लाइ = प्यार बनाए रख। जनु = दास।4। अर्थ: हे पारब्रहम! हे स्वामी! हे सब जीवों के दिल की जानने वाले! मेहर कर। (मेरे अंदर) आठों पहर अपनी लगन लगाए रख, (तेरा) दास नानक तेरी शरण पड़ा रहे।4।5। प्रभाती महला ५ ॥ करि किरपा अपुने प्रभि कीए ॥ हरि का नामु जपन कउ दीए ॥ आठ पहर गुन गाइ गुबिंद ॥ भै बिनसे उतरी सभ चिंद ॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। कीए = बना दिए। कउ = वास्ते, को। गाइ = गाया कर। भै = सारे डर। चिंद = चिन्ता।1। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़े) प्रभु ने (उनको) मेहर करके अपना बना लिया (क्योंकि गुरु ने) परमात्मा का नाम जपने के लिए उनको दे दिया। हे भाई! (गुरु की शरण पड़ कर) आठों पहर परमात्मा के गुण गाया कर (इस तरह) सारे डर नाश हो जाते हैं, सारी चिन्ता दूर हो जाती है।1। उबरे सतिगुर चरनी लागि ॥ जो गुरु कहै सोई भल मीठा मन की मति तिआगि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: उबरे = (विकारों से) बच गए। लागि = लग के। कहै = कहता है। भल = भला। तिआगि = त्याग के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सतिगुरु के चरणों में लग के (अनेक प्राणी डूबने से) बच जाते हैं। अपने मन की चतुराई छोड़ के (गुरु की शरण पड़ने) जो कुछ गुरु बताता है, वह अच्छा और प्यारा लगता है।1। रहाउ। मनि तनि वसिआ हरि प्रभु सोई ॥ कलि कलेस किछु बिघनु न होई ॥ सदा सदा प्रभु जीअ कै संगि ॥ उतरी मैलु नाम कै रंगि ॥२॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। बिघनु = रुकावट। जीअ कै संगि = जिंद के साथ। कै रंगि = के (प्रेम-) रंग में।2। अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ने से) मन में तन में वह परमात्मा ही बसा रहता है, कोई दुख-कष्ट (आदि जिंदगी के रास्ते में) रुकावट नहीं बनते। परमात्मा हर समय ही जिंद के साथ (बसता प्रतीत होता है), परमात्मा के नाम के प्यार-रंग में टिके रहने से (विकारों की) सारी मैल (मन से) उतर जाती है।2। चरन कमल सिउ लागो पिआरु ॥ बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ प्रभ मिलन का मारगु जानां ॥ भाइ भगति हरि सिउ मनु मानां ॥३॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। मारगु = रास्ता। जानां = समझ लिया। भाइ = प्रेम में। मानां = पतीज गया, रीझ गया।3। अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ने से) परमात्मा के सुंदर चरणों के साथ प्यार बन जाता है, काम क्रोध अहंकार (आदि विकार अंदर से) समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! (जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के मिलाप का रास्ता समझ लिया, प्यार की इनायत से भक्ति की इनायत से उसका मन प्रभु की याद में गिझ जाता है।3। सुणि सजण संत मीत सुहेले ॥ नामु रतनु हरि अगह अतोले ॥ सदा सदा प्रभु गुण निधि गाईऐ ॥ कहु नानक वडभागी पाईऐ ॥४॥६॥ पद्अर्थ: सजण = हे सज्जन! स्ंत = हे संत जनो! अगह = अगम्य (पहुँच से परे)। अगह नामु = अगम्य (पहुँच से परे) हरि का नाम। गुणनिधि = गुणों का खजाना प्रभु। गाईऐ = गाना चाहिए, महिमा करनी चाहिए। पाईऐ = प्राप्त होती है।4। अर्थ: हे सज्जन! हे संत! हे मित्र! सुन (गुरु की शरण में पड़ कर जिन्होंने) अगम्य (पहुँच से परे) और अतोल हरि का कीमती नाम हासिल कर लिया, वे सदा सुखी जीवन वाले हो गए। हे भाई! सदा ही गुणों के खजाने प्रभु की महिमा करनी चाहिए, पर, हे नानक! कह: ये दाति बहुत बड़ी किस्मत से मिलती है।4।6। प्रभाती महला ५ ॥ से धनवंत सेई सचु साहा ॥ हरि की दरगह नामु विसाहा ॥१॥ पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। सेई = वही मनुष्य (बहुवचन)। सचु = यकीनी तौर पर। साहा = शाहूकार। विसाहा = खरीदा, विहाजा।1। अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ कर जिन्होंने यहाँ) परमात्मा के नाम का सौदा खरीदा, परमात्मा की हजूरी में (वे) मनुष्य धनी (गिने जाते हैं), वही मनुष्य यकीनी तौर पर शाहूकार (समझे जाते हैं)।1। हरि हरि नामु जपहु मन मीत ॥ गुरु पूरा पाईऐ वडभागी निरमल पूरन रीति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! मीत = हे मित्र! निरमल = पवित्र करने वाली। रीति = मर्यादा।1। रहाउ। अर्थ: हे मित्र! हे मन! (गुरु की शरण पड़ के) सदा परमात्मा का नाम जपा कर। (पर नाम जपने वाली) पवित्र और संपूर्ण मर्यादा (चलाने वाला) पूरा गुरु बड़ी किस्मत से (ही) मिलता है।1। रहाउ। पाइआ लाभु वजी वाधाई ॥ संत प्रसादि हरि के गुन गाई ॥२॥ पद्अर्थ: वजी = बज पड़ी, तगड़ीहो गई। वाधाई = उत्साह वाली अवस्था, चढ़दीकला। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। गाई = गाता है।2। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) गुरु की कृपा से परमात्मा के गुण गाता है (वह यहाँ असल) लाभ कमाता है, (उसके अंदर) आत्मिक उत्साह वाली अवस्था प्रबल बनी रहती है।2। सफल जनमु जीवन परवाणु ॥ गुर परसादी हरि रंगु माणु ॥३॥ पद्अर्थ: सफल = कामयाब। परवाणु = स्वीकार। परसादी = कृपा से। रंगु = आत्मिक आनंद। माणु = माणता रह, भोगता रह, आनंद लेता रह।3। अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से परमात्मा के नाम का आनंद लेता रह (नाम जपने वाले का) मानव जनम सफल है, जीवन (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार है।3। बिनसे काम क्रोध अहंकार ॥ नानक गुरमुखि उतरहि पारि ॥४॥७॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। उतरहि पारि = पार लांघ जाते हैं।4। अर्थ: हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (नाम जपने वाले मनुष्य संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, (उनके अंदर से) काम क्रोध अहंकार (आदि विकार) नाश हो जाते हैं।4।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |