श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जनमं त मरणं हरखं त सोगं भोगं त रोगं ॥ ऊचं त नीचं नान्हा सु मूचं ॥ राजं त मानं अभिमानं त हीनं ॥ प्रविरति मारगं वरतंति बिनासनं ॥ गोबिंद भजन साध संगेण असथिरं नानक भगवंत भजनासनं ॥१२॥

पद्अर्थ: हरख = खुशी, हर्ष, खुशी। सोग = शोक, चिन्ता। नाना = नन्हा। मूच = बड़ा। हीन = हीनता, निरादरी। मारग = मार्ग, रास्ता। प्रविरति मारग = दुनियां में प्रवृक्ति होने का रास्ता। भजनासन = भजन+असन, भजन का भोजन (असन = भोजन) (अश् = to eat)। त = से, भी। असथिर = सदा कायम रहने वाला।

अर्थ: (जहाँ) जनम है (वहाँ) मौत भी है, खुशी है तो ग़मी भी है, (मायावी पदार्थों के) भोग हैं तो (उनसे उपजते) रोग भी हैं। जहाँ ऊँचा-पन है, वहां नीच-पना भी आ जाता है, जहाँ गरीबी है, वहाँ बड़प्पन भी आ सकता है। जहाँ राज है, वहाँ अहंकार भी है, जहाँ अहंकार है, वहाँ निरादरी भी है।

सो दुनिया के रास्ते में हरेक चीज़ का अंत (भी) है। सदा-स्थिर रहने वाली परमात्मा की भक्ति ही है साधु-संगत (के आसरे की जा सकती है)। (इस वास्ते) हे नानक! भगवान के भजन का भोजन (अपनी जीवात्मा को दे)।12।

भाव: जगत में दिखाई देती हरेक चीज़ का अंत भी है। सिर्फ परमात्मा का नाम ही मनुष्य के साथ निभ सकता है, और यह नाम मिलता है साधु-संगत में से।

किरपंत हरीअं मति ततु गिआनं ॥ बिगसीध्यि बुधा कुसल थानं ॥ बस्यिंत रिखिअं तिआगि मानं ॥ सीतलंत रिदयं द्रिड़ु संत गिआनं ॥ रहंत जनमं हरि दरस लीणा ॥ बाजंत नानक सबद बीणां ॥१३॥

पद्अर्थ: किरपं = कृपा। हरीअं = हरि, परमात्मा। बिगसीध्यि = खिले रहते हैं। बुधा = (बुध) ज्ञानवान लोग। बस्यिं = वश में। रिखिअं = (हृीषकं) इंद्रिय। द्रिढ़ु = पक्का कर। गिआनं = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। संत = शांति देने वाली। रहंत = रह जाती है, समाप्त हो जाती है। लीन = मस्त। बाजंत = बजता है। बीणां = बाजा। ततु गिआन = अस्लियत समझ, सही आत्मिक जीवन की सूझ। कुसल = सुख, आनंद। तिआगि = त्याग के।

अर्थ: जहाँ परमातमा की कृपा हो वहाँ मनुष्य की बुद्धि को जीवन की सही सूझ आ जाती है, (ऐसी बुद्धि) सुख का ठिकाना बन जाती है, (ऐसी बुद्धि वाले) ज्ञानवान लोग सदा खिले रहते हैं। मान त्यागने के कारण उनकी इंद्रिय वश में रहती हें, उनका हृदय (सदा) शीतल रहता है, यह शांति वाला ज्ञान उनके अंदर पक्का रहता है।

हे नानक! परमात्मा के दीदार में मस्त ऐसे लोगों का जन्म (-मरण) खत्म हो जाता है, उनके अंदर परमात्मा की महिमा की वाणी के बाजे (सदा) बजते हैं।13।

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, उसको सही जीवन की समझ आ जाती है, उसका मन काबू में रहता है, और वह सदा परमात्मा के दीदार में मस्त रहता है।

कहंत बेदा गुणंत गुनीआ सुणंत बाला बहु बिधि प्रकारा ॥ द्रिड़ंत सुबिदिआ हरि हरि क्रिपाला ॥ नाम दानु जाचंत नानक दैनहार गुर गोपाला ॥१४॥

पद्अर्थ: कहंत = कहते हैं। गुणंत = विचारते हैं। बाला = बालक, विद्यार्थी। बहु बिधि = कई तरीकों से। बहु प्रकारा = कई प्रकार से। सु बिदिआ = श्रेष्ठ विद्या। जाचंत = माँगते हैं (याचान्त)। दैनहार = देने वाला। गुनीआ = गुणी व्यक्ति, विचारवान मनुष्य।

अर्थ: जो कुछ वेद कहते हैं, उसको विद्वान मनुष्य कई ढंग-तरीकों से विचारते हैं, और (उनके) विद्यार्थी सुनते हैं।

पर, जिस पर परमात्मा की कृपा हो, वे (परमात्मा के स्मरण की) श्रेष्ठ विद्या को (अपने हृदय में) दृढ़ करते हैं। हे नानक! वह भाग्यशाली मनुष्य देवनहार गुरु परमात्मा से (सदा) नाम की दाति ही माँगते हैं।14।

भाव: सबसे श्रेष्ठ विद्या है परमात्मा की याद। जिस मनुष्यों पर परमात्मा की कृपा होती है, वे उसे सदा नाम जपने की दाति माँगते रहते हैं।

नह चिंता मात पित भ्रातह नह चिंता कछु लोक कह ॥ नह चिंता बनिता सुत मीतह प्रविरति माइआ सनबंधनह ॥ दइआल एक भगवान पुरखह नानक सरब जीअ प्रतिपालकह ॥१५॥

पद्अर्थ: लोक कह = (लोकक:) लोगों का। मीतह = (मीत:) मित्रों का। प्रतिपालकह = (प्रतिपालक:) पालने वाला। पित = पिता। भ्रातह = (भ्रात:) भाईयों की। चिंता = (पालने का) फिक्र। बनिता = स्त्री। सुत = पुत्र।

अर्थ: माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र मित्र और लोग जो माया में प्रवृति होने के कारण (हमारे) संबन्धी हैं, इनके वास्ते किसी तरह की चिन्ता व्यर्थ है।

हे नानक! सारे जीवों को पालने वाला दया का समुंदर एक भगवान अकाल-पुरख ही है।15।

भाव: परमात्मा का नाम जपने की इनायत से मनुष्य के अंदर ये निष्चय बन जाता है कि दया का समुंदर एक परमात्मा ही सबकी पालना करने वाला है।

अनित्य वितं अनित्य चितं अनित्य आसा बहु बिधि प्रकारं ॥ अनित्य हेतं अहं बंधं भरम माइआ मलनं बिकारं ॥ फिरंत जोनि अनेक जठरागनि नह सिमरंत मलीण बुध्यं ॥ हे गोबिंद करत मइआ नानक पतित उधारण साध संगमह ॥१६॥

पद्अर्थ: अनित्य = अ+नित्य, अनिक्त, नित्य ना रहने वाला, व्यर्थ। वितं = (विक्तं) धन। हेतं = मोह। अहं बंधं = अहंकार का बँधा हुआ। मलन = मैले। बिकारं = विकार, बुरे काम, पाप। जठरागनि = (जठर+अग्नि) पेट की आग। मलीण बुध्यं = मलीन बुद्धि वाला। चितं = चिंतन, सोचना। पतित = बड़े विकरमी, विकारों में गिरे हुए (पत् = to fall)। करत = कर। मइआ = मेहर (मयस = खुशी, प्रसन्नता)।

अर्थ: धन नित्य रहने वाला नहीं है, (इसलिए धन की) सोचें व्यर्थ (का उद्यम) है, और धन की कई किस्मों की आशाएं (बनानी भी) व्यर्थ हैं।

नित्य ना रहने वाले पदार्थों के मोह के कारण अहंकार का बँधा हुआ जीव माया की खातिर भटकता है, और, मलीन बुरे कर्म करता है। मैली मति वाला बंदा अनेक जूनियों में भटकता है और (माँ के) पेट के आग को याद नहीं रखता (जो जूनियों में पड़ने पर सहनी पड़ती है)।

हे नानक! (विनती कर-) हे गोबिंद! मेहर कर, और जीव को साधु-संगत बख्श जहाँ से बड़े कुकर्मी भी बच निकलते हैं।16।

भाव: परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को साधु-संगत प्राप्त होती है, वह माया की खातिर भटकने से बच जाता है वह विकारों में फसने से बच जाता है।

गिरंत गिरि पतित पातालं जलंत देदीप्य बैस्वांतरह ॥ बहंति अगाह तोयं तरंगं दुखंत ग्रह चिंता जनमं त मरणह ॥ अनिक साधनं न सिध्यते नानक असथ्मभं असथ्मभं असथ्मभं सबद साध स्वजनह ॥१७॥

पद्अर्थ: गिरंत = गिर के। देद्वीप्य = जलती, भड़कती। बैसवांतरह = (वैश्वांतर:) आग। अगाह = गहरे। तोयं = पानी। तरंगं = लहरें (तरंग = a wave)। ग्रह = गृह, घर। ग्रह चिंता = माया का मोह। दुखंत = दुखी करने वाली। न सिध्यते = सफल नहीं होता। स्वजनह = भले लोग। गिरि = पहाड़। असथंभं = (स्तम्भ) स्तंभ, थम, सहारा, आसरा।

अर्थ: पहाड़ से गिर के पाताल में जा गिरना, भड़कती आग में जलना, गहरे पानी की लहरें में बह जाना- ऐसे अनेक (कठिन) साधन, घर की चिन्ता (माया के मोह) और जनम मरन के दुखों से (बचने के लिए) सफल नहीं होते।

हे नानक! सदा के लिए जीव का आसरा गुरु-शब्द ही है जो साधु-संगत में मिलता है।17।

भाव: कोई बड़े से बड़ा कठिन तप भी मनुष्य को माया के मोह से नहीं बचा सकते। प्राणों का आसरा सिर्फ गुरु-शब्द ही हो सकता है जो साधु-संगत में से मिलता है।

घोर दुख्यं अनिक हत्यं जनम दारिद्रं महा बिख्यादं ॥ मिटंत सगल सिमरंत हरि नाम नानक जैसे पावक कासट भसमं करोति ॥१८॥

पद्अर्थ: हत्यं = हत्या, खून, कतल। दारिद्रं = आलस, गरीबी। बिख्यादं = (विषाद:) झगड़े, विखाद। सगल = सारे, सकल। पावक = आग। कासट = लकड़ी (काष्ठ = a piece of wood)। भसम = (भस्मन् = ashes) राख। घोर = भयानक (awful)। करोति = कर देती है।

अर्थ: भयानक दुख-कष्ट, (किए हुए) अनेक खून, जन्मों-तन्मांतरों की गरीबी, बड़े-बड़े झगड़े- ये सारे, हे नानक! परमात्मा का नाम स्मरण करने से मिट जाते हैं, जैसे आग लकड़ियों को राख कर देती है।18।

भाव: परमात्मा के नाम का स्मरण पिछले किए हुए सारे कुकर्मों के संस्कारों का नाश कर देता है।

अंधकार सिमरत प्रकासं गुण रमंत अघ खंडनह ॥ रिद बसंति भै भीत दूतह करम करत महा निरमलह ॥ जनम मरण रहंत स्रोता सुख समूह अमोघ दरसनह ॥ सरणि जोगं संत प्रिअ नानक सो भगवान खेमं करोति ॥१९॥

पद्अर्थ: अंधकार = अंधेरा (अंधकार:)। प्रकास = (प्रकाश:) रौशनी। अघ = पाप (अघ = a sin)। दूतह = जम के दूत। स्रोता = सुनने वाला। अमोघ = सफल, फल देने से ना उक्ताने वाला (अमोघ)। अमोघ दरसनह = उसका दीदार सफल है। खेमं = कुशल, सुख (क्षेमं)। रमंत = स्मरण करने से, याद करने से। सरण जोग = शरण आए की सहायता करने में समर्थ। संत प्रिअ = संतों का प्यारा। करोति = करता है।

अर्थ: परमात्मा का नाम स्मरण करने से (अज्ञानता का) अंधेरा (दूर हो के) (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो जाता है। प्रभु के गुण याद करने से पापों का नाश हो जाता है। प्रभु का नाम हृदय में बसने से जमदूत भी डरते हैं, वह मनुष्य बड़े पवित्र कर्म करने वाला बन जाता है।

प्रभु की महिमा सुनने वाले का जनम-मरण (का चक्कर) समाप्त हो जाता है, प्रभु का दीदार फल मिलता है, अनेक सुख मिलते हैं।

हे नानक! वह भगवान जो संतों का प्यारा है और शरण आए हुओं की सहायता करने के समर्थ है (भगतों को) सब सुख देता है।19।

भाव: नाम जपने की इनायत से सही जीवन जीने की विधि आ जाती है, मनुष्य का आचरण ऊँचा बन जाता है।

पाछं करोति अग्रणीवह निरासं आस पूरनह ॥ निरधन भयं धनवंतह रोगीअं रोग खंडनह ॥ भगत्यं भगति दानं राम नाम गुण कीरतनह ॥ पारब्रहम पुरख दातारह नानक गुर सेवा किं न लभ्यते ॥२०॥

पद्अर्थ: पाछं = पीछे। करोति = कर देता है। अग्रणीवह = (अग्रणी = a leader) आगे लगने वाले। भयं = हो जाता है (भु = to become)। भगत्यं = भक्तों को। किं न = क्या नहीं? (भाव,) सब कुछ। लभ्यते = मिल जाता है।

अर्थ: सर्व-व्यापक प्रभु सब दातें देने वाला है। हे नानक! गुरु की सेवा से (उससे) क्या कुछ नहीं मिलता?

वह प्रभु पीछे चलनों वालों को नेता बना देता है, निराश लोगों की आशाएं पूरी कर देता है। (उसकी मेहर से) कंगाल धन वाला बन जाता है। वह मालिक रोगियों का रोग नाश करने-योग्य है। प्रभु अपने भक्तों को अपनी भक्ति, नाम और गुणों की महिमा की दाति देता है।20।

भाव: गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के दर से हरेक मांग मुराद पूरी हो जाती है। परमात्मा सब दातें देने वाला है, देने के समर्थ है।

अधरं धरं धारणह निरधनं धन नाम नरहरह ॥ अनाथ नाथ गोबिंदह बलहीण बल केसवह ॥ सरब भूत दयाल अचुत दीन बांधव दामोदरह ॥ सरबग्य पूरन पुरख भगवानह भगति वछल करुणा मयह ॥ घटि घटि बसंत बासुदेवह पारब्रहम परमेसुरह ॥ जाचंति नानक क्रिपाल प्रसादं नह बिसरंति नह बिसरंति नाराइणह ॥२१॥

पद्अर्थ: अधरं = आसरा हीन। धरं = आसरा। नरहरह = परमात्मा। नरहरह नाम = परमात्मा का नाम। केसवह = परमात्मा (लंबे केशों वाला) (केशव: केष: प्रशास्ता: सन्ति अस्य)। भूत = (भूतं) जीव। दामोदरह = परमात्मा (दामन् = a string) दामन्+उदर। भगति वछल = भक्ति से प्यार करने वाला। करुणामयह = करुणा+मयह, तरस रूप, दया स्वरूप (करुणा = तरस)। बासुदेवह = परमात्मा। प्रसादं = दया, कृपा। घटि घटि = हरेक हृदय में। अचुत = (अविनाशी) अविनाशी प्रभु। दीन = कंगाल। बांधव = बंधु, रिश्तेदार। पूरन पुरख = सर्व व्यापक। सरबग्य = (सर्वज्ञ) सबके दिल की जानने वाला। जाचंति = माँगता है (याच = to beg)।

अर्थ: परमात्मा का नाम निआसरों को आसरा देने वाला है, और धन-हीनों का धन है। गोबिंद अनाथों का नाथ है और केशव प्रभु निताणियों का ताण है (निर्बलों का बल है)। अविनाशी प्रभु सब जीवों पर दया करने वाला है और कंगालों का बँधु है। सर्व-व्यापक भगवान सब जीवों के दिल की जानने वाला है, भक्ति को प्यार करता है और तरस का घर है। परमात्मा पारब्रहम परमेश्वर हरेक के दिल में बसता है।

नानक उस कृपालु नारायण से कृपा का यह दान माँगता है कि वह मुझे कभी ना भूले, कभी ना बिसरे।21।

भाव: सर्व-व्यापक परमात्मा सब के दिलों की जानने वाला है, निआसरों को आसरा देने वाला है। उसके दर से उसकी भक्ति की दाति माँगते रहना चाहिए।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh