श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कबीर चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारे ॥ जैसे बचरहि कूंज मन माइआ ममता रे ॥१२३॥

पद्अर्थ: चुगै = (चोगा) चुगती है। चितारै = (अपने बच्चों को) याद करती है। भी = दोबारा, फिर। चुगि चुगि चितारे = चुग चुग के (बच्चों को याद करती है, चोगा भी चुगती जाती है और बच्चों को याद भी करती है)। बचरहि = बच्चों में। ममता = ये ख्याल कि (माया) मेरी बन जाए, मल्कियत की तमन्ना। रे = हे भाई!

अर्थ: हे कबीर! कूँज चोगा चुगती है और अपने बच्चों को भी चेता करती है, फिर चुगती है, चोगा भी चुगती है और बच्चों को भी याद करती है। जैसे कूँज की तवज्जो हर वक्त अपने बच्चों में रहती है, वैसे ही, हे भाई! (‘हरि का सिमरनु छाडि कै’) मनुष्य का मन माया की मल्कियत की तमन्ना में टिका रहता है।123।

कबीर अ्मबर घनहरु छाइआ बरखि भरे सर ताल ॥ चात्रिक जिउ तरसत रहै तिन को कउनु हवालु ॥१२४॥

पद्अर्थ: अंबर = आकाश, आसमान। घनहरु = बादल। छाइआ = बिछ गए, बिखर गए। बरखि = बरस के, बस के। सर ताल = सरोवर तालाब। चात्रिक = पपीहा। रहै = रहते हैं। कउनु हवालु = (भाव) बुरा ही हाल।

अर्थ: हे कबीर! (वर्षा ऋतु में) बादल आकाश में (चारों तरफ) बिछ जाता है, बरखा कर के (छोटे बड़े सारे) सरोवर तालाब भर देता है (पर, पपीहा फिर भी बरखा की बूँद को तरसता और कूकता रहता है)। (परमात्मा सारी सृष्टि में व्यापक है, पर माया की ममता में फसे हुए जीव उसका दर्शन नहीं कर सकते) (‘हरि का सिमरनु छाडि कै’) वह पपीहे की तरह तरले लेते हैं, और उनका सदा बुरा हाल ही रहता है।124।

कबीर चकई जउ निसि बीछुरै आइ मिलै परभाति ॥ जो नर बिछुरे राम सिउ ना दिन मिले न राति ॥१२५॥

पद्अर्थ: चकई = चकवी।

जउ = जब। निसि = रात के वक्त। परभाति = सूरज चढ़ने से पहले। सिउ = से।

अर्थ: हे कबीर! चकवी जब रात को (अपने चकवे से) विछुड़ती है और सुबह होती ही दोबारा आ के मिलती है (रात का अंधेरा इनके मेल के रास्ते में रुकावट बना रहता है, वैसे ये अंधकार उनको ज्यादा से ज्यादा चार पहर ही विछोड़ सकता है। पर माया की ममता का अंधेरा ऐसा नहीं जो जल्दी खत्म हो सके, यह तो जन्म-जन्मांतरों तक खलासी नहीं करता; इस अंधेरे के कारण) जो मनुष्य प्रभु से विछुड़ते हैं, वे ना दिन में मिल सकते हैं ना रात को।125।

(नोट: आम ख्याल है कि चकवी अपने साथी चकवे से सारी रात विछुड़ी रहती है। एक दूसरे की याद में कूकते हैं, पर मिल नहीं सकते। सवेर होते सार ही दोबारा मिल जाते हैं)।

कबीर रैनाइर बिछोरिआ रहु रे संख मझूरि ॥ देवल देवल धाहड़ी देसहि उगवत सूर ॥१२६॥

पद्अर्थ: रैनाइर = (सं: रत्नाकर = रत्नों की खान) समुंदर। मझूरि = (रैनाइर) माझ, समुंदर में ही। रहु = टिका रह। देवल = (देवालय = देव+आलय) देवते का घर, देहुरा, ठाकुरद्वारा, मन्दिर। धाहड़ी = धाह+ड़ी, डरावनी ढाह। देसहि = देएगां। सूर = सूरज।126।

अर्थ: हे कबीर! (कह:) समुंदर से विछुड़े हुए हे शंख! समुंदर में ही टिका रह, नहीं तो हर रोज चढ़ते सूरज के साथ हरेक मन्दिर में डरावनी आवाज मारेगा (दहाड़ेगा)।126।

नोट: प्रभु चरणों से विछुड़ के ममता का मारा जीव माया की खातिर दर-दर पर तरले लेता है; अगर प्रभु के दर पर टिका रहे तो और-और आशाएं धार के धक्के खाने से बच जाता है। तभी तो,

(‘कबीर रामुन छोडीअै, तनु धनु जाइ त जाउ’)।

कबीर सूता किआ करहि जागु रोइ भै दुख ॥ जा का बासा गोर महि सो किउ सोवै सुख ॥१२७॥

पद्अर्थ: सूता = (माया की ममता की नींद में) सोया हुआ। भै = (दुनिया के) डर सहम।

बासा = वास, निवास। गोर = कब्र, अंधेरी गहरी जगह, दुनिया के दुखों और सहम से भरी हुई जिंदगी। किउ = कैसे? किउ सोवै = सुख से सो नहीं सकता, सुखी हो नहीं सकता।127।

अर्थ: हे कबीर! (माया के मोह में) सोया हुआ (मस्त हुआ) क्या कर रहा है (क्यों व्यर्थ में उम्र गवा रहा है?) प्रभु की याद में होशियार हो और (इस याद की इनायत से उन सांसारिक) सहमों और कष्टों से खलासी हासिल कर (जो प्रभु-चरणों से विछुड़ने पर आ घेरते हैं। तू समझता है कि मोह की नींद मीठी नींद है, पर इस मोह से पैदा हुए दुखों-कष्टों और सहमों के तले दबे रहना कब्र में पड़ने के समान है। ये दुखों-कष्टों-सहमों भरा जीवन सुखी जीवन नहीं है)। जिस मनुष्य का वास सदा (ऐसी) कब्र में रहे, वह कभी सुखी जीवन जीता हुआ नहीं कहा जा सकता।128।

नोट: 'रोइ भै दुख' (देखो शलोक नं: 72) दुनिया के डरों सहमों और दुखों को दूर कर। (किसी को रो बैठने का भाव है किसी से संबन्ध तोड़ लेना)।

कबीर सूता किआ करहि उठि कि न जपहि मुरारि ॥ इक दिन सोवनु होइगो लांबे गोड पसारि ॥१२८॥

पद्अर्थ: उठि = सचेत हो के, होशियार हो के। कि = क्यों? मुरारि = परमात्मा। पसारि = पसार के, बिखेर के। लांबे गोड पसारि = लंबे घुटने पसार के, ऐसे बेफिक्र हो के कि जैसे दोबारा उठना ही ना हो।128।

अर्थ: हे कबीर! माया के मोह में मस्त हो के क्यों उम्र व्यर्थ गवा रहा है? इस मोह की नींद में से होशियार हो के क्यों परमात्मा का स्मरण नहीं करता? एक दिन ऐसा बे-बस हो के सोना पड़ेगा कि दोबारा उठा ही नहीं जा सकेगा (एक दिन सदा की नींद सोना पड़ेगा)।128।

कबीर सूता किआ करहि बैठा रहु अरु जागु ॥ जा के संग ते बीछुरा ता ही के संगि लागु ॥१२९॥

पद्अर्थ: जा के संग ते = जिस परमात्मा की संगति से। लागु = लगा रह, जुड़ा रह।129।

अर्थ: हे कबीर! माया के मोह में मस्त हो के क्यों उम्र व्यर्थ गवा रहा है? होशियार हो, ममता की नींद के हुलारे से सचेत रह। जिस प्रभु की याद से विछुड़ा हुआ है (और ये सहम और कष्ट बर्दाश्त कर रहा है) उसी प्रभु के चरणों में जुड़ा रह।129।

नोट: तीसरे शलोक की आखिर तुक कारे पढ़ने से साफ पता चल जाता है कि ‘सोने’ से भाव है परमात्मा के चरणों से विछुड़ना और ‘जागने’ से भाव है प्रभु की याद में जुड़ना।

कबीर संत की गैल न छोडीऐ मारगि लागा जाउ ॥ पेखत ही पुंनीत होइ भेटत जपीऐ नाउ ॥१३०॥

पद्अर्थ: गैल = रास्ता, पीछा। संत की गैल = वह रास्ता जिस पर संत चले हैं। मारगि = रस्ते पर। लागा जाउ = चला चल। पुंनीत = पुनीत, पवित्र। भेटत = मिलने से, संगति करने से, पास बैठने से।

अर्थ: (पर) हे कबीर! (अगर ‘जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु’ वाला उद्यम करना है तो) वह रास्ता ना छोड़ें जिस पर संत गुरमुखि चलते हैं, उनके रास्ते पर चलते चलना चाहिए। संतों-गुरमुखों का दर्शन करने से मन पवित्र हो जाता है, उनके पास बैठने से परमात्मा का स्मरणा शुरू हो जाता है (स्मरण का शौक पड़ जाता है)।130।

कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥ बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु ॥१३१॥

पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। संगु = सुहबत। दूरहि = (साकत से) दूर ही। भागि जाईऐ = भाग जाना चाहिए। बासनु = बर्तन। कारो = काला। तउ = तो। कछु = कुछ, थोड़ा बहुत।

अर्थ: हे कबीर! (अगर ‘जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु’ वाला उद्यम करना है तो) रब से टूटे हुए बंदे की सोहबति नहीं करनी चाहिए, उससे दूर ही हट जाना चाहिए। (देख,) यदि किसी काले बर्तन को छूएं, तो थोड़ा-बहुत दाग़ लग ही जाता है।132।

कबीरा रामु न चेतिओ जरा पहूंचिओ आइ ॥ लागी मंदिर दुआर ते अब किआ काढिआ जाइ ॥१३२॥

पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। लागी = (आग) लग गई। मंदरि = घर। मंदरि दुआर ते = घर के दरवाजे पर। अब = अब, आग लगने पर। किआ काढिआ जाइ = क्या निकाला जा सकता है? क्या बचाया जा सकता है? सब कुछ बचाया नहीं जा सकता।132

अर्थ: हे कबीर! (अगर ‘जा के संग ते बीछुरा, ताही के संग लागु’ वाला उद्यम करना है तो ये समय-सिर ही हो सकता है, साधारण तौर पर बुढ़ापे से पहले-पहले ही ये उद्यम करना चाहिए; पर अगर जवानी में परमात्मा का भजन ना किया (ऊपर से) बुढ़ापा आ पहुँचा, इस उम्र तक माया के मोह में फंसे रहने से बेअंत बुरे संस्कार अंदर जमा होते गए, अब ये कैसे नाम-जपने की तरफ पलटने देंगे?) अगर किसी घर को दरवाजे की तरफ से आग लग जाए, तो उस वक्त (घर में से) बहुत कुछ (जलने से) नहीं बचाया जा सकता (इसी तरह अगर) जवानी विकारों में गल जाए, तो बुढ़ापे में उम्र के गिनती के दिन होने के कारण जीवन बहुत सँवारा नहीं जा सकता।132।

कबीर कारनु सो भइओ जो कीनो करतारि ॥ तिसु बिनु दूसरु को नही एकै सिरजनहारु ॥१३३॥

पद्अर्थ: कारनु = कारण, सबब, साधन, ‘राम को चेतने का सबब। सो भइओ = वही (सबब) बनता है। एकै = एक ही।133।

अर्थ: (पर) हे कबीर! (यदि स्मरण से वंचित ही जवानी गुजर गई है ओर बुढ़ापा आ जाने पर अब समझ आई है, तो भी निराश होने की आवश्यक्ता नहीं। स्मरण प्रभु की अपनी बख्शिश हैजब दे तब ही जीव स्मरण कर सकता है। जवानी हो चाहे बुढ़ापा, स्मरण करने का) सबब वही बनाता है जो कर्तार स्वयं बनाए; (ये दाति किसी भी जीव के हाथ में नहीं है, ये सबब बनाने वाला) उस परमात्मा के बिना और कोई नहीं, सिर्फ सृष्टि का रचनहार स्वयं ही सबब बनाने-योग्य है।133।

कबीर फल लागे फलनि पाकनि लागे आंब ॥ जाइ पहूचहि खसम कउ जउ बीचि न खाही कांब ॥१३४॥

पद्अर्थ: फल फलनि लागे = आमों को फल लगने लग जाते हैं। खसम कउ = बाग़ के मालिक के पास। जउ = अगर। बीचि = बीच में ही, पकने से पहले ही। कांब = कँपनी, कंपन, अंधेरी आदि के कारण टहनी से फल का हिल जाना।

अर्थ: हे कबीर! आम के पेड़ों को (पहले) फल लगते हैं, और (धीरे-धीरे फिर वह) पकने शुरू होते हैं; पकने से पहले अगर ये आम (अंधेरी आदि के कारण टहनी से) हिल ना जाए तो ही मालिक तक पहुँचते हैं।134।

नोट: बसंत ऋतु में आमों को बौर पड़ता है, आगे गर्मियां शुरू हो जाती हैं। पहले कच्चे फलों को गिलहरियां–तोते आदि ही कतर–कतर के खा जाते हैं, अंधेरी आने पर बहुत सारा फल झड़ जाता है, कई फल टहनियों के साथ लगे तो रहते हैं, पर अंधेरी के कारण हिल जाने के कारण ऊपर ही सूख जाते हैं। इन कई कठिनाईयों से जूझते हुए जो पकते हैं, वही स्वीकार होते हैं। यही हाल मनुष्यों का है, जगत के कई विकार इन्सान को प्रभु से विछोड़ते हैं, जो मनुष्य माया के सब हमलों से बच के पूरी श्रद्धा से प्रभु के दर पर टिके रहते हैं, वही मालिक प्रभु की नजरों में जचते हैं।

कबीर ठाकुरु पूजहि मोलि ले मनहठि तीरथ जाहि ॥ देखा देखी स्वांगु धरि भूले भटका खाहि ॥१३५॥

पद्अर्थ: मोलि ले = मूल्य ले के, खरीद के। जाहि = जाते हैं। देखा देखी = एक दूसरे को (ये काम करते हुए) देख के। सांगु धरि = स्वांग बना के, नकल करके। भटका खाहि = भटकते हैं।135।

अर्थ: (ष्) हे कबीर! जो लोग ठाकुर (की मूर्ति) मूल्य में लेकर (उसकी) पूजा करते हें, और मन के हठ से तीर्थों पर जाते हैं, (दरअसल वे लोग) एक-दूसरे को (ये काम करते हुए) देख के स्वांग बनाए जाते हैं (एक-दूसरे की नकल करते हैं) (इसमें सच्चाई कोई नहीं होती, सब कुछ लोगों में भला कहलवाने के लिए ही किया जाता है, हृदय में परमात्मा के प्यार का कोई हिलोरा नहीं होता) सही राह से टूटे हुए ये लोग भटकते हैं।135।

कबीर पाहनु परमेसुरु कीआ पूजै सभु संसारु ॥ इस भरवासे जो रहे बूडे काली धार ॥१३६॥

पद्अर्थ: पाहनु = पत्थर (की मूर्ति)। कीआ = बना लिया, मिथ लिया। इस भरवासे = इस यकीन में (कि ये परमात्मा है)। बूडै = डूब गए। काली धार = गहरे पानी में।136।

अर्थ: हे कबीर! (पंडितों के पीछे लगा हुआ ये) सारा जगत पत्थर (की मूर्ति) को परमेश्वर समझ रहा है और इसकी पूजा कर रहा है। जिस लोगों का ये ख्याल बना हुआ है कि पत्थर को पूज के वे परमात्मा की भक्ति कर रहे हैं, वे गहरे पानियों में डूबे हुए समझो (जहाँ उनका कोई खुरा-खोज ही नहीं मिलना)।136।

(नोट: समुंदर का पानी ज्यों-ज्यों ज्यादा गहरा होता जाए, उसका रंग ज्यादा काला दिखेगा)।

कबीर कागद की ओबरी मसु के करम कपाट ॥ पाहन बोरी पिरथमी पंडित पाड़ी बाट ॥१३७॥

पद्अर्थ: ओबरी = कैदखाने की कोठरी। कागद = (भाव, पंडितों के) धर्म शास्त्र। मसु = स्याही। मसु के = स्याही से लिखे हुए। करम = कर्मकांड (की मर्यादा)। कपाट = किवाड़, पक्के दरवाजे। बोरी = डुबा दी। पिरथमी = पृथवी, धरती, धरती के लोग। पाड़ी बाट = राह तोड़ दिया है, डाका मार लिया है। बाट = रास्ता।137।

अर्थ: हे कबीर! (इन पंडितों के) शास्त्र, जैसे कैद खाने हैं, (इन शास्त्रों में) स्याही से लिखी हुई कर्मकांडों की मर्यादा, जैसे, उस कैद खाने के बंद दरवाजे हैं। (इस कैद खाने में रखी हुई) पत्थर की मूर्तियों ने धरती के लोगों को (संसार-समुंदर में) डुबो दिया है, पंडित लोग डाके मार रहे हैं (भाव, सादा-दिल लोगों को भोले-भाले लोगों को शास्त्रों की कर्मकांड की मर्यादा और मूर्ति-पूजा में लगा के दक्षिणा-दान आदि के नाम पर लूट रहे हैं)।137।

नोट: इस शलोक नं: 136 के होते हुए कोई सिख जो इस वाणी में श्रद्धा रखता हो यह नहीं कह सकता कि मूर्ति के द्वारा ही परमात्मा की पूजा हो सकती है, अथवा मूर्ति-पूजा भी एक ठीक रास्ता है जिस रास्ते पर चल के मनुष्य परमात्मा को मिल सकता है।

कबीर कालि करंता अबहि करु अब करता सुइ ताल ॥ पाछै कछू न होइगा जउ सिर परि आवै कालु ॥१३८॥

पद्अर्थ: कलि = कल, आगे आने वाला दिन। अबहि = अभी ही। सुइ ताल = उसी पल। जउ = जब। कालु = मौत। पाछै = भक्ति करने को मौका गुजर जाने पर, असल समय के बाद।

अर्थ: हे कबीर! (परमात्मा का स्मरण करने में कभी आलस ना कर) कल (स्मरण करूँगा, ये सलाह) करता अभी ही (स्मरण) कर (कल स्मरण शुरू करने की जगह अभी ही शुरू कर दे। नहीं तो कल-कल करते हुए) जब मौत सिर पर आ जाती है उस वक्त समय बीत जाने पर कुछ नहीं हो सकता।138।

नोट: शलोक नं: 132 में कबीर जी ने यह ताकीद की थी कि बुढ़ापा आने से पहले भक्ति का स्वभाव बनाओ। साथ ही याद करवाते हैं कि भक्ति प्रभु की बख्शिश ही है, जिस पर आ जाए। आम के फल की मिसाल दे के समझाते हैं कि उसकी मेहर पर यकीन रखो, वह अवश्य बख्शिश करता है। पर साथ ही आगे सचेत करते हैं कि इन मूर्ति–पूजकों को परमात्मा के भक्त ना समझो, ये बेचारे तो पंडित लोगों के कैदी हैं।

शलोक नं: 132 के ख्याल को दोबारा जारी रखते हुए कहते हैं कि;

कबीर ऐसा जंतु इकु देखिआ जैसी धोई लाख ॥ दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक ॥१३९॥

पद्अर्थ: ऐसा जंतु = ऐसा मनुष्य जिसने ‘रामु न चेतिओ’। धोई लाख = धोई हुई लाख (जो बहुत चमकती है)। चंचलु = चालाक, चुस्त। बहु गुना = बहुत ही ज्यादा। मति हीना = मति हीन, बुद्धिहीन। नापाक = अपवित्र, गंदे जीवन वाला।

अर्थ: हे कबीर! मैंने एक ऐसा मनुष्य देखा (जिसने कभी परमात्मा का स्मरण नहीं था किया) वह (बाहर से देखने को) धोई हुई चमकती लाख जैसा था। प्रभु की याद से टूटा हुआ मनुष्य चाहे बहुत ही चुस्त-चालाक दिखता हो, पर वह असल में बुद्धिहीन होता है क्योंकि प्रभु से विछुड़ के उसका जीवन गंदा होता है।139।

कबीर मेरी बुधि कउ जमु न करै तिसकार ॥ जिनि इहु जमूआ सिरजिआ सु जपिआ परविदगार ॥१४०॥

पद्अर्थ: बुधि = बुद्धि, अकल। कउ = को। तिसकार = तिरस्कार, निरादरी। जिनि = जिस (परवदिगार) ने, जिस पालनहार प्रभु ने। जमूआ = गरीब सा जम, बेचारा जम।

सु = उस (परमात्मा) को।

अर्थ: हे कबीर! (प्रभु की याद से भूला हुआ मनुष्य बड़ा चुस्त-चालाक होता हुआ भी बुद्धि-हीन और तिरस्कारयोग्य होता है क्योंकि उसका जीवन नीच रह जाता है। पर मेरे ऊपर प्रभु की मेहर हुई है, दुनिया के लोग तो कहां रहे) मेरी बुद्धि को तो जमराज भी नहीं धिक्कार सकता, क्योंकि मैंने उस पालनहार प्रभु को स्मरण किया है जिसने इस बेचारे जम को पैदा किया है।140।

(नोट: जिस ‘जम’ से दुनिया थर-थर काँपती है, भक्ति करने वाले को वह भी परमात्मा का पैदा किया हुआ एक साधारण सा जीव लगता है, उससे वे रक्ती भर भी नहीं डरते)।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh