श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1376 नामा कहै तिलोचना मुख ते रामु सम्हालि ॥ हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि ॥२१३॥ पद्अर्थ: पाउ = पैर। कामु सभु = (घर का) सारा काम काज। निरंजन = अंजन रहित, जिस पर माया की कालिख असर नहीं कर सकती।213। अर्थ: नामदेव (आगे से) उक्तर देता है: हे त्रिलोचन! मुँह से परमात्मा का नाम ले; हाथ-पैर का इस्तेमाल कर के सारा काम-काज कर, और अपना चिक्त माया-रहित परमात्मा से जोड़।213। नोट: इन दोनों शलोकों को इस लड़ी के विषय में समझने के लिए कबीर जी के शलोक नं: 208 के साथ मिला के पढ़ो, बीच के तीन शलोक गुरु अरजन साहिब के हैं। विकारों और आशाओं के ‘खतु’ फाड़ने के लिए ‘हरि भजन’ करना है, पर इस का भाव यह नहीं है कि दुनिया की मेहनत-कमाई छोड़ देनी है। नोट: ‘महला ५’ के शलोक सिर्फ तीन थे– नं: 209, 210 और 211। अब फिर कबीर जी के उचारे हुए शलोक हैं, क्योंकि इनका शीर्षक ‘महला ५’ नहीं है। इन शलोकों में कबीर जी भक्त नामदेव जी और भक्त त्रिलोचन जी की आपस में हुई बातचीत का जिक्र करते हैं। इस बात से ये साबित हुआ कि ये दोनों भक्त कबीर जी से पहले हुए हैं। नामदेव जी बंबई (आज के मुम्बई) प्रांत के जिला सतारा के रहने वाले थे, फिर भी आप इतने प्रसिद्ध हो चुके थे कि बनारस के निवासी कबीर जी इनको जानते थे। कबीर जी इन शलोकों में नामदेव और त्रिलोचन की आपस में हुई बातचीत का वर्णन करते हैं। ये सारा ख्याल वही है जो नामदेव जी ने खुद रामकली राग के शब्द में दिया है। साथियों के साथ गप्पें मारते हुए एक लड़के का कागज़ की पतंग उड़ाना, मिल के बातें करती लड़कियों का कूएँ से पानी भर के लाना, गाईयों को बछुड़ों से अलग हो के बाहर घास चुगने जाना, माँ का अपने छोटे बच्चे को पालने में सुला के घर के काम–काज में लगना– ये सारे काम–काज करते हुए भी लड़के की तवज्जो पतंग में, लड़कियों की तवज्जो अपने-अपने घड़ों में, हरेक गाय की तवज्जो अपने बछड़े में, और, माँ की तवज्जो अपने बच्चे में होती है। नामदेव जी के उस शब्द का संक्षेप भाव कबीर जी इन दो शलोकों में दे रहे हैं। इससे ये साफ नतीजा निकलता है कि कि कबीर जी के पास नामदेव जी के वह सारे शब्द मौजूद थे। कोई अजीब बात नहीं कि नामदेव जी की सारी ही वाणी कबीर जी के पास हो, क्योंकि दोनों हम–ख्याल थे ओर दोनों ही ब्राहमण के धार्मिक दबाव को तोड़ने की कोशिश कर रहे थे। महला ५ ॥ कबीरा हमरा को नही हम किस हू के नाहि ॥ जिनि इहु रचनु रचाइआ तिस ही माहि समाहि ॥२१४॥ अर्थ: हे कबीर! जिस परमात्मा ने ये रचना रची है, हम तो उसी की याद में टिके रहते हैं, क्योंकि ना कोई हमारा सदा का साथी है और ना ही हम किसी के सदा के लिए साथी बन सकते हैं (बेड़ी के पूर का मेला है)।214। नोट: यह शलोक भी सतिगुरु अरजन देव जी का है, जैसे कि इसका शीर्षक ‘महला ५’ से स्पष्ट है। कबीर जी के शलोक नं: 213 की व्याख्या के लिए है। जो उक्तर नामदेव जी ने त्रिलोचन जी को दिया था, उसका हवाला दे के कबीर जी कहते हैं कि दुनिया की मेहनत-कमाई नहीं छोड़नी, ये करते हुए ही हमने अपना चिक्त इससे अलग रखना है। इस शलोक नं: 214 में गुरु अरजन देव जी ने ये बताया है कि साकों–संबन्धियों में रहते हुए और माया में व्यवहार करते हुए हर वक्त यह चेते रखना है कि यह सब कुछ यहाँ सिर्फ चार दिन के साथी हैं, असल साथी परमात्मा का नाम है और काम–काज करते हुए उसको भी हर वक्त याद रखना है। कबीर कीचड़ि आटा गिरि परिआ किछू न आइओ हाथ ॥ पीसत पीसत चाबिआ सोई निबहिआ साथ ॥२१५॥ अर्थ: हे कबीर! (कोई औरत जो किसी के घर से आटा पीस के लाई, अपने घर आते हुए रास्ते में ही वह) आटा कीचड़ में गिर गया, उस (बेचारी) के हाथ-पल्ले कुछ ना पड़ा। चक्की पीसते-पीसते जितने दाने उसने चबा लिए, बस! वही उसके काम आया।215। नोट: परमात्मा का स्मरण करने के लिए दिन के किसी खास समय को या उम्र के किसी खास हिस्से का इन्तजार नहीं करते रहना, स्वभाव ऐसा बनाएं कि हर वक्त हरेक काम–काज में ईश्वर चेते रहे। अगर सारा दिन कार्य–व्यवहार में ईश्वर को बिसार के चोर–बाजारी, ठगी–फरेब करते रहे, और सुबह के वक्त मन्दिर–गुरद्वारे में राम–राम कर आए अथवा इस कमाई में से कुछ दान–पुण्य कर दिया, तो ये उद्यम इस तरह ही समझो जैसे घंटे दो घंटे लगा के पीसा हुआ आटा रास्ते में ही आते हुए कीचड़ में गिर गया। कबीर मनु जानै सभ बात जानत ही अउगनु करै ॥ काहे की कुसलात हाथि दीपु कूए परै ॥२१६॥ पद्अर्थ: कुसलात = कुशलता, सुख। हाथि दीपु = हाथों में दीया (हो)। कूए = कूँए में। अर्थ: हे कबीर! (जो मनुष्य हर रोज़ धर्म-स्थान पर जा के भजन भक्ति करने के बाद सारा दिन ठगी-फरेब की मेहनत-कमाई करता है, वह इस बात से नावाकिफ नहीं कि ये बुरी बात है, उसका) मन सब कुछ जानता है, पर वह जानता हुआ भी (ठगी की कमाई वाला) पाप करता जाता है। (परमात्मा की भक्ति तो एक जलता हुआ दीपक है जिसने जिंदगी के अंधेरे भरे सफर में मनुष्य को रास्ता दिखाना है, विकारों के कूएँ में गिरने से बचाना है, पर) उस दीए का क्या सुख अगर उस दीए के हमारे हाथ में होते हुए भी हम कूँएं में गिर जाए?।216। नोट: किसी खास नीयत समय में पूजा–पाठ करके सारा दिन ठगी–धोखे का धंधा करना इस तरह ही है, जैसे चक्की पीस–पीस कर इकट्ठा किया हुआ आटा कीचड़ में गिर जाए; अथवा जैसे रात के समय जलता हुआ दीपक हाथ में पकड़ा हो, दीए की रौशनी होते हुए भी मनुष्य किसी कूँए में जा गिरे। स्मरण-भजन के साथ-साथ हक की मेहनत-कमाई अति जरूरी है। कबीर लागी प्रीति सुजान सिउ बरजै लोगु अजानु ॥ ता सिउ टूटी किउ बनै जा के जीअ परान ॥२१७॥ पद्अर्थ: सुजान = समझदार, घट घट के जाने वाला। लागी = लगी हुई। अजानु = अंजान, बेसमझ, मूर्ख। ता सिउ = उस (सुजान प्रभु) से। किउ बनै = कैसे फब जाये? कैसे सुंदर लगे? नहीं फबती, सुंदर नहीं लगती। जीअ = जिंद, प्राण। बरजै = वरजता है, रोकता है। अर्थ: हे कबीर! (अगर तू ‘चीतु निरंजन नालि’ जोड़ के रखता है तो यह याद रख कि यह) मूर्ख जगत (भाव, साक-संबन्धियों का मोह और ठगी की मेहनत-कमाई) घट-घट के जानने वाले परमात्मा के साथ बनी प्रीति के रास्ते में रुकावट डालता है; (और इस धोखे में आने पर घाटा ही घाटा है, क्योंकि) जिस परमात्मा की दी हुई यह जिंद-जान है उससे विछुड़ी हुई (किसी हालत में भी) यह सुंदर नहीं लग सकती (आसान नहीं रह सकती)।217। इसलिए कबीर कोठे मंडप हेतु करि काहे मरहु सवारि ॥ कारजु साढे तीनि हथ घनी त पउने चारि ॥२१८॥ पद्अर्थ: मंडप = शामियाने, महल माड़ियां। हेतु करि = हित कर के, शौक से। सवारि = सजा सजा के। काहे मरहु = क्यों आत्मिक मौत मर रहे हो? कारजु = काम, मतलब, जरूरत। घनी = बहुत, ज्यादा। त = तो। अर्थ: (प्राण-दाते प्रभु से विछुड़ी जीवात्मा सुखी नहीं रह सकती, ‘ता सिउ टूटी किउ बनै’; इसलिए) हे कबीर! (उस प्राण-दाते को भुला के) घर महल-माढ़ियां बड़े शौक से सजा-सजा के क्यों आत्मिक मौत मर रहे हो? तुम्हारी अपनी जरूरत तो साढ़े तीन हाथ जमीन से पूरी हो रही है (क्योंकि हर रोज सोने के लिए अपने कद के अनुसार तुम इतनी ही जगह बरतते हो), पर अगर (तुम्हारा कद कुछ लंबा है, अगर) तुम्हें कुछ ज्यादा जमीन की जरूरत पड़ती है तो पौने चार हाथ बरत लेते होवोगे।218। नोट: रोजाना जीवन के धर्म को जबरदस्ती किसी आगे आने वाले समय का धर्म बनाते जाने से मौजूदा जीवन में धर्म का प्रभाव बल्कि कम होता जाता है। कबीर जी हिन्दू थे। मरने पर हिन्दू की लाश जलाई जाती है, जो दो–तीन घंटों में ही जल के राख हो जाती है। साढ़े तीन हाथ तो कहाँ रहे, मसाणों में उसके लिए एक चप्पा जगह भी नहीं रह जाती। सो, कबीर जी मरने के बाद की बातें नहीं बता रहे। पर हमारे टीकाकारों ने साढ़े तीन हाथ जमीन का संबंध मनुष्य के मरने से ही जोड़ा है, जो गलत है। कबीर जो मै चितवउ ना करै किआ मेरे चितवे होइ ॥ अपना चितविआ हरि करै जो मेरे चिति न होइ ॥२१९॥ अर्थ: हे कबीर! (‘चीतु निरंजन नालि’ रखने की जगह तू सारा दिन माया की ही सोचें सोचता रहता है, पर तेरे) मेरे सोचें सोचने से कुछ नहीं बनता; परमात्मा वह कुछ नहीं करता जो मैं सोचता हूँ (भाव, जो हम सोचते रहते हैं)। प्रभु वह कुछ करता है जो वह खुद सोचता है, और जो कुछ परमात्मा सोचता है वह हमारे चिक्त-चेते भी नहीं होता।219। मः ३ ॥ चिंता भि आपि कराइसी अचिंतु भि आपे देइ ॥ नानक सो सालाहीऐ जि सभना सार करेइ ॥२२०॥ अर्थ: हे कबीर! (जीवों के क्या वश?) प्रभु स्वयं ही जीवों के मन में दुनिया के फिक्र-सोचों से रहित हो जाता है। हे नानक! जो प्रभु सब जीवों की संभाल करता है उसी के गुण गाने चाहिए (भाव, प्रभु के आगे ही अरदास करके दुनिया की फिक्र-सोचों से बचे रहने की दाति माँगें)।220। नोट: इस शलोक की शीर्षक है ‘महला ३’ यह गुरु अमरदास जी का लिखा हुआ है। उपरोक्त शलोक के साथ मिला के पढ़ो; साफ दिखता है कि गुरु अमरदास जी ने कबीर जी के शलोक नं: 219 के संबंध में ये शलोक उचारा है। सो, कबीर जी के शलोक गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थे। यह साखी गलत है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी। मः ५ ॥ कबीर रामु न चेतिओ फिरिआ लालच माहि ॥ पाप करंता मरि गइआ अउध पुनी खिन माहि ॥२२१॥ पद्अर्थ: मरि गइआ = आत्मिक मौत मर जाता है, जीवन में गुणों का अभाव ही हो जाता है। अउध = उम्र। पुनी = पुग जाती है, समाप्त हो जाती है। खिन माहि = आँख के फोर में, अचानक ही, आगे विकारों में चिक्त अघाता ही नहीं कि अचानक। अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण नहीं करता (स्मरण ना करने का नतीजा ही ये निकलता है कि वह दुनिया की सोचें सोचता है, और दुनिया के) लालच में भटकता फिरता है। पाप करते-करते वह (भाग्य-हीन) आत्मिक मौत मर जाता है (उसके अंदर से ऊँचा आत्मिक जीवन खत्म हो जाता है), और विकार करते-करते उसका मन भरता ही नहीं पर अचानक उम्र खत्म हो जाती है।221। नोट: यह शलोक गुरु अरजन साहिब का है, इसका संबंध भी कबीर जी के शलोक नं: 219 से है। कबीर काइआ काची कारवी केवल काची धातु ॥ साबतु रखहि त राम भजु नाहि त बिनठी बात ॥२२२॥ पद्अर्थ: कारवी = करवा, छोटा सा लोटा, कुज्जा। केवल = सिर्फ। धातु = असला। साबतु = (देखो शलोक नं: 185 ‘जा की दिल साबति नही’। ‘साबति’ का अर्थ है ‘पाकीज़गी’, पवित्रता) पवित्र, पाकीज़ा। रखहि = अगर तू रखना चाहे। भजु = स्मरण कर। बिनठी = बिगड़ी, नाश हुई। बात = बातचीत। अर्थ: हे कबीर! ये शरीर कच्चा लोटा (समझ ले), इसकी अस्लियत केवल कच्ची मिट्टी (मिथ ले)। अगर तू इसको (बाहरी बुरे असरों से) पवित्र रखना चाहता है तो परमात्मा का नाम स्मरण कर, नहीं तो (मनुष्य जन्म की यह) खेल बिगड़ी ही जान ले (भाव, हर हाल में बिगड़ जाएगी)।222। नोट: पीतल काँसे आदि के बर्तन में कोई चीज़ डाल के रखें तो उस चीज़ का असर बर्तन के पीतल काँसे आदि में नहीं जा सकता। पर अगर कच्ची मिट्टी का बर्तन हो, उसमें रखी चीज़ की सुगंध–दुर्गंध मिट्टी में अपना असर कर जाती है। मनुष्य का शरीर एक ऐसा बर्तन है जिसकी ज्ञान–इंद्रिय, माने, कच्ची मिट्टी की बनी हुई हैं, जिस कर्म–विकर्म से इनका संबंध पड़ता है, उसका असर ग्रहण कर लेते हैं, तभी शरीर के अंदर बसती जीवात्मा की (जो परमात्मा की अपनी अंश है) ये प्रभु से दूरी करवा देते हैं। इन इन्द्रियों को, इस शरीर को, ‘साबतु’ (पवित्र) रखने का तरीका यही हो सकता है कि ‘अपवित्र’ करने वाले कर्म और पदार्थ इसके नजदीक ना आने दिए जाएं और जीवात्मा को इसके अपने असले प्रभु के बहुत नजदीक रखा जाए। कबीर केसो केसो कूकीऐ न सोईऐ असार ॥ राति दिवस के कूकने कबहू के सुनै पुकार ॥२२३॥ पद्अर्थ: केसो = केशव (केशा: प्रशस्ता: संन्ति अस्य = लंबे केसों वाला) परमात्मा। असार = गाफल होके, बेपरवाही में, विकारों से गाफिल रह के। कबहू के = कभी तो। अर्थ: हे कबीर! (अगर इस शरीर को विकारों से ‘साबतु रखहि त’) हर वक्त परमात्मा का नाम याद करते रहें, किसी भी वक्त विकारों से बेपरवाह ना होएं। यदि दिन-रात (हर वक्त) परमात्मा को स्मरण करते रहें तो किसी ना किसी वक्त वह प्रभु जीव की अरदास सुन ही लेता है (और इसको आत्मिक मौत मरने से बचा लेता है)।223। कबीर काइआ कजली बनु भइआ मनु कुंचरु मय मंतु ॥ अंकसु ग्यानु रतनु है खेवटु बिरला संतु ॥२२४॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कजली बनु = ऋषीकेश हरिद्वार के नजदीक के एक जंगल का नाम है जहाँ हाथी रहते हैं, सघना जंगल। भइआ = (अगर ‘केसो केसो’ ना कूकें, तो ये शरीर विकार-वृक्षों से भरा हुआ एक जंगल) बन जाता है। कुंचरु = हाथी। मय मंतु = (मद-मत) अपने मद/अहंकाट में ही डुबा हुआ। अंकसु = अंकुश, लोहे का वह कुंडा जिससे हाथी को हाँकते हैं। रतनु = रतन जैसा श्रेष्ठ। खेवटु = चलाने वाला। अर्थ: हे कबीर! (यदि केशव-केशव ना पुकारें ना कूकें, अगर परमात्मा का स्मरण ना करें तो अनेक विकार हो जाने के कारण) यह मनुष्य का शरीर, मानो, ‘कजली बनु’ बन जाता है जिसमें मन हाथी अपने मद में मस्त हुआ फिरता है। इस हाथी को काबू रखने के लिए गुरु का श्रेष्ठ ज्ञान ही कुंडा बन सकता है, कोई भाग्यशाली गुरमुखि (इस ज्ञान-कुंडे को बरत के मन-हाथी को) चलाने के योग्य होता है।224। (नोट: जब मनुष्य परमातमा की याद भुला बैठता है तो इसी सारी ज्ञान-इंद्रिय विकारों की ओर पलट जाती हैं कामादिक जैसे अनेक विकार प्रकट हो उठते हैं। ऐसे शरीर को एक जंगल समझ लो जिसमें अनेक विकार, मानो, सघन पेड़ हैं)। कबीर राम रतनु मुखु कोथरी पारख आगै खोलि ॥ कोई आइ मिलैगो गाहकी लेगो महगे मोलि ॥२२५॥ पद्अर्थ: कोथरी = गुत्थी, बटूआ। पारख = परख करने वाला, कद्र कीमत जानने वाला। गाहकी = नाम रतन को खरीदने वाला। महगे मोलि = तगड़ी कीमत दे के। अर्थ: हे कबीर! परमात्मा का नाम (दुनिया में) सबसे कीमती पदार्थ है, (इस पदार्थ को संभाल के रखने के लिए) अपने मुँह को गुत्थी बना के इस रत्न की कद्र-कीमत जानने वाले किसी (जौहरी) गुरमुखि के आगे ही मुँह खोलना (भाव, सत्संग में प्रभु-नाम की महिमा कर)। जब नाम-रतन की कद्र जानने वाला कोई गाहक सत्संग में आ पहुँचता है तो वह अपना मन गुरु के हवाले कर के नाम-रतन को खरीदता है।225। (नोट: इस काया-जंगल में मन मस्त हुए हाथी की तरह आजाद घूमता है। क्या पशू-पक्षी और क्या मनुष्य, अपनी आजादी हाथ से देनी हरेक के लिए सबसे बड़ी कुर्बानी है; मन की इस स्वतंत्रता के बदले कोई भी चीज़ मोल लेनी महिंगी से महिंगी कीमत देनी है), मन हवाले कर के। कबीर राम नामु जानिओ नही पालिओ कटकु कुट्मबु ॥ धंधे ही महि मरि गइओ बाहरि भई न ब्मब ॥२२६॥ पद्अर्थ: जानिओ नही = (जिस मनुष्य ने) कद्र नहीं जानी। पालिओ = पालता रहा। कटकु = फौज। कटकु कुटंबु = बहुत सारा परिवार। मरि गइओ = आत्मिक मौत मर गया। बाहरि = धंधों से बाहर, (भाव,) धंधों से खाली हो के। बंब = आवाज, खबर। बाहरि भई न बंब = धंधों से निकल के कभी उसके मुँह से राम नाम की आवाज़ भी नहीं निकली। अर्थ: (पर), हे कबीर! जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम-रतन की कद्र नहीं पड़ती, वह (नाम-रतन को बिसार के सारी उम्र) ज्यादा परिवार ही पालता रहता है; दुनिया के धंधों में ही खप-खप के वह मनुष्य आत्मिक मौत मर जाता है, इन झंझटों में से निकल के कभी उसके मुँह से राम-नाम की आवाज़ नहीं निकलती (ना ही इन झंझटों में से उसे कभी वक्त मिलता है, और ना वह कभी परमात्मा के नाम को मुँह से उचारता है)।226। कबीर आखी केरे माटुके पलु पलु गई बिहाइ ॥ मनु जंजालु न छोडई जम दीआ दमामा आइ ॥२२७॥ पद्अर्थ: केरे = के। माटुके = पलकों की झपकना। आखी केरे माटुके = आँखों के झपकने जितना समय। गई बिहाइ = (उम्र) बीत जाती है। दमामा = नगारा। आइ दीआ = आ के बजा देता है। अर्थ: हे कबीर! (उस बद्नसीब का हाल देख जो प्रभु-नाम की कद्र-कीमत ना जानता हुआ सारी उम्र कुटंब पालने में ही गुजारता है और कभी भी प्रभु-नाम मुँह से नहीं उचारता! थोड़ी-थोड़ी करके पता ही नहीं चलता कब) उसकी उम्र आँखों के झपकने जितने समय और पल-पल करके बीत जाती है; फिर भी उसका मन (परिवार का) जंजाल नहीं छोड़ता, आखिर, जम मौत का नगारा आ बजाते हैं।227। कबीर तरवर रूपी रामु है फल रूपी बैरागु ॥ छाइआ रूपी साधु है जिनि तजिआ बादु बिबादु ॥२२८॥ पद्अर्थ: तरवर = तर+वर, सुंदर वृक्ष। तर = वृक्ष। बैरागु = निरमोहता। छाइआ = छाया। जिनि = जिस (साधु = गुरमुखि) ने। बादु बिबादु = वाद विवाद, झगड़ा, माया का झमेला। अर्थ: हे कबीर! (विकारों की तपश से तप रहे इस संसार में) प्रभु का नाम एक सुंदर वृक्ष है। जिस मनुष्य ने (अपने अंदर से इन विकारों का) झगड़ा खत्म कर दिया है वह गुरमुखि इस वृक्ष की, मानो, छाया है। (जो भाग्यशाली व्यक्ति उस तपश से बचने के लिए इस छाया का आसरा लेता है उसको) वैराग-रूप फल (हासिल होता) है।228। नोट: ऐसा प्रतीत होता है जैसे कबीर जी की आँखों के सामने अपने वतन की गर्मी की ऋतु का नक्शा आया खड़ा है। तपश पड़ रही है, एक मुसाफिर दूर से एक सुंदर सघन छाया वाले वृक्ष आम को देख के उसका आसरा आ लेता है। इस छाया का आसरा लेने पर उसकी तपश भी मिटती है और उसको पेड़ से पका हुआ फल भी मिलता है जिससे वह अपनी भूख भी दूर करता है। विकारों की तपश से तप रहे इस जगत में परमात्मा का नाम, मानो, एक सुंदर वृक्ष है; गुरमुखि संत–जन इस वृक्ष की ठंडी–मीठी छाया हैं। जो मनुष्य गुरमुखि की संगति करता है, विकारों की तपश से बचने के लिए गुरमुखि की संगति का सहारा लेता है, उसके अंदर ठंड पड़ जाती है, और उसको वैराग की दाति मिलती है जिसकी इनायत से वह माया से तृप्त हो जाता है। पर साधु गुरमुखि वह है जिसने माया के जंजाल को त्यागा है। कबीर ऐसा बीजु बोइ बारह मास फलंत ॥ सीतल छाइआ गहिर फल पंखी केल करंत ॥२२९॥ पद्अर्थ: बारह मास = बारह महीने, सदा ही। फलंत = फल देता है। सीतल = ठंडी, ठंड देने वाली, शांति बख्शने वाली। छाइआ = छाया, आसरा। गहिर = गंभीरता, अडोलता, वैराग। पंखी = (भाव, तेरे) ज्ञान इन्द्रिय। केल = आनंद।229। अर्थ: हे कबीर! (‘जिनि तजिआ बादु बिबादु’ उस ‘साधु’ की संगति में रह के तू भी अपने हृदय की धरती में परमात्मा के नाम का) एक ऐसा बीज बो जो सदा ही फल देता रहता है; उसका असर लें तो अंदर ठंड पड़ती है, फल मिलता है कि दुनिया के ‘बाद बिबाद’ से मन ठहर जाता है, और सारी ज्ञान-इंद्रिय (जो पहले पक्षियों की तरह जगह-जगह पर चोग के लिए भटकती थीं, अब प्रभु के नाम का) आनंद लेती हैं।229। कबीर दाता तरवरु दया फलु उपकारी जीवंत ॥ पंखी चले दिसावरी बिरखा सुफल फलंत ॥२३०॥ पद्अर्थ: दाता = प्रभु के नाम की दाति करने वाला। दया = जीवों से प्यार। उपकारी जीवंत = जो उपकार करने में ही जीता है, जो सारा जीवन उपकार में ही गुजारता है। पंखी = इस जगत-वृक्ष के पंछी, सारे जीव। दिसावरी = दिशा अवर, और-और दिशाओं को, और-और तरफ, और-और धंधों में। बिरखा = ‘नाम’ देने वाला पेड़ (साधु)। सुफल फलंत = ‘दया’ की सुंदर दाति ही करता रहता है, सबको यही सिखाता रहता है कि सभ जीवों के साथ प्यार करो। सुफल = सु+फल, सुंदर फल।230। अर्थ: हे कबीर! (‘जिनि तजिआ बादु बिबादु’) वह ‘साधु’ अपनी सारी उम्र परोपकार में ही गुजारता है; प्रभु के नाम की दाति देने वाला वह ‘साधु’ विकारों में तपते सारे इस संसार के लिए, मानो, एक सुंदर वृक्ष है, उससे ‘जीव दया’ की दाति प्राप्त होती है। संसारी जीव तो और-और धंधों में व्यस्त रहते हैं, पर गुरमुखि ‘साधु’ सदा यही शिक्षा देता रहता है कि सबके साथ दया-प्यार करो।230। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |