श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हरि नामु रसनि गुरमुखि बरदायउ उलटि गंग पस्चमि धरीआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥१॥

पद्अर्थ: रसनि = रसना द्वारा, जीभ से (भाव, उचार के)। गुरमुखि = गुरु (नानक) ने। बरदायउ = वरताया, बाँटा। उलटि = उल्टा के। गंग = गंगा का प्रवाह, जीवों की रुचि। पस्चमि = पश्चिम की ओर, माया से उलट। धरीआ = टिका दी। भगतह भव तारणु = भगतों को संसार से तारने वाला। फुरिआ = अनुभव हुआ।

अर्थ: जो हरि का नाम गुरु नानक देव जी ने उचार के बाँटा और संसारी जीवों की रुचि संसार से पलट दी, वही अचल नाम, वही भगतों को संसार से पार उतारने वाला नाम गुरु अमरदास जी के हृदय में प्रकट हुआ।

सिमरहि सोई नामु जख्य अरु किंनर साधिक सिध समाधि हरा ॥ सिमरहि नख्यत्र अवर ध्रू मंडल नारदादि प्रहलादि वरा ॥

पद्अर्थ: हरा = शिव जी। नख्त्र = नक्षत्र, तारे। ध्रू मंडल = ध्रुव मण्डल के तारे। वरा = श्रेष्ठ।

अर्थ: उसी नाम को जख्, किन्नर, साधिक सिद्ध और शिव जी समाधी लगा के स्मरण कर रहे हैं। उसी नाम को अनेक नक्षत्र, ध्रुव भक्त के मण्डल, नारद आदिक और प्रहलाद आदिक श्रेष्ठ भक्त जप रहे हैं।

ससीअरु अरु सूरु नामु उलासहि सैल लोअ जिनि उधरिआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥२॥

पद्अर्थ: ससीअरु = (शशधर) चँद्रमा। अरु = और। सूरु = सूरज। उलासहि = चाहते हैं। सैल लोअ = पत्थरों के ढेर। सैल = शैल, पत्थर, पहाड़। लोअ = लोक, ढेर। उधारिआ = उद्धार कर दिया। जिनि = जिस (नाम) ने।

अर्थ: चँद्रमा और सूरज उसी हरि-नाम को लोच रहे हैं, जिसने पत्थरों के ढेर तैरा दिए। वही ना छले जान वाला नाम, और भगतों को संसार से तैराने वाला नाम सतिगुरु अमरदास जी के हृदय में प्रकट हुआ।2।

सोई नामु सिवरि नव नाथ निरंजनु सिव सनकादि समुधरिआ ॥ चवरासीह सिध बुध जितु राते अ्मबरीक भवजलु तरिआ ॥

पद्अर्थ: सिवरि = स्मरण करके। नव = नौ। निरंजनु = निर्लिप हरि (निरअंजनु। माया की कालिख से रहित)। समुधरिआ = तैर गए, पार उतर गए। जितु = जिस (नाम) में। बुध = समझदार, ज्ञानवान मनुष्य। राते = रति हुए, रंगे हुए।

अर्थ: नौ नाथ, शिव जी, सनक आदिक उसी पवित्र नाम को स्मरण करके तैर गए; चौरासी सिद्ध व अन्य ज्ञानवान उसी रंग में रंगे हुए हैं; (उसी नाम की इनायत से) अंबरीक संसार-सागर से पार लांघ गया।

उधउ अक्रूरु तिलोचनु नामा कलि कबीर किलविख हरिआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥३॥

पद्अर्थ: कलि = कलियुग में। किलविख = पाप। हरिआ = दूर किए। उधउ = कृष्ण जी का भक्त। अक्रूर = कृष्ण जी का भक्त।

अर्थ: उसी नाम को ऊधव, अक्रूर, त्रिलोचन और नामदेव भक्त ने स्मरण किया, (उसी नाम ने) कलियुग में कबीर के पाप दूर किए। वही ना छले जान वाला नाम, और भक्त जनों को संसार को पार कराने वाला नाम, सतिगुरु अमरदास जी को अनुभव हुआ।3।

तितु नामि लागि तेतीस धिआवहि जती तपीसुर मनि वसिआ ॥ सोई नामु सिमरि गंगेव पितामह चरण चित अम्रित रसिआ ॥

पद्अर्थ: तितु नामि = उसी नाम में। लागि = लग के, जुड़ के। तेतीस = तैतीस करोड़ देवते। तपीसुर मनि = बड़े बड़े तपियों के मन में। गंगेव पितामह = गंगा का पुत्र भीष्म पितामह। चरन = (हरि के) चरणों में (जुड़ने के कारण)। रसिआ = चोयाया।

अर्थ: तैंतीस करोड़ देवते उसी नाम में जुड़ के (अकाल-पुरख को) स्मरण कर रहे हैं, (वही नाम) जतियों व बड़े-बड़े तपियों के मन में बस रहा है। उसी नाम को स्मरण करके अकाल-पुरख के चरणों में जुड़ने के कारण भीष्म-पितामह के चिक्त में अमृत चूआ।

तितु नामि गुरू ग्मभीर गरूअ मति सत करि संगति उधरीआ ॥ सोई नामु अछलु भगतह भव तारणु अमरदास गुर कउ फुरिआ ॥४॥

पद्अर्थ: गुरूअ मति = गहरी मति वाले, उच्च बुद्धि वाले। गुरू = गुरु के द्वारा। सति करि = सिदक धार के, श्रद्धा से। उधरीआ = तैर रही है।

अर्थ: उसी नाम में लग के, गंभीर और ऊँची मति वाले सतिगुरु के द्वारा, पूर्ण श्रद्धा के सदका, संगत का उद्धार हो रहा है। वही ना छले जान वाला नाम और भक्त जनों को संसार-सागर से तैराने वाला नाम गुरु अमरदास जी के दिल में प्रकट हुआ।4।

नाम किति संसारि किरणि रवि सुरतर साखह ॥ उतरि दखिणि पुबि देसि पस्चमि जसु भाखह ॥

पद्अर्थ: किति = किरति, शोभा, बड़ाई। नाम किति = नाम की कीर्ति। संसारि = जगत में। रवि = सूरज। किरणि = किरण द्वारा। सुरतर = (सुर = स्वर्ग। तर = तरु, वृक्ष) स्वर्ग का पेड़। साखह = शाखाएं, टहणियां। जसु = महिमा। भाखह = उचारते हैं। उतरि = उक्तर (देश) में। पुबि = पूरब (देश) में। पस्चमि = पश्चिम (देश) में।

अर्थ: (जैसे) स्वर्ग के वृक्ष (मौलसरी) की शाखाएं (पसर के सुगंधी बिखेरती हैं), (वैसे ही) परमात्मा के नाम की बड़ाई-रूप सूरज की किरण के जगत में (प्रकाश करने के कारण) उक्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम देश में (भाव, हर तरफ) लोक नाम का यश उचार रहे हैं।

जनमु त इहु सकयथु जितु नामु हरि रिदै निवासै ॥ सुरि नर गण गंधरब छिअ दरसन आसासै ॥

पद्अर्थ: त = तो। सकयथु = सकार्थ, सफल। जितु = जिस (जनम) में। रिदै = हृदय में। निवासै = बस जाए। छिअ दरसन = जोगी जंगम आदि छह भेस। आसासै = (आसासहि) कामना रखते हैं। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। गंधरब = गंर्धव, देवताओं के रागी।

अर्थ: वही जनम सकार्थ है जिस में परमात्मा का नाम हृदय में बसे। इस नाम की देवता, मनुष्य, गण, गंधर्व और छह भेस कामना करते हैं।

भलउ प्रसिधु तेजो तनौ कल्य जोड़ि कर ध्याइअओ ॥ सोई नामु भगत भवजल हरणु गुर अमरदास तै पाइओ ॥५॥

पद्अर्थ: भलउ प्रसिधु = भल्लों की कुल में प्रसिद्ध। तेजो तनौ = तेज भान जी का पुत्र। जोड़ि कर = हाथ जोड़ के। भगत भवजल हरणु = भगतों का जनम मरण दूर करने वाला। गुर अमरदास = हे गुरु अमरदास! तै = तूं।

अर्थ: तेज भान जी के पुत्र, भल्लों की कुल में अग्रणीय (गुरु अमरदास जी को) कल्य कवि हाथ जोड़ के आराधता है (और कहता है) - ‘हे गुरु अमरदास! भगतों का जनम-मरण काटने वाला वही नाम तूने पा लिया है।’।5।

नामु धिआवहि देव तेतीस अरु साधिक सिध नर नामि खंड ब्रहमंड धारे ॥ जह नामु समाधिओ हरखु सोगु सम करि सहारे ॥

पद्अर्थ: तेतीस = तैंतिस करोड़। नामि = नाम ने। धारे = टिकाए हुए हैं। जह = जिन्होंने। समाधिओ = जपा है। हरखु सोगु = खुशी और ग़मी, आनंद और चिन्ता। सम करि = एक समान करके, एक समान। सहारे = सहे हैं।

अर्थ: परमात्मा के नाम को तैंतिस करोड़ देवते साधिक-सिद्ध और मनुष्य ध्याते हैं। हरि के नाम ने सारे ही खंड-ब्रहिमण्ड (भाव, सारे लोक) टिकाए हुए हैं। जिन्होंने हरि नाम को स्मरण किया है, उन्होंने खुशी और चिन्ता को एक-समान सहा है।

नामु सिरोमणि सरब मै भगत रहे लिव धारि ॥ सोई नामु पदारथु अमर गुर तुसि दीओ करतारि ॥६॥

पद्अर्थ: सिरोमणि = श्रेष्ठ, उत्तम। सरब मै = सभी में व्यापक। लिव धारि = तवज्जो/ध्यान लगा के, तवज्जो जोड़ के। रहे = टिक रहे हैं। पदारथु = वस्तु। अमर गुर = हे गुरु अमरदास! तुसि = प्रसन्न हो के। करतारि = कर्तार ने।

अर्थ: (सारे पदार्थों में से) सर्व-व्यापक हरि का नाम-पदार्थ उत्तम है, भक्त जन इस नाम में तवज्जो जोड़ के टिक रहे हैं। हे गुरु अमरदास! वही पदार्थ कर्तार ने प्रसन्न हो के (तुझे) दिया है।

सति सूरउ सीलि बलवंतु सत भाइ संगति सघन गरूअ मति निरवैरि लीणा ॥ जिसु धीरजु धुरि धवलु धुजा सेति बैकुंठ बीणा ॥

पद्अर्थ: सति सूरउ = सति का सूरमा। सील = मीठा स्वभाव। बलवंत सत भाइ = शांत स्वभाव में बलवान। संगति सघन = सघन संगति वाला, बड़ी संगतों वाला। गरूआ मति = गहरी मति वाला। निरवैरि = निर्वैर (हरि) में। धुरि = धुर से। धीरजु धवलु धुजा = धीरज (रूपी) सफेद झण्डा। सेति बैकुंठ = बैकुंठ के पुल पर। बीणा = बना हुआ है। धवलु = सफेद। धुजा = झण्डा।

अर्थ: (गुरु अमरदास) सत्य का सूरमा है (भाव, नाम का पूरन रसिया), सीलवंत है, शांत-स्वभाव में बलवान है, बड़ी संगति वाला है, गहरी मति वाला है और निर्वैर हरि में जुड़ा हुआ है; जिसका (भाव, गुरु अमरदास जी का) धुर दरगाह से धीरज रूपी झण्डा बैकुंठ के पुल पर बना हुआ है (भाव, गुरु अमरदास जी की धीरज से शिक्षा ले के सेवक जन संसार से पार लांघ के मुक्त होते हैं। गुरु अमरदास जी का धीरज सेवकों का, झण्डा-रूप हो के, अगवाई कर रहा है)।

परसहि संत पिआरु जिह करतारह संजोगु ॥ सतिगुरू सेवि सुखु पाइओ अमरि गुरि कीतउ जोगु ॥७॥

पद्अर्थ: परसहि संत = संत जन परसते हैं। पिआरु = प्यार रूप गुरु अमरदास जी को। जिह = जिस गुरु अमरदास जी का। करतारह संजोगु = कर्तार के साथ मिलाप। सेवि = स्मरण करके, सेवा करके। अमरि गुरि = गुरु अमर (दास जी) ने। जोगु = योग्य, लायक।

अर्थ: जिस (गुरु अमरदास जी) का कर्तार से संजोग बना हुआ है,, उस प्यार-स्वरूप गुरु को संत-जन परसते हैं, सतिगुरु को सेव के सुख पाते हैं, क्योंकि गुरु अमरदास जी ने उनको इस योग्य बना दिया।7।

नामु नावणु नामु रस खाणु अरु भोजनु नाम रसु सदा चाय मुखि मिस्ट बाणी ॥ धनि सतिगुरु सेविओ जिसु पसाइ गति अगम जाणी ॥

पद्अर्थ: नावणु = (तीर्थों का) स्नान। चाय = चाव, उत्साह। मुखि = मुँह में। मिस्ट = मीठी। धनि सतिगुरु = धन्य गुरु (अंगद देव) जी। जिसु पसाइ = जिसकी कृपा से। गति गम = अगम हरि की गति। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।

अर्थ: (गुरु अमरदास के लिए) नाम ही स्नान है, नाम ही रसों का खाना-पीना है, नाम का रस ही (उनके लिए) उत्साह देने वाला है और नाम ही (उनके) मुख में मीठे वचन हैं। गुरु (अंगद देव) धन्य हैं (जिनकी गुरु अमरदास जी ने) सेवा की है और जिस की कृपा से उन्होंने अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु का भेद पाया है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh