श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुरु अमरदासु परसीऐ धिआनु लहीऐ पउ मुकिहि ॥ गुरु अमरदासु परसीऐ अभउ लभै गउ चुकिहि ॥

पद्अर्थ: पउ = पंध, सफर (भाव, जनम मरन)। (‘पउ पंध मोकले होण’ ये पंजाबी का एक मुहावरा है जिसका अर्थ है ‘रास्ता आसान हो’)। अभउ = निर्भय हरि। गऊ = गवन जनम मरन, भटकना।

अर्थ: गुरु अमरदास (जी के चरणों) को परसें, (इस तरह परमात्मा वाला) ध्यान प्राप्त होता है (भाव, परमात्मा में तवज्जो जुड़ती है) और (जनम-मरण के) सफर समाप्त हो जाते हैं। गुरु अमरदास जी को परसें, (इस तरह) निर्भउ अकाल-पुरख मिल जाता है और जनम-मरण के चक्र समाप्त हो जाते हैं।

इकु बिंनि दुगण जु तउ रहै जा सुमंत्रि मानवहि लहि ॥ जालपा पदारथ इतड़े गुर अमरदासि डिठै मिलहि ॥५॥१४॥

पद्अर्थ: इकु = अकाल-पुरख को। बिंनि = बीन के, जान के, पहचान के। दुगण = दूसरा भाव, दोचिक्तापन, ये मानना कि परमात्मा के बिना और कोई दूसरा भी है। जु = जो (मान्यता है)। तउ = तब। रहै = दूर होती है। जा = जब। सुमंत्रि = (सतिगुरु के) श्रेष्ठ मंत्र द्वारा। इतड़े = इतने पदार्थ।

अर्थ: जो दूसरा भाव है वह तब ही दूर होता है जब मनुष्य गुरु के श्रेष्ठ उपदेश से एक परमात्मा को पहचान के प्राप्त कर लेते हैं। हे जालप! यह सारे पदार्थ (जो ऊपर बताए गए हैं) सतिगुरु अमदास जी को देखने से मिल जाते हैं।5।14।

नोट: ये पाँच सवईऐ भाट जालप के उचारे हुए हैं।

सचु नामु करतारु सु द्रिड़ु नानकि संग्रहिअउ ॥ ता ते अंगदु लहणा प्रगटि तासु चरणह लिव रहिअउ ॥

पद्अर्थ: द्रिढ़ु = पक्की तौर पर, अच्छी तरह। नानकि = (गुरु) नानक ने। संग्रहिअउ = ग्रहण किया है। ता ते = उनसे (भाव, गुरु नानक जी से)। प्रगटि = प्रकट हो के, रौशनी ले के। तासु चरणह = गुरु नानक देव जी के चरणों में।

अर्थ: (गुरु) नानक (देव जी) ने अकाल पुरख का नाम जो सदा-स्थिर रहने वाला है, पक्के तौर पर ग्रहण किया, उनसे लहणा जी गुरु अंगद देव जी हो के प्रकट हुए और उन्होंने गुरु नानक देव जी के चरणों में अपनी तवज्जो लगा के रखी।

तितु कुलि गुर अमरदासु आसा निवासु तासु गुण कवण वखाणउ ॥ जो गुण अलख अगम तिनह गुण अंतु न जाणउ ॥

पद्अर्थ: तितु कुलि = उस कुल में (भाव, गुरु नानक देव और गुरु अंगद देव जी की कुल में)। आसा निवासु = आशाओं का निवास, आशा का ठिकाना (भाव, आशाएं पूरी करने वाला)। तासु = (तस्य) उसके। तासु गुण कवण = उस (गुरु अमरदास जी) के कौन से गुण? वखाणउ = मैं बखान करूँ। तिनह गुण अंतु = उन गुणों का अंत। न जाणउ = मैं नहीं जानता। अलख = बयान से परे। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)।

अर्थ: उस कुल में गुरु अमरदास, आशाएं पूरी करने वाले, (प्रकट हुए)। मैं उनके कौन से गुण बयान करूँ? वे गुण अलख और अगम हैं, मैं उन गुणों का अंत नहीं जानता।

बोहिथउ बिधातै निरमयौ सभ संगति कुल उधरण ॥ गुर अमरदास कीरतु कहै त्राहि त्राहि तुअ पा सरण ॥१॥१५॥

पद्अर्थ: बोहिथउ = जहाज। बिधातै = कर्तार ने। निरमयौ = बनाया है। उधरण = उद्धार के लिए। गुरु अमरदास = हे गुरु अमरदास जी! कीरतु कहै = कीरत (भाट) कहता है। त्राहि = रक्षा कर, बचा ले। तुअ पा = तेरे चरणों की।

अर्थ: सारी संगति और सारी कुलों के उद्धार के लिए कर्तार ने (गुरु अमरदास जी को) एक जहाज बनाया है; कीरत (भाट) कहता है: ‘हे गुरु अमरदास (जी)! मेरी रक्षा कर, मुझे बचा ले, मैं तेरे चरणों की शरण पड़ा हूँ’।1।15।

नोट: भाट ‘कीरत’ का यह पहला सवईया है। अब तक;
कल्सहार के सवईए----9
जालप के----------------5
कीरत के----------------1
कुल--------------------15

आपि नराइणु कला धारि जग महि परवरियउ ॥ निरंकारि आकारु जोति जग मंडलि करियउ ॥

पद्अर्थ: कला धारि = सक्तिआ रच के। जग महि = जगत में। परवरियउ = प्रवृक्त हुआ है। निरंकारि = निरंकार ने। आकारु = आकार रूप हो के, सरूप धार के। जग मंडलि = जगत के मंडल में। जोति करियउ = ज्योति प्रकट की है।

अर्थ: (गुरु अमरदास) स्वयं ही नारायण रूप है, जो अपनी सक्तिया रच के जगत में प्रवृक्त हुआ है। निरंकार ने (गुरु अमरदास जी का) आकार-रूप हो के (रूप धारण करके) जगत में ज्योति प्रकट की है।

जह कह तह भरपूरु सबदु दीपकि दीपायउ ॥ जिह सिखह संग्रहिओ ततु हरि चरण मिलायउ ॥

पद्अर्थ: जह कह = जहाँ कहाँ। तह = वहाँ ही। भरपूरु = व्यापक, हाजिर नाजिर। सबदु = शब्द को। दीपक = दीए से (भाव, गुरु अमरदास जी रूपी दीए से)। दीपायउ = जगाया है, प्रकाशा है, प्रकट किया है। जिह सिखह = जिस सिखों ने। ततु = तुरन्त, तत्काल।

अर्थ: (निरंकार ने) अपने शब्द (-नाम) को, जो हर जगह हाजर-नाजर है, (गुरु अमरदास जी-रूप) दीपक द्वारा प्रकटाया है। जिस सिखों ने इस शब्द को ग्रहण किया है, (गुरु अमरदास जी ने) तुरंत (उनको) हरि के चरणों में जोड़ दिया है।

नानक कुलि निमलु अवतरि्यउ अंगद लहणे संगि हुअ ॥ गुर अमरदास तारण तरण जनम जनम पा सरणि तुअ ॥२॥१६॥

पद्अर्थ: नानक कुलि = (गुरु) नानक (देव जी) की कुल में। निंमलु = निरमल। अवतरि्यउ = अवतरियउ, अवतार हुआ। लहणे जी के साथ हो के, साथ मिल के। तारण तरण = तैराने के लिए जहाज। पा सरणि तुअ = तेरे चरणों की शरण (रहूँ)। तरण = जहाज।

अर्थ: लहणे जी (भाव,) गुरु अंगद देव जी के साथ मिल के (गुरु अमरदास) गुरु नानक देव जी की कुल में निर्मल अवतार हुआ है। हे गुरु अमरदास जी! हे संसार से तैराने को जहाज! मैं हरेक जनम में तेरे चरणों की शरण (रहूँ)।2।16।

जपु तपु सतु संतोखु पिखि दरसनु गुर सिखह ॥ सरणि परहि ते उबरहि छोडि जम पुर की लिखह ॥

पद्अर्थ: पिखि = देख के। गुर दरसनु = सतिगुरु (अमरदास जी) के दर्शन। सिखह = सिखों को। परहि = पड़ते हैं। उबरहि = पार उतर जाते हैं। छोडि = छोड़ के। लिखह = लिखत। जम पुर की = जम पुरी की।

अर्थ: सतिगुरु (अमरदास जी) के दर्शन करके सिखों को जप-तप-संतोख (प्राप्त होते हैं)। जो मनुष्य (गुरु की) शरण पड़ते हैं, वह जम-पुरी की लिखत को छोड़ के पार लांघ जाते हैं।

भगति भाइ भरपूरु रिदै उचरै करतारै ॥ गुरु गउहरु दरीआउ पलक डुबंत्यह तारै ॥

पद्अर्थ: भगति भाइ = भक्ति के प्रेम में। रिदै = हृदय में। उचरै = (गुरु अमरदास) स्मरण करता है। करतारै = कर्तार को। गउहरु = गहर, गंभीर। दरआउ = दरिया दिल, सखी। पलक = पल में। डुबंतह = डूबते हुए को।

अर्थ: (गुरु अमरदास अपने) हृदय में (कर्तार की) भक्ति के प्रेम में भरा हुआ है, और कर्तार को स्मरण करता है; सतिगुरु (अमरदास) गंभीर है, दरिया-दिल है, डूबते हुए जीवों को पल भर में तैरा देता है।

नानक कुलि निमलु अवतरि्यउ गुण करतारै उचरै ॥ गुरु अमरदासु जिन्ह सेविअउ तिन्ह दुखु दरिद्रु परहरि परै ॥३॥१७॥

पद्अर्थ: नानक कुलि = (गुरु) नानक के कुल में। निंमलु = निर्मल। गुण करतारै = कर्तार के गुणों को। जिन्ह = जिस मनुष्यों को। तिन्ह = उनका। परहरि परै = दूर हो जाता है।

अर्थ: (गुरु) नानक (देव जी) की कुल में (गुरु अमरदास जी) निर्मल अवतार हुआ है, जो कर्तार के गुणों को उचारता है। जिस मनुष्यों ने गुरु अमरदास जी की सेवा की है, उनका दुख और दरिद्रता दूर हो जाती है।3।17।

चिति चितवउ अरदासि कहउ परु कहि भि न सकउ ॥ सरब चिंत तुझु पासि साधसंगति हउ तकउ ॥

पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। चितवउ = चितवता हूँ, विचारता हूँ। कहउ = कहता हूं, मैं कहूँ। सरब चिंत = सारे फिक्र। तुझु पासि = तेरे पास। हउ = मैं।

अर्थ: (हे गुरु अमरदास जी!) मैं चिक्त में सोचें सोचता हूँ कि (एक) विनती कहूँ; पर मैं कह भी नहीं सकता; (हे सतिगुरु!) मेरी सारी चिंताएं तेरे हवाले हैं (भाव, तुझे ही मेरे सारे फिक्र हैं), मैं साधु-संगत (का आसरा) देखता हूँ।

तेरै हुकमि पवै नीसाणु तउ करउ साहिब की सेवा ॥ जब गुरु देखै सुभ दिसटि नामु करता मुखि मेवा ॥

पद्अर्थ: तेरै हुकमि = (हे सतिगुरु!) तेरी रजा में। नीसाणु = प्रवानगी। पवै = मिले। तउ = तब। सुभ दिसटि = मेहर की नजर करके। नामु मेवा = नाम रूप फल। करता = कर्तार का। मुखि = मुँह में।

अर्थ: (हे गुरु अमरदास जी!) अगर तेरी रज़ा में प्रवानगी मिल जाए, तो मैं मालिक-प्रभु की सेवा करूँ। जब सतिगुरु (अमरदास) मेहर की नजर से देखता है, तो कर्तार का नाम-रूप फल मुँह में (भाव, खाने को) मिलता है।

अगम अलख कारण पुरख जो फुरमावहि सो कहउ ॥ गुर अमरदास कारण करण जिव तू रखहि तिव रहउ ॥४॥१८॥

पद्अर्थ: अगम = हे अगम हरि रूप सतिगुरु! फुरमावहि = तू हुक्म करता है। कारण करण = सृष्टि का कर्ता। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अलख = जिसका स्वरूप बताया ना जा सके। करण = सृष्टि। कारण = (सृष्टि का) मूल। पुरख = सर्व व्यापक।

अर्थ: हे अगम-रूप सतिगुरु! हे अलख-हरि-रूप गुरु! हे कारण पुरख-रूप गुरु अमरदास जी! जो तू हुक्म करता है, मैं वही कहता हूं। हे सृष्टि के कर्ता-रूप गुरु अमरदास जी! जैसे तू मुझे रखता है वैसे ही मैं रहता हूँ।4।18।

नोट: ये चार सवईए भाट कीरत के उचारे हुए हैं।

भिखे के॥

भिखे के ॥ गुरु गिआनु अरु धिआनु तत सिउ ततु मिलावै ॥ सचि सचु जाणीऐ इक चितहि लिव लावै ॥

पद्अर्थ: तत सिउ = परमात्मा के साथ (जो सबका मूल है)। ततु = आत्मा को। गुरु = गुरु (अमरदास जी)। सचि = सच में, सदा स्थिर अकाल पुरख में (जुड़ने के कारण)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला अकाल पुरख रूप। इक चितहि = एकाग्र मन हो के।

अर्थ: सतिगुरु अमरदास ज्ञान-रूप और ध्यान रूप है (भाव, पूर्ण ज्ञान वाला और दृढ़ ध्यान वाला है); (गुरु अमरदास ने) अपनी आत्मा को हरि के साथ मिला लिया है। सदा-स्थिर हरि में जुड़ने के कारण सतिगुरु को हरि-रूप ही समझना चाहिए, (गुरु अमरदास) एकाग्र मन हो के (हरि में) लगन लगा रहा है।

काम क्रोध वसि करै पवणु उडंत न धावै ॥ निरंकार कै वसै देसि हुकमु बुझि बीचारु पावै ॥

पद्अर्थ: पवणु = चंचल मन। उडंत = भटकता। धावै = दौड़ता। देसि = देश में। बुझि = समझ के, पहचान के। बीचारु = ज्ञान।

अर्थ: गुरु अमरदास काम क्रोध को अपने वश में किए रखता है, (उनका) मन भटकता नहीं है। (गुरु अमरदास) निरंकार के देश में टिक रहा है, (प्रभु का) हुक्म पहचान के (उन्होंने) ज्ञान प्राप्त किया है।

कलि माहि रूपु करता पुरखु सो जाणै जिनि किछु कीअउ ॥ गुरु मिल्यिउ सोइ भिखा कहै सहज रंगि दरसनु दीअउ ॥१॥१९॥

पद्अर्थ: कलि माहि = कलियुग में। सो = वह अकाल पुरख। जिनि = जिस (अकाल पुरख) ने। किछु = यह अलख करिश्मा (भाव, इस तरह के गुरु को संसार में भेजने का करिश्मा)। सोइ = वह (गुरु अमरदास)। दीअउ = दिया है। सहज = आत्मिक अडोलता, पूर्ण खिड़ाव।

अर्थ: कलजुग में (गुरु अमरदास) करता पुरख-रूप है; (इस करिश्मे को) वह कर्तार ही जानता है जिसने यह आश्चर्यजनक करिश्मा किया है। भिखा कवि कहता है: ‘मुझे वह गुरु (अमरदास) मिल गया है, (उन्होंने) पूर्ण खिलाव के रंग में मुझे दर्शन दिया है’।1।19।

रहिओ संत हउ टोलि साध बहुतेरे डिठे ॥ संनिआसी तपसीअह मुखहु ए पंडित मिठे ॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। टोलि रहिओ = ढूँढ ढूँढ के थक गया हूँ। डिठे = मैंने देखे हैं। तपसीअह = तपस्वी लोग। ए = यह। मुखहु मिठे पंडित = मुँह से मीठे पंडित।

अर्थ: मैं संतों को तलाश्ता-तलाशता थक गया हूँ, मैंने कई साधु (भी) देखे हैं, कई सन्यासी, कई तपस्वी और कई ये मुँह के मीठे पंडित (भी) देखे हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh