श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 36 स्रीरागु महला ३ ॥ बिनु गुर रोगु न तुटई हउमै पीड़ न जाइ ॥ गुर परसादी मनि वसै नामे रहै समाइ ॥ गुर सबदी हरि पाईऐ बिनु सबदै भरमि भुलाइ ॥१॥ मन रे निज घरि वासा होइ ॥ राम नामु सालाहि तू फिरि आवण जाणु न होइ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि इको दाता वरतदा दूजा अवरु न कोइ ॥ सबदि सालाही मनि वसै सहजे ही सुखु होइ ॥ सभ नदरी अंदरि वेखदा जै भावै तै देइ ॥२॥ हउमै सभा गणत है गणतै नउ सुखु नाहि ॥ बिखु की कार कमावणी बिखु ही माहि समाहि ॥ बिनु नावै ठउरु न पाइनी जमपुरि दूख सहाहि ॥३॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा तिसै दा आधारु ॥ गुर परसादी बुझीऐ ता पाए मोख दुआरु ॥ नानक नामु सलाहि तूं अंतु न पारावारु ॥४॥२४॥५७॥ {पन्ना 36} उच्चारण: श्रीराग महला ३॥ बिन गुर रोग न तुटई हउमै पीड़ न जाय॥ गुर परसादी मन वसै नामै रहै समाय॥ गुर सबदी हरि पाईअै बिन सबदै भरम भुलाय॥१॥ मन रे, निज घरि वासा होय॥ राम नाम सालाह तू फिर आवण जाण न होय॥१॥ रहाउ॥ हरि इको दाता वरतदा दूजा अवर न कोय॥ सबद सालाही मन वसै सहजे ही सुख होय॥ सभ नदरी अंदर वेखदा जै भावै तै देय॥२॥ हउमै सभा गणत है गणतै नउ सुख नाहि॥ बिख की कार कमावणी बिख ही माहि समाहि॥ बिन नावै ठउर न पाइनी जमपुर दूख सहाहि॥३॥ जीउ पिंड सभ तिस दा तिसै दा आधार ॥ गुर परसादी बूझीअै ता पाऐ मोख दुआर॥ नानक नाम सलाहि तूं अंत न पारावार॥४॥२४॥५७॥ पद्अर्थ: तुटई = टूटता। मनि = मन में। नामे = नाम में ही। भरमि = भटकन में। भुलाइ = भूला रहता है, वंचित रहता है।1। निज घरि = अपने घर में, अंतर आत्मे, प्रभु चरणों में। सालाहि = सिफित सलाह कर।1। रहाउ। वरतदा = इस्तेमाल कर रहा है, काम कर रहा है, स्मर्था वाला है। सबदि = (गुरू के) शबद द्वारा। सालाही = अगर मैं सराहूँ। सहजे ही = आसानी से। सुखु = आत्मिक आनंद। नदरी अंदरि = मेहर की निगाह से। सभ = सारी सृष्टि। जै = जिस को। तै = उसको। देइ = देता है।2। गणत = चिंता। नउ = को। बिखु = जहर, विकारों का विष। (शब्द 'बिखु' स्त्रीलिंग है पर यह 'ु' की मात्रा आखिर में। संबंधक के साथ भी यह 'ु' कायम रहता है)। ठउर = जगह, शांति। पाइनी = पाते हैं। जमपुरि = यम की पुरी में। सहहि = सहते हैं।3। जीउ = जीवात्मा। पिंड = शरीर। तिसु दा = उस (परमात्मा) का। आधारु = आसरा। परसादी = कृपा से। परसाद = प्रसाद, कृपा। बुझीअै = समझ आती है। मोख दुआरु = (विकारों से) छूटने का द्वार। पारावारु = पार+उरवार, इस पार और उस पार का छोर।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम की सिफत सलाह करता रह। प्रभु चरणों में मेरा निवास बना रहेगा, तथा दुबारा जन्म-मरन का चक्कर नहीं होगा।1। रहाउ। गुरू (की शरण) के बगैर (जनम-मरन) का रोग दूर नहीं हो सकता, अहंकार की पीड़ा नहीं जाती। गुरू की कृपा से (जिस मनुष्य के) मन में (परमात्मा का नाम) बस जाता है वह नाम में ही टिका रहता है। गुरू के शबद में जुड़ने से ही परमात्मा मिलता है। गुरू के शबद के बिना मनुष्य भटक के (सही जीवन राह से) वंचित हो जाते हैं।1। सभ दातें देने वाला सिर्फ परमात्मा ही सारी स्मर्था वाला है, उस जैसा और कोई नहीं है। अगर मैं गुरू के शबद से उसकी सिफत सलाह करूँ, तो वह मन में आ बसता है और सहज ही आत्मिक आनंद बन जाता है। वह दातार हरि सारी सृष्टि को अपनी मेहर की निगाह से देखता है। जिसको उसकी मर्जी हो उसे ही (यह आत्मिक आनंद) देता है।2। (जहां) अहम् है (वहां) चिंता है। चिंता को सुख नहीं हो सकता। (अहम् के अधीन रह कर आत्मिक मौत लाने वाले विकारों के) जहर वाले काम करने से जीव उस जहर में ही, मगन रहते है। परमात्मा के नाम के बिना वह शांति वाली जगह प्राप्त नहीं कर सकते, और जम के दर पर दु:ख सहते रहते हैं।3। जब, गुरू की कृपा से ये बात समझ आ जाती है कि ये जीवात्मा और ये शरीर सब कुछ उस परमात्मा का ही है। तथा परमात्मा का ही (सभ जीवों को) आसरा, सहारा है। तब जीव विकारों से निजात पाने का राह ढूंढ लेता है। हे नानक! उस परमात्मा के नाम की सिफत सलाह करता रह जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। जिसकी स्मर्था का उरवार पार भी नहीं ढूंढा जा सकता।4।24।57। सिरीरागु महला ३ ॥ तिना अनंदु सदा सुखु है जिना सचु नामु आधारु ॥ गुर सबदी सचु पाइआ दूख निवारणहारु ॥ सदा सदा साचे गुण गावहि साचै नाइ पिआरु ॥ किरपा करि कै आपणी दितोनु भगति भंडारु ॥१॥ मन रे सदा अनंदु गुण गाइ ॥ सची बाणी हरि पाईऐ हरि सिउ रहै समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सची भगती मनु लालु थीआ रता सहजि सुभाइ ॥ गुर सबदी मनु मोहिआ कहणा कछू न जाइ ॥ जिहवा रती सबदि सचै अम्रितु पीवै रसि गुण गाइ ॥ गुरमुखि एहु रंगु पाईऐ जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥ संसा इहु संसारु है सुतिआ रैणि विहाइ ॥ इकि आपणै भाणै कढि लइअनु आपे लइओनु मिलाइ ॥ आपे ही आपि मनि वसिआ माइआ मोहु चुकाइ ॥ आपि वडाई दितीअनु गुरमुखि देइ बुझाइ ॥३॥ सभना का दाता एकु है भुलिआ लए समझाइ ॥ इकि आपे आपि खुआइअनु दूजै छडिअनु लाइ ॥ गुरमती हरि पाईऐ जोती जोति मिलाइ ॥ अनदिनु नामे रतिआ नानक नामि समाइ ॥४॥२५॥५८॥ {पन्ना 36} उच्चारण:सिरीराग महला ३॥ तिना अनंद सदा सुख है जिना सच नाम आधार॥ गुर सबदी सच पाया दूख निवारणहार॥ सदा सदा साचे गुण गावहि साचै नाय पिआर॥ किरपा कर कै आपणी दितोन भगत भंडार॥१॥ मन रे, सदा अनंद गुण गाय॥ सची बाणी हरि पाईअै हरि सिउ रहै समाय॥१॥ रहाउ॥ सची भगती मन लाल थीआ रता सहज सुभाय॥ गुर सबदी मन मोहिआ कहणा कछू न जाय॥ जिहवा रती सबद सचै अंम्रित पीवै रस गुण गाय॥ गुरमुख ऐह रंग पाईअै जिस नो किरपा करे रजाय॥२॥ संसा इह संसार है सुतिआ रैणि विहाय॥ इक आपणै भाणै कढि लयन आपे लयोन मिलाय॥ आपे ही आप मन वसिआ माया मोह चुकाय॥ आप वडाई दितीअन गुरमुख देय बुझाय॥३॥ सभना का दाता ऐक है भुलिआ लऐ समझाय॥ इक आपे आप खुआयनु दूजै छडिअन लाय॥ गुरमती हरि पाईअै जोती जोति मिलाय॥ अनदिन नामे रतिआ नानक नाम समाय॥४॥२५॥५८॥ पद्अर्थ: आधारु = आसरा। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। निवारणहारु = दूर करने की ताकत रखने वाला। गावहि = गाते हैं। नाइ = नाम में। दितोनु = दिता+उन, उस (प्रभु) ने दिया। भंडार = खजाना।1। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की सिफत सलाह में (जुड़ने से)। सिउ = साथ।1। रहाउ। थीआ = हो जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। रसि = रस से, प्रेम से। गाइ = गा के। गुरमुखि = गुरू के सन्मुखि हो के। रजाइ = रजा अनुसार।2। स्ंसा = सहम। रैणि = (जिंदगी रूप) रात। इकि = कइ। जीव। कढि लइअनु = उस (प्रभु ने) निकाल लिए। लइओनु मिलाइ = उस ने मिला लिया। मनि = मन में। चुकाइ = दूर करके। दितीअनु = उस ने दी। देइ बुझाइ = समझा देता है।3। खुआइनु = उसने गवा दिये हैं। दूजे = और (प्रेम) में। छडिअनु लाइ = लगा छोड़े हैं उसने। जोति = सुरति। अनदिनु = प्रतिदिन। नामि = नाम में।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के गुण गाता रह। (गुण गाने से) सदा खुशी बनी रहती है। सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की सिफत सलाह में जुड़ने से ही प्रभु मिलता है। (जो जीव सिफत सलाह करता है वह) परमात्मा की (याद में) लीन रहता है।1। रहाउ। परमात्मा का सदा स्थिर नाम जिन मनुष्यों (की जिंदगी) का आसरा बनता है, उनको सदा आनंद मिलता है, सदा सुख मिलता है। (क्योंकि) गुरू के शबद में जुड़ के उन्होंने वह सदा स्थिर परमात्मा पा लिया होता हैजो सारे दुख दूर करने की स्मर्था रखता है। वह मनुष्य सदा ही सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं, वह सदा स्थिर प्रभु के नाम से प्यार करते हैं। परमात्मा ने अपनी कृपा करके उन्हें अपनी भक्ति का खजाना बख्श दिया है।1। सदा स्थिर प्रभु की भक्ति (के रंग) में जिस मनुष्य का रंग गाढ़ा रंगा जाता है, वह आत्मिक अडोलता में प्रभु प्रेम में मस्त रहता है। गुरू के शबद में जुड़ के उस का मन (प्रभु चरणों में ऐसा) मस्त होता है कि उस (मस्ती) का बयान नहीं किया जा सकता। उसकी जीभ सदा स्थिर प्रभु की सिफत सलाह में रंगी जाती हैं, प्रेम से प्रभु के गुण गा के वह आत्मिक जीवन देने वाला रस पीता है। पर ये रंग गुरू की शरण पड़ने से ही मिलता है (वही मनुष्य प्राप्त करता है) जिस पर प्रभु अपनी रजा मुताबिक मेहर करता है।2। जगत (का मोह) तौखले का मूल है। (मोह की नींद में) सोए हुए ही (जिंदगी रूपी) रात व्यतीत हो जाती है। कई (भाग्यशाली) जीवों को परमात्मा ने अपनी रजा में (जोड़ के इस मोह में से) निकाल लिया और खुद ही (अपने चरणों में) मिला लिया है। खुद ही (उनके अंदर से) माया का मोह दूर करके खुद ही उनके मन में आ बसा है। प्रभु ने खुद (ही) उनको इज्जत दी है। (भाग्यशाली लोगों को) परमात्मा गुरू की शरण में ला के (जीवन का सही राह) समझा देता है।3। परमात्मा ही सभ जीवों को दातें देने वाला है। जीवन राह से भटके हुओं को भी सूझ देता है। कई जीवों को उस प्रभु ने खुद ही अपने आप से दूर किया हुआ है और माया के मोह जाल में फंसा के रखा है। गुरू की मति पर चलने से परमात्मा मिलता है (गुरू की मति पर चलके जीव) अपनी सुरति को परमात्मा की ज्योति में मिलाता है, और हे नानक! हर वक्त नाम के रंग में रंगे रह क रनाम में ही लीन रहता है।4।25।58। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |