श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 58 सिरीरागु महला १ ॥ सुणि मन भूले बावरे गुर की चरणी लागु ॥ हरि जपि नामु धिआइ तू जमु डरपै दुख भागु ॥ दूखु घणो दोहागणी किउ थिरु रहै सुहागु ॥१॥ भाई रे अवरु नाही मै थाउ ॥ मै धनु नामु निधानु है गुरि दीआ बलि जाउ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमति पति साबासि तिसु तिस कै संगि मिलाउ ॥ तिसु बिनु घड़ी न जीवऊ बिनु नावै मरि जाउ ॥ मै अंधुले नामु न वीसरै टेक टिकी घरि जाउ ॥२॥ गुरू जिना का अंधुला चेले नाही ठाउ ॥ बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ बिनु नावै किआ सुआउ ॥ आइ गइआ पछुतावणा जिउ सुंञै घरि काउ ॥३॥ बिनु नावै दुखु देहुरी जिउ कलर की भीति ॥ तब लगु महलु न पाईऐ जब लगु साचु न चीति ॥ सबदि रपै घरु पाईऐ निरबाणी पदु नीति ॥४॥ हउ गुर पूछउ आपणे गुर पुछि कार कमाउ ॥ सबदि सलाही मनि वसै हउमै दुखु जलि जाउ ॥ सहजे होइ मिलावड़ा साचे साचि मिलाउ ॥५॥ सबदि रते से निरमले तजि काम क्रोधु अहंकारु ॥ नामु सलाहनि सद सदा हरि राखहि उर धारि ॥ सो किउ मनहु विसारीऐ सभ जीआ का आधारु ॥६॥ सबदि मरै सो मरि रहै फिरि मरै न दूजी वार ॥ सबदै ही ते पाईऐ हरि नामे लगै पिआरु ॥ बिनु सबदै जगु भूला फिरै मरि जनमै वारो वार ॥७॥ सभ सालाहै आप कउ वडहु वडेरी होइ ॥ गुर बिनु आपु न चीनीऐ कहे सुणे किआ होइ ॥ नानक सबदि पछाणीऐ हउमै करै न कोइ ॥८॥८॥ {पन्ना 58} उच्चारण: सिरी राग महला १॥ सुण मन भूले बावरे गुर की चरणी लाग॥ हरि जप नाम धिआय तू जम डरपै दुख भाग॥ दूख घणों दोहागणी किउ थिर रहै सुहाग॥१॥ भाई रे, अवर नाही मै थाउ॥ मै धन नाम निधान है गुर दीआ बल जाउ॥१॥ रहाउ॥ गुरमत पत साबास तिस, तिस कै संग मिलाउ॥ तिस बिन घड़ी न जीवऊ बिन नावै मर जाउ॥ मै अंधुले नाम न वीसरै टेक टिकी घर जाउ॥२॥ गुरू जिना का अंधुला चेले नाही ठाउ॥ बिन सतगुर, नाउ न पाईअै, बिन नावै किआ सुआउ॥ आय गया पछुतावणा जिउ सुंञे घर काउ॥३॥ बिन नावै दुखु देहुरी जिउ कलर की भीत॥ तब लग महल न पाईअै जब लग साच न चीत॥ सबदि रपै घर पाईअै निरबाणी पद नीत॥४॥ हउ गुर पूछउ आपणे गुर पुछ कार कमाउ॥ सबद सलाही मन वसै हउमै दुख जल जाउ॥ सहजे होय मिलावड़ा साचे साच मिलाउ॥५॥ सबद रते से निरमले तज काम क्रोध अहंकार॥ नाम सलाहन सद सदा हरि राखहि उरधार॥ सो किउ मनहु विसारीअै सभ जीआ का आधार॥६॥ सबद मरै सो मर रहै फिर मरै न दूजी वार॥ सबदै ही ते पाईअै हरि नामे लगै पिआर॥ बिन सबदै जग भूला फिरै मर जनमै वारो वार॥७॥ सभ सालाहै आप कउ वडहु वडेरी होय॥ गुर बिन आप न चीनीअै कहे सुणे किआ होय॥ नानक सबद पछाणीअै हउमै करै न कोय॥८॥८॥ पद्अर्थ: बावरे = हे पागल! दुख भागु = दुखों को भगदड़ (पड़ जाती है)। दोहागणी = दुर्भाग्यपूर्ण स्त्री।1। निधानु = खजाना। गुरि = गुरू ने। बलि = कुरबान, सदके।1। रहाउ। पति = इज्जत। मरि जाउ = मैं आत्मिक मौत मर जाता हूँ।2। सुआउ = स्वार्थ, जीवन मनोरथ। काउ = कौआ।3। देहुरी = शरीर (को)। भीति = दीवार। चीति = चिक्त में। रपै = रंगा जाए। निरबाणी पदु = वह आत्मक दर्जा जहां कोई वासना असर नहीं करती। निरबाणी = निर्वाण अवस्था, वासना रहित।4। पुछि = पूछ के। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। मनि = मन मे।5। तजि = त्याग के। सलाहनि = सराहते हैं। उरि धारि = दिल में टिका के। आधारु = आसरा।6। सबदि = शबद में (जुड़ के)। मरै = (विकारों की ओर से) मरता है।7। आप कउ = अपने आप को। ना चीनीअै = परखा नहीं जा सकता, ना पहचाना जा सके।8। अर्थ: हे पथ भ्रष्ट पागल मन! (मेरी शिक्षा) सुन। (शिक्षा ये है कि) गुरू की शरण पड़ (गुरू से परमात्मा का नाम मिलता है, तू भी वह) हरि नाम जप। (हरि चरणों में) सुरति जोड़ (प्रभू का नाम सिमरने से) यमराज भी डर जाता है और दुखों को भगदड़ पड़ जाती है। (पर, जो) भाग्यहीन जीवस्त्री (नाम नहीं सिमरती, उसे) बहुत दुख कलेशों का सामना करना पड़ता है (दुखों में भगदड़ तभी मच सकती है, जब सिर पर खसम सांई हो, पर जो खसम का नाम कभी याद ही नहीं करती, उसके सिर पे) खसम सांई कैसे टिका हुआ प्रतीत हो?।1। हे भाई! मेरे वास्ते तो प्रभू नाम ही धन है, नाम ही खजाना है (ये खजाना जिस किसी को दिया है) गुरू ने (ही) दिया है। मैं गुरू पे कुर्बान हूँ। (नाम खजाना हासिल करने के लिए) मुझे (गुरू के बिनां) और कोई जगह नहीं दिखती।1। रहाउ। साबाश है उस (गुरू) को जिस गुरू की मति मिलने से इज्जत मिलती है। (प्रभू मेहर करे) मैं उस (गुरू) की संगति में जुड़ा रहूँ। (नाम की दाति देने वाले) उस गुरू के बिना मैं एक घड़ी भी नहीं रह सकता। क्योंकि, नाम के बिना मेरी आत्मिक मौत हो जाती है। (नाम के बिना मैं माया के मोह में अंधा हो जाता हूँ, प्रभू मेहर करे) मुझ अंधे को उसका नाम ना भूल जाए। मैं गुरू के आसरे की टेक ले के प्रभू चरणों में जुड़ा रहूँ।2। (पर गुरू भी हो तो आँखों वाला हो) जिनका गुरू (खुद ही माया के मोह में) अंधा हो गया हो, उनके चेलों को (आत्मिक सुख का) स्थान टिकाना नहीं मिल सकता। (पूरे) गुरू के बिना प्रभू का नाम नहीं मिलता। नाम के बिना और कोई (बढ़िया) जीवन मनोरथ हो ही नहीं सकता। नाम से वंचित रहा मनुष्य दुनिया में आया और चला गया, पछतावा ही (साथ ले गया, खाली हाथ ही जग से गया)। जैसे सूने घर में आया कौआ (भी खली ही जाता है)।3। नाम सिमरन के बिना शरीर को (चिंता आदि इतना) दुख सताते हैं (कि शारीरिक सक्ता इस प्रकार छीण होती जाती है) जैसे कलर की दीवार (झड़ती जाती है)। (इस झुरने को बचाने के लिए) तब तक (प्रभू का) महल (रूपी सहारा) नहीं मिलता, जब तक वह सदा स्थिर प्रभू (जीव के) चिक्त में नहीं आ बसता। यदि गुरू के शबद में मन रंगा जाए, तो प्रभू की हजूरी (की ओट) मिल जाती है, और वह आत्मिक अवस्था सदा के लिए प्राप्त हो जाती है जहां कोई वासना अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।4। (सो, हे भाई! इस निर्वाण पद की प्राप्ति के वास्ते) मैं अपने गुरू को पूछूँगी। गुरू से पूछ के (उस द्वारा बताए) कर्म करूँगी। मैं गुरू के शबद में जुड़ के प्रभू की सिफत सलाह करूँगी। (भला कहीं प्रभू मेरे) मन में आ बसे (प्रभू की मेहर हो, मेरा) अहम् का दुख जल जाए, सहज अवस्था में टिक के मेरा प्रभू से सुंदर मिलाप हो जाए। सदा टिके रहने वाले प्रभू में मेरा सदा के लिए मेल हो जाए।5। जो लोग गुरू के शबद में रंगे जाते हैं वह काम क्रोध (आदि विकारों) को त्याग के पवित्र (जीवन वाले) हो जाते हैं। वह सदा प्रभू का नाम सलाहते हैं, वे परमात्मा की याद को सदैव अपने दिल में टिका के रखते हैं। (हे भाई!) जो प्रभू सारे जीवों (की जिंदगी का) आसरा है, उसे कभी भी मन से भुलाना नहीं चाहिए।6। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के (विकारों की ओर से) मर जाता है (बेअसर हो जाता है) वह (ऐसी मरनी) मर के स्थिर हो जाता है (विकारों से टक्कर के लिए तगड़ा हो जाता है, वह मनुष्य विकारों की जकड़ में आ के) फिर कभी आत्मिक मौत नहीं मरता। (ये अटल आत्मिक जीवन) गुरू के शबद से ही मिलता है। (गुरू के शबद से ही) प्रभू के नाम में प्यार बनता है। गुरू के शबद के बिनां जगत (जीवन राह से) गुमराह हो के भटकता है, और बारंबार जन्म मरण के चक्रव्यूह में फंसा रहता है।7। सारी दुनिया अपने आप को सालाहती है कि हमारी ज्यादा से ज्यादा प्रशंसा सत्कार हो (अपने आप की सूझ के बिना ही यह लालसा बनी रहती है)। गुरू की शरण पड़े बगैर अपने आप की पहिचान नहीं हो सकती। ज्ञान की बातें निरी कहने सुनने से कुछ नहीं बनता। हे नानक! गुरू के शबद से ही अपने आप को पहचाना जा सकता है (और जो मनुष्य अपने आप की पहिचान कर लेता है) वहअपनी प्रशंसा की बातें नहीं करता।8।8। सिरीरागु महला १ ॥ बिनु पिर धन सीगारीऐ जोबनु बादि खुआरु ॥ ना माणे सुखि सेजड़ी बिनु पिर बादि सीगारु ॥ दूखु घणो दोहागणी ना घरि सेज भतारु ॥१॥ मन रे राम जपहु सुखु होइ ॥ बिनु गुर प्रेमु न पाईऐ सबदि मिलै रंगु होइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर सेवा सुखु पाईऐ हरि वरु सहजि सीगारु ॥ सचि माणे पिर सेजड़ी गूड़ा हेतु पिआरु ॥ गुरमुखि जाणि सिञाणीऐ गुरि मेली गुण चारु ॥२॥ सचि मिलहु वर कामणी पिरि मोही रंगु लाइ ॥ मनु तनु साचि विगसिआ कीमति कहणु न जाइ ॥ हरि वरु घरि सोहागणी निरमल साचै नाइ ॥३॥ मन महि मनूआ जे मरै ता पिरु रावै नारि ॥ इकतु तागै रलि मिलै गलि मोतीअन का हारु ॥ संत सभा सुखु ऊपजै गुरमुखि नाम अधारु ॥४॥ खिन महि उपजै खिनि खपै खिनु आवै खिनु जाइ ॥ सबदु पछाणै रवि रहै ना तिसु कालु संताइ ॥ साहिबु अतुलु न तोलीऐ कथनि न पाइआ जाइ ॥५॥ वापारी वणजारिआ आए वजहु लिखाइ ॥ कार कमावहि सच की लाहा मिलै रजाइ ॥ पूंजी साची गुरु मिलै ना तिसु तिलु न तमाइ ॥६॥ गुरमुखि तोलि तुोलाइसी सचु तराजी तोलु ॥ आसा मनसा मोहणी गुरि ठाकी सचु बोलु ॥ आपि तुलाए तोलसी पूरे पूरा तोलु ॥७॥ कथनै कहणि न छुटीऐ ना पड़ि पुसतक भार ॥ काइआ सोच न पाईऐ बिनु हरि भगति पिआर ॥ नानक नामु न वीसरै मेले गुरु करतार ॥८॥९॥ {पन्ना 58-59} उच्चारण: सिरीरागु महला १॥ बिन पिर, धन सीगारीअै, जोबन बादि खुआर॥ ना माणे सुख सेजड़ी बिन पिर बादि सीगार॥ दूख घणों दोहागणी ना घर सेज भतार॥१॥ मन रे, राम जपहु सुख होय॥ बिन गुर प्रेम न पाईअै, सबद मिलै रंग होय॥१॥ रहाउ॥ गुर सेवा सुख पाईअै हरि वर सहिज सीगार॥ सच माणे पिर सेजड़ी गूढ़ा हेत पिआर॥ गुरमुख जाण सिञाणीअै गुर मेली गुण चार॥२॥ सच मिलहु, वर कामणी, पिर मोही रंग लाय॥ मन तन साच विगसिआ कीमत कहण ना जाय॥ हरि वर घर सोहागणी निरमल साचै नाय॥३॥ मन महि मनूआ जे मरै ता पिर रावै नार॥ इकत तागै रल मिलै गल मोतीअन का हार॥ संत सभा सुख ऊपजै गुरमुख नाम अधार॥४॥ खिन महि उपजै खिन खपै खिन आवै खिन जाय॥ सबद पछाणै रव रहै ना तिस काल संताय॥ साहिब अतुल न तोलीअै कथन न पाया जाय॥५॥ वापारी वणजारिआ आए वजह लिखाय॥ कार कमावहि सच की लाहा मिलै रजाय॥ पूँजी साची गुर मिलै ना तिस तिल न तमाय॥६॥ गुरमुख तोल तुलाइसी सच तराजी तोल॥ आसा मनसा मोहणी गुर ठाकी सच बोल॥ आप तुलाए तोलसी पूरे पूरा तोल॥७॥ कथने कहिण न छुटीअै न पढ़ पुसतक भार॥ काया सोच न पाइअै बिन हरि भगत पिआर॥ नानक नाम न वीसरै मेले गुर करतार॥८॥९॥ पद्अर्थ: धन = स्त्री। सीगारीअै = (अगर) श्रृंगारी जाए, यदि गहने आदि से सजाई जाए। जोबनु = जवानी। बादि = व्यर्थ। खुआरु = दुखी। सुखि = सुख से, आनंद से। सेजड़ी = सुंदर सेज। घणे = बहुत। घरि = घर में। सेज भतारु = सेज का मालिक खसम।1। सबदि = गुरू के शबद में (जुड़ने से)। रंगु = नाम का रंग।1। रहाउ। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में (जुड़ के)। पिर सेजड़ी = पति की सुंदर सेज। हेतु = हित, प्रेम। जाणि = जान के, गहरी सांझ डालके। गुरि = गुरू ने। चारु = सुंदर। गुण चारु = सुंदर गुणों वाला प्रभू।2। वर कामणी = हे प्रभू पति की जीव स्त्री! पिरि = पिर ने। विगसिआ = खिल पड़ा। साचै नाइ = सच्चे प्रभू के नाम में (जुड़ के)।3। मनूआ = होछा मन, भुलक्कड़ मन। रावै = प्यार करता है। इकतु = एक में। इकतु तागै = एक ही धागे में। रलि = मिल-जुलके, एकमेक हो के। अधारु = आसरा।4। उपजै = पैदा हो जाता है, प्रोत्साहित हो जाता है। खिनि = छिन में। खपै = खपता है, दुखी होता है। रवि रहे = (गुरू के शबद में) जुड़ा रहे। ना संताइ = नहीं सताता।5। वजहु = तनखाह, रोजीना। लाहा = लाभ। तमाइ = लालच।6। तोलि तुोलाइसी = तोल में पूरा उतरवाएगा। (नोट: शब्द ‘तोलाइसी’ के अक्षर ‘त’के साथ दो मात्राएं हैं–‘ु’ और ‘ो’। असल शब्द ‘तुोलाइसी’ ही है, जिसे यहां तुलाइसी पढ़ना है)। तराजी = तीरजू। गुरि = गुरू ने। ठाकी = रोक दी है।7। कहणि = जबानी बातें करने से। पढ़ि = पढ़ के। सोच = स्वच्छता। करतार = करतार (का मेल)।8। अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम सिमर, (तुझे) सुख होगा। (पर मन भी क्या करे? जिसके साथ प्यार ना हो, उसको बार बार कैसे याद किया जाए? परमात्मा के साथ ये) प्यार गुरू के बिनां नहीं बन सकता। जो मन गुरू के शबद में जुड़ता है उसको प्रभू के नाम का रंग चढ़ जाता है।1। रहाउ। (अगर, स्त्री गहनों आदि से) अपने आप को सजा ले, पर उसे पति ना मिले तो उसकी जवानी व्यर्थ जाती है। उसकी आत्मा भी दुखी होती है। क्योंकि, आनंद से पति की सुंदर सेज का आनंद नहीं ले सकती। पति मिलाप के बगैर उसका सारा श्रृंगार व्यर्थ जाता है। उस दुर्भाग्यपूर्ण स्त्री को बहुत दुख होता है, उसके घर में सेज का मालिक खसम नहीं आता (जीवस्त्री के सारे बाहरमुखी धार्मिक कर्म व्यर्थ जाते हैं, अगर हृदय सेज का मालिक प्रभू हृदय में प्रगट ना हो)।1। गुरू द्वारा बताई सेवा से ही आत्मिक आनंद मिलता है। प्रभू पति उसी जीव स्त्री को प्राप्त होता है जिसने अडोल आत्मिक अवस्था में (जुड़के) अपने आप को श्रृंगारा हैं वही जीव-स्त्री प्रभू पति की सुंदर सेज का आनंद ले सकती है जो उस सदा स्थिर प्रभू में (जुड़ी रहती है), जिसका प्रभू पति के साथ गहरा हित है, गहरा प्यार है। गुरू के सन्मुख रहके ही प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल के उसे मनाया जा सकता है (भाव, ये समझ आती है कि वह हमारा है), वह सुंदर गुणों का मालिक प्रभू (जिस जीव-स्त्री को मिला है) गुरू ने मिलाया है।2। हे प्रभू पति की सुंदर स्त्री! उस सदा स्थिर प्रभू (के चरणों) में (सदा) मिली रह। पति प्रभू ने (जिस जीव-स्त्री के मन को अपने प्यार का) रंग चढ़ा के (अपनी ओर) खींच लिया है, उसका मन, उसका तन सदा स्थिर प्रभू में जुड़के खिल पड़ा है (उसका जीवन इतना अमोलक बन जाता है कि) उसका मुल्य नहीं पड़ सकता। वह सोहाग भाग वाली जीव-स्त्री सदा स्थिर हरी के नाम में (जुड़ के) पवित्र आत्मा हो जाती है, और प्रभू पति को अपने (दिल) घर में (ही ढूंढ लेती है)।3। यदि (जीव-स्त्री का) छोटा सा मन (प्रभू पति के विशाल) मन में (छोटे स्वाभाव से) मर जाए, तो जैसे एक ही धागे में परोए हुए मोतियों का हार गले में डाल लेते हैं, उसी तरह यदि (जीव स्त्री प्रभू के ही) एक-सुरति धागे एक मेक हो के प्रभू में लीन हो जाए तो प्रभू पति उस जीव नारी को प्यार करता है। पर यह आत्मिक आनंद सत्संग में टिकने से ही मिलता है, और सत्संग में गुरू की शरण पड़ के (मन को) प्रभू के नाम का सहारा मिलता है।4। (अगर मन नाम से वंचित रहे, तो माया, धन-संपदा आदि के लाभ से) एक छिन में ही (ऐसे होता है जैसे) जी पड़ता है (और माया आदि की कमी से) एक पल में ही दुखी हो जाता है। एक छिन (गुजरता है तो) वह पैदा हो जाता है, एक छिन (गुजरता है तो) वह मर जाता है (भाव, नाम के सहारे के बिना माया जीव के जीवन का आसरा बन जाती है। अगर माया आए तो उत्साह, अगर जाए तो सहम)। जो मनुष्य गुरू के शबद से सांझ डालता है (प्रभू के चरणों में जुड़ने से ये तो नहीं हो सकता कि) उस मालिक (की हस्ती) को तोला जा सके। वह तौल से परे है (हां, ये जरूर है कि वह मिलता सिमरन से ही है) निरी बातों से नहीं मिलता।5। सारे जीव बंजारे जीव व्यापारी (परमात्मा के दर से) दिहाड़ी (तनखाह) लिखा के (जगत में आते हैं। भाव, हरेक को जिंदगी के स्वाश व सारे पदार्तों की दाति प्रभू दर से मिलती है)। जो जीव व्यापारी सदा स्थिर प्रभू के सिमरन की कार करते हैं, उनको प्रभू की रजा के अनुसार (आत्मिक जीवन का) लाभ मिलता है। (पर ये लाभ वही कमा सकते हैं जिनको) वह गुरू मिल जाता है जिस को (अपनी प्रशंसा आदि का) तिल जिनता भी लालच नहीं है। (जिन को गुरू मिलता है उनकी आत्मिक जीवन वाली) राशि पूँजी सदा के लिए स्थिर हो जाती है।6। (इन्सानी जीवन की सफलता की परख के वास्ते) सच ही तराजू है और सच ही बाँट है (जिसके पल्ले सच है वही सफल है)। इस परख तोल में वही मनुष्य पूरा उतरता है जो गुरू के सन्मुख रहता है। क्योंकि, गुरू ने (परमात्मा की सिफति सलाह की) सच्ची बाणी दे के मन को मोह लेने वाली आशाओं और मन के माया के फुरनों को (मन पर वार करने से) रोक रखा होता है। पूरे प्रभू का यह तोल (का रुतबा) कभी घटता-बढ़ता नहीं। वही जीव (इस तोल में) पूरा तुलता है जिसको प्रभू (सिमरन की दात दे के) खुद (मेहर की निगाह से) तुलवाता है।7। निरी बातें करने से या पुस्तकों के ढेरों के ढेर पढ़ने से आसा-मनसा से बचा नहीं जा सकता। (यदि हृदय में) परमात्मा की भक्ति नहीं, प्रभु का प्रेम नहीं, तो निरे शरीर की पवित्रता से परमात्मा नहीं मिलता। हे नानक! जिस को (गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का) नाम नहीं भूलता, उसको गुरू परमात्मा के मेल में मिला देता है।8।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |