श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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डखणा ॥ जो तउ कीने आपणे तिना कूं मिलिओहि ॥ आपे ही आपि मोहिओहु जसु नानक आपि सुणिओहि ॥१॥ छंतु ॥ प्रेम ठगउरी पाइ रीझाइ गोबिंद मनु मोहिआ जीउ ॥ संतन कै परसादि अगाधि कंठे लगि सोहिआ जीउ ॥ हरि कंठि लगि सोहिआ दोख सभि जोहिआ भगति लख्यण करि वसि भए ॥ मनि सरब सुख वुठे गोविद तुठे जनम मरणा सभि मिटि गए ॥ सखी मंगलो गाइआ इछ पुजाइआ बहुड़ि न माइआ होहिआ ॥ करु गहि लीने नानक प्रभ पिआरे संसारु सागरु नही पोहिआ ॥४॥ {पन्ना 81}

उच्चारण: डखणा॥ जो तउ कीने आपणे तिना कूं मिलिओहि॥ आपे ही आपि मोहिओह जस नानक आपि सुणिओहि॥१॥ छंतु॥ प्रेम ठगउरी पाय रीझाय गोबिंद मन मोहिआ जीउ॥ संतन के परसादि अगाधि कंठे लगि सोहिआ जीउ॥ हरि कंठि लगि सोहिआ दोख सभि जोहिआ भगति लखय्ण करि वसि भऐ॥ मनि सरब सुख वुठे गोविद तुठे जनम मरणा सभि मिटि गऐ॥ सखी मंगलो गायआ इछ पुजायआ बहुड़ि न मायआ होहिआ॥ करु गहि लीने नानक प्रभ पिआरे संसार सागर नही पोहिआ॥४॥

पद्अर्थ: जो = जिन मनुष्यों को। तउ = तू। कूं = को। मिलिओहि = तू मिल पड़ा है। होहिओहु = तू मस्त हो रहा है। जसु = शोभा। नानक = हे नानक!।1।

छंतु: ठगउरी = ठग बूटी। पाइ = पा के। रीझाइ = रिझा के, खुश करके। परसादि = कृपा से। अगाधि = अथाह प्रभू। कंठे लगि = गले से लग के। सभि = सारे। दोख = विकार। जोहिआ = तोल लिए जाते हैं। भगति लख्हण करि = भक्ति के लक्षणों करके। वसि = वश में। मनि = मन में। वुठे = आ बसते हैं। तुठे = प्रसन्न होने से। सखी = सखियों ने, सत्संगियों ने। मंगलो = मंगल, खुशी का गीत, आत्मिक आनंद देने वाला गीत, सिफत सलाह का शबद। होहिआ = होहे, हुजके, धक्के। करु = हाथ। गहि = पकड़ के।4।

अर्थ: हे नानक! (कह– हे प्रभू!) जिन (भाग्यशालियों) को तू अपने (सेवक) बना लेता है, उनको तू मिल पड़ता है, (उनकी ओर से) तू (अपना) यश स्वयं ही सुनता है, और (सुन के) तू स्वयं ही मस्त होता है।1।

(हे भाई! भक्तजनों ने) प्रेम की ठॅग बूटी खिला के (और इस तरह खुश करके) परमात्मा का मन मोह लिया होता है। भगत जनों की ही कृपा से (कोई भाग्यशाली मनुष्य) अथाह प्रभू के गले लग के सुंदर जीवन वाला बनता है। जो मनुष्य हरि के गले लग के सुंदर जीवन वाला बनता है, उसके सारे विकार खत्म हो जाते हैं, (उसके अंदर) भक्ति वाले लक्षण पैदा हो जाने के कारण प्रभू जी उसके बस में आ जाते हैं। गोबिंद के उस पर प्रसन्न होने से उसके मन में सारे सुख आ बसते हैं, और उसके सारे जनम मरण (के चक्कर) समाप्त हो जाते हैं। सत्संगियों के साथ मिल के ज्यों ज्यों वह प्रभू की सिफत सलाह की बाणी गाता है उसकी कामनाएं पूरी हो जाती हैं (भाव, उसके मन के फुरने समाप्त हो जाते हैं), उसे पुनः माया के धक्के नहीं लगते। हे नानक! प्यारे प्रभू ने जिनका हाथ थाम लिया है, उन पे संसार समुंद्र अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।4।

डखणा ॥ साई नामु अमोलु कीम न कोई जाणदो ॥ जिना भाग मथाहि से नानक हरि रंगु माणदो ॥१॥ छंतु ॥ कहते पवित्र सुणते सभि धंनु लिखतीं कुलु तारिआ जीउ ॥ जिन कउ साधू संगु नाम हरि रंगु तिनी ब्रहमु बीचारिआ जीउ ॥ ब्रहमु बीचारिआ जनमु सवारिआ पूरन किरपा प्रभि करी ॥ करु गहि लीने हरि जसो दीने जोनि ना धावै नह मरी ॥ सतिगुर दइआल किरपाल भेटत हरे कामु क्रोधु लोभु मारिआ ॥ कथनु न जाइ अकथु सुआमी सदकै जाइ नानकु वारिआ ॥५॥१॥३॥ {पन्ना 81}

उच्चारण: डखणा॥ साई नाम अमोल कीम न कोई जाणदो॥ जिना भाग मथाहि से नानक हरिरंगु माणदो॥१॥ छंतु॥ कहते पवित्र सुणते सभि धंन लिखती कुल तारिआ जीउ॥ जिन कउ साधू संग, नाम हरि रंग, तिनी ब्रहम बीचारिआ जीउ॥ ब्रहम बीचारिआ जनम सवारिआ पूरन किरपा प्रभि करी॥ कर गहि लीने, हरि जसो दीने, जोनि न धावै नह मरी॥ सतिगुर दयआल किरपाल भेटत हरे काम क्रोध लोभ मारिआ॥ कथन न जाय अकथ सुआमी सदकै जाय नानक वारिआ॥५॥१॥३॥

पद्अर्थ: साई नाम = साई नाम, पति प्रभू का नाम। अमोलु = अमुल्य, जिसका मूल्य ना पड़ सके, जिसके बराबर और कोई कीमती वस्तु ना हो। कीम = कीमत। जाणदो = जानता। मथाहि = माथे पर। से = वह लोग। हरि रंगु = प्रभू के मिलाप का आनंद।1।

छंतु: सभि = सारे। धंनु = धन्य, भाग्यों वाले। लिखती = जिन्होंने लिखा। कुल = खानदान। संगु = मिलाप। रंगु = आनंद। तिनी = उन्होंने। बीचारिआ = मन में टिकाया। प्रभि = प्रभू ने। करु = हाथ। जसो = जस, यश, सिफत सलाह की दात। धावै = दौड़ता है। जोनि न धावै = जनम जनम में नहीं दौड़ता फिरता। मरी = मरता। भेटत = मिलने से। सतिगुर भेटत = गुरू के मिलने से। हरे = सरसे, आत्मिक जीवन वाले। अकथु = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके, अकथनीय। सदकै = कुर्बान। वारिआ = कुर्बान।5।

अर्थ: पति प्रभू का नाम अमुल्य है, कोई जीव उसके बराबर की और कोई चीज नहीं बता सकता। हे नानक! जिन मनुष्यों के माथे के भाग्य (जाग जाएं), वे परमात्मा के मिलाप का आनन्द लेते हैं।1।

जो मनुष्य परमात्मा का नाम उचारते हैं, वे स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं। जो लोग प्रभू की सिफत सलाह सुनते हैं, वह सारे भाग्यशाली हो जाते हैं। जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सलाह (अपने हाथों से) लिखते हैं, वे (अपने सारे) खानदान को (ही संसार समुंद्र में से) पार लंघा लेते हैं। जिन मनुष्यों को गुरू का मिलाप होता है, वे परमात्मा के नाम (-सिमरन) का आनन्द लेते हैं, वे परमात्मा की याद को अपने मन में टिका लेते हैं। जिस के ऊपर प्रभू ने कृपा की, उस ने प्रभू को अपने मन में बसाया और अपना जीवन खूबसूरत बना लिया। प्रभू ने जिस (भाग्यशाली मनुष्य) का हाथ थाम लिया, उसको उसने अपनी सिफत सलाह (की दाति) दी, वह मनुष्य फिर जूनियों में नहीं दौड़ा फिरता, उसे आत्मिक मौत नहीं आती।

दया के घर, कृपा के घर सतिगुरू को मिल के (और खसम प्रभू को सिमर के) जिन्होंने (अपने अंदर से) काम, क्रोध, लोभ (आदिक विकारों) को मार लिया है, उनके आत्मिक जीवन प्रफुल्लित हो जाते हैं।

पति प्रभू अकथनीय है (उसका रूप) बयान नहीं किया जा सकता। नानक उससे सदके जाता है कुर्बान जाता है।5।1।3।

नोट: इस ‘छंत’ के पाँच ‘बंद’ हैं। अपनी किस्म का ये एक छंद है सारे छंदों का जोड़ 3 है।

महला 3: का 1शबद

महला 5: का 2शबद कुल 3 शबद।

सिरीरागु महला ४ वणजारा    ੴ सति नामु गुर प्रसादि ॥ हरि हरि उतमु नामु है जिनि सिरिआ सभु कोइ जीउ ॥ हरि जीअ सभे प्रतिपालदा घटि घटि रमईआ सोइ ॥ सो हरि सदा धिआईऐ तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ जो मोहि माइआ चितु लाइदे से छोडि चले दुखु रोइ ॥ जन नानक नामु धिआइआ हरि अंति सखाई होइ ॥१॥ मै हरि बिनु अवरु न कोइ ॥ हरि गुर सरणाई पाईऐ वणजारिआ मित्रा वडभागि परापति होइ ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 81}

उच्चारण: सिरी राग महला ४ वणजारा (ੴ ) इक ओअंकार सतिनाम गुरप्रसादि॥ हरि हरि उतम नाम है जिनि सिरिआ सभ कोइ जीउ॥ हरि जीअ सभे प्रतिपालदा घटि घटि रमईआ सोय॥ सो हरि सदा धिआईअै तिस बिन अवर न कोय॥ जो मोह मायआ चिति लाइदे से छोडि चले दुख रोय॥ जन नानक नाम धिआयआ हरि अंति सखाई होय॥१॥ मै हरि बिन अवर न कोय॥ हरि गुर सरणाई पाईअै वणजारिआ मित्रा वडभागि परापति होय॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि नामु = हरी का नाम। जिनि = जिस (हरी) ने। सिरिआ = (सृजना = पैदा करना), पैदा किया। सभु कोइ = हरेक जीव। जीअ = (‘जीव’ का बहुवचन)। घटि घटि = हरेक घट में। रमईआ = सुंदर राम। मोहि = मोह में। दुखु रोइ = दुख रो के, गिड़गिड़ा के। अंति = (जब सारे और साथ छूट जाते हैं), आखिर को, जरूर। सखाई = मददगार।1।

अर्थ: जिस हरि ने (जगत में) हरेक जीव को पैदा किया है, उस हरि का नाम श्रेष्ठ है, वह हरि सारे जीवों की पालना करता है, और वह सुंदर राम हरेक शरीर में व्यापक है। (हे भाई!) उस हरि का सदा ध्यान धरना चाहिए, उसके बिना (जीव का) कोई और (आसरा) नहीं है।

जो लोग माया के मोह में (अपना) चिक्त लगाए रखते हैं, वे (मौत आने पर) दुख में रो रो के (सभ कुछ) छोड़ कर जाते हैं। (पर) हे दास नानक! जिन्होंने (जिंदगी में) हरि का नाम सिमरा, हरि उनका जरूर मददगार बनता है।१।

(हे भाई!) मेरा तो परमात्मा के बिना और कोई (आसरा) नही है। हरि नाम का वणज करने आए हे मित्र! (गुरू की शरण पड़) गुरू की शरण पड़ने से ही हरी (का नाम) मिलता है, जो बड़े भाग्यों से ही मिलता है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh