श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माझ महला ५ ॥ भए क्रिपाल गोविंद गुसाई ॥ मेघु वरसै सभनी थाई ॥ दीन दइआल सदा किरपाला ठाढि पाई करतारे जीउ ॥१॥ अपुने जीअ जंत प्रतिपारे ॥ जिउ बारिक माता समारे ॥ दुख भंजन सुख सागर सुआमी देत सगल आहारे जीउ ॥२॥ जलि थलि पूरि रहिआ मिहरवाना ॥ सद बलिहारि जाईऐ कुरबाना ॥ रैणि दिनसु तिसु सदा धिआई जि खिन महि सगल उधारे जीउ ॥३॥ राखि लीए सगले प्रभि आपे ॥ उतरि गए सभ सोग संतापे ॥ नामु जपत मनु तनु हरीआवलु प्रभ नानक नदरि निहारे जीउ ॥४॥२९॥३६॥ {पन्ना 105}

पद्अर्थ: गुसाई = गो+सांई, धरती का मालिक। मेघु = बादल। वरसै = बरसता है। ठाढि = ठंड। करतारे = करतार ने।1।

प्रतिपारे = पालता है।, रक्षा करता है। संमारे = सम्भालती है। सुख सागर = सुखों का समुंद्र। आहारै = आहार, खुराक।2।

जलि = पानी में। थलि = धरती में। सद = सदा। रैणि = रात। जि = जो (प्रभू)। उधारे = (विकारों से) बचाता है।3।

प्रभि = प्रभू ने। संतापे = दुख कलेश। प्रभि = हे प्रभू!। निहारे = देखे।4।

अर्थ: (जैसे) बादल (ऊँचे-नीचे) हर जगह पर वर्षा करते हैं, (वैसे ही) सृष्टि का पति परमात्मा (सभ जीवों पर) दयावान होता है। उस करतार ने जो दीनों पर दया करने वाला है जो सदा ही कृपा का घर है (सेवकों के हृदय में नाम की बरकति से) शांति की दाति बख्शी हुई है।1।

(हे भाई!) जैसे माँ अपने बच्चों की संभाल करती है, वैसे ही परमात्मा अपने (पैदा किए) सारे जीव जंतुओं की पालना करता है। (सब के) दुखों के नाश करने वाले और सुखों के समुंद्र मालिक प्रभू सब जीवों को खुराक देता है।2।

(हे भाई!) मेहर करने वाला परमात्मा पानी में धरती में (हर जगह) व्याप रहा है। उससे सदके जाना चाहिए। कुर्बान होना चाहिए। (हे भाई!) जो परमातमा सब जीवों को एक पल में (संसार समुंद्र से) बचा सकता है, उसे दिन रात हर समय सिमरना चाहिए।3।

(जो जो भाग्यशाली प्रभू की शरण आए) प्रभू ने वो सारे स्वयं (दुख कलेशों से) बचा लिए। उनके सारे चिंता फिक्र, सारे दु:ख कलेश दूर हो गए। परमातमा का नाम जपने से मनुष्य का मन, मनुष्य का शरीर में (उच्च आत्मिक जीवन की) हरियाली (का स्वरूप) बन जाती है। हे नानक! (अरदास कर और कह) हे प्रभू! (मेरे पर भी) मेहर की निगाह कर (मैं भी तेरा नाम सिमरता रहूँ)।4।29।36।

माझ महला ५ ॥ जिथै नामु जपीऐ प्रभ पिआरे ॥ से असथल सोइन चउबारे ॥ जिथै नामु न जपीऐ मेरे गोइदा सेई नगर उजाड़ी जीउ ॥१॥ हरि रुखी रोटी खाइ समाले ॥ हरि अंतरि बाहरि नदरि निहाले ॥ खाइ खाइ करे बदफैली जाणु विसू की वाड़ी जीउ ॥२॥ संता सेती रंगु न लाए ॥ साकत संगि विकरम कमाए ॥ दुलभ देह खोई अगिआनी जड़ अपुणी आपि उपाड़ी जीउ ॥३॥ तेरी सरणि मेरे दीन दइआला ॥ सुख सागर मेरे गुर गोपाला ॥ करि किरपा नानकु गुण गावै राखहु सरम असाड़ी जीउ ॥४॥३०॥३७॥ {पन्ना 105}

पद्अर्थ: जपीअै = जपा जाता है। से = वह (‘सो’ का बहुवचन)। असथल = (स्थल) टिॅबे, ऊची नीची जगह। सोइन = सोने के। गोइदा = हे गोबिंद।1।

हरि समाले = हरि को (हृदय में) संभालता है। खाइ = ख के। नदरि = मेहर की नजर से। निहाले = देखता है। बदफैली = बुरे काम। जाणु = समझो। विसू की = जहर की। वाड़ी = बगीची।2।

सेती = साथ। रंगु = प्रेम। साकत = परमात्मा से टूटे हुए लोग, माया में फंसे जीव। विकरम = कुकर्म। देह = शरीर। उपाड़ी = उखाड़ ली।3।

नानक गावै = नानक गाता रहे। सरम = लाज, इज्जत। असाड़ी = हमारी।4।

अर्थ: (हे भाई!) जिस जगह पे प्यारे प्रभू का नाम सिमरते रहें, वह ऊची जीची जगह भी (मानो) सोने के चौबारे हैं। पर, हे मेरे गोबिंद! जिस स्थान पे तेरा नाम ना जपा जाए, वो (बसे हुए) शहर भी उजाड़ (समान) हैं।1।

(हे भाई!) जो मनुष्य रूखी रोटी खा के भी परमात्मा (का नाम अपने हृदय में) संभाल के रखता है। परमात्मा उसके अंदर बाहर हर जगह उस पर अपनी मिहर की निगाह रखता है। जो मनुष्य दुनिया के पदार्थ खा खा के बुरे काम ही करता रहता है, उसे जहर की बगीची जानो।2।

जो मनुष्य संत जनों के साथ प्रेम नहीं बनाता, और परमात्मा से टूटे हुए लोगों के साथ (मिल के) बुरे कर्म करता रहता है, उस बे-समझ ने ये अति कीमती शरीर व्यर्थ गवा लिया, वह अपनी जड़ें स्वयं ही काट रहा है।3।

हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभू! हे सुखों के समुंद्र! हे सृष्टि के सबसे बड़े पालक! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेहर करो (तेरा दास) नानक तेरे गुण गाता रहे। (हे प्रभू!) हमारी लाज रखो (हम विकारों में ख्वार ना होएं)।4।30।47।

माझ महला ५ ॥ चरण ठाकुर के रिदै समाणे ॥ कलि कलेस सभ दूरि पइआणे ॥ सांति सूख सहज धुनि उपजी साधू संगि निवासा जीउ ॥१॥ लागी प्रीति न तूटै मूले ॥ हरि अंतरि बाहरि रहिआ भरपूरे ॥ सिमरि सिमरि सिमरि गुण गावा काटी जम की फासा जीउ ॥२॥ अम्रितु वरखै अनहद बाणी ॥ मन तन अंतरि सांति समाणी ॥ त्रिपति अघाइ रहे जन तेरे सतिगुरि कीआ दिलासा जीउ ॥३॥ जिस का सा तिस ते फलु पाइआ ॥ करि किरपा प्रभ संगि मिलाइआ ॥ आवण जाण रहे वडभागी नानक पूरन आसा जीउ ॥४॥३१॥३८॥ {पन्ना 105}

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। समाणे = टिक गए। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। पइआणे = चले गए, कूच कर गए (प्रया = कूच कर जाना)। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की रौं। साधू = गुरू।1।

मूले = मूल, बिल्कुल। गावा = गाया।2।

अनहद बाणी = एक रस सिफत सलाहकी बाणी के द्वारा। अनहद = लगातार, एकरस। सतिगुरि = सतिगुरू ने। दिलासा = हौसला, धीरज।3।

सा = था। ते = से, द्वारा। आवण जाण = जनम मरन का चक्कर।4।

अर्थ: जिस मनुष्य का निवास गुरू की संगति में बना रहता है, उसके हृदय में पालनहार प्रभू के चरण (सदैव) टिके रहते हैं। उसके अंदर से सभ तरह के झगड़े दुख कलेश कूच कर जाते हैं और उसके हृदय में शांत आत्मिक आनंद आत्मिक अडोलता की लहिर पैदा हो जाती है।1।

जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम सिमर सिमर के उसकी सिफत सलाह के गीत गाता रहता है, उसकी जमों की फाही काटी जाती है। प्रभू चरणों के साथ लगी हुई उसकी प्रीति बिल्कुल नहीं टूटती, और उसको अपने अंदर और बाहर जगत में हर जगह परमात्मा ही व्यापक दिखता है।2।

हे प्रभू! जिन सौभाग्यशालियों को विकारों का टाकरा करने के लिए) गुरू ने हौसला दिया, वह तेरे सेवक (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तरह से तृप्त हो जाते हैं, उनके अंदर सिफत सलाह की बाणी की बरकति से एक रस नाम अंमृत की बरखा होती है। उनके मन में उनके शरीर में (ज्ञानेंद्रियों में) शांति टिकी रहती है।3।

(गुरू ने) कृपा करके (जिस मनुष्य को) प्रभू के चरणों में जोड़ दिया उसने उस प्रभू से जीवन मनोरथ प्राप्त कर लिया, जिसका वह भेजा हुआ है। हे नानक! उस सौभाग्यशाली मनुष्य के जनम मरन के चक्कर खत्म हो गए, उसकी आशाएं पूरी हो गई (भाव, आसा-तृष्णा आदि उसे व्यथित, दुखी नही कर सकतीं)।4।31।38।

माझ महला ५ ॥ मीहु पइआ परमेसरि पाइआ ॥ जीअ जंत सभि सुखी वसाइआ ॥ गइआ कलेसु भइआ सुखु साचा हरि हरि नामु समाली जीउ ॥१॥ जिस के से तिन ही प्रतिपारे ॥ पारब्रहम प्रभ भए रखवारे ॥ सुणी बेनंती ठाकुरि मेरै पूरन होई घाली जीउ ॥२॥ सरब जीआ कउ देवणहारा ॥ गुर परसादी नदरि निहारा ॥ जल थल महीअल सभि त्रिपताणे साधू चरन पखाली जीउ ॥३॥ मन की इछ पुजावणहारा ॥ सदा सदा जाई बलिहारा ॥ नानक दानु कीआ दुख भंजनि रते रंगि रसाली जीउ ॥४॥३२॥३९॥ {पन्ना 105-106}

पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला। समाली = मैं संभालता हूँ।1।

जिस के = (यहां ‘जिस’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हट गई है)।

तिनि ही = उन ही।

(‘तिनि’ एक वचन है जिसका अर्थ है ‘उसने’; ‘तिन’ बहुवचन है अर्थ है ‘उन्होंने’। शब्द ‘तिनि’ क्रिया विषोशण ‘ही’ के कारण ‘तिन’ बन जाता है, पर अर्थ में एकवचन ही रहता है = ‘उसने ही’)।

ठाकुरि = ठाकुर ने। घाली = मेहनत।2।

कउ = को। नदरि = मेहर की निगाह से। निहारा = देखता है। महीअल = मही तल, धरती के ऊपर का हिस्सा, आकाश, अंतरिक्ष। त्रिपताणे = तृप्त हो गए। पखाली = मैं धोता हूँ।3।

जाई = मैं जाता हूँ। दुख भंजनि = दुखों के नाश करने वाले प्रभू ने। रंगि = प्रेम में। रसाली = रस+आलय, रसों के घर प्रभू। रंगि रसाली = सभ रसों के मालिक प्रभू के प्रेम में।4।

अर्थ: (जैसे जैसे) बारिश हुई (जब) परमेश्वर ने बरसात की तो उसके सारे जीव जन्तु सुखी बसा दिए। (वैसे ही, ज्यों ज्यों) मैं परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाता हूँ मेरे अंदर से दुख कलेश खत्म होता जाता है और सदा स्थिर रहने वाला आत्मिक आनंद मेरे अंदर टिकता जाता है।1।

(जैसे बरसात करके) पारब्रहम प्रभू उन सारे जीव जन्तुओं की पालना करता है जो उसने पैदा किए हुए हैं सबका रक्षक बनता है (वैसे ही उसके नाम की बरखा वास्ते जब जब मैंने विनती की तो) मेरे पालणहार प्रभू ने मेरी विनती सुनी और मेरी (सेवा भगती की) मेहनत सिरे चढ़ गई।2।

जो प्रभू सब जीवों को दातें देने की समर्था रखता है (जिसकी कृपा से) पानी धरती व धरती के ऊपर के अंतरिक्ष के सारे जीव जंतु उसकी दातों से तृप्त हो रहे हैं। उस प्रभू ने गुरू की कृपा से (मुझे भी) मेहर की निगाह से देखा (और मेरे हृदय में नाम बरखा करके मुझे माया की तृष्णा की ओर से तृप्त कर दिया, तभी तो) मैं गुरू के चरण धोता हूँ।

परमात्मा सब जीवों के मन की कामना पूरी करने वाला है। मैं उससे सदा ही सदा ही सदके जाता हूँ। हे नानक! (जीवों के) दुख नाश करने वाले प्रभू ने (जिन्हें नाम की) दाति बख्शी वह उस सारे रसों के मालिक प्रभू के प्रेम में रंगे गए।4।32।39।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh