श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु गउड़ी गुआरेरी महला १ चउपदे दुपदे    

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

भउ मुचु भारा वडा तोलु ॥ मन मति हउली बोले बोलु ॥ सिरि धरि चलीऐ सहीऐ भारु ॥ नदरी करमी गुर बीचारु ॥१॥ भै बिनु कोइ न लंघसि पारि ॥ भै भउ राखिआ भाइ सवारि ॥१॥ रहाउ ॥ भै तनि अगनि भखै भै नालि ॥ भै भउ घड़ीऐ सबदि सवारि ॥ भै बिनु घाड़त कचु निकच ॥ अंधा सचा अंधी सट ॥२॥ बुधी बाजी उपजै चाउ ॥ सहस सिआणप पवै न ताउ ॥ नानक मनमुखि बोलणु वाउ ॥ अंधा अखरु वाउ दुआउ ॥३॥१॥ {पन्ना 151}

नोट: अगर दो मनुष्यों के जीवन को तौलें; एक के अंदर प्रभू का डर और दूसरे के अंदर अपने मन की मति हो। पहले का जीवन गउरा गंभीर होगा, दूसरे का हल्के मेल का।

पद्अर्थ: भउ = प्रभू का डर, ये यकीन कि प्रभू मेरे अंदर बसता व सबमें बसता है। मुचु = बहुत। मन मति = मन के पीछे चलने वाली मति। हउली = हल्की, होछी। बोलु = होछा बोल। सिरि = सिर पे। धरि = धर के। चलीअै = जीवन गुजारें। भारु = प्रभू के डर का भार। नदरी = प्रभू की (मेहर की) नजर से। करमी = प्रभू की बख्शिश से।1।

भै बिनु = प्रभू का डर (हृदय में रखने) के बिना। भै = प्रभू के डर में (रह के)। भाइ = प्रेम से। सवारि = सवार के, सजा के, सोहना बना के।1। रहाउ।

तनि = तन में, शरीर में। अगनि = प्रभू को मिलने की आग, तमन्ना। भखै = भखती है, और तेज होती है। भै नालि = प्रभू का डर रखने से, ज्यों ज्यों इस यकीन में जीएं कि वह हमारे अंदर और सबके अंदर बसता है। भउ घढ़ीअै = भउ रूप घाढ़त घढ़ी जाती है, प्रभू के डर में रहने का स्वभाव बनता जाता है। सवारि = सवार के। घाढ़त = जीवन की घाढ़त। कच = होछी, बेरसी। निकच = बिल्कुल होछी। सचा = सांचा, कलबूत जिसमें कोई नई चीज ढाली जाती है। सट = चोट, उद्यम। अंधा = अंधा, ज्ञानहीन, होछापन पैदा करने वाला।2।

बाजी = संसार खेल। चाउ = सांसारिक चाव। सहस = हजारों। पवै न ताउ = सेक नहीं पड़ता, असर नहीं होता, मन ढलता नहीं। वाउ = हवा जैसा। वाउ दुआउ = व्यर्थ फजूल।3।

अर्थ: (संसार विकारों भरा एक ऐसा समुंद्र है जिसमें परमातमा का) डर हृदय में बसाए बिना कोई पार नहीं गुजर सकता। (सिर्फ वही पार गुजरता है जिसने) प्रभू के डर में रह के और (प्रभू) प्यार के द्वारा (अपना जीवन) सवार के प्रभू का डर अदब (अपने हृदय में) टिका के रखा हुआ है (भाव, जिसने ये श्रद्धा बना ली है कि प्रभू मेरे अंदर और सबमें बसता है)।1। रहाउ।

प्रभू का डर बहुत भारी है इसका तौल बड़ा है (भाव, जिस मनुष्य के अंदर प्रभू का डर अदब बसता है उसका जीवन ठोस व गंभीर बन जाता है)। जिसकी मति उसके मन के पीछे चलती है वह होछी रहती है। वह होछा ही वचन बोलता है। अगर प्रभू का डर सिर पर धर के (भाव, कबूल करके) जीवन गुजारें और उसके डर का भार सह सकें (भाव, प्रभू का डर अदब सुखदायी लगने लग पड़े) तो प्रभू के मेहर की नजर से प्रभू की बख्शिश से (मानवता बारे) गुरू की (बताई हुई) विचार (जीवन का हिस्सा बन जाती है)।1।

प्रभू के डर-अदब में रहने से मनुष्य के अंदर प्रभू को मिलने की चाह टिकी रहती है। गुरू के शबद के द्वारा (आत्मिक जीवन को) सुंदर बना के ज्यों ज्यों इस यकीन में जीएं कि प्रभू हमारे अंदर है और सबके अंदर मौजूद है, ये चाहत और तेज होती जाती है। प्रभू का डर अदब रखे बिना (हमारे जीवन का विकास) हमारे मन की घाढ़त होछी हो जाती है, बिल्कुल होछी बनती जाती है, (क्योंकि) जिस साँचे में जीवन ढलता है वह होछापन पैदा करने वाला होता है, हमारे यत्न भी अज्ञानता वाले ही होते हैं।2।

हे नानक! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की बुद्धि जगत-खेल में लगी रहती है। (जगत तमाशों का ही) चाव उसके अंदर पैदा होता रहता है। मनमुख चाहे हजारों अच्छाईआं भी करे, उसका जीवन ठीक साँचे में नहीं ढलता। मनमुख के बेअर्थ बोल होते हैं, वह अंधा ऊल-जलूल बातें ही करता है।3।1।

गउड़ी महला १ ॥ डरि घरु घरि डरु डरि डरु जाइ ॥ सो डरु केहा जितु डरि डरु पाइ ॥ तुधु बिनु दूजी नाही जाइ ॥ जो किछु वरतै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ डरीऐ जे डरु होवै होरु ॥ डरि डरि डरणा मन का सोरु ॥१॥ रहाउ ॥ ना जीउ मरै न डूबै तरै ॥ जिनि किछु कीआ सो किछु करै ॥ हुकमे आवै हुकमे जाइ ॥ आगै पाछै हुकमि समाइ ॥२॥ हंसु हेतु आसा असमानु ॥ तिसु विचि भूख बहुतु नै सानु ॥ भउ खाणा पीणा आधारु ॥ विणु खाधे मरि होहि गवार ॥३॥ जिस का कोइ कोई कोइ कोइ ॥ सभु को तेरा तूं सभना का सोइ ॥ जा के जीअ जंत धनु मालु ॥ नानक आखणु बिखमु बीचारु ॥४॥२॥ {पन्ना 151}

पद्अर्थ: डरि = डर से, प्रभू के डर-अदब में रहने से। घरु = प्रभू का घर, वह आत्मिक अवस्था जहां मन प्रभू चरणों में जुड़ा रहता है। घरि = घर में, हृदय में। डरु = प्रभू का डर, ये यकीन कि प्रभू मेरे अंदर बसता है और सबमें बसता है। डरु जाइ = (दुनिया का हरेक किस्म का) सहम दूर हो जाता है। सो डरु केहा = प्रभू का डर ऐसा नहीं होता कि। जितु डरि = कि उस डर में रहने से। डरु पाइ = दुनिया वाला सहम टिका रहे। जाइ = जगह। रजाइ = हुकम, मर्जी।1।

डरीअै = सहमे रहें। होरु = कोई और, किसी और (stranger) का। डरि डरि डरणा = सदा डरते रहना। सोरु = शोर, घबराहट, डोलने की निशानी।1। रहाउ।

जीउ = जीवात्मा। जिनि = जिस प्रभू ने। किछु = ये जगत रचना। सो = वही प्रभू। किछु = सब कुछ। आवै = पैदा होता है। जाइ = मरता है। आगै पाछै = लोक परलोक में। समाइ = टिका रहता है, टिका रहना पड़ता है।2।

हंसु = हिंसा, निर्दयता। हेतु = मोह। असमानु = स्वैमान (जैसे स्वरूप से असरूप) अहंकार। भूख = तृष्णा। नै = नदी। सानु = की तरह। आधारु = (आत्मिक जीवन का) आसरा। मरि = मर के, डर में खप के, डर डर के। गवारि होहि = गवार हुए जा रहे हैं।3।

जिस का = जिस किसी का। जिस का कोइ = जिस किसी का कोई (सहारा) बनता है। कोई कोइ कोइ = कोई विरला ही बनता है। सभ को = हरेक जीव। सोइ = सार लेने वाला।4।

अर्थ: (हे प्रभू!) तेरे डर-अदब में रहने से वह आत्मिक अवस्था मिल जाती है जहां मन तेरे चरणों में जुड़ा रहता है। हृदय में ये यकीन बन जाता है कि तू मेरे अंदर बसता है और सभमें बसता है। तेरे डर में रहने से (दुनिया के हरेक किस्म का) डर सहम दूर हो जाता है। तेरा डर ऐसा नहीं होता कि उस डर में रहने से कोई और सहम टिका रहे।

(हे प्रभू!) तेरे बिना जीव का कोई और ठिकाना-आसरा नहीं है। जगत में जो कुछ हो रहा है सब तेरी मर्जी से हो रहा है।1।

(हे प्रभू!तेरा डर-अदब टिकने की जगह) अगर जीव के हृदय में कोई और डर टिका रहे, तो जीव सदा सहमा रहता है। मन की घबराहट मन का सहम हर वक्त बना रहता है।1। रहाउ।

(प्रभू के डर-अदब में रहने से ही ये यकीन बन सकता है कि) जीव ना मरता है। ना कहीं डूब सकता है ना ही कहीं से तैरता है (भाव, जो कभी डूबता ही नही, उसके तैरने का सवाल ही पैदा नहीं होता)। (ये यकीन बना रहता है कि) जिस परमात्मा ने ये जगत बनाया है, वही सब कुछ कर रहा है। उसके हुकम में ही जीव पैदा होता है और हुकम में ही मरता है। लोक परलोक में जीव को उसके हुकम में टिके रहना पड़ता है।2।

(जिस हृदय में प्रभू का डर-अदब नहीं है– मोह है, अहंकार है) उस हृदय में तृष्णा की कांग नदी की तरह (ठाठा मार रही) है। प्रभू का डर अदब ही आत्मिक जीवन की खुराक है, आत्मा का आसरा है। जो ये खुराक नहीं खाते वह (दुनिया के) सहम में रहके कमले हुए रहते हैं।3।

(हे प्रभू! तेरे डर-अदब में रहने से ही ये यकीन बनता है कि) जिस किसी का कोई सहयोगी बनता है कोई विरला ही बनता है (भाव, किसी का कोई सदा के लिए साथी सहायक नहीं बन सकता)। पर, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है, तू सब की सार रखने वाला है।

हे नानक! जिस परमात्मा के ये सारे जीव-जन्तु पैदा किए हुए हैं (जीवों के वास्ते) उसी का ये धन माल (बनाया हुआ) है। (इससे ज्यादा ये) विचारना और कहना (कि वह प्रभू अपने पैदा किए जीवों की कैसे संभाल करता है) कठिन काम है।4।2।

गउड़ी महला १ ॥ माता मति पिता संतोखु ॥ सतु भाई करि एहु विसेखु ॥१॥ कहणा है किछु कहणु न जाइ ॥ तउ कुदरति कीमति नही पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सरम सुरति दुइ ससुर भए ॥ करणी कामणि करि मन लए ॥२॥ साहा संजोगु वीआहु विजोगु ॥ सचु संतति कहु नानक जोगु ॥३॥३॥ {पन्ना 151-152}

नोट: इस शबद में जीव–स्त्री तथा प्रभू पति के योग (मिलाप) का जिक्र है।

पद्अर्थ: मति = ऊँची मति। सतु = दान, खलकत की सेवा। विसेखु = विशेष तौर पर। ऐहु सतु विसेखु भाई = इस दान को विशेष तौर पर भाई। करि = करे, बनाए।1।

कहणा है = (रक्ती मात्र) बयान है। तउ = तेरी।1। रहाउ।

सरम = श्रम, मेहनत, उद्यम। दुइ = दोनों (उद्यम और ऊँची सुरति)। ससुर = ससुर और सास। करणी = उक्तम जिंदगी। कामणि = स्त्री। मन = हे मन! करि लऐ = (जीव) बना लिए।2।

साहा = विवाह के लिए शोधित महूरत। संजोगु = मिलाप, सत्संग। विजोगु = दुनिया से विछोड़ा, निर्मोहता। संतति = संतान। जोगु = मिलाप, प्रभू मिलाप।3।

अर्थ: हे प्रभू!तेरे साथ मिलाप की अवस्था बयान नहीं हो सकती। रक्ती मात्र बताई है, (क्योंकि) तेरी कुदरत का पूरा मूल्य नहीं पड़ सकता (भाव, कुदरति कैसी है– ये बताया नहीं जा सकता)।1। रहाउ।

अगर कोई जीव-स्त्री श्रेष्ठ मति को अपनी माँ बना ले (श्रेष्ठ मति की गोद में पले), संतोष का अपना पिता बनाए (संतोष रूपी पिता की निगरानी में रहे), खलकत की सेवा को विशेष भाई बनाए (ख़लकत की सेवा रूपी भाई का जीवन पर विशेष असर पड़े)।1।

उद्यम और ऊँची सुरति, ये दोनों उस जीव स्त्री के सास-ससुर बनें। और हे मन! अगर जीव उक्तम जिंदगी को स्त्री बना ले।2।

अगर सत्संग (में जाना) प्रभू के साथ विवाह का साहा निहित हो (जैसे विवाह के लिए निहित हुआ साहा टाला नहीं जा सकता, वैसे सत्संग से कभी ना टूटे)। अगर (सत्संग में रह के दुनिया से) निर्मोह रूप (प्रभू से) विवाह हो जाए; तो (इस विवाह में से) सत्य (भाव, प्रभू का सदा हृदय में टिके रहना, उस जीव स्त्री की) संतान है।

हे नानक! कह–ये है (सच्चा) प्रभू मिलाप।3।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh