श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ निरगुण कथा कथा है हरि की ॥ भजु मिलि साधू संगति जन की ॥ तरु भउजलु अकथ कथा सुनि हरि की ॥१॥ गोबिंद सतसंगति मेलाइ ॥ हरि रसु रसना राम गुन गाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जो जन धिआवहि हरि हरि नामा ॥ तिन दासनि दास करहु हम रामा ॥ जन की सेवा ऊतम कामा ॥२॥ जो हरि की हरि कथा सुणावै ॥ सो जनु हमरै मनि चिति भावै ॥ जन पग रेणु वडभागी पावै ॥३॥ संत जना सिउ प्रीति बनि आई ॥ जिन कउ लिखतु लिखिआ धुरि पाई ॥ ते जन नानक नामि समाई ॥४॥२॥४०॥ {पन्ना 164}

पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से ऊपर। भजु = सिमर। तरु = पार हो। अकथ कथा = उस परमात्मा की सिफत सालाह जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।1।

गोबिंद = हे गोबिंद! रसु = स्वाद। रसना = जीभ। गाइ = गाए।1। रहाउ।

जो जन = जो लोग। दासनि दास = सेवकों के सेवक। रामा = हे राम! कामा = काम।2।

हमरै मनि चिति = मेरे मन में, मेरे चित्त में। भावै = अच्छा लगता है। पग = पैर। रेणु = धूड़। पग रेणु = पैरों की खाक।3।

सिउ = साथ। लिखतु = लेख। धुरि = धुर से। ते जन = वे लोग। समाई = लीनता।4।

अर्थ: हे गोबिंद! (मुझे) साध-संगति का मिलाप बख्श (ताकि मेरी) जीभ हरी नाम का स्वाद ले के हरी गुण गाती रहे।1। रहाउ।

परमात्मा की सिफत सालाह की बातें तीनों गुणों से ऊपर हैं (दुनिया के लोगों की प्रशंसा की कहानियों से बहुत ऊँची हैं)।

(हे भाई!) साधु जनों की संगति में मिल के (उस परमात्मा का) भजन करा कर। उस परमात्मा की सिफत सालाह सुना कर, जिसके गुण बताए नहीं जा सकते (और, सिफत सालाह की बरकति से) संसार समुंद्र से पार गुजर।1।

हे हरी! हे राम! जो मनुष्य तेरा नाम सिमरते हैं, मुझे उनके दासों का दास बना। (तेरे) दासों की सेवा (मनुष्य जीवन में सबसे) श्रेष्ठ कर्म है।2।

(हे भाई!) जो मनुष्य (मुझे) परमात्मा (की सिफत सालाह) की बातें सुनाता है, वह (मुझे) मेरे मन में मेरे चित्त में प्यारा लगता है। (परमात्मा के) भक्त के पैरों की ख़ाक कोई भाग्यशाली मनुष्य ही हासिल करता है।3।

हे नानक! (प्रभू के) संत जनों से (उन मनुष्यों की) प्रीति निभती है, जिन के माथे पे परमात्मा ने धुर से ही (अपनी दरगाह से अपनी बख्शिश का) लेख लिख दिया हो, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में (सदा के लिए) लीनता हासिल कर लेते हैं।4।2।40।

गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ माता प्रीति करे पुतु खाइ ॥ मीने प्रीति भई जलि नाइ ॥ सतिगुर प्रीति गुरसिख मुखि पाइ ॥१॥ ते हरि जन हरि मेलहु हम पिआरे ॥ जिन मिलिआ दुख जाहि हमारे ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ मिलि बछरे गऊ प्रीति लगावै ॥ कामनि प्रीति जा पिरु घरि आवै ॥ हरि जन प्रीति जा हरि जसु गावै ॥२॥ सारिंग प्रीति बसै जल धारा ॥ नरपति प्रीति माइआ देखि पसारा ॥ हरि जन प्रीति जपै निरंकारा ॥३॥ नर प्राणी प्रीति माइआ धनु खाटे ॥ गुरसिख प्रीति गुरु मिलै गलाटे ॥ जन नानक प्रीति साध पग चाटे ॥४॥३॥४१॥ {पन्ना 164}

पद्अर्थ: प्रीति = खुशी (प्रीति = pleasure, प्री = to take delight)। प्रीति करे = खुशी मनाती है। मीने = मछली। जलि = पानी में। नाइ = नहा के। मुखि = मुंह में।1।

हरि = हे हरी! हम = मुझे।1। रहाउ।

मिलि = मिल के। बछरे = बछरे को। कामनि = स्त्री। पिरु = पति। घरि = घर में।2।

सारिंग = पपीहे को। जल धारा = पानी की धार, बरखा। नरपति = राजा। देखि = देख के।3।

नर प्राणी = हरेक मनुष्य को। गुरसिख = गुरू के सिख को। गलाटे = गले लगा के। चाटे = चूमने से।4।

अर्थ: हे हरी! मुझे अपने वह सेवक मिला, जिनके मिलने से मेरे सारे दुख दूर हो जाएं (और मेरे अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो जाए)।1। रहाउ।

(हरेक) माँ खुशी मनाती है जब उसका पुत्र (कोई अच्छी चीज) खाता है। पानी में नहा के मछली को प्रसन्नता होती है। गुरू को खुशी मिलती है, जब कोई मनुष्य किसी गुरसिख के मुंह में (भोजन) डालता है (जब कोई किसी गुरसिख की सेवा करता है)।1।

जैसे (अपने) बछड़े को मिल के गाय खुश होती है, जैसे स्त्री को खुशी होती है जब उसका पति घर आता है। (वैसे ही) परमात्मा के सेवक को तभी खुशी मिलती है जब वह परमात्मा की सिफत-सालाह गाता है।2।

पपीहे को खुशी होती है जब (स्वाति नछत्र में) मूसले धार वर्षा होती है, माया का फैलाव देख के (किसी) राजे-पातशाह को खुशी मिलती है। (वैसे ही) प्रभू के दास को खुशी होती है जब वह प्रभू का नाम जपता है।3।

हरेक मनुष्य को खुशी होती है जबवह माया अर्जित करता है धन कमाता है। गुरू के सिख को खुशी (महिसूस) होती है जब उसे उसका गुरू गले लगा के मिलता है। हे नानक! परमात्मा के सेवक को खुशी होती है जबवह किसी गुरमुखि के पैर चूमता है।4।3।41।

गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ भीखक प्रीति भीख प्रभ पाइ ॥ भूखे प्रीति होवै अंनु खाइ ॥ गुरसिख प्रीति गुर मिलि आघाइ ॥१॥ हरि दरसनु देहु हरि आस तुमारी ॥ करि किरपा लोच पूरि हमारी ॥१॥ रहाउ ॥ चकवी प्रीति सूरजु मुखि लागै ॥ मिलै पिआरे सभ दुख तिआगै ॥ गुरसिख प्रीति गुरू मुखि लागै ॥२॥ बछरे प्रीति खीरु मुखि खाइ ॥ हिरदै बिगसै देखै माइ ॥ गुरसिख प्रीति गुरू मुखि लाइ ॥३॥ होरु सभ प्रीति माइआ मोहु काचा ॥ बिनसि जाइ कूरा कचु पाचा ॥ जन नानक प्रीति त्रिपति गुरु साचा ॥४॥४॥४२॥ {पन्ना 164}

पद्अर्थ: भीखक = मंगते को। प्रीति = खुशी। भीख प्रभ = किसी गृहस्ती के घर से भिक्षा। पाइ = पा के, ले के। प्रभ = किसी घर के मालिक। खाइ = खा के। गुर मिलि = गुरू को मिल के। आघाऐ = तृप्त होता है, तृष्णा की ओर से तृप्त होता है।1।

हरि = हे हरी!। लोच = तांघ, तमन्ना।1। रहाउ।

मुखि लागै = मूंह लगता है, दिखाई देता है।2।

खीरु = दूध। मुखि = मुंह से। बिगसै = खुश होता है, खिलता है। माइ = माँ। मुखि लाइ = देख के।3।

काचा = कच्चा, जल्दी नाश होने वाला। कूरा = कूड़ा, कचरा, झूठा। कचुपाचा = काँच की तरह दिखावा ही। त्रिपति = संतोष, तृप्ति।4।

अर्थ: हे हरी! कृपा कर। मेरी तमन्ना पूरी कर, और मुझे दर्शन दे (जीवन के कठिन राह में मुझे) तेरी ही (सहायता की) उम्मीद है।1। रहाउ।

मंगते को (तब) खुशी होती है (जब उसको किसी घर के) मालिक से भिक्षा मिलती है। भूखे मनुष्य को (तब) खुशी मिलती है (जब वह) अन्न खाता है। (इसी तरह) गुरू के सिख को खुशी होती है जब गुरू को मिल के वह माया की तृष्णा से संतुष्ट होता है।1।

चकवी को खुशी होती है जब उसे सूरज दिखता है (क्योंकि सूरज के चढ़ने पर वह अपने) प्यारे (चकवे) को मिलती है (और विछोड़े के) सारे दुख भुलाती है। गुरसिख को खुशी होती है जब उसे गुरू दिखता है।2।

बछड़े को (अपनी माँ का) दूध मुंह से पी के खुशी होती है, वह (अपनी) माँ को देखता है और दिल में प्रसन्न होता है। (इसी तरह) गुरसिख को गुरू का दर्शन करके खुशी होती है।3।

(गुरू परमात्मा के बिना) और मोह कच्चा है माया की प्रीति सारी नाशवंत है। और मोह नाश हो जाते हैं, झूठे हैं, निरे काँच से कच्चे हैं। हे दास नानक! जिसे सच्चा गुरू मिलता है उसे (असल) खुशी होती है (क्योंकि उसे गुरू के मिलने से) संतोष प्राप्त होता है।4।4।42।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh