श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ किरसाणी किरसाणु करे लोचै जीउ लाइ ॥ हलु जोतै उदमु करे मेरा पुतु धी खाइ ॥ तिउ हरि जनु हरि हरि जपु करे हरि अंति छडाइ ॥१॥ मै मूरख की गति कीजै मेरे राम ॥ गुर सतिगुर सेवा हरि लाइ हम काम ॥१॥ रहाउ ॥ लै तुरे सउदागरी सउदागरु धावै ॥ धनु खटै आसा करै माइआ मोहु वधावै ॥ तिउ हरि जनु हरि हरि बोलता हरि बोलि सुखु पावै ॥२॥ बिखु संचै हटवाणीआ बहि हाटि कमाइ ॥ मोह झूठु पसारा झूठ का झूठे लपटाइ ॥ तिउ हरि जनि हरि धनु संचिआ हरि खरचु लै जाइ ॥३॥ इहु माइआ मोह कुट्मबु है भाइ दूजै फास ॥ गुरमती सो जनु तरै जो दासनि दास ॥ जनि नानकि नामु धिआइआ गुरमुखि परगास ॥४॥३॥९॥४७॥ {पन्ना 166}

पद्अर्थ: किरसाणी = खेती का काम। लोचै = उम्मीद करता है। जीउ लाइ = जी लगा के, मेहनत से। जोतै = जोतता है। अंति = अंत में।1।

गति = मुक्ति, ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।

तुरे = घोड़े। धावै = दौड़ता है, जाता है। बोलि = बोल के।2।

बिखु = (माया) जहर। संचै = संचित करता है, इकट्ठा करता है। हाटि = दुकान में। हरि जनि = हरी के जन ने।3।

कुटंबु = परिवार, खिलारा। भाइ दूजै = माया के मोह में, और और प्यार में। फास = फांसी। जनि नानकि = दास नानक ने। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। परगास = आत्मिक प्रकाश।4।

अर्थ: हे मेरे राम! मुझ मूर्ख को ऊँची आत्मिक अवस्था बख्श। मुझे गुरू की सेवा के काम में जोड़।1। रहाउ।

किसान खेती का काम जी लगा के (पूरी मेहनत से) करता है। हल चलाता है, उद्यम करता है और चाह रखता है (कि फसल अच्छी हो, ता कि) मेरा पुत्र मेरी बेटी खाए। इसी तरह परमात्मा का दास परमात्मा के नाम का जाप करता है (जिसका नतीजा ये निकलता है कि) अंत समय (जब और कोई साथी नहीं रह जाता) परमात्मा उसे (मोह आदि के पंजे से) छुड़ाता है।1।

सौदागर सौदागरी करने के लिए चल पड़ता है (सौदागरी में वह) धन कमाता है (और धन की) उम्मीद करता है (ज्यों ज्यों कमाई करता है त्यों त्यों) माया का मोह बढ़ता जाता है। इसी तरह परमात्मा का दास परमात्मा का नाम सिमरता है। नाम सिमर सिमर के आत्मिक आनंद लेता है।2।

दुकानदार दुकान में बैठ के दुकान का काम करता है और (माया) एकत्र करता है (जो उसके आत्मिक जीवन के वास्ते) जहर (का काम करती जाती) है (क्योंकि ये तो निरा) मोह का झूठा फैलाव है, झूठ का पसारा है (ज्यों ज्यों इसमें ज्यादा खचित होता जाता है त्यों त्यों) इस नाशवंत के मोह में फंसता जाता है। इसी तरह परमात्मा के दास ने (भी) धन एकत्र किया होता है पर वह हरि-नाम का धन है। ये नाम धन वह अपनी जिंदगी के सफर वास्ते खर्च (के तौर पर) ले जाता है।3।

माया के मोह का ये फैलाव (तो) माया के मोह में फसाने वाली फांसी है। इस में से वही मनुष्य पार लांघता है, जो गुरू की मति ले के परमात्मा के दासों का दास बनता है। दास नानक ने (भी) गुरू की शरण पड़ के (आत्मिक जीवन के वास्ते) प्रकाश हासिल करके परमात्मा का नाम सिमरा है।4।3।9।47।

गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ नित दिनसु राति लालचु करे भरमै भरमाइआ ॥ वेगारि फिरै वेगारीआ सिरि भारु उठाइआ ॥ जो गुर की जनु सेवा करे सो घर कै कमि हरि लाइआ ॥१॥ मेरे राम तोड़ि बंधन माइआ घर कै कमि लाइ ॥ नित हरि गुण गावह हरि नामि समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ नरु प्राणी चाकरी करे नरपति राजे अरथि सभ माइआ ॥ कै बंधै कै डानि लेइ कै नरपति मरि जाइआ ॥ धंनु धनु सेवा सफल सतिगुरू की जितु हरि हरि नामु जपि हरि सुखु पाइआ ॥२॥ नित सउदा सूदु कीचै बहु भाति करि माइआ कै ताई ॥ जा लाहा देइ ता सुखु मने तोटै मरि जाई ॥ जो गुण साझी गुर सिउ करे नित नित सुखु पाई ॥३॥ जितनी भूख अन रस साद है तितनी भूख फिरि लागै ॥ जिसु हरि आपि क्रिपा करे सो वेचे सिरु गुर आगै ॥ जन नानक हरि रसि त्रिपतिआ फिरि भूख न लागै ॥४॥४॥१०॥४८॥ {पन्ना 166-167}

पद्अर्थ: भरमै = भटकता है। सिरि = सिर पर। घर कै कंमि = घर के काम में, अपने असली काम में।1।

गावह = हम गाएं। नामि = नाम में। समाइ = लीन हो के।1। रहाउ।

नरपति = राजा। अरथि = अर्थ, खातर, वास्ते। कै = या। बंधै = बांध लेता है। डानि = दण्ड, जुर्माना। लेइ = लेता है। जितु = जिस (सेवा) से।2।

कीचै = करते हैं। भाति = भांति, किस्म। कै ताई = की खातिर, वास्ते। जा = जब। मने = मन में।3।

भूख अन रस साद = और रसों के स्वादों की भूख। रसि = रस से।4।

अर्थ: हे मेरे राम! (हम जीवों के) माया के बंधन तोड़ और हमें हमारे असली काम में जोड़। हम हरि-नाम में लीन हो के सदा हरि गुण गाते रहें।1। रहाउ।

जो मनुष्य सदा दिन रात (माया का) लालच करता रहता है। माया के प्रभाव में आ के माया की खातिर भटकता फिरता है, वह उस वैरागी की तरह है जो अपने सिर पर (बेगाना) भार उठा के बेमतलब में व्यस्त है। पर जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है (गुरू की बताई हुई सेवा करता है) उसे परमात्मा ने (नाम सिमरन के) उस काम में लगा दिया है जो उसका असलियत में अपना काम है।1।

सिर्फ माया की खातिर कोई मनुष्य किसी राजे-बादशाह की नौकरी करता है। राजा कई बार (किसी खुनामी के कारण उसे) कैद कर देता है या (कोई जुर्माना आदि) सजा देता है, या, राजा (खुद ही) मर जाता है (तो उस मनुष्य की नौकरी ही खत्म हो जाती है)। पर सत्गुरू की सेवा सदा फल देने वाली है सदा सलाहने योग्य है, क्योंकि इस सेवा से मनुष्य परमात्मा का नाम जप के आत्मिक आनंद पाता है।2।

माया कमाने की खातिर कई तरह का सदा वणज-व्यवहार भी करते हैं। जब (वणज-व्यापार) नफा देता है तो मन में खुशी होती है, पर घाटा पड़ने पर मनुष्य (सदमे से) मर जाता है। पर, जो मनुष्य अपने गुरू के साथ परमात्मा की सिफत सालाह के सौदे की सांझ डालता है, वह सदा ही आत्मिक आनंद लेता है।3।

और और रसों की और और स्वादों की जितनी भी तृष्णा (मनुष्य को लगती) है, (ज्यों ज्यों रसों के स्वाद लेते जाते हैं) उतनी ही तृष्णा बारंबार लगती जाती है। (माया के रसों से मनुष्य कभी भी तृप्त नहीं होता)। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है, वह मनुष्य गुरू के आगे (अपना) सिर बेच देता है (वह अपना आप गुरू के हवाले करता है)। हे दास नानक! वह मनुष्य परमात्मा के नाम-रस से तृप्त हो जाता है, उसे माया की तृष्णा नहीं व्यापती।4।4।10।48।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh