श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ जगजीवन अपर्मपर सुआमी जगदीसुर पुरख बिधाते ॥ जितु मारगि तुम प्रेरहु सुआमी तितु मारगि हम जाते ॥१॥ राम मेरा मनु हरि सेती राते ॥ सतसंगति मिलि राम रसु पाइआ हरि रामै नामि समाते ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु हरि हरि जगि अवखधु हरि हरि नामु हरि साते ॥ तिन के पाप दोख सभि बिनसे जो गुरमति राम रसु खाते ॥२॥ जिन कउ लिखतु लिखे धुरि मसतकि ते गुर संतोख सरि नाते ॥ दुरमति मैलु गई सभ तिन की जो राम नाम रंगि राते ॥३॥ राम तुम आपे आपि आपि प्रभु ठाकुर तुम जेवड अवरु न दाते ॥ जनु नानकु नामु लए तां जीवै हरि जपीऐ हरि किरपा ते ॥४॥२॥१६॥५४॥ {पन्ना 169}

पद्अर्थ: जगजीवन = हे जगत के जीवन। अपरंपर = परे से परे। जगदीसुर = (जगत्+ईश्वर) हे जगत के ईश्वर। बिधाते = हे सृजणहार! जितु = जिस में। मारगि = रास्ते में। जितु मारगि = जिस राह पर।1।

सेती = साथ। राते = रंगे हुए। मिलि = मिल के। नामि = नाम में।1। रहाउ।

जगि = जगत में। अवखधु = दवाई। साति = शांति (देने वाला)। दोख = ऐब, अवगुण।2।

धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। सरि = सर में। संतोख सरि = संतोष के सरोवर में।3।

ठाकुर = हे ठाकुर! जीवे = आत्मिक जीव प्राप्त करता है। ते = से, साथ।4।

अर्थ: हे राम (मेहर कर) मेरा मन तेरे (नाम) में रंगा रहे। (हे भाई! जिन लोगों ने ईश्वर की कृपा से) साध-संगति में मिल के राम-रस प्राप्त कर लिया, वे परमात्मा के नाम में ही मस्त रहते हैं।1। रहाउ।

हे जगत के जीवन प्रभू! हे बेअंत प्रभू! हे सवामी! हे जगत के ईश्वर! हे सर्व-व्यापक! हे सुजनहार! हम जीवों को तू जिस रास्ते पर (चलने के लिए) प्रेरित करता है, हम उसी रास्ते पर ही चलते हैं।1।

(हे भाई!) परमात्मा का नाम जगत में (सब रोगों की) दवाई है। परमात्मा का नाम (आत्मिक) शांति देने वाला है जो मनुष्य गुरू की मति ले के परमातमा का नाम-रस चखते हैं, उनके सारे पाप, सारे ऐब नाश हो जाते हैं।2।

जिन मनुष्यों के माथे पर धुर दरगाह से (भक्ति का) लेख लिखा जाता है, वह मनुष्य गुरू रूप संतोखसर में स्नान करते हैं (भाव, वे मनुष्य गुरू में अपना आप लीन कर देते हैं और वे संतोष वाला जीवन जीते हैं)। जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, उनकी बुरी मति वाली सारी मैल दूर हो जाती है।3।

हे राम! हे ठाकुर! तू स्वयं ही तू खुद ही तू आप ही (सब जीवों का) मालिक है। तेरे जितना बड़ा और कोई दाता नहीं है। दास नानक जब परमात्मा का नाम जपता है, तो आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। (पर) परमात्मा का नाम परमातमा की मेहर से ही जपा जा सकता है।4।2।16।54।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ करहु क्रिपा जगजीवन दाते मेरा मनु हरि सेती राचे ॥ सतिगुरि बचनु दीओ अति निरमलु जपि हरि हरि हरि मनु माचे ॥१॥ राम मेरा मनु तनु बेधि लीओ हरि साचे ॥ जिह काल कै मुखि जगतु सभु ग्रसिआ गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम बाचे ॥१॥ रहाउ ॥ जिन कउ प्रीति नाही हरि सेती ते साकत मूड़ नर काचे ॥ तिन कउ जनमु मरणु अति भारी विचि विसटा मरि मरि पाचे ॥२॥ तुम दइआल सरणि प्रतिपालक मो कउ दीजै दानु हरि हम जाचे ॥ हरि के दास दास हम कीजै मनु निरति करे करि नाचे ॥३॥ आपे साह वडे प्रभ सुआमी हम वणजारे हहि ता चे ॥ मेरा मनु तनु जीउ रासि सभ तेरी जन नानक के साह प्रभ साचे ॥४॥३॥१७॥५५॥ {पन्ना 169}

पद्अर्थ: राचे = रचा रहे, मस्त रहे। सतिगुरि = गुरू ने। बचनु = उपदेश। माचे = मचलता है, खुश होता है।1।

बेधि लीओ = बेध लिया। साचे = सदा कायम रहने वाले ने। काल = आत्मिक मौत। मुखि = मुंह में। ग्रसिया = निगला हुआ। बाचे = बच गए हैं।1। रहाउ।

सेती = साथ। साकत = रॅब से टूटे हुए, माया के आँगन में। काचे = कमजोर जीवन वाले। विसटा = विकारों का गंद। मरि = आत्मिक मौत ले के। पाचै = पचते हैं, दुखी होते हैं2।

सरणि प्रतिपालक = शरण आए की रक्षा करने वाला। कउ = को। मो कउ = मुझे। जाचे = याचना करता है, मांगता है। निरति = नृत्य, नाच।3।

ता चे = उस के। रासि = पूँजी, सरमाया।4।

अर्थ: हे राम! हे सदा कायम रहने वाले हरी! तूने (मेहर कर के) मेरे मन को मेरे तन को (अपने चरणों में) बेध लिया है। जिस आत्मिक मौत के मुंह में सारा संसार निगला हुआ है, (उस आत्मिक मौत से) मैं सतिगरू के उपदेश (की बरकति से) बच गया हूँ।1। रहाउ।

हे जगत के जीवन! हे दातार! कृपा कर, मेरा मन तेरी याद में मस्त रहे। (तेरी कृपा से) सत्गुरू ने मुझे बहुत पवित्र उपदेश दिया है, अब मेरा मन हरी नाम जप जप के खुश हो रहा है।1।

जिन मनुष्यों को परमातमा (के चरणों) के साथ प्रीति प्राप्त नहीं हुई, वे माया के आँगन में मूर्ख मनुष्य कमजोर जीवन वाले रहते हैं। उनके वास्ते जनम मरण का दुखदायक चक्र बना रहता है। वे (विकारों की) गंदगी में आत्मिक मौत ले ले कर दुखी होते रहते हैं।2।

हे दयाल प्रभू! हे शरण आए की रक्षा करने वाले प्रभू! मैं तेरे दर से तेरा नाम मांगता हूँ, मुझे ये दाति बख्श। मुझे अपने दासों का दास बनाए रख। ता कि मेरा मन (तेरे नाम में जुड़ के) सदा नृत्य करता रहे (सदैव आत्मिक आनंद में लीन रहे)।3।

प्रभू स्वयं ही (नाम रस की पूँजी देने वाले सब जीवों के) बड़ा शाह है, मालिक है। हम सभी जीव उस (शाह) के (भेजे हुए) वणजारे हैं (व्यापारी हैं)।

हे दास नानक के सदा स्थिर शाह व प्रभू! मेरा मन, मेरा तन, मेरा जीवात्मा- ये सब कुछ तेरी बख्शी हुई राशि-पूँजी है (मुझे अपने नाम की दाति भी बख्श)।4।3।17।55।

गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ तुम दइआल सरब दुख भंजन इक बिनउ सुनहु दे काने ॥ जिस ते तुम हरि जाने सुआमी सो सतिगुरु मेलि मेरा प्राने ॥१॥ राम हम सतिगुर पारब्रहम करि माने ॥ हम मूड़ मुगध असुध मति होते गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम जाने ॥१॥ रहाउ ॥ जितने रस अन रस हम देखे सभ तितने फीक फीकाने ॥ हरि का नामु अम्रित रसु चाखिआ मिलि सतिगुर मीठ रस गाने ॥२॥ जिन कउ गुरु सतिगुरु नही भेटिआ ते साकत मूड़ दिवाने ॥ तिन के करमहीन धुरि पाए देखि दीपकु मोहि पचाने ॥३॥ जिन कउ तुम दइआ करि मेलहु ते हरि हरि सेव लगाने ॥ जन नानक हरि हरि हरि जपि प्रगटे मति गुरमति नामि समाने ॥४॥४॥१८॥५६॥ {पन्ना 169-170}

पद्अर्थ: दइआल = (दया+आलय) दया का घर। सरब = सारे। भंजन = नाश करने वाला। बिनउ = विनय। दे काने = कान दे के, ध्यान से। जिस ते = जिस (गुरू) से। जानै = जान पहिचान होती है। प्राने = प्राण, जीवात्मा।1।

करि = करके, (बराबर का) करके। माने = माना है। असुध = अशुद्धि, मैली। मुगध = मूर्ख।1। रहाउ।

अन = अन्य, और और। मिलि = मिल के। गाने = गन्ना।2।

भेटिआ = मिला। दिवाने = कमले, झल्ले। हीन = नीच। धुरि = धुर से। मोहि = मोह में। पचाने = पचते हैं, जलते हैं।3।

प्रगटे = प्रगट हुए, चमक गए। नामि = नाम में।4।

अर्थ: (हे भाई!) मैंने सत्गुरू को (आत्मिक जीवन में) राम पारब्रह्म के बराबर का माना है। मैं मूर्ख था, महा मूर्ख था, मलीन मति वाला था, गुरू सत्गुरू के उपदेश (की बरकति से) मैंने परमात्मा के साथ जान-पहिचान डाल ली है।1। रहाउ।

हे (जीवों के) सारे दुख नाश करने वाले स्वामी! तू दया का घर है। मेरी एक आरजू ध्यान से सुन। मुझे वह सत्गुरू मिला जो मेरी जीवात्मा (का सहारा) है, जिसकी कृपा से तेरे साथ गहरी सांझ पड़ती है।1।

जगत के जितने भी अन्य रस हैं, मैंने देख लिए हैं, वे सारे ही फीके हैं, बेस्वाद हैं। गुरू को मिल के मैंने आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम-रस चखा है। वह रस मीठा है जैसे गन्ने का रस मीठा होता है।2।

जिन मनुष्यों को गुरू नहीं मिलता, वे मूर्ख, ईश्वर से टूटे हुए रहते हैं। वे माया के पीछे झल्ले हुए फिरते हैं। (पर, उनके भी क्या बस?) धुर से ही (परमात्मा ने) उनके भाग्यों में (ये) नीच कर्म ही डाले हुए हैं, वे माया के मोह में ऐसे जलते रहते हैं जैसे दीपक को देख के (पतंगे)।3।

हे प्रभू! जिन मनुष्यों को तू मेहर करके (गुरू चरणों में) मिलाता है, वे, हे हरी! तेरी सेवा-भक्ति में लगे रहते हैं। हे दास नानक! वे परमात्मा का नाम जप ज पके चमक पड़ते हैं। गुरू की मति पर चल के वे प्रभू के नाम में लीन रहते हैं।4।4।18।56।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh