श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ किउ भ्रमीऐ भ्रमु किस का होई ॥ जा जलि थलि महीअलि रविआ सोई ॥ गुरमुखि उबरे मनमुख पति खोई ॥१॥ जिसु राखै आपि रामु दइआरा ॥ तिसु नही दूजा को पहुचनहारा ॥१॥ रहाउ ॥ सभ महि वरतै एकु अनंता ॥ ता तूं सुखि सोउ होइ अचिंता ॥ ओहु सभु किछु जाणै जो वरतंता ॥२॥ मनमुख मुए जिन दूजी पिआसा ॥ बहु जोनी भवहि धुरि किरति लिखिआसा ॥ जैसा बीजहि तैसा खासा ॥३॥ देखि दरसु मनि भइआ विगासा ॥ सभु नदरी आइआ ब्रहमु परगासा ॥ जन नानक की हरि पूरन आसा ॥४॥२॥७१॥ {पन्ना 176}

पद्अर्थ: भ्रमु = भटकना। भ्रमीअै = भटकते फिरें। किउ भ्रमीअै = भटकना समाप्त हो जाती है। जा = जब। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती की सतह पर, आकाश में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। उबरे = (तृष्णा से) बचाता है। मनमुख = अपने मन की ओर चलने वाला। पति = इज्जत। राखै = तृष्णा से बचाता है। दइआरा = दयाल, दया का घर। पहुचनहारा = बराबरी कर सकने वाला।1। रहाउ।

वरतै = मौजूद है। ता = तब। सुखि = आत्मिक आनंद में। सोउ = सो जाओ, लीन रहो। अचिंता = चिंता रहित हो के। ओहु = वह परमात्मा। वरतंता = पसरा हुआ है।2।

मुऐ = आत्मिक मौत मर गए। दूजी पिआसा = प्रभू के बिना और तमन्ना। भवहि = घूमते रहते हैं। धुरि = धुर से। किरति = किए कर्मों के संस्कार के अनुसार।3।

देखि = देख के। मनि = मन में। विगासा = खिड़ाव। नदरी आइआ = दिखा।4।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को दयाल प्रभू खुद (तृष्णा से) बचाता है (उसका जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) कोई और मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।1। रहाउ।

जब (ये यकीन बन जाए कि) वह प्रभू ही जल में धरती में आकाश में व्यापक है तब मन भटकने से हट जाता है क्योंकि किसी मायावी पदार्थ के लिए भटकना रहती ही नहीं। (पर तृष्णा के प्रभाव से) गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (ही) बचते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (तृष्णा में फंस के अपनी) इज्जत गवा लेते हैं (क्योंकि वे आत्मिक जीवन के स्तर से नीचे हो जाते हैं)।1।

(हे भाई!) तू तभी चिंता-रहित हो के आत्मिक आनंद में लीन रह सकता है (जब तुझे ये निश्चय हो जाए कि) एक बेअंत प्रभू ही सब में व्यापक है, और, जो कुछ जगत में घटित हो रहा है वह परमात्मा सब कुछ जानता है।2।

जिन मनुष्यों को माया की तृष्णा चिपकी रहती है, वे अपने मन के मुरीद मनुष्य आत्मिक मौत से मरे रहते हैं क्योंकि वे जैसा (कर्म बीज) बीजते हैं वैसा ही (फल) खाते हैं। उनके किए कर्मों के अनुसार धुर से ही उनके माथे पर ऐसे लेख लिखे होते हैं कि वे अनेकों योनियों में भटकते फिरते हैं।3।

(हर जगह) परमात्मा का दर्शन करके जिस मनुष्य के मन में खिड़ाव (प्रसन्नता) पैदा होता है, उसे हर जगह परमात्मा का ही प्रकाश नजर आता है, हे नानक! उस दास की परमात्मा (हरेक) आशा पूरी करता है।4।2।71।

नोट: गुरू अर्जुन देव जी का गउड़ी राग में ये दूसरा शबद है। पहले सारे शबदों का जोड़ 70 है। यहाँ बड़ा जोड़ 72 चाहिए था। गुरू अरजन साहिब के शबद नंबर 105 तक यही एक की कमी चली जाती है। शबद नं:106 से बड़ा अंक दर्ज करना ही बंद कर दिया गया है।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ कई जनम भए कीट पतंगा ॥ कई जनम गज मीन कुरंगा ॥ कई जनम पंखी सरप होइओ ॥ कई जनम हैवर ब्रिख जोइओ ॥१॥ मिलु जगदीस मिलन की बरीआ ॥ चिरंकाल इह देह संजरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ कई जनम सैल गिरि करिआ ॥ कई जनम गरभ हिरि खरिआ ॥ कई जनम साख करि उपाइआ ॥ लख चउरासीह जोनि भ्रमाइआ ॥२॥ साधसंगि भइओ जनमु परापति ॥ करि सेवा भजु हरि हरि गुरमति ॥ तिआगि मानु झूठु अभिमानु ॥ जीवत मरहि दरगह परवानु ॥३॥ जो किछु होआ सु तुझ ते होगु ॥ अवरु न दूजा करणै जोगु ॥ ता मिलीऐ जा लैहि मिलाइ ॥ कहु नानक हरि हरि गुण गाइ ॥४॥३॥७२॥ {पन्ना 176}

पद्अर्थ: कीट = कीड़े। गज = हाथी। मीन = मछली। कुरंग = हिरन। पंखी = पक्षी। सरप = सर्प, साँप। हैवर = (हय+वर) बढ़िया घोड़े। ब्रिख = (वृष) बैल। जाइओ = जोता गया।1।

जगदीस = जगत के मालिक प्रभू को। बरीआ = बारी, समय। देह = शरीर। संजरीआ = मिली है।1। रहाउ।

सैल = पत्थर। गिरि = पहाड़। हिरि खरिआ = छन गए, गिर गए। साख = शाखा, बनस्पति। करि = बना के।2।

संगि = संगति में (आ)। भजु = भजन कर। मरहि = अगर तू (स्वैभाव से) मरे।3।

तुझ ते = तुझसे (हे प्रभू !)। होगु = होगा। करणै जोगु = करने की स्मर्था वाला।4।

अर्थ: (हे भाई!) चिरंकाल के बाद तुझे ये (मानुस) शरीर मिला है, जगत के मालिक प्रभू को (अब) मिल, (यही मानुष जनम प्रभू को) मिलने का समय है।1। रहाउ।

(हे भाई!) तू कई जन्मों में कीड़े-पतंगे बना रहा, कई जन्मों में हाथी मॅछ हिरन बनता रहा। कई जन्मों में तू पंछी और साँप बना, कई जन्मों में तू घोड़े बैल बनके हाँका गया।1।

(हे भाई!) कई जन्मों में तुझे पत्थर की चट्टान बनाया गया, कई जन्मों में (तेरी माँ का) गर्भ ही छनता रहा। कई जन्मों में तुझे (विभिन्न प्रकार के) वृक्ष बना के पैदा किया गया, और इस तरह (चौरासी लाख) जूनियों में तुझे घुमाया गया।2।

(हे भाई! अब तुझे) मानस जन्म मिला है, साध-संगति में आ, गुरू की मति ले के (ख़लकत की) सेवा कर और परमात्मा का भजन कर। अभिमान, झूठ व अहंकार त्याग दे। तू (परमात्मा की) दरगाह में (तब ही) कबूल होगा अगर तू जीवन जीते हुए ही स्वैभाव को मार लेगा।3।

हे नानक! (प्रभू के आगे अरदास कर और) कह– (हे प्रभू तेरा सिमरन करने की जीव की क्या स्मर्था हो सकती है?) जो कुछ (जगत में) होता है वह तेरे (हुकम) से ही होता है। (तेरे बिना) अन्य कोई भी कुछ करने की स्मर्था वाला नहीं है। हे प्रभू! तुझे तभी मिला जा सकता है अगर तू खुद जीव को (अपने चरणों में) मिला ले, तभी जीव हरि गुण गा सकता है।4।3।72

नोट: यहाँ गिनती का असल नंबर 73 चाहिए।

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ करम भूमि महि बोअहु नामु ॥ पूरन होइ तुमारा कामु ॥ फल पावहि मिटै जम त्रास ॥ नित गावहि हरि हरि गुण जास ॥१॥ हरि हरि नामु अंतरि उरि धारि ॥ सीघर कारजु लेहु सवारि ॥१॥ रहाउ ॥ अपने प्रभ सिउ होहु सावधानु ॥ ता तूं दरगह पावहि मानु ॥ उकति सिआणप सगली तिआगु ॥ संत जना की चरणी लागु ॥२॥ सरब जीअ हहि जा कै हाथि ॥ कदे न विछुड़ै सभ कै साथि ॥ उपाव छोडि गहु तिस की ओट ॥ निमख माहि होवै तेरी छोटि ॥३॥ सदा निकटि करि तिस नो जाणु ॥ प्रभ की आगिआ सति करि मानु ॥ गुर कै बचनि मिटावहु आपु ॥ हरि हरि नामु नानक जपि जापु ॥४॥४॥७३॥ {पन्ना 176-177}

पद्अर्थ: भूमि = धरती। करम भूमि = वह धरती जिस में कर्म बीजे जा सकते हैं, मानस शरीर। बोअहु = बीजो। कामु = काम, जीवन उद्देश्य। त्रास = डर। जम त्रास = मौत का डर, आत्मिक मौत का खतरा। जास = यश।1।

अंतरि = अंदर से। उरि = दिल से। धारि = रख के। सीघर = शीघ्र, जल्दी। कारजु = जीवन मनोरथ।1। रहाउ।

सिउ = से। सावधानु = (स = अवधान) सुचेत। स = सहित, समेत। अवधान = ध्यान (attention)। मानु = आदर। उकति = बयान करने की शक्ति, दलील। सगली = सारी।2।

जीअ = जीव। हाथि = हाथ में। जा कै हाथि = जिस के हाथ में। साथि = साथ। उपाव = (‘उपाउ’ का बहुवचन। संस्कृत शब्द है उपाव) ढंग, यत्न। गहु = पकड़ना। ओट = आसरा। निमख = आँख झपकने जितना समय। छोटि = खलासी।3।

निकटि = नजदीक। तिस नो = उस (प्रभू) को (‘तिसु’ का ‘ु’, संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। जाणु = समझ। सति = (सत्) अटॅल, चत्य। बचनि = बचन के द्वारा। आपु = स्वैभाव। जपि जापु = जाप जप।4।

अर्थ: (हे भाई!) अपने अंदर अपने हृदय में परमात्मा का नाम संभाल के रख और (इस तरह) अपना मानस जीवन का मनोरथ संभाल ले।1। रहाउ।

(हे भाई!) कर्म बीजने वाली धरती में (मानव शरीर में) परमात्मा का नाम बीज इस तरह तेरा (मानस जीवन का) मनोरथ सिरे चढ़ जाएगा। (हे भाई!) अगर तू नित्य परमात्मा के गुण गाए, तो इसका इसका फल ये होगा कि तेरी आत्मिक मौत का खतरा मिट जाएगा।1।

(हे भाई!) अपनी दलीलें अपनी समझदारिआं सारी छोड़ दे, गुरमुखों की शरण पड़ (संत जनों की बरकति के सदका) अपने परमात्मा के साथ (परमात्मा की याद में) सुचेत रह (जब तू ये उद्यम करेगा) तब तू परमात्मा की हजूरी में आदर-मान प्राप्त करेगा।2।

(हे भाई!) सारे जीव जंतु जिस परमात्मा के वश में (हाथ में) है, जो प्रभू कभी भी (जीवों से) अलग नहीं होता, (सदा) सब जीवों के साथ रहता है, अपने प्रयत्नों-कोशिशों को छोड़ के उस परमात्मा का आसरा-परना पकड़। आँख की एक झपक में (माया के मोह के बंधनों से) तेरी मुक्ति हो जाएगी।3।

हे नानक! उस परमात्मा को सदा अपने नजदीक बसता समझ। ये दृढ़ करके मान कि परमात्मा की रजा अटॅल है। गुरू के बचन में (जुड़ के अपने अंदर से) स्वैभाव दूर कर, सदा परमात्मा का नाम जप, सदा प्रभू (के गुणों) का जाप जप।4।4।73।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh