श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 207 गउड़ी महला ५ ॥ तुझ बिनु कवनु हमारा ॥ मेरे प्रीतम प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥ अंतर की बिधि तुम ही जानी तुम ही सजन सुहेले ॥ सरब सुखा मै तुझ ते पाए मेरे ठाकुर अगह अतोले ॥१॥ बरनि न साकउ तुमरे रंगा गुण निधान सुखदाते ॥ अगम अगोचर प्रभ अबिनासी पूरे गुर ते जाते ॥२॥ भ्रमु भउ काटि कीए निहकेवल जब ते हउमै मारी ॥ जनम मरण को चूको सहसा साधसंगति दरसारी ॥३॥ चरण पखारि करउ गुर सेवा बारि जाउ लख बरीआ ॥ जिह प्रसादि इहु भउजलु तरिआ जन नानक प्रिअ संगि मिरीआ ॥४॥७॥१२८॥ {पन्ना 207} पद्अर्थ: प्रान अधारा = हे मेरे प्राणों के आसरे।1। रहाउ। अंतर की बिधि = मेरे दिल की हालत। सुहेले = सुख देने वाले। ते = से। अगह = हे अगाह! हे अथाह प्रभू!।1। रंगा = चोज, रंग। गुण निधान = हे गुणों के खजाने! गुर ते = गुरू से। जाते = पहचाना।2। भ्रम = भटकना। निहकेवल = निष्कैवल्य, पवित्र, शुद्ध। जब ते = जब से। को = का। चूको = खत्म हो गया। दरसारी = दर्शनों से।3। पखारि = धो के। करउ = मैं करूँ। बारि जाउ = मैं कुर्बान जाऊँ। बरीआ = बारी। जिह प्रसादि = जिस (गुरू) की कृपा से। भउजलु = संसार समुंद्र। मिरीआ = मिला।4। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभू! हे मेरे प्राणों के आसरे प्रभू! तेरे बिना हमारा और कौन (सहारा) है?।1। रहाउ। हे मेरे अथाह और अडोल ठाकुर! मेरे दिल की हालत तू ही जानता है, तू ही मेरा सज्जन है; तू ही मुझे सुख देने वाला है। सारे सुख मैंने तुझसे ही पाए हैं।1। हे गुणों के खजाने प्रभू! हे सुख देने वाले प्रभू! हे अपहुँच प्रभू! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे प्रभू! हे अविनाशी प्रभू! पूरे गुरू के द्वारा ही तेरे साथ गहरी सांझ डल सकती है।2। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं वे गुरू की शरण पड़ कर) जब से (अपने अंदर से अहंकार दूर करते हैं), गुरू उनकी भटकना व डर दूर करके उन्हें पवित्र जीवन वाला बना देता है। साध-संगति में (गुरू के) दर्शन की बरकति से उनके जनम मरण के चक्कर का सहम खत्म हो जाता है।3। हे दास नानक! (कह–) मैं (गुरू के) चरण धो के गुरू की सेवा करता हूँ। मैं (गुरू से) लाखों बार कुर्बान जाता हूँ, क्योंकि उस (गुरू) की कृपा से ही इस संसार समुंद्र से पार लांघ सकते हैं और प्रीतम प्रभू (के चरणों) में जुड़ सकते हैं।4।7।128। गउड़ी४ महला ५ ॥ तुझ बिनु कवनु रीझावै तोही ॥ तेरो रूपु सगल देखि मोही ॥१॥ रहाउ ॥ सुरग पइआल मिरत भूअ मंडल सरब समानो एकै ओही ॥ सिव सिव करत सगल कर जोरहि सरब मइआ ठाकुर तेरी दोही ॥१॥ पतित पावन ठाकुर नामु तुमरा सुखदाई निरमल सीतलोही ॥ गिआन धिआन नानक वडिआई संत तेरे सिउ गाल गलोही ॥२॥८॥१२९॥ {पन्ना 207} पद्अर्थ: तुझ बिनु = तेरे बिना, तेरी कृपा के बिना। रीझावै = प्रसन्न करे। तोही = तुझे। सगल = सारा संसार। मोही = मस्त हो जाती है।1। रहाउ। पइआल = पाताल। मिरत = मातृ लोक। भूअ मंडल = भूमि के मण्डल, धरतियों के चक्कर, सारे ब्रहमण्ड। ऐकै ओही = एक वह परमात्मा ही। सिव = शिव, कल्याण स्वरूप। कर = दोनों हाथ (‘करु’ एकवचन, ‘कर’ बहुवचन)। सरब मइआ = हे सब पर दया करने वाले! दोही = दुहाई, सहायता वास्ते पुकार। मइआ = दया।1। पतित पावनु = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। सीतलोही = शांति स्वरूप। सिउ = से। गाल गलोही = बातचीत, बातें।2। अर्थ: हे प्रभू!तेरा (सुंदर सर्व-व्यापक) रूप देख के सारी सृष्टि मस्त हो जाती है। तेरी मेहर के बिना तुझे कोई जीव प्रसन्न नहीं कर सकता।1। रहाउ। (हे भाई!) स्वर्गलोक, पाताल लोक, मातृ लोक, सारा ब्रहमण्ड, सब में एक वह परमात्मा ही समाया हुआ है। हे सब पर दया करने वाले सबके ठाकुर सारे जीव तुझे ‘सुखों का दाता’ कह कह के (तेरे आगे) दोनों हाथ जोड़ते हैं, और तेरे दर पर ही सहायता के लिए पुकार करते हैं।1। हे ठाकुर! तेरा नाम है ‘विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला’। तू सबको सुख देने वाला है, तू पवित्र हस्ती वाला है, तू शांति-स्वरूप है। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) तेरे संत जनों से तेरी सिफत सालाह की बातें ही (तेरे सेवकों के वास्ते) ज्ञान-चर्चा है, समाधियां हैं, (लोक-परलोक की) इज्ज़त है।2।8।129। गउड़ी महला ५ ॥ मिलहु पिआरे जीआ ॥ प्रभ कीआ तुमारा थीआ ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक जनम बहु जोनी भ्रमिआ बहुरि बहुरि दुखु पाइआ ॥ तुमरी क्रिपा ते मानुख देह पाई है देहु दरसु हरि राइआ ॥१॥ सोई होआ जो तिसु भाणा अवरु न किन ही कीता ॥ तुमरै भाणै भरमि मोहि मोहिआ जागतु नाही सूता ॥२॥ बिनउ सुनहु तुम प्रानपति पिआरे किरपा निधि दइआला ॥ राखि लेहु पिता प्रभ मेरे अनाथह करि प्रतिपाला ॥३॥ जिस नो तुमहि दिखाइओ दरसनु साधसंगति कै पाछै ॥ करि किरपा धूरि देहु संतन की सुखु नानकु इहु बाछै ॥४॥९॥१३०॥ {पन्ना 207} पद्अर्थ: पिआरे जीआ = हे सब जीवों के साथ प्यार करने वाले! प्रभ = हे प्रभू! थीआ = हो रहा है।1। रहाउ। भ्रमिआ = भटकता फिरा। बहुरि बहुरि = मुड़ मुड़, बारंबार। ते = से, साथ। देह = शरीर।1। तिसु = उस (प्रभू) ने। भाणा = पसंद आया। किन ही = किसी ने ही। भरमि = भरम में। मोहि = मोह में।2। बिनउ = विनती। प्रानपति = हे मेरी जिंद के मालिक! किरपा निधि = हे कृपा के खजाने!3। नो = को। तुमहि = तुम ही। कै पाछै = के आसरे। धूरि = चरण धूल। बाछै = मांगता है, अभिलाषा रखता है।4। अर्थ: हे सब जीवों से प्यार करने वाले प्रभू!मुझे मिल। हे प्रभू! (जगत में) तेरा किया ही हो रहा है (वही होता है जो तू करता है)।1। रहाउ। हे प्रभू पातशाह! (माया से ग्रसा हुआ जीव) अनेक जन्मों में बहुत जूनियों में भटकता चला आता है, (जनम मरन का) दुख मुड़ मुड़ के सहता है। तेरी मेहर से (इसने अब) मानव शरीर प्राप्त किया है (इसे अपना) दर्शन दे (और इसकी विकारों से रक्षा कर)।1। हे भाई! जगत में वही कुछ बीतता है, जो कुछ परमात्मा को पसंद आता है। कोई और जीव (उसकी रजा के उलट कुछ) नहीं कर सकता। हे प्रभू! जीव तेरी रजा के अनुसार ही माया की भटकना में माया के मोह में फंसा रहता है, सदा मोह में सोया रहता है और इस नींद में से सुचेत नहीं होता।2। हे मेरी जीवात्मा के पति! हे प्यारे प्रभू! हे कृपा के खजाने प्रभू! हे दयालु प्रभू! तू (मेरी) विनती सुन। हे मेरे पिता प्रभू! अनाथ जीवों की पालना कर (इन्हे विकारों के हमलों से) बचा ले।3। हे प्रभू! जिस मनुष्य को तूने अपना दर्शन दिया है, साध-संगति के आसरे रख के दिया है। (हे प्रभू! तेरा दास) नानक (तेरे दर से) ये सुख मांगता है कि मुझे नानक को भी अपने संत जनों के चरणों की धूड़ बख्श।4।9।130। गउड़ी महला ५ ॥ हउ ता कै बलिहारी ॥ जा कै केवल नामु अधारी ॥१॥ रहाउ ॥ महिमा ता की केतक गनीऐ जन पारब्रहम रंगि राते ॥ सूख सहज आनंद तिना संगि उन समसरि अवर न दाते ॥१॥ जगत उधारण सेई आए जो जन दरस पिआसा ॥ उन की सरणि परै सो तरिआ संतसंगि पूरन आसा ॥२॥ ता कै चरणि परउ ता जीवा जन कै संगि निहाला ॥ भगतन की रेणु होइ मनु मेरा होहु प्रभू किरपाला ॥३॥ राजु जोबनु अवध जो दीसै सभु किछु जुग महि घाटिआ ॥ नामु निधानु सद नवतनु निरमलु इहु नानक हरि धनु खाटिआ ॥४॥१०॥१३१॥ {पन्ना 207} पद्अर्थ: हउ = मैं। ता कै = उस से। जा कै = जिसके हृदय में। अधारी = आसरा।1। रहाउ। महिमा = आत्मिक बड़प्पन। ता की = उन की। रंगि = प्रेम में। सहज = आत्मिक अडोलता। उन समसरि = उनके बराबर। सेई = वही लोग। जगत उधारण = जगत को विकारों से बचाने के लिए। संगि = संगति में।2। ता कै चरणि = उनके चरणों में। परउ = मैं पड़ूं। जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। निहाल = प्रसन्न चिक्त। रेणु = चरण धूड़।3। अवध = उम्र। जुग महि = जगत में, मानस जन्म में (शब्द ‘जुग’ का अर्थ यहां सत्यिुग कलियुग आदि नहीं है)। घाटिआ = घटता जाता है। नवतनु = नया। सद = सदा। निधान = खजाना।4। अर्थ: (हे भाई!) मैं उन (संत जनों) से सदके जाता हूँ जिनके हृदय में सिर्फ परमात्मा का नाम (ही जिंदगी का) आसरा है।1। रहाउ। (हे भाई!) संत जन परमात्मा के प्यार-रंग में रंगे रहते हैं, उनके आत्मिक बड़प्पन का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। उनकी संगति में रहने से आत्मिक अडोलता के सुख आनंद प्राप्त होते हैं, उनके बराबर का और कोई दानी नहीं हो सकता।2। (हे भाई!) जिन (संत) जनों को स्वयं परमात्मा की चाहत लगी रहे, वही जगत के जीवों को विकारों से बचाने आए समझो। उनकी शरण जो मनुष्य आ जाता है, वह संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है। (हे भाई!) संत जनों की संगति में रहने से सब आशाएं पूरी हो जाती हैं। (हे भाई!) संत जनों की संगति में रहने से मन खिल उठता है। मैं तो जब संत जनों के चरणों में आ गिरता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। हे प्रभू! मेरे पर कृपालु हुआ रह (ता कि तेरी कृपा से) मेरा मन तेरे संत जनों के चरणों की धूड़ बना रहे।3। हे नानक! (कह– हे भाई!) हकूमत, जवानी, उम्र, जो कुछ भी जगत में (संभालने लायक) दिखाई देता है ये घटता ही जाता है। परमात्मा का नाम (ही एक ऐसा) खजाना (है जो) सदा नया रहता है, और है भी पवित्र (भाव, इस खजाने से मन बिगड़ने की बजाय पवित्र होता जाता है)। (संत जन) ये नाम-धन ही सदा कमाते रहते हैं।4।10।131 |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |