श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 265 हरि हरि जन कै मालु खजीना ॥ हरि धनु जन कउ आपि प्रभि दीना ॥ हरि हरि जन कै ओट सताणी ॥ हरि प्रतापि जन अवर न जाणी ॥ ओति पोति जन हरि रसि राते ॥ सुंन समाधि नाम रस माते ॥ आठ पहर जनु हरि हरि जपै ॥ हरि का भगतु प्रगट नही छपै ॥ हरि की भगति मुकति बहु करे ॥ नानक जन संगि केते तरे ॥७॥ {पन्ना 265} पद्अर्थ: जन कै = भगत के (हृदय में), भगत के वास्ते। खजीना = खजाना, धन। आप प्रभि = प्रभू ने खुद। सताणी = ताण वाली, बलवान, तगड़ी। हरि प्रतापि = प्रभू के प्रताप से। अवर = (कोई) और (आसरा)। ओति पोति = (सं: ओत प्रोत = sewn crosswise and lengthwise; extending in all directions) ताने बाने की तरह, भावए पूरे तौर पर हर तरफ से। रसि = रस में। राते = रंगे हुए, भीगे हुए। सुंन = जहाँ कुछ भी ना हो। सुंन समाधि = (मन का वह) टिकाव जिसमें कोई भी विचार ना रहे। माते = मस्त हुए। बहु = बहुतों को। केते = कई जीव। अर्थ: प्रभू का नाम भक्त के लिए माल धन है, ये नाम रूपी धन प्रभू ने खुद अपने भक्त को दिया है। भक्त के वास्ते प्रभू का नाम (ही) तगड़ा आसरा है, भक्तों ने प्रभू के प्रताप से किसी और आसरे को नहीं देखा। भक्तजन प्रभू-नाम-रस में पूरे तौर पर भीगे रहते हैं, और नाम-रस में मस्त हुए (मन के) टिकाव (का वे आनंद लेते हैं), जो निर्विचार अवस्था होती है। (प्रभू का) भक्त आठों पहर प्रभू को जपता है, (जगत में) भगत प्रकट (हो जाता है) छुपा नहीं रहता। प्रभू की भक्ती बेअंत जीवों को (विकारों से) छुटकारा दिलाती है; हे नानक! भगत की संगति में कई और भी पार हो जाते हैं।7। पारजातु इहु हरि को नाम ॥ कामधेन हरि हरि गुण गाम ॥ सभ ते ऊतम हरि की कथा ॥ नामु सुनत दरद दुख लथा ॥ नाम की महिमा संत रिद वसै ॥ संत प्रतापि दुरतु सभु नसै ॥ संत का संगु वडभागी पाईऐ ॥ संत की सेवा नामु धिआईऐ ॥ नाम तुलि कछु अवरु न होइ ॥ नानक गुरमुखि नामु पावै जनु कोइ ॥८॥२॥ {पन्ना 265} पद्अर्थ: पारजातु = (स्वर्ग के पाँच वृक्ष: पचैते देवतरवो मंदार: पारिजातिक:॥ संतान: कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम्॥) स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक का नाम ‘पारजात’ है, इसकी बाबत ये ख्याल बना हुआ हैकि ये हरेक की मनोकामना पूरी करता है। कामधेन = स्वर्ग की गाय जो हरेक मनोकामना पूरी करती है। गाम = गायन। दुरतु = पाप। नाम तुलि = नाम के बराबर। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। जनु कोइ = कोई विरला मनुष्य। अर्थ: प्रभू का ये नाम (ही) ‘पारजात’ वृक्ष है, प्रभू के गुण गाने (ही इच्छा पूरक) ‘कामधेनु’ है। प्रभू की (सिफत सालाह की) बातें (और) सब (बातों) से अच्छी हैं (क्योंकि प्रभू का) नाम सुनने से सारे दुख-दर्द उतर जाते हैं। (प्रभू के) नाम की वडिआई संतों के हृदय में बसती है (और) संतों के प्रताप से सारे पाप दूर हो जाते हैं। बड़े भाग्यों से संतों की संगति मिलती है (और) संतों की सेवा (करने से) (प्रभू का) नाम सिमरा जाता है। प्रभू-नाम के बराबर और कोई (पदार्थ) नहीं, हे नानक! गुरू के सन्मुख हो के कोई विरला मनुष्य नाम की दाति पाता है।8।2। सलोकु ॥ बहु सासत्र बहु सिम्रिती पेखे सरब ढढोलि ॥ पूजसि नाही हरि हरे नानक नाम अमोल ॥१॥ पद्अर्थ: पेखे = देखे हैं। सरब = सारे। ढढोलि = ढूँढ के, खोज के। पूजसि नाही = नहीं पहुँचते, बराबरी नहीं करते। अमोल = जिसका मूल्य नहीं पाया जा सकता। सासत्र = (सं: शास्त्र) 1.धार्मिक पुस्तक, 2.पदार्थ विद्या की पुस्तक। सिम्रिति = स्मृति, हिन्दू कौम के लिए धार्मिक व भाईचारक कानून आदि की पुस्तकें जो मनु आदि आगूओं ने लिखीं। अर्थ: बहुत से शास्त्र व बहुत सारी स्मृतियां, सारे (हमने) खोज के देखे हैं; (ये पुस्तकें कई तरह की ज्ञान-चर्चाएं व कई धार्मिक व भाईचारक रस्में तो सिखाती हैं) (पर ये) अकाल-पुरख के नाम की बराबरी नहीं कर सकते। हे नानक! (प्रभू के) नाम का मूल नहीं पाया जा सकता।1। असटपदी ॥ जाप ताप गिआन सभि धिआन ॥ खट सासत्र सिम्रिति वखिआन ॥ जोग अभिआस करम ध्रम किरिआ ॥ सगल तिआगि बन मधे फिरिआ ॥ अनिक प्रकार कीए बहु जतना ॥ पुंन दान होमे बहु रतना ॥ सरीरु कटाइ होमै करि राती ॥ वरत नेम करै बहु भाती ॥ नही तुलि राम नाम बीचार ॥ नानक गुरमुखि नामु जपीऐ इक बार ॥१॥ {पन्ना 265} पद्अर्थ: जाप = वेद आदि कि मंत्रों (व देवताओं के नाम) को सहजे सहजे उचारने। ताप = शरीर को धूणियां आदि से कष्ट देने ताकि शारीरिक इन्द्रियां मन और आत्मा पर जोर ना डाल सकें। धिआन = किसी देवता आदि के गुणों को मन के सामने रखना। खट सासत्र = छे शास्त्र, छे दर्शन (सांख, योग, निआइ, वैशेषिक, मीमांसा व वेदांत)। वखिआन = उपदेश। करम ध्रम किरिआ = कर्म काण्ड के धर्म के काम। तिआगि = छोड़ के। मधे = बीच में। होमै = हवन करे, आग में डाले। रतना = घी। करि राती = रक्ती रक्ती करके। नेम = बंधेज। इक बार = एक बार। अर्थ: (यदि कोई) (वेद मंत्रों के) जाप करे, (शरीर को धुनी रमा के) तपाए, (और) कई ज्ञान (की बातें करे) और (देवतों के) ध्यान धरे, छे शास्त्रों व स्मृतियों का उपदेश करे; योग के साधन करे, कर्म काण्डी धर्म की क्रिया करे, (अथवा) सारे (काम) छोड़ के जंगलों में भटकता फिरे; अनेकों किस्म के बड़े बड़े यत्न करे, पुंन-दान करके बहुत सारा घी हवन करे, अपने शरीर को रक्ती रक्ती करके कटाए और आग में जला दे, कई किस्मों के वर्तों के बंधन करे; (पर ये सारे ही) प्रभू के नाम की विचार के बराबर नहीं हैं, (चाहे) हे नानक! ये नाम एक बार भी गुरू के सन्मुख हो के जपा जाए।1। नउ खंड प्रिथमी फिरै चिरु जीवै ॥ महा उदासु तपीसरु थीवै ॥ अगनि माहि होमत परान ॥ कनिक अस्व हैवर भूमि दान ॥ निउली करम करै बहु आसन ॥ जैन मारग संजम अति साधन ॥ निमख निमख करि सरीरु कटावै ॥ तउ भी हउमै मैलु न जावै ॥ हरि के नाम समसरि कछु नाहि ॥ नानक गुरमुखि नामु जपत गति पाहि ॥२॥ {पन्ना 265} पद्अर्थ: नउ खंड = नौ हिस्से। प्रिथमी = धरती। नउ खंड प्रिथमी = धरती के नौ ही हिस्से, भाव, सारी धरती। चिरु = बहुत लंबी उम्र। तपीसरु = बड़ा तपस्वी। थीवै = हो जाए। निउली करम = योग का एक साधन है जिससे आँतें साफ करते हैं। सांस बाहर को निकाल के पेट को अंदर की ओर खींच लेते हैं, फिर आँतों को इकट्ठा करके घुमाते हैं। ये साधना सवेरे खाली पेट करते हैं। मारग = रास्ता। निमख निमख = थोड़ा थोड़ा। समसरि = बराबर। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के, वे मनुष्य जो गुरू के सन्मुख हैं। परान = जिंद। कनिक = सोना (Gold)। अस्व = अश्व, घोड़े। हैवर = हयवर, बढ़िया घोड़े। भूमि दान = जमीन का दान। अर्थ: (अगर कोई मनुष्य) सारी धरती पर फिरे, लम्बी उम्र तक जीता रहे, (जगत से) बहुत उपराम हो के बड़ा तपस्वी बन जाए; आग में (अपनी) जान हवन कर दे; सोना, घोड़े, बढ़िया घोड़े और जमीन दान करे; न्योली कर्म व अन्य बहुत सारे (योग) आसन करे, जैनियों के रास्ते (चल के) बड़े कठिन साधन व संजम करे; शरीर को रता रता के कटा देवे, तो भी (मन के) अहंकार की मैल दूर नहीं होती। (ऐसा) कोई (उद्यम) प्रभू के नाम के बराबर नहीं है; हे नानक! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के नाम जपते हैं वे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल करते हैं।2। मन कामना तीरथ देह छुटै ॥ गरबु गुमानु न मन ते हुटै ॥ सोच करै दिनसु अरु राति ॥ मन की मैलु न तन ते जाति ॥ इसु देही कउ बहु साधना करै ॥ मन ते कबहू न बिखिआ टरै ॥ जलि धोवै बहु देह अनीति ॥ सुध कहा होइ काची भीति ॥ मन हरि के नाम की महिमा ऊच ॥ नानक नामि उधरे पतित बहु मूच ॥३॥ पद्अर्थ: मन कामना = मन की कामना, मन की इच्छा। तीरथ = तीर्थों पर। छुटै = विछुड़े, (जीवात्मा से) अलग हो। गरबु = अहंकार। गुमानु = अहंकार। हुटै = घटता। सोच = शोच, स्नान। तन ते = शरीर से,शरीर को धोने से। न जाति = नहीं जाती। देही कउ = शरीर की खातिर। साधना = उद्यम। बिखिआ = माया। न टरै = नहीं टलती, नहीं हटती। जलि = पानी से। अनीति = ना नित्य रहने वाली (देह), नाशवंत। भीति = पर्दा, दीवार। नामि = नाम द्वारा। बहु मूच = बहुत, अनगिनत (जीव)। पतित = गिरे हुए, बुरे कर्मों वाले। अर्थ: (कई प्राणियों के) मन की इच्छा (होती है कि) तीर्थों पर (जा के) शरीरिक चोला छोड़ा जाय, (पर इस तरह भी) गर्व, अहंकार मन में कम नहीं होता। (मनुष्य) दिन और रात (भाव, सदा) (तीर्थों पर) स्नान करे, (फिर भी) मन की मैल शरीर धोने से नहीं जाती। (अगर) इस शरीर को (साधने की खातिर) कई यतन भी करें, (तो भी) कभी मन से माया (का प्रभाव) नहीं टलता। (यदि) इस नाशवंत शरीर को कई बार पानी से भी धोएं (तो भी इस शरीर रूपी) कच्ची दीवार कहाँ पवित्र हो सकती है? हे मन! प्रभू के नाम की महिमा बहुत बड़ी है। हे नानक! नाम की बरकति से अनगिनत बुरे कामों वाले जीव (विकारों से) बच जाते हैं।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |