श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 276 कई कोटि राजस तामस सातक ॥ कई कोटि बेद पुरान सिम्रिति अरु सासत ॥ कई कोटि कीए रतन समुद ॥ कई कोटि नाना प्रकार जंत ॥ कई कोटि कीए चिर जीवे ॥ कई कोटि गिरी मेर सुवरन थीवे ॥ कई कोटि जख्य किंनर पिसाच ॥ कई कोटि भूत प्रेत सूकर म्रिगाच ॥ सभ ते नेरै सभहू ते दूरि ॥ नानक आपि अलिपतु रहिआ भरपूरि ॥४॥ {पन्ना 276} पद्अर्थ: राजस...., (सं: रजस्, सत्व, तमस्) = माया के तीनों गुण। नाना प्रकार = कई किस्म के। चिर जीवे = चिर तक जीने वाले, लंबी उम्र वाले। गिरी = पहाड़। थीवे = हो गए, बन गए। जख्य = (सं: यक्ष) एक किस्म के देवते जो धन देवते के अधीन हैं। किंनर = (किन्नर) देवताओं की एक किस्म, जिनका धड़ मनुष्य का व सिर घोड़े का है। पिसाच = (पिशाच) नीची जाति के लोग। सूकर = सूअर। म्रिगाच = (मृग+अच) मृगों को खाने वाले, शेर। अलिपतु = निर लेप, बे दाग। अर्थ: करोड़ों जीव (माया के तीनों गुणों) रजो, तमों और सतो में हैं, करोड़ों (बंदे) वेद पुरान स्मृतियों व शास्त्रों (के पढ़ने वाले) हैं। समुंद्र में करोड़ों रत्न पैदा कर दिए हैं और कई किस्म के जीव जंतु बना दिए हैं। करोड़ों जीव लंबी उम्र (दीर्घायु) वाले पैदा किए हैं, करोड़ों ही सोने के सुमेर पर्वत बन गए हैं। करोड़ों ही यक्ष, किन्नर व पिशाच हैं और करोड़ों ही भूत, प्रेत, सूअर व शेर हैं। (प्रभू) इन सबके नजदीक भी है और दूर भी। हे नानक! प्रभू हर जगह व्यापक भी है और है भी निर्लिप।4। कई कोटि पाताल के वासी ॥ कई कोटि नरक सुरग निवासी ॥ कई कोटि जनमहि जीवहि मरहि ॥ कई कोटि बहु जोनी फिरहि ॥ कई कोटि बैठत ही खाहि ॥ कई कोटि घालहि थकि पाहि ॥ कई कोटि कीए धनवंत ॥ कई कोटि माइआ महि चिंत ॥ जह जह भाणा तह तह राखे ॥ नानक सभु किछु प्रभ कै हाथे ॥५॥ {पन्ना 276} पद्अर्थ: घालहि = मेहनत करते हैं। धनवंत = धन वाले। चिंत = चिंता, फिक्र। जह जह = जहाँ जहाँ। भाणा = (उस प्रभू की) रजा है। अर्थ: करोड़ों जीव पाताल में बसने वाले हैं और करोड़ों ही नर्कों व स्वर्गों में बसते हें (भाव, दुखी व सुखी हैं)। करोड़ों जीव पैदा होते हैं और करोड़ों जीव कई जूनियों में भटक रहे हैं। करोड़ों जीव बैठे ही खाते हैं और करोड़ों (ऐसे हैं जो रोटी की खातिर) मेहनत करते हैं और थक टूट जाते हैं। करोड़ों जीव (प्रभू ने) धन वान बनाए हैं और करोड़ों (ऐसे हैं जिन्हें) माया की चिंता लगी हुई है। जहाँ जहाँ चाहता है, जीवों को वहीं वहीं ही रखता है। हे नानक! हरेक बात प्रभू के अपने हाथ में है।5। कई कोटि भए बैरागी ॥ राम नाम संगि तिनि लिव लागी ॥ कई कोटि प्रभ कउ खोजंते ॥ आतम महि पारब्रहमु लहंते ॥ कई कोटि दरसन प्रभ पिआस ॥ तिन कउ मिलिओ प्रभु अबिनास ॥ कई कोटि मागहि सतसंगु ॥ पारब्रहम तिन लागा रंगु ॥ जिन कउ होए आपि सुप्रसंन ॥ नानक ते जन सदा धनि धंनि ॥६॥ {पन्ना 276} पद्अर्थ: तिन = उनकी। आतम महि = अपने मन में। लहंते = ढूँढते हैं, तलाशते हैं। पिआस = प्यास, इच्छा, तमन्ना। अबिनास = नाश रहित, सदा स्थिर रहने वाला। रंगु = प्यार। धनि धंनि = भाग्यशाली।6। अर्थ: (इस रचना में) करोड़ों जीव वैरागी हैं, जिनकी सुरति अकाल-पुरख के नाम के साथ लगी रहती है। करोड़ों लोग प्रभू को खोजते हैं, अपने अंदर अकाल-पुरख को तलाशते हैं। करोड़ों जीवों को प्रभू के दीदार की तमन्ना लगी रहती है, उन्हें अविनाशी प्रभू मिल जाता है। करोड़ों मनुष्य सत्संग मांगते हैं, उन्हें अकाल-पुरख से इश्क रहता है। हे नानक! वे मनुष्य सदा भाग्यशाली हैं, जिनपे प्रभू स्वयं मेहरवान होता है।6। कई कोटि खाणी अरु खंड ॥ कई कोटि अकास ब्रहमंड ॥ कई कोटि होए अवतार ॥ कई जुगति कीनो बिसथार ॥ कई बार पसरिओ पासार ॥ सदा सदा इकु एकंकार ॥ कई कोटि कीने बहु भाति ॥ प्रभ ते होए प्रभ माहि समाति ॥ ता का अंतु न जानै कोइ ॥ आपे आपि नानक प्रभु सोइ ॥७॥ {पन्ना 276} पद्अर्थ: खाणी = सारे जगत जीवों की उत्पक्ति के चार ढंग (खानें) मानी गई हैं, अंडज: अण्डे से पैदा होने वाले जीव; जेरज:जिउर से पैदा होने वाले; सेतज: पसीने से और; उत्भुज:पानी द्वारा धरती में से पैदा होने वाले जीव। अरु = तथा। खंड = सारी धरती के नौ हिस्से व नौ खण्ड माने गए हैं। कई जुगति = कई युक्तियों से। पसरिओ = पसरा हुआ है। पासार = (सं: प्रसार) खिलारा। भाति = किस्म। समाति = लीन हो जाते हैं। अवतार = पैदा किए हुए जीव।7। अर्थ: (धरती के नौ) खण्डों (चारों) खाणियों के द्वारा करोड़ों ही जीव उत्पन्न हुए हैं, सारे आकाशों, ब्रहमण्डों में करोड़ों ही जीव हैं। करोड़ों ही प्राणी पैदा हो रहे हैं, कई तरीकों से प्रभू ने जगत की रचना की है। (प्रभू ने) कई बार जगत रचना की है; (दुबारा इसे समेट के) सदा एक स्वयं ही हो जाता है। प्रभू ने कई किस्मों के करोड़ों ही जीव पैदा किए हुए हैं, जो प्रभू से पैदा हो के फिर प्रभू में ही लीन हो जाते हैं। उस प्रभू का अंत कोई भी नहीं जानता; (क्योंकि) हे नानक! वह प्रभू (अपने जैसा) स्वयं ही है।7। कई कोटि पारब्रहम के दास ॥ तिन होवत आतम परगास ॥ कई कोटि तत के बेते ॥ सदा निहारहि एको नेत्रे ॥ कई कोटि नाम रसु पीवहि ॥ अमर भए सद सद ही जीवहि ॥ कई कोटि नाम गुन गावहि ॥ आतम रसि सुखि सहजि समावहि ॥ अपुने जन कउ सासि सासि समारे ॥ नानक ओइ परमेसुर के पिआरे ॥८॥१०॥ {पन्ना 276} पद्अर्थ: परगास = प्रकाश, रौशनी। तत = अस्लियत। बेते = जानने वाले, महरम। निहारहि = देखते हैं। नेत्रे = आँखों से। अमर = जनम मरन से रहित। सद = सदा। आतम रसि = आत्मा के रस में, आत्मिक आनंद में। समावहि = टिके रहते हैं। सासि सासि = दम-ब-दम। समारे = संभालता है, याद रखता है। ओइ = वह (सेवक जो उसमें लीन रहते हैं) (शब्द ‘ओइ’ बहुवचन है)। अर्थ: (इस जगत रचना में) करोड़ों जीव प्रभू के सेवक (भगत) हैं, उनके आतम में (प्रभू का) प्रकाश हो जाता है। करोड़ों जीव (जगत की) अस्लियत (अकाल-पुरख) के महरम हैं जो सदा एक प्रभू को आँखों से (हर जगह) देखते हैं। करोड़ों लोग प्रभू नाम का आनंद लेते हैं, वे जनम मरन से रहित हो के सदा ही जीते रहते हैं करोड़ों मनुष्य प्रभू नाम के गुण गाते हैं, वे आत्मिक आनंद में सुख में व अडोल अवस्था में टिके रहते हैं। प्रभू अपने भक्तों को हर दम याद रखता है, (क्योंकि) हे नानक! वह भगत प्रभू के प्यारे होते हैं।8।10। सलोकु ॥ करण कारण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ ॥ नानक तिसु बलिहारणै जलि थलि महीअलि सोइ ॥१॥ {पन्ना 276} पद्अर्थ: करण = (सं: करण) रचना। जलि = जल में। महीअलि = (संस्कृत: महीतल, the surface of the earth) धरती के तल पे। मही = धरती। अर्थ: (इस सारे) जगत का (मूल-) कारण (भाव, बनाने वाला) एक अकाल-पुरख ही है, कोई दूसरा नहीं है। हे नानक! (मैं) उस प्रभू से सदके (हूँ), जो जल में थल में और धरती के तल पर (भाव, आकाश में मौजूद है)।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |