श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बीस बिसवे गुर का मनु मानै ॥ सो सेवकु परमेसुर की गति जानै ॥ सो सतिगुरु जिसु रिदै हरि नाउ ॥ अनिक बार गुर कउ बलि जाउ ॥ सरब निधान जीअ का दाता ॥ आठ पहर पारब्रहम रंगि राता ॥ ब्रहम महि जनु जन महि पारब्रहमु ॥ एकहि आपि नही कछु भरमु ॥ सहस सिआनप लइआ न जाईऐ ॥ नानक ऐसा गुरु बडभागी पाईऐ ॥३॥ {पन्ना 287}

पद्अर्थ: बीस बिसवे = पूरे तौर पर। मानै = मान ले, यकीन बना ले। अनिक बार = कई बार। निधान = खजाने। जीअ = जिंद, आत्मिक जीवन। पारब्रहम रंगि = पारब्रहम के प्यार में। राता = रंगा हुआ। जनु = सेवक। भरमु = भुलेखा। सहस = हजारों।

अर्थ: जो सेवक अपने सतिगुरू को अपनी श्रद्धा का पूरी तरह से यकीन दिलवा लेता है, वह अकाल-पुरख की अवस्था को समझ लेता है।

सतिगुरू (भी) वह है जिसके हृदय में प्रभू का नाम बसता है, (मैं ऐसे) गुरू से कई बार सदके जाता हूँ।

(सतिगुरू) सारे खजानों का और आत्मिक जिंदगी का देने वाला है, (क्योंकि) वह आठों पहर अकाल-पुरख के प्यार में रंगा रहता है।

(प्रभू का) सेवक (-सतिगुरू) प्रभू में (जुड़ा रहता है) और (प्रभू के) सेवक-सतिगुरू में प्रभू (सदा टिका हुआ है)। गुरू और प्रभू एक रूप हैं, इसमें भुलेखे वाली बात नहीं।

हे नानक! हजारों चतुराईयों से ऐसा गुरू नहीं मिलता, बहुत भाग्यों से मिलता है।3।

सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥ परसत चरन गति निरमल रीति ॥ भेटत संगि राम गुन रवे ॥ पारब्रहम की दरगह गवे ॥ सुनि करि बचन करन आघाने ॥ मनि संतोखु आतम पतीआने ॥ पूरा गुरु अख्यओ जा का मंत्र ॥ अम्रित द्रिसटि पेखै होइ संत ॥ गुण बिअंत कीमति नही पाइ ॥ नानक जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥४॥ {पन्ना 287}

पद्अर्थ: सफल = फल देने वाला। पेखत = देखते ही। पुनीत = पवित्र। परसत = छूने से। गति निरमल रीति = निर्मल गति और निर्मल रीति, उच्च अवस्था और स्वच्छ रहन सहन। भेटत = मिलने से। रवे = गाए जाते हैं। गवे = पहुँच हो जाती है। करन = कान। आघाने = तृप्त हो जाते हैं। पतीआने = पतीज जाता है, मान जाता है। अख्यउ = नाश ना होने वाला, सदा कायम। पेखै = देखता है। मंत्र = उपदेश।

अर्थ: गुरू का दीदार (सारे) फल देने वाला है, दीदार करने से पवित्र हो जाते हैं, गुरू के चरण छूने से उच्च अवस्था और स्वच्छ रहन-सहन हो जाता है।

गुरू की संगति में रहने से प्रभू के गुण गा सकते हैं, और अकाल-पुरख की दरगाह में पहुँच हो जाती है।

गुरू के बचन सुन के कान तृप्त हो जाते हैं, मन में संतोष आ जाता है और आत्मा पतीज जाती है।

सतिगुरू पूरन पुरखु है, उसका उपदेश भी सदा के लिए अटॅल है, (जिस की ओर) अमर करने वाली नजर से देखता है वही संत हो जाता है।

सतिगुरू के गुण बेअंत हैं, मूल्य नहीं पड़ सकता। हे नानक! जो जीव (प्रभू को) अच्छा लगता है, उसे गुरू के साथ मिलाता है।4।

जिहबा एक उसतति अनेक ॥ सति पुरख पूरन बिबेक ॥ काहू बोल न पहुचत प्रानी ॥ अगम अगोचर प्रभ निरबानी ॥ निराहार निरवैर सुखदाई ॥ ता की कीमति किनै न पाई ॥ अनिक भगत बंदन नित करहि ॥ चरन कमल हिरदै सिमरहि ॥ सद बलिहारी सतिगुर अपने ॥ नानक जिसु प्रसादि ऐसा प्रभु जपने ॥५॥ {पन्ना 287}

पद्अर्थ: उसतति = महिमा, गुण। बिबेक = परख, विचार। काहू बोल = किसी बात से। अगोचर = जिस तक शारीरिक इंद्रियों की पहुँच नहीं। निरबानी = वासना रहित। निराहार = निर आहार, खुराक के बिना, जिस को किसी खुराक की आवश्यक्ता नहीं। बंदन = नमस्कार, प्रणाम। जिस प्रसादि = जिस की कृपा से।

अर्थ: (मनुष्य की) जीभ एक है पर पूरन पुरख सदा स्थिर व्यापक प्रभू के अनेकों गुण हैं।

मनुष्य किसी बोल के द्वारा (प्रभू के गुणों तक) नहीं पहुँच सकता, प्रभू पहुँच से परे है, वासना-रहित है, और मनुष्य की शारीरिक इंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं।

अकाल-पुरख को किसी खुराक की जरूरत नहीं, प्रभू वैर-रहित है (बल्कि, सबको) सुख देने वाला है, कोई जीव उस (के गुणों) का मूल्य नहीं पा सका।

अनेकों भक्त सदा (प्रभू को) नमस्कार करते हैं, और उसके कमल समान (सुंदर) चरणों को अपने हृदय में सिमरते हैं।

हे नानक! (कह–) जिस गुरू की मेहर से ऐसे प्रभू को जप सकते हैं, मैं अपने उस गुरू से सदा सदके जाता हूँ।5।

इहु हरि रसु पावै जनु कोइ ॥ अम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥ उसु पुरख का नाही कदे बिनास ॥ जा कै मनि प्रगटे गुनतास ॥ आठ पहर हरि का नामु लेइ ॥ सचु उपदेसु सेवक कउ देइ ॥ मोह माइआ कै संगि न लेपु ॥ मन महि राखै हरि हरि एकु ॥ अंधकार दीपक परगासे ॥ नानक भरम मोह दुख तह ते नासे ॥६॥ {पन्ना 287}

पद्अर्थ: जनु कोइ = कोई विरला मनुष्य। गुनतास = गुणों के खजाने प्रभू जी। लेपु = लगाव, जोड़। अंधकार = अंधेरा। तह ते = उस (मनुष्य) से।

अर्थ: कोई विरला मनुष्य ही प्रभू के नाम का स्वाद लेता है (और जो लेता है) वह नाम-अमृत पीता है, और अमर हो जाता है।

जिसके मन में गुणों के खजाने प्रभू का प्रकाश होता है, उसका कभी नाश नहीं होता (भाव, वह बार बार मौत का शिकार नहीं होता)।

(सतिगुरू) आठों पहर प्रभू का नाम सिमरता है, और अपने सेवक को भी यही सच्चा उपदेश देता है। माया के मोह से उसका कभी लगाव नहीं होता, वह सदा अपने मन में एक प्रभू को टिकाता है।

हे नानक! (जिसके अंदर से) (नाम-रूपी) दीए से (अज्ञानता का) अंधेरा (हट के) प्रकाश हो जाता है, उसके भुलेखे और मोह के (कारण पैदा हुए) दुख दूर हो जाते हैं।6।

तपति माहि ठाढि वरताई ॥ अनदु भइआ दुख नाठे भाई ॥ जनम मरन के मिटे अंदेसे ॥ साधू के पूरन उपदेसे ॥ भउ चूका निरभउ होइ बसे ॥ सगल बिआधि मन ते खै नसे ॥ जिस का सा तिनि किरपा धारी ॥ साधसंगि जपि नामु मुरारी ॥ थिति पाई चूके भ्रम गवन ॥ सुनि नानक हरि हरि जसु स्रवन ॥७॥ {पन्ना 287}

पद्अर्थ: तपति = तपष्, विकारों का जोश। ठाढि = ठंढ। भइआ = हो गया। अंदेसे = फिक्र, चिंता। साधू = गुरू। बिआधि = (सं: वयाधि) शारीरिक रोग। खै = क्षय, नाश हो के। जपि = जप के, जपने से। थिति = टिकाव, शांति। चूके = समाप्त हो गए। भ्रम = भरम भुलेखे। सुनि = सुन के।

अर्थ: हे भाई! गुरू के पूरे उपदेश से (विकारों की) तपश में (बसते हुए भी, प्रभू ने हमारे अंदर) ठंड वरता दी है, सुख ही सुख हो गया है, दुख भाग गए हैं और जनम मरन के (चक्कर में पड़ने के) डर फिक्र मिट गए हैं।

(सारा) डर खत्म हो गया है, अब निडर बसते हैं और रोग नाश हो के मन से बिसर गए हैं।

जिस गुरू के बने थे, उसने (हमारे पर) कृपा की है; सत्संग में प्रभू का नाम जप के, और हे नानक! प्रभू का यश कानों से सुन के (हमने) शांति हासिल कर ली है और (हमारे) भुलेखे और भटकनें समाप्त हो गई हैं।7।

निरगुनु आपि सरगुनु भी ओही ॥ कला धारि जिनि सगली मोही ॥ अपने चरित प्रभि आपि बनाए ॥ अपुनी कीमति आपे पाए ॥ हरि बिनु दूजा नाही कोइ ॥ सरब निरंतरि एको सोइ ॥ ओति पोति रविआ रूप रंग ॥ भए प्रगास साध कै संग ॥ रचि रचना अपनी कल धारी ॥ अनिक बार नानक बलिहारी ॥८॥१८॥ {पन्ना 287-288}

पद्अर्थ: निरगुनु = माया के तीनों गुणों से अलग। सरगुनु = माया के तीनों गुणों के रूप् वाला, सारा दिखाई देता जगत रूप। मोही = मोह ली है। ओति पोति = ओत प्रोत। रविआ = व्यापक है। कल = ताकत, कला।

अर्थ: जिस प्रभू ने अपनी ताकत कायम करके सारे जगत को मोह लिया है, वह स्वयं माया के तीनों गुणों से अलग है, त्रिगुणी संसार का रूप भी स्वयं ही है।

प्रभू ने अपने खेल तमाशे स्वयं ही बनाए हैं, अपनी बुजुर्गी का मूल्य भी खुद ही डालता है।

प्रभू के बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है, सब के अंदर प्रभू स्वयं ही (मौजूद) है।

ओत-प्रोत सारे रूपों और रंगों में व्यापक है; ये प्रकाश (भाव, समझ) सतिगुरू की संगति में प्रकाशित होता है।

सृष्टि रच के प्रभू ने अपनी सक्ता (इस सृष्टि में) टिकाई है। हे नानक! (कह) मैं कई बार (ऐसे प्रभू से) सदके हूँ।8।18।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh