श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥ बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥ होहि अचिंतु बसै सुख नालि ॥ सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥ छाडि सिआनप सगली मना ॥ साधसंगि पावहि सचु धना ॥ हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ॥ ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥ सरब निरंतरि एको देखु ॥ कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥ {पन्ना 289}

पद्अर्थ: बिखु = जहर, विष। फैलु = फैलाव, पसारा। अचिंतु = बेफिक्र। सासि = सांस के साथ। ग्रासि = ग्रास के साथ। सचु धना = सच्चा धन, सदा निभने वाला धन। संचि = संचित कर। बिउहारु = व्यापार। ईहा = इस जनम में। जैकारु = सदा की जीत, आदर, अभिनंदन। सरब निरंतरि = सब के अंदर। जा कै मसतकि = जिसके माथे पर।

अर्थ: (हे भाई!) प्रभू के गुण गाते हुए तेरी (विकारों की) मैल उतर जाएगी, और अहंम् रूपी विष का पसारा भी मिट जाएगा।

हर दम प्रभू के नाम को याद कर, बेफिक्र हो जाएगा और सुखी जीवन व्यतीत होगा।

हे मन! सारी चतुराई छोड़ दे, सदा साथ निभने वाला धन सतिसंग में मिलेगा।

प्रभू के नाम की राशि संचित कर, यही व्यवहार कर। इस जीवन में सुख मिलेगा, और प्रभू की दरगाह में आदर होगा।

सब जीवों के अंदर एक अकाल-पुरख को ही देख, (पर) हे नानक! कह– (यह काम वही मनुष्य करता है) जिसके माथे पर भाग्य हैं।7।

एको जपि एको सालाहि ॥ एकु सिमरि एको मन आहि ॥ एकस के गुन गाउ अनंत ॥ मनि तनि जापि एक भगवंत ॥ एको एकु एकु हरि आपि ॥ पूरन पूरि रहिओ प्रभु बिआपि ॥ अनिक बिसथार एक ते भए ॥ एकु अराधि पराछत गए ॥ मन तन अंतरि एकु प्रभु राता ॥ गुर प्रसादि नानक इकु जाता ॥८॥१९॥ {पन्ना 289}

पद्अर्थ: ऐको = एक प्रभू को ही। मन = हे मन! आहि = चाह कर, तमन्ना रख। अनंत = बेअंत। भगवंत = भगवान। बिआपि रहिओ = सब में बस रहा है। पराछत = पाप। राता = रंगा हुआ।

अर्थ: एक प्रभू को ही जप, और एक प्रभू की ही सिफत कर, एक को सिमर, और, हे मन! एक प्रभू के मिलने की तमन्ना रख।

एक प्रभू के ही गुण गा, मन में और शारीरिक इंद्रियों से एक भगवान को ही जप।

(सब जगह) प्रभू खुद ही खुद है, सब जीवों में प्रभू ही बस रहा है।

(जगत के) अनेकों पसारे एक प्रभू से ही पसरे हुए हैं, एक प्रभू को सिमरने से पाप नाश हो जाते हैं।

जिस मनुष्य के मन और शरीर में एक प्रभू ही परोया गया है, हे नानक! उस ने गुरू की कृपा से उस एक प्रभू को पहचान लिया है।8।19।

सलोकु ॥ फिरत फिरत प्रभ आइआ परिआ तउ सरनाइ ॥ नानक की प्रभ बेनती अपनी भगती लाइ ॥१॥ {पन्ना 289}

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! परिआ = पड़ा हूँ। तउ सरनाइ = तेरी शरण। प्रभ = हे प्रभू! लाइ = लगा ले।

अर्थ: हे प्रभू! भटकता भटकता मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ। हे प्रभू! नानक की ये विनती है कि मुझे अपनी भक्ति में जोड़।1।

असटपदी ॥ जाचक जनु जाचै प्रभ दानु ॥ करि किरपा देवहु हरि नामु ॥ साध जना की मागउ धूरि ॥ पारब्रहम मेरी सरधा पूरि ॥ सदा सदा प्रभ के गुन गावउ ॥ सासि सासि प्रभ तुमहि धिआवउ ॥ चरन कमल सिउ लागै प्रीति ॥ भगति करउ प्रभ की नित नीति ॥ एक ओट एको आधारु ॥ नानकु मागै नामु प्रभ सारु ॥१॥ {पन्ना 289}

पद्अर्थ: जाचक जनु = याचना करता मनुष्य। जाचै = मांगता है। धूरि = धूड़। मागउ = मैं मांगता हूँ। पारब्रहम = हे पारब्रहम! सरधा = इच्छा। पूरि = पूरी कर। गावउ = मैं गाऊँ। नित नीति = सदा ही। नानकु मागै = नानक मांगता है। नामु प्रभ सारु = प्रभ सार नाम, प्रभू का श्रेष्ठ नाम।

अर्थ: हे प्रभू! (यह) मंगता (याचक) दास (तेरे नाम का) दान मांगता है; हे हरी! कृपा करके (अपना) नाम दे।

हे पारब्रहम! मेरी इच्छा पूरी कर, मैं साधु जनों के पैरों की खाक मांगता हूँ।

मैं सदा ही प्रभू के गुण गाऊँ। हे प्रभू! मैं हर दम तुझे ही सिमरूँ।

प्रभू के कमल (जैसे सुंदर) चरनों से मेरी प्रीति लगी रहे और सदा ही प्रभू की भक्ति करता रहूँ।

(प्रभू का नाम ही) एक ही मेरी ओट है और एक ही आसरा है, नानक प्रभू का श्रेष्ठ नाम मांगता है।1।

प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ॥ हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥ जिन चाखिआ से जन त्रिपताने ॥ पूरन पुरख नही डोलाने ॥ सुभर भरे प्रेम रस रंगि ॥ उपजै चाउ साध कै संगि ॥ परे सरनि आन सभ तिआगि ॥ अंतरि प्रगास अनदिनु लिव लागि ॥ बडभागी जपिआ प्रभु सोइ ॥ नानक नामि रते सुखु होइ ॥२॥ {पन्ना 289}

पद्अर्थ: त्रिपताने = संतुष्ट, माया से बेपरवाह। सुभर = नाको नाक। प्रेम रस रंगि = प्रेम के स्वाद की मौज में। आन = अन्य। तिआगि = छोड़ के। प्रगास = प्रकाश। अनदिनु = हर रोज, हर समय। नामि रते = नाम में रंगे हुए को।

अर्थ: प्रभू की (मेहर की) नजर से बड़ा सुख होता है, (पर) कोई विरला मनुष्य ही प्रभू के नाम का स्वाद चखता है

जिन्होंने (नाम रस) चखा है, वह मनुष्य (माया की ओर से) संतुष्ट हो गए हैं, वह पूर्ण मनुष्य बन गए हैं, कभी (माया के फायदे नुकसान में) डोलते नहीं।

प्रभू के प्यार के स्वाद की मौज में वह सराबोर (नाको-नाक भरे) रहते हैं, साध जनों की संगति में रह के (उनके अंदर) (प्रभू मिलाप का) चाव पैदा होता है।

और सारे (आसरे) छोड़ के वह प्रभू की शरण पड़ते हैं, उनके अंदर प्रकाश हो जाता है, और हर समय उनकी लिव (प्रभू चरनों में) लगी रहती है।

बहुत भाग्यशालियों ने प्रभू को सिमरा है। हे नानक! प्रभू के नाम में रंगे रहने से सुख होता है।2।

सेवक की मनसा पूरी भई ॥ सतिगुर ते निरमल मति लई ॥ जन कउ प्रभु होइओ दइआलु ॥ सेवकु कीनो सदा निहालु ॥ बंधन काटि मुकति जनु भइआ ॥ जनम मरन दूखु भ्रमु गइआ ॥ इछ पुनी सरधा सभ पूरी ॥ रवि रहिआ सद संगि हजूरी ॥ जिस का सा तिनि लीआ मिलाइ ॥ नानक भगती नामि समाइ ॥३॥ {पन्ना 289}

पद्अर्थ: मनसा = मन की इच्छा। मति = शिक्षा। जन कउ = अपने सेवक को। निहालु = प्रसन्न, खुश। भ्रम = भरम, भुलेखा, सहसा। रवि रहिआ = हर जगह मौजूद। सद = सदा। संगि = साथ। हजूरी = अंग संग। सा = था, बना। तिनि = उस प्रभू ने।

अर्थ: (जब सेवक) अपने गुरू से उक्तम शिक्षा लेता है (तब सेवक के मन के फुरने पूरे हो जाते हैं, माया की ओर से दौड़ समाप्त हो जाती है)।

प्रभू अपने (ऐसे) सेवक पर मेहर करता है, और, सेवक को सदा प्रसन्न रखता है।

सेवक (माया वाली) जंजीर तोड़ के मुक्त हो जाता है, उसका जनम मरण (का चक्र) का दुख और सहसा खत्म हो जाता है।

सेवक की इच्छा और श्रद्धा सफल हो जाती है, उसे प्रभू सब जगह व्यापक अपने अंग संग दिखता है।

हे नानक! जिस मालिक का वह सेवक बनता है, वह अपने साथ मिला लेता है, सेवक भगती करके नाम में टिका रहता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh