श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु ॥ आतमु जीता गुरमती गुण गाए गोबिंद ॥ संत प्रसादी भै मिटे नानक बिनसी चिंद ॥१५॥

पउड़ी ॥ अमावस आतम सुखी भए संतोखु दीआ गुरदेव ॥ मनु तनु सीतलु सांति सहज लागा प्रभ की सेव ॥ टूटे बंधन बहु बिकार सफल पूरन ता के काम ॥ दुरमति मिटी हउमै छुटी सिमरत हरि को नाम ॥ सरनि गही पारब्रहम की मिटिआ आवा गवन ॥ आपि तरिआ कुट्मब सिउ गुण गुबिंद प्रभ रवन ॥ हरि की टहल कमावणी जपीऐ प्रभ का नामु ॥ गुर पूरे ते पाइआ नानक सुख बिस्रामु ॥१५॥ {पन्ना 300}

पद्अर्थ: सलोकु = आतमु = अपने आप को। गुरमती = गुरू की शिक्षा से। संत प्रसादी = गुरू की कृपा से, संत के प्रसादि से। भै = (शब्द ‘भउ’ का बहुवचन)। चिंद = चिंता, फिक्र।15।

पउड़ी। अमावसि = मसिआ, जिस रात चाँद बिल्कुल नहीं दिखता। सीतल = ठंडा। सहज = आत्मिक अडोलता। ता के = उस के। दुरमति = बुरी मति। को = का। गही = पकड़ी। आवा गवन = आना जाना, जनम मरण। कुटंब सिउ = परिवार समेत। रवन = सिमरन (से)। ते = से। सुख बिस्राम = सुखों का ठिकाना परमातमा।15।

अर्थ-सलोकु- हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरू की शिक्षा पर चल के अपने आप को (अपने मन को) बस में किया और परमात्मा की सिफत सालाह की, गुरू की कृपा से उसके सारे डर दूर हो गए और हरेक किस्म की चिंता-फिक्र का नाश हो गया।15।

पउड़ी- (हे भाई!) जिस मनुष्य को सतिगुरू ने संतोख बख्शा, उसकी आत्मा सुखी हो गई। (गुरू की कृपा से) वह परमात्मा की सेवा-भगती में लगा (जिस करके) उसका मन उसका हृदय ठंडा-ठार हो गया।, उसके अंदर शांति और आत्मिक अडोलता पैदा हो गई।

(हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरने से अनेकों विकारों (के संस्कारों के) बंधन टूट जाते हैं (जो मनुष्य सिमरन करता है) उसके सारे कारज रास आ जाते हैं, उसकी खोटी मति खत्म हो जाती है और उसे अहंकार से मुकती मिल जाती है।

(हे भाई!) जिस मनुष्य ने पारब्रहम परमेश्वर का आसरा लिया, उसका जनम-मरण (का चक्र) समाप्त हो जाता है। गोबिंद प्रभू के गुण गाने की बरकति से वह मनुष्य अपने परिवार समेत (संसार-समुंद्र से) पार लांध जाता है।

(हे भाई!) परमात्मा की सेवा भगती करनी चाहिए, परमात्मा का नाम जपना चाहिए। हे नानक! सारे सुखों का मूल वह प्रभू पूरे गुरू की कृपा से मिल जाता है।15।

सलोकु ॥ पूरनु कबहु न डोलता पूरा कीआ प्रभ आपि ॥ दिनु दिनु चड़ै सवाइआ नानक होत न घाटि ॥१६॥

पउड़ी ॥ पूरनमा पूरन प्रभ एकु करण कारण समरथु ॥ जीअ जंत दइआल पुरखु सभ ऊपरि जा का हथु ॥ गुण निधान गोबिंद गुर कीआ जा का होइ ॥ अंतरजामी प्रभु सुजानु अलख निरंजन सोइ ॥ पारब्रहमु परमेसरो सभ बिधि जानणहार ॥ संत सहाई सरनि जोगु आठ पहर नमसकार ॥ अकथ कथा नह बूझीऐ सिमरहु हरि के चरन ॥ पतित उधारन अनाथ नाथ नानक प्रभ की सरन ॥१६॥ {पन्ना 300}

पद्अर्थ: सलोकु = पूरन = कमी रहित जीवन वाला। प्रभ आपि = प्रभू ने आप। दिनु दिनु = दिनो दिन। चढ़ै सवाइआ = बढ़ता है, आत्मिक जीवन में चमकता है। घाटि = (आत्मिक जीवन में) कमी।16।

पउड़ी। पूरनमा = पूरनमाशी, जिस रात चाँद पूरा होता है। करण कारण = जगत का मूल। समरथु = सब ताकतों का मालिक। जीअ = (शब्द ‘जीअ’ का बहुवचन)। जा का = जिस का। निधान = खजाना। गुर = बड़ा। अंतरजामी = (हरेक के) अंदर की जानने वाला। सुजानु = सियाना। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। निरंजन = (निर+अंजन, अंजन = माया की कालिख) माया-रहित प्रभू। सभ बिधि = हरेक ढंग। सरनि जोगु = शरण आए की सहायता करने के लायक। अकथ = जिसको बयान ना किया जा सके। पतित = (विकारों में) गिरे हुए।16।

अर्थ-सलोकु- हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा ने खुद पूर्ण जीवन वाला बना दिया वह पूरन मनुष्य कभी (माया के आसरे तले आ के) नहीं डोलता, उसका आत्मिक जीवन दिनो-दिन ज्यादा चमकता है, उसके आत्मिक जीवन में कभी कमी नहीं आती।16।

पउड़ी- सिर्फ परमात्मा ही सारे गुणों से भरपूर है, सारे जगत का मूल हैऔर सारी ताकतों का मालिक है। वह सर्व-व्यापक प्रभू सब जीवों पर दयावान रहता है, सब जीवों पर उस (की सहायता) का हाथ है।

वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, सारी सृष्टि का पालक है, सबसे बड़ा है, सब कुछ उसी का किया घटित होता है। प्रभू सबके दिल की जानने वाला है, समझदार है, उसका संपूर्ण स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह माया के प्रभाव से परे है।

(हे भाई!) वह पारब्रहम सबसे बड़ा मालिक है (जीवों के भले का) हरेक ढंग जानने वाला है, संतों का रक्षक है, शरण आए की सहायता करने के लायक है - उस परमात्मा को आठों पहर नमस्कार कर।

हे नानक! परमात्मा के सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते, उसका सही स्वरूप समझा नहीं जा सकता। उस परमात्मा के चरणों का ध्यान धर। वह परमात्मा (विकारों में) गिरे लोगों को (विकारों से) बचाने वाला है, वह निखसमों का खसम है (अनाथों का नाथ है), उसका आसरा ले।16।

सलोकु ॥ दुख बिनसे सहसा गइओ सरनि गही हरि राइ ॥ मनि चिंदे फल पाइआ नानक हरि गुन गाइ ॥१७॥ {पन्ना 300}

पद्अर्थ: सलोकु = बिनसे = नाश हो गए। सहसा = सहम। गही = पकड़ी। हरि राइ = प्रभू पातशाह। मनि = मन में। चिंदे = चितवे हुए। नानक = हे नानक! गाइ = गा के।

अर्थ- हे नानक! (जिस मनुष्य ने) प्रभू पातशाह का आसरा लिया, (उसके) सारे दुख नाश हो गए, (उसके अंदर से हरेक किस्म का) सहम दूर हो गया। परमातमा के गुण गा के (उसने अपने) मन में चितवे हुए सारे ही फल हासिल कर लिए।17।

पउड़ी ॥ कोई गावै को सुणै कोई करै बीचारु ॥ को उपदेसै को द्रिड़ै तिस का होइ उधारु ॥ किलबिख काटै होइ निरमला जनम जनम मलु जाइ ॥ हलति पलति मुखु ऊजला नह पोहै तिसु माइ ॥ {पन्ना 300}

पद्अर्थ: कोई = जो कोई मनुष्य। को = जो कोई मनुष्य। बीचारु = (परमात्मा के गुणों की) विचार। उपदेसै = औरों को उपदेश करता है। द्रिढ़ै = (अपने मन में) पक्का करता है।

तिस का: यहां शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण नहीं लगी है।

उधारु = (पापों, किलविखों से) बचाव। किलविख = पाप। काटै = काट लेता है। निरमला = पवित्र (जीवन वाला)। मलु = (किए विकारों की) मैल। जाइ = दूर हो जाती है। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। ऊजल = रौशन। पोहै = अपना जोर नहीं डाल सकती। माइ = माया।

अर्थ- जो कोई मनुष्य (परमात्मा के गुण) गाता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा की सिफत सलाह) सुनता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा के गुणों को अपने) मन में बसाता है, जो कोई मनुष्य (परमात्मा की सिफत सालाह करने का औरों को) उपदेश देता है (और खुद भी उस सिफत सालाह को अपने मन में) पक्की तरह टिकाता है, उस मनुष्य का विकारों से बचाव हो जाता है। वह मनुष्य (अपने अंदर से) विकार काट लेता है। उसका जीवन पवित्र हो जाता है, अनेको जन्मों (के किए हुए विकारों) की मैल (उसके अंदर से) दूर हो जाती है। इस लोक में (भी उसका) मुंह रौशन रहता है (क्योंकि) माया उसपे अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।

सो सुरता सो बैसनो सो गिआनी धनवंतु ॥ सो सूरा कुलवंतु सोइ जिनि भजिआ भगवंतु ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु बैसु उधरै सिमरि चंडाल ॥ जिनि जानिओ प्रभु आपना नानक तिसहि रवाल ॥१७॥ {पन्ना 300}

पद्अर्थ: सुरता = जिसने प्रभू के चरणों में सुरति जोड़ी हुई है। बैसनो = स्वच्छ आचरण वाला भगत। गिआनी = परमात्मा से गहरी सांझ पाने वाला। सूरा = (विकारों का मुकाबला कर सकने वाला) शूरबीर। कुलवंतु = ऊँचे कुल वाला। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। भगवंतु = भगवान। सूदु = शूद्र। उधरै = (विकारों से) बच जाता है। सिमरि = सिमर के। जानिओ = गहरी सांझ डाली। तिसहि रवाल = उसकी चरण धूड़ (मांगता है)।

अर्थ- (हे भाई!) जिस (मनुष्य) ने भगवान का भजन किया है, वही उच्च कुल वाला है, वह (विकारों का टाकरा करने वाला असल) शूरवीर है; वह (असल) धनवान है; वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ वाला है; वह ऊँचे आचरन वाला है; वह प्रभू-चरणों में सुरति जोड़े रखने वाला है।

(हे भाई! कोई) क्षत्रिय (हो, कोई) ब्राहमण (हो, कोई) शूद्र (हो, कोई) वैश (हो, कोई) चण्डाल (हो, किसी भी वर्ण का हो, परमात्मा का नाम) सिमर के (वह विकारों से) बच जाता है। जिस (भी मनुष्य) ने अपने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली है, नानक उसके चरणों की धूड़ (मांगता है)।17।

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गउड़ी की वार महला ४

वार का भाव

पउड़ी-वार

(1) परमात्मा की सिफत सलाह करना एक सोहाना सुंदर काम है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के यह कार करता है, वह प्रभू के नाम में लीन रहके संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।

(2) जो मनुष्य एक-मन हो के नाम सिमरते हैं, उनके सारे दुख दूर हो जाते हैं।

(3) गुरू के सन्मुख हो के परमात्मा का नाम सिमरन करने से मनुष्य को ये यकीन बनता जाता है कि प्रभू सिर पर रक्षक है, सब कुछ उसी की रजा में हो रहा है। इस श्रद्धा के बनने से मनुष्य के चिंता-फिक्र, झोरे नाश हो जाते हैं।

(4) गुरू के शबद द्वारा प्रभू का सिमरन करने से ये समझ आ जाती हैकि सब कुछ करने के समर्थ परमात्मा, जगत का प्रबंध चलाने में कोई कमी नहीं छोड़ता, जो कुछ करता है जीवों के भले के लिए करता है। इस तरह बंदगी करने वाले के सारे दुख और झोरे मिट जाते हैं।

(5) सतिगुरू के बताए राह पर चल कर जैसे-जैसे मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह करता है, प्रभू उसे मन में प्यारा लगने लगता है, और इस प्यार की कसक से वह स्वयं को प्रभू में लीन कर लेता है।

(6) नाम सिमरन की बरकति से मनुष्य को मौत का डर नहीं रह जाता, और उसका माथा सदा आनंद भाव में खिला रहता है, पर जिसके अंदर निरी माया की ही लगन है उसके मन में झूठ-कपट होने के कारण उसका चेहरा भ्रष्टा रहता है।

(7) गुरू की शरण पड़ के प्रभू की सिफत सालाह करने से मनुष्य के पिछले अवगुण सहज ही दूर हो जाते हैं, कोई खास प्रयत्न नहीं करने पड़ते।

(8) जिस मनुष्य पर गुरू मेहर करता है, उसे परमात्मा मिलता है, क्योंकि पाँचों कामादिकों को वश करने के करण गुरू और परमात्मा एक रूप हैं। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ने की जगह अपने आप को बड़ा कहलवाते हैं, उन भ्रष्ट हुओं को सदा धिक्कारें ही पड़ती हैं।

(9) पूरे सतिगुरू की बाणी तो ‘सत्य स्वरूप’ है, इस बाणी का आसरा ले के ‘सत्य स्वरूप’ ही बन जाना है। पर अंदर से और तथा बाहर से कुछ और मनुष्य गुरू की रीस (नकल) करके ‘कच्चा-पक्का’ बोलते हैं, उनका पाज खुल जाता है, क्योंकि वे तो माया की खातिर ही झखें मारते हैं।

(10) और, जो मनुष्य प्रभू को विसार के और तरफ माया आदि में चिक्त जोड़ते हैं वे झूठ के व्यापारी हैं। उनका कोई आधार नहीं, वे मूर्ख ख्वार ही होते हैं।

(11) बड़े दुर्लभ हैं वो जो एक-मन हो के नाम सिमरते हैं, उनका आसरा ले के और भी तैर जाते हैं। पर जिन्हें निरा खाने-पीने-पहनने का चस्का है, वे कोढ़ के मारे हुए सामने तो मीठीं बातें करते हैं, पर पीछे से दबा के निंदा करते हैं, ऐसे खोटे बंदे रॅब से दूर बिछुड़े पड़े हैं।

(12) प्रभू की बंदगी करने वाले संत-जन तो सारे जगत में शोभा पाते हैं। पर जो मूर्ख उनसे वैर बना लेते हैं, वह कभी सुखी नहीं होते, निर्वैर से वैर करते हैं, अहंकार और ईष्या की आग में जलते हैं। ऐसे लोग शुरू से ही कटे हुए वृक्ष की तरह हैं जिसकी टहनियां खुद ही सूख जाती हैं। इन गुर-निंदको के अंदर भी कोई गुण पनप नहीं सकता।

(13) जिंदगी के सफर में जिन मनुष्यों के पास परमात्मा के सिफतसालाह वाली बाणी-रूप राहदारी है, उनके राह में कामादिक विकार बाधा नहीं डाल सकते, क्योंकि उन्हें परमात्मा की ताकत पर भरोसा होता है, पर ये दाति सतिगुरू से ही मिलती है।

(14) यह जगत, जैसे, व्यापार की मण्डी है। परमात्मा-शाहूकार ने जीवों को यहाँ व्यापार करने भेजा है। जो मनुष्य प्रभू के नाम व सिफत सलाह का व्यापार करते हैं वह सुर्खरू हो के उसके पास पहुँच जाते हैं। पर ये व्यापार सतिगुरू का आसरा ले के ही हो सकता है।

(15) पर यह ‘नाम’-व्यापार कहीं बाहर जंगलों में जाकर नहीं करना, ये मूर्खों वाली भटकना है। ये मानव-शरीर, जैसे, एक किला है और इसके अंदर ही, जैसे बाजार बने पड़े हैं। मन को गुरू की सहायता से अंदर की ओर ही मोड़ के परमात्मा के नाम और सिफत सलाह रूपी हीरे-मोतियों का व्यापार करना है।

(16) यह मानस-शरीर ही ‘धर्म’ कमाने की जगह है; इस में मानो, बेश-कीमती लाल छुपे हुए हैं। जो मनुष्य सतिगुरू की शरणी पड़ता है, उसे ये लाल ढूँढने की समझ आ जाती है। फिर ज्यों-ज्यों वह नाम सिमरता हैउसे हर जगह ताने-पेटे की तरह बुना हुआ परोया हुआ परमात्मा दिखता है।

(17) गुरू की शरण पड़ने से, गुरू का दीदार करने से, मन में हौसला पैदा हो के मनुष्य कामादिक डाकुओं से मुकाबला करने के लायक हो जाता है, क्योंकि गुरू स्वयं अपने अंदर से इन कामादिकों को खत्म करके परमात्मा का रूप हो चुका है। गुरू के सन्मुख हो के ही यह बाजी जीती जा सकती है।

(18) सतिगुरू के बताए हुए राह पर चल के जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सलाह करता है, उसके मन में सिमरन के आनंद का इतना गहरा असर पड़ता है कि दुनिया वाले सारे स्वाद इस के सामने फीके पड़ जाते हैंए सो वह उन रसों की तरफ मुंह ही नहीं करता। वैसे इस आत्मिक आनंद का स्वरूप शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता, गूँगे की मिठाई खाने वाली ही बात है।

(19) जो मनुष्य प्रभू का नाम सिमरते हैं, प्रभू स्वयं रक्षक बन के उन्हें विकारों से बचाता है। क्योंकि ‘तू तू’ करते-करते वे अपनी ‘मैं’ को ‘तू’ में ही समा देते हैं। पर बंदगी से टूटे हुए मस्ताए मनुष्य भटकते हैं और शराबियों की तरह ऊल-जलूल बोलते हैं।

(20) ज्यों-ज्यों सिफत सलाह में मन भीगता है, सिमरन की ओर ज्यादा कशिश बनती जाती है, यहाँ तक कि दुनियावी रस इंद्रियों को अपनी ओर खींच ही नहीं पाते, ऐसे मनुष्य लोक-परलोक दोनों जगह ‘शाबाशी’ पाते हैं।

(21) सिमरन करते-करते उनका परमात्मा से इतना प्यार बन जाता है कि वह सोए जागते हर समय उसकी याद में मस्त रहते हैं, ये प्यार कभी भी फीका नहीं पड़ता। इसमें शक नहीं कि ऐसे ऊँचे प्यार वाले लोग होते दुर्लभ (विरले) ही हैं।

(22) जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के सिमरन व परमात्मा की तलाश करता है, उसे अपने अंदर से ही प्रभू मिल जाता है, उस को मौत का डर भी खत्म हो जाता है, क्योंकि वह अपना आप परमात्मा के साथ एक-मेक कर लेता है।

(23) जैसे-जैसे मनुष्य गुरू के बताए राह पर चल के प्रभू की सिफत सलाह करता है त्यों-त्यों उसे प्रभू का बड़प्पन प्रत्यक्ष तौर पर उसकी बनाई हुई कुदरत में दिखने लगता है। इसका नतीजा ये निकलता है कि उस मनुष्य की तृष्णा मिट जाती है।

(24) सब जीवों के अंदर, माया के प्रभाव के कारण, चिंता आदि के फुरने उठते रहते हैं। पर जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के सिमरन करते हैं उन्हें हर जगह प्रभू के किए चोज दिखाई देते हैं, इस लिए माया का कोई आडंबर उन्हें प्रभू की याद से डुला नहीं सकता।

(25) जो मनुष्य गुरू का उपदेश ध्यान से सुन के गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, उसके पाप विकार दूरहो जाते हैं, उसका चेहरा खिल उठता है। ये रास्ता निराला ही प्रतीत होता है पर यह सच है कि सतिगुरू की ही दी हुई शिक्षा सुन के मन परमात्मा के प्यार में भीग सकता है।

(26) पर जिन मनुष्यों का मन माया में पतीजा हुआ है, उनके पास आने का स्वाद नहीं आता,क्योंकि सच और झूठ का मेल नहीं हो सकता। झूठ के बंजारे झूठ के व्यापारियों के पास ही जाना पसंद करते हैं।

(27) चोर रात के अंधेरे में ये समझ के कि अब कोई नहीं देखता चोरी करने चल पड़ते हैं, सेंध लगाते हैं, पराई सि्त्रयों की तरफ विकारों भरी नजरों से देखते हैं, पर उनके ये विकार परमात्मा से नहीं छुप सकते। आखिर वे निहित नियमों के अनुसार विकारी लोग दुखी होते हैं और पछताते हैं।

(28) विकारों की ठोकर खा के, जिंदगी की सही राह से टूटा हुआ मनुष्य बेअंत पाप करता फिरता है, दूसरों की निंदा में पड़ के सदा लड़ता रहता हैं इस नर्क की आग़ से उसे बचाए कौन?

(29) जिस मनुष्य को गुरू परमात्मा का नाम बख्शता है, उसकी सारी चिंताएं व कामादिक विकार नाश हो जाते है क्योंकि प्रभू का नाम ही जिंदगी का सही आसरा है।

(30) विकारी पापी मनुष्य बंदगी करने वाले का कोई नुकसान नहीं कर सकता, बल्कि अपने मंद कर्मों के कारण खुद दुखी होता है।

(31) प्रभू की बंदगी करने वाले संतजन तो सारे जगत में शोभा पाते हैं, पर जो मनुष्य उनसे वैर बना लेते हैं वह कभी सुखी नहीं होते, निर्वैर से वैर करते हैं, अहंकार और ईरखा की आग में जलते हैं। ऐसे मनुष्य जड़ से कटे हुए वृक्ष की तरह हैं, जिसकी टहनियां खुद-ब-खुद सूख जाती हैं। इन दोखियों के अंदर कोई गुण पनप नहीं सकता।

(32) मनमुख मायाधारी पराई निंदा आदि में उम्र गुजार देता है, अहंकार के कारण आस-पडोस में कोई ना कोई झगड़ा खड़ा किए रखता है। आखिर, ये नमकहराम लोक-परलोक दोनों गवा के यहाँ से जाता है।

(33) मनमुख के भी क्या वश? ये जिंद और शरीर सब कुछ प्रभू ने खुद दिया है। जिस मनुष्य को प्रभू अपनी तरफ लगाना चाहता है, उसके अंदरके बुरे संस्कार खुद ही दूर करके उसको सतिगुरू की सेवा में लगाता है। जीव की कोई अपनी समझदारी, चतुराई काम नहीं आती। जगत के बेअंत विकारों से बचने के लिए एक प्रभू की टेक ही समर्थ है।

नोट: पउड़ी नं:26 के भाव को और ज्यादा समझाने के लिए गुरू अरजन साहिब ने यहाँ पाँच पउड़ियां (27 से 31 तक) अपनी ओर से जोड़ दी हैं।

समॅुचा भाव:

(1 से 7 तक) इनसान को जीवन में कई दुखों-कलेशों से सामना करना पड़ता है, कई चिंता-फिक्रें होती हैं, मौत आदि का सहम पड़ा रहता है, पर जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर सिफत सालाह की सुंदर कार करने लग जाता है, उसे ये यकीन हो जाता है कि प्रभू सिर पे रक्षक है और सब कुछ उसकी रजा में हो रहा है; दूसरा, उसे समझ आ जाती है कि जगत का प्रबंध चलाने में परमात्मा कोई कमी नहीं छोड़ रहा; जीवों के भले के लिए करता है; तीसरा, याद की बरकति से प्रभू मन में प्यारा लगने लगता है, नतीजा ये निकलता है कि कोई दुख, कोई चिंता, कोई सहम छू नहीं सकता, सारे अवगुण भी सहज ही नाश हो जाते हैं।

(8 से 12 तक) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ने की जगह अपने आप को बड़ा कहलाते हैं, गुरू की नकल करते हैं, मुंह के मीठे व मन के खोटे गुर-निंदक भी हैं, उनका पाज खुल जाता है और उन्हें धिक्कारें ही पड़ती हैं, वो गरज़मंद कोढ़ी अहंकार व ईरखा की आग में जलते रहते हैं, कोई गुण उनके अंदर पनप नहीं सकता।

(13 से 17 तक) पराए देश में सफर में जाने से पहले मनुष्य के पास राहदारी का होना ज़रूरी है नहीं तो कदम-कदम पे बाधाएं आएंगी। जिंदगी के सफर में भी जिस मनुष्य व्यापारी के पास ‘गुरू शबद’ की राहदारी है, कामादिक मसूलिए उसके राह में कोई रुकावट नहीं डाल सकते, पर ये नाम-व्यापार शरीर-किले के अंदर ही करना है, जंगलों में भटकने की जरूरत नहीं; शरीर ही धर्म कमाने की जगह है। इस में गुझे लाल छुपे हुए हैं। गुरू की शरण पड़ के एक तो इस लाल के व्यापार की जाच आ जाती है, दूसरा, इनको लूटने वाले कामादिक डाकुओं का मुकाबला करने का हौसला पैदा हो जाता है।

(18 से 25 तक) ज्यों-ज्यों सिमरन के आनंद का मन पर गहरा असर पड़ता है, ‘तू तू’ करते हुए मनुष्य की ‘मैं मैं’ ‘तू’ में समाप्त हो जाती है। सिमरन की तरफ इतनी ज्यादा खींच पैदा हो जाती है कि दुनियावी रस इंद्रियों को खींच नहीं पाते। परमात्मा के साथ कुछ ऐसा प्यार पैदा हो जाता है कि सोते जागते उसी की याद प्यारी लगती है। फिर तो अंदर बसता भी वही दिखता है और बाहर कुदरत में भी उसी का जलवा नजर आता है। तब, जैसे चित्रकार को उसकी अपनी बनाई तस्वीर मोह नहीं सकती, वैसे प्रभू के साथ एक-मेक हुए बंदे को माया के सुंदर नखरे आकर्षित नहीं कर सकते। पर ये सारी बरकति गुरू की शरण पड़ने से ही मिलती है।

(26 से 33 तक) जिस अभागी को माया का चस्का पड़ जाए, वह गुरू की शरण आने की जगह, पर-धन, पर-तन और पराई निंदा आदि पापों में पड़ के, जैसे, नर्क की आग में जलता है। यहाँ तक गलत रास्ते पर पड़ जाता है कि भलों और निर्वैर पुरखों से भी ईरखा करता है। जड़ से ही कटे हुए वृक्ष की तरह उसके अंदर कोई गुण पनप नहीं सकता।

पर जीव की अपनी कोई समझदारी चतुराई काम नहीं देती। प्रभू जिस पर मेहर करता है उसे सतिगुरू के चरणों में ला के विकारों से बचा लेता है।

मुख्य भाव:

संसार-समुंद्र में अनेकों दुख और विकार हैं। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का नाम सिमरता है, वह इनमें से सही सलामत पार लांघ जाता है, पर जो मनुष्य अपने बड़ेपन में रहता है, वह सत्संग में आने की जगह गुरमुखों की निंदा करता है, और इस तरह उसके अंदर भले गुण पनप नहीं सकते।

गउड़ी की वार महला ४ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सलोक मः ४ ॥ सतिगुरु पुरखु दइआलु है जिस नो समतु सभु कोइ ॥ एक द्रिसटि करि देखदा मन भावनी ते सिधि होइ ॥ सतिगुर विचि अम्रितु है हरि उतमु हरि पदु सोइ ॥ नानक किरपा ते हरि धिआईऐ गुरमुखि पावै कोइ ॥१॥ {पन्ना 300}

पद्अर्थ: समतु = एक जैसा। द्रिसटि = नजर। भावनी = श्रद्धा। सिधि = सफलता। हरि पदु = हरी के साथ मिलाप।1।

अर्थ: सतिगुरू सब जीवों पर मेहर करने वाला है, उसके लिए हरेक जीव एक समान है। वह सब की ओर एक निगाह से देखता है, पर (जीव को अपने उद्यम की) सफलता अपने मन की भावना के कारण होती है (भाव, जैसी मन की भावना तैसी मुराद मिलती है)। सतिगुरू के पास हरी के श्रेष्ठ नाम का अमृत है। (पर) हे नानक! यही हरी-नाम, जीव (प्रभू की) कृपा से सिमरता है, सतिगुरू से सन्मुख हो के कोई (भाग्यशाली) ही हासिल कर सकता है।1।

मः ४ ॥ हउमै माइआ सभ बिखु है नित जगि तोटा संसारि ॥ लाहा हरि धनु खटिआ गुरमुखि सबदु वीचारि ॥ हउमै मैलु बिखु उतरै हरि अम्रितु हरि उर धारि ॥ सभि कारज तिन के सिधि हहि जिन गुरमुखि किरपा धारि ॥ नानक जो धुरि मिले से मिलि रहे हरि मेले सिरजणहारि ॥२॥ {पन्ना 300-301}

पद्अर्थ: बिखु = जहिर। उर = हृदय। सिध = सफल (सिधि = सफलता)। सिरजणहारि = सृजनहार ने।2।

अर्थ: माया से उपजा हुआ अहंकार निरोल जहर (का काम करता) है, इसके पीछे लगने से सदा जगत में घाटा है। प्रभू के नाम धन का लाभ सतिगुरू के सन्मुख रहके शबद के विचार के द्वारा कमाया (जा सकता है), और अहंकार की मैल (रूपी) जहर, प्रभू का अमृत नाम हृदय में धारन करने से उतर जाती है। (ये नाम की दाति प्रभू के हाथ में है), जिन गुरमुखों पर वह कृपा करता है, उनके सारे काम सफल हो जाते हैं। (उन्हें मानस जनम के असल व्यापार में घाटा नहीं पड़ता), (पर) हे नानक! प्रभू को वही मिले हैं, जो दरगाह से मिले हैं, और जिन्हें सृजनहार हरी ने स्वयं मिलाया है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh