श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिउ भावै तिउ रखु तूं सचिआ नानक मनि आस तेरी वड वडे ॥३३॥१॥ सुधु ॥ {पन्ना 318}

अर्थ: हे बड़ों से भी बड़े! सच्चे प्रभू! जैसे तुझे ठीक लगे वैसे ही हमारी रक्षा कर, नानक के मन में तेरी ही आस है।33।1। सुधु।

संरचना॥

ये वार गुरू रामदास जी की उच्चारण की हुई है। इस में कुल ३३ पौड़ियां हैं, पहली २६ पौड़ियां गुरू रामदास जी की हैं, नंबर २७ से ले के ३१ तक पाँच पौड़ियां गुरू अरजन देव जी की हैं, आखिरी दो पौड़ियां फिर गुरू रामदास जी की हैं। इस तरह ३३ पौड़ियों में से २८ गुरू रामदास जी की हैं। पहले ये वार २८ पौड़ियों की ही थी, बाद में गुरू अरजन देव जी ने पौड़ी नंबर २६ के साथ अपनी पाँच पौड़ियां और शामिल कीं।

सारे श्लोकों की गिनती ६८ है, पौड़ी नंबर १५ से २० के अलावा बाकी हरेक पौड़ी के साथ दो–दो श्लोक हैं (जोड़–62), इन दो पौड़ियों के साथ तीन–तीन श्लोक हैं और कुल योग ६८ है।

श्लोकों का वेरवा इस तरह है;
श्लोक गुरू रामदास जी के -------------3
श्लोक गुरू अरजन साहिब जी के -----8
श्लोक गुरू अमरदास जी के -----------7
कुल जोड़ ------------------------------68

जब ये ‘वार’ गुरू रामदास जी ने लिखी, तब से सिर्फ पौड़ियां ही थीं। इनके साथ श्लोक गुरू अरजन देव जी ने दर्ज किए, चाहे ज्यादा श्लोक गुरू रामदास जी के ही हैं। अगर गुरू रामदास जी खुद ही पौड़ियों के साथ श्लोक भी लिखते तो काव्य–दृष्टि से विशेष एक–सार रचना होती। ये नहीं हो सकता था कि किसी पौड़ी के साथ श्लोक लिख देते और कोई बिना श्लोक के ही छोड़ देते। पौड़ी नंबर 32 के साथ दोनों श्लोक गुरू अरजन देव जी के हैं, और ये श्लोक गुरू अरजन साहिब ही दर्ज कर सकते थे। ये नहीं हो सकता था कि गुरू राम दास जी अपनी 28 पौड़ियों में से 27 पौड़ियों के साथ तो अपने या गुरू अमरदास जी के श्लोक दर्ज किए जाते और अपनी 32वीं पौड़ी को बिल्कुल ही खाली रहने देते। फिर, श्लोकों की विषय–वस्तु भी यह बताता है कि अलग–अलग मौके के हैं, भिन्न–भिन्न समय पर उचारे गए हैं।

सो, यही निष्कर्श निकल सकता है कि ‘वार’ की पौड़ियों के साथ शलोक गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए थे।


गउड़ी की वार महला ५

भाव

पौड़ी-वार

परमात्मा हर जगह मौजूद है, हरेक जीव में समाया हुआ है, पर वही मनुष्य भला है जो सत्संग में रहके प्रभू की शरण आता है और प्रभू की रजा में चलता है।

सत्संग में प्रभू का नाम-अमृत मिलता है, परमात्मा खुद सहायता करता है और कामादिक विकारों से मनुष्य बच जाता है।

परमात्मा का नाम, जैसे, अमृत-रूपी खजाना है, ये अमृत सत्संग में ही मिलता है, इसके पीने से माया की तृष्णा मिट जाती है, कोई भूख नहीं रह जाती।

परमात्मा का नाम सारे गुणों की खान है, मानस जीवन के सफर में, जैसे, राह का खच। है, पर ये नाम उस भाग्यशाली को मिलता है जो सत्संग में पहुँचता है।

मनुष्य की तो क्या बात है, वह स्थल भी सुन्दर हो जाता है, जहाँ सतसंगी मिल के प्रभू की सिफत सालाह करते हैं। भगती को प्यार करना प्रभू का मूल-स्वाभाव है। जो नाम सिमरता है उसके मन में से बुराई मिट जाती है।

परमात्मा का नाम एक ऐसी राशि-पूँजी है जो सदा कायम रहने वाली है, जिस मनुष्य-वणजारे को सत्संग में रहके यह पूँजी मिलती है उसका मन-तन खिला रहता है, उसके विकार नाश हो जाते हैुं, वही असल में जीता है।

जो प्रभू सब जीवों को पैदा करने वाला और सब में मौजूद है वही सारे दुखों का खजाना है, पर इस ‘नाम’ का आनंद वही मनुष्य ले सकता है जिसे सतिगुरू प्रसन्न हो के यह दाति देता है।

प्रभू का नाम सतिगुरू से मिल सकता है। जो मनुष्य गुरू के बताए राह पर चल के नित्य सत्संग करता है और नाम सिमरता है, वह प्रभू की हजूरी में टिका रहता है।

सब जीवों को सुखी करने वाला हरी नाम-अमृत सत्संग में बाँटा जाता है। ज्यों-ज्यों गुरमुख सत्संग में सिफत सालाह की बाणी उचारते हैं, वहाँ मानो अमृत के फव्वारे चल पड़ते हैं। सत्संग में ही असली जीवन प्राप्त होता है, सत्संगी को मौत का डर नहीं रहता।

नाम जपने वाले गुरमुखों की संगत में रह कर मनुष्य परमात्मा के गुणों की माला मन में परो लेता है, जिस करके उसके मन की मैल दूर हो जाती है, वह विकारों से बच जाता है और उसे जमकाल का डर नहीं सताता।

जो मनुष्य माया के गरूर में रहके बुरे कर्म करते हैं, वे यहाँ दुखी रहते हैं, प्रभू का नाम बिसारने के कारण उनकी सारी उम्र बुरे हाल ही गुजरती है और इसके बाद भी जनम-मरन की भटकन में पड़ जाते हैं।

दुनिया वाले स्वाद आखिर कड़वे लगने लग पड़ते हैं, सुखदाई और मीठा सिर्फ हरी-नाम ही है, पर ये मिलता उस भाग्यशाली को ही है जिस पर प्रभू स्वयं कृपा करता है।

जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चल के परमेश्वर का नाम सिमरता है, उसे माया के सारे स्वाद फीके प्रतीत होते हैं और उसके सारे पाप नाश हो जाते हैं।

वही मनुष्य जगत से नफा कमा के जाते हैं जिन्होंने परमातमा का नाम सिमरा है। प्रभू स्वयं उनको माया के मोह से बचा लेता है और वे एक ईश्वर की ही आस रखते हैं।

परमात्मा का आसरा ले के सिफत सालाह करने वाले बंदे विकारों से बचे रहते हैं और प्रभू दर पे प्रवान हैं, ऐसे गुरमुखों के चरणों की धूड़ लाखों-करोड़ों प्रयाग आदि तीर्थों से ज्यादा पवित्र है।

करतार अकाल-पुरख का नाम विकारों में गिरे हुओं को भी पवित्र करने वाला है। जो मनुष्य नाम सिमरता है, वह परमात्मा को अपने अंग-संग देख के सब के चरनों की धूड़ हो के रहता है, किसी का दिल नहीं दुखाता और आखिर इज्जत से प्रभू की हजूरी में पहुँचता है।

सारे खजानों के मालिक परमात्मा के नाम को जो मनुष्य अपनी जिंदगी का आसरा बना लेते हैं, उनके मन की सारी मैल धुल जाती है, सारे कलेश नाश हो जाते हैं, पर ये नाम की दाति प्रभू की मेहर से सतिगुरू के द्वारा ही मिलती है।

दुनिया का मोह, जैसे, माया का किला है जिसमें जीव कैद हो जाते हैं। जो मनुष्य ‘नाम’ सिमरता है वह, मानो, अठारह तीर्थों का स्नानी हो के इस किले को जीत लेता है। प्रभू उसको विकारों से बचा लेता है।

जो प्रभू सब कुछ करने के स्मर्थ है, सब जीवों का आसरा है और सब को पालता है, उस बख्शनहार को सिमर के जीव विकारों से बच के संसार समुंद्र से अपनी जिंदगी की बेड़ी सही सलामत पार कर लेते हैं।

प्रभू की सिफत सालाह करने वाले बंदे के लिए ‘नाम’ ही सुंदर पोशाक व स्वादिष्ट भोजन है, ‘नाम’ ही हाथी घोड़े हैं, ‘नाम’ ही राज-भाग है। उसके अंदर एक नाम की ही लगन रहती है, वह सदा प्रभू के दर पर ही टिका रहता है।

समूचा भाव:

(१ से ११ तक) - यह ठीक है कि परमात्मा हरेक जीव में मौजूद है, पर फिर भी सिर्फ वही मनुष्य भला मानस बन के रह सकता है जो साध-संगत का आसरा लेता है। सत्संग में ही गुरू के बताए हुए राह पर चल के नाम सिमरन का स्वभाव बन सकता है, ‘नाम’ ही जीवन-यात्रा की राह-खरची है, इस ‘नाम’ की बरकति से ही माया की तृष्णा, बुराई, कामादिक विकार मन में से दूर होते हैं, मौत का डर नहीं रहता, तन मन सदा खिला रहता है और मनुष्य प्रभू की हजूरी में टिका रहता है।

(१२ से १५ तक) - अगर प्रभू का नाम बिसर जाये तो माया जीव पर दबाव डाल लेती है, सारी उम्र विकारों में बुरे हाल गुजरती है, जब मनुष्य नाम-रस हासिल करता है तब ही समझ पड़ती है कि माया के स्वाद फीके व कड़वे दुखदाई हैं।

(१६ से २१ तक) - नाम सिमरन वाले बंदों के पैरों की ख़ाक लाखों करोड़ों तीर्थों से ज्यादा पवित्र है, क्योंकि सिमरन वाले लोग प्रभू को अंग-संग देख के किसी का दिल नहीं दुखाते, सबसे प्यार व विनम्रता का बरताव करते हैं, उनका मन शुद्ध होता है, नाम सिमरन वाले, जैसे, अठारह तीर्थों के स्नानी हैं, माया का किला बंदगी करने वाले ही जीतते हैं, संसार-समुंद्र से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघाते हैं, क्योंकि दुनिया के सारे पदार्थों से ज्यादा उन्हें प्रभू का नाम आकर्षित करता है।

मुख्य भाव:

यद्यपि परमात्मा सबमें मौजूद है, पर पवित्र जीवन उसी मनुष्य का ही हो सकता है जो सत्संग में रहके गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है और प्रभू का नाम सिमरता है, वरना माया का दबाव पड़ने के कारण मनुष्य विकारों में फंस जाता है और लोक-परलोक दोनों गवा लेता है।

‘वार’ की बनावट:

सतिगुरू अरजन साहिब जी की इस ‘वार’ में 21 पौड़ियां हैं 42 श्लोक हैं, हरेक पौड़ी के साथ दो–दो। हरेक पउड़ी में पाँच–पाँच तुके हैं। पउड़ी नंबर १,९,१६ और २० को छोड़ के बाकी सारी पउड़ियों के साथ दो–तुके शलोक हैं, बोली भी सब शलोकों की एक जैसी ही है।

शलोकों का सही गिनती हरेक पउड़ी के साथ एक जैसी दो–तुकी बनावट, एक समान मजमून, सारे ही शलोक और पउड़ियां एक ही गुरू–व्यक्ति की– इस गहरी सांझ से ये नतीजा निकाला जा सकता है कि ये ‘वार’ और इसके साथ लगे हुए ‘शलोक’ एक ही समय में उचारे हुए हैं। बोली और बनावट के ख्याल से यही गुण ‘गुजरी की वार महला ५’ में मिलते हैं। इस ‘वार’ की पउड़ी नंबर 12 को ‘गुजरी की वार’ की पउड़ी नंबर 20 के सामने रख के पढ़ें, तो बहुत सारे शब्दों में समानता है।

निंदक मारे ततकालि खिनु टिकण न दिते॥
...प्रभ दास का दुखु न खवि सकहि फड़ि जोनी जुते॥
...मथे वालि पछाड़िअनु जम मारगि मुते॥
...दुखि लगे बिललाणिआ नरकि घोरि सुते॥
...कंठि लाइ दास रखिअनु नानक हरि सते॥२०॥ (गूजरी की वार)

धोहु न चली खसम नालि मोहि विगुते॥
...करतब करनि भलेरिआ मदि माइआ सुते॥
...फिरि फिरि जूनि भवाईअनि जम मारगि मुते॥
...कीता पाइनि आपणा दुख सेती जुते॥
...नानक नाइ विसारिअै सभ मंदी रुते॥१२॥ (गउड़ी की वार)

दोनों ‘वारों’ के बारे में इस उपरोक्त विचार से सहज ही ये अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरू अरजन साहिब ने ये दोनों ही ‘वारें’ आगे–पीछे नजदीक के समय में ही लिखीं थीं।

गउड़ी की वार महला ५ राइ कमालदी मोजदी की वार की धुनि उपरि गावणी

अर्थ: ये ‘वार’ राय कमालदी मोजदी की ‘वार’ की सुर पर गानी है।

बार में एक चौधरी कमालुद्दीन रहता था, उसने अपने भाई सारंग को जहर दे के मार दिया। सारंग का एक पुत्र था जो अभी छोटा ही था, जिसका नाम मुआज्जुद्दीन था। सारंग की पत्नी अपने इस पुत्र को ले कर मायके चली गई, जब ये बड़ा हुआ तो नानकी फौज ले के कमालुद्दीन पर चढ़ाई कर दी। कमालुद्दीन मारा गया। ये सारी वारता ढाढियों ने ‘वार’ में गाई। इस ‘वार’ की चाल का नमूना इस तरह है;

“राणा राय कमाल दीं रण भारा बाहीं॥ मौजॅुदीं तलवंडीओं चढ़िआ साबाही॥ ”

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक मः ५ ॥ हरि हरि नामु जो जनु जपै सो आइआ परवाणु ॥ तिसु जन कै बलिहारणै जिनि भजिआ प्रभु निरबाणु ॥ जनम मरन दुखु कटिआ हरि भेटिआ पुरखु सुजाणु ॥ संत संगि सागरु तरे जन नानक सचा ताणु ॥१॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: जिनि = जिस (जन) ने। निरबाणु = बासना रहित। पुरखु = व्यापक प्रभू। सुजाणु = अच्छी तरह (हरेक के दिल की) जानने वाला। ताणु = आसरा, बल। जनम मरन दुखु = जनम से मरने तक सारी उम्र का दुख कलेश।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है उसका (जगत में) आना सफल (समझो)। जिस मनुष्य ने वासना-रहित प्रभू को सिमरा है, मैं उससे सदके जाता हूँ, उसे सुजान अकाल-पुरख मिल गया है, और उसका सारी उम्र का दुख-कलेश दूर हो गया है। हे दास नानक! उसे एक सच्चे प्रभू का ही आसरा है, उसने सत्संग में रहके संसार समुंद्र तैर लिया है।1।

मः ५ ॥ भलके उठि पराहुणा मेरै घरि आवउ ॥ पाउ पखाला तिस के मनि तनि नित भावउ ॥ नामु सुणे नामु संग्रहै नामे लिव लावउ ॥ ग्रिहु धनु सभु पवित्रु होइ हरि के गुण गावउ ॥ हरि नाम वापारी नानका वडभागी पावउ ॥२॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: पराहुणा = संत पराहुणा, अतिथि। मेरै घरि = मेरे घर में। आवउ = आए। पखाला = मैं धोऊँ। तिस के = उस संत अतिथि के। मनि = मन में। भावउ = भाए, अच्छा लगे। संग्रहै = इकट्ठा करे। नामे = नाम में ही। लावउ = लगाए। गावउ = मैं गाऊँ। पावउ = मैं पाऊँ।

अर्थ: अगर सवेरे उठ के कोई (गुरमुख) अतिथि मेरे घर आए, मैं उस गुरमुख के पैर धोऊँ; मेरे मन में, मेरे तन में वह सदा प्यारा लगे। वह गुरमुख (नित्य) नाम सुने, नाम-धन इकट्ठा करे और नाम में ही सुरति जोड़ के रखे। (उसके आने से मेरा) सारा घर पवित्र हो जाए, मैं भी (उसकी बरकति से) प्रभू के गुण गाने लग जाऊँ। (पर) हे नानक! ऐसे प्रभू नाम का व्यापारी बड़े भाग्यों से ही कहीं मुझे मिल सकता है।2।

पउड़ी ॥ जो तुधु भावै सो भला सचु तेरा भाणा ॥ तू सभ महि एकु वरतदा सभ माहि समाणा ॥ थान थनंतरि रवि रहिआ जीअ अंदरि जाणा ॥ साधसंगि मिलि पाईऐ मनि सचे भाणा ॥ नानक प्रभ सरणागती सद सद कुरबाणा ॥१॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: थनंतरि = थान अंतरि। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतरि, हरेक जगह में। मनि = मान के। सरणागती = सरण आओ। सद सद = सदा ही।

अर्थ: हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभू! जो मनुष्य तुझे भाता है जिसे तेरी रजा भाती है वह भला है। तू ही सब जीवों में व्यापक है, सब में समाया हुआ है, तू हरेक जगह पर मौजूद है, सब जीवों में तू ही जाना जाता है (भाव, सब जानते हैं कि सब जीवों में तू ही है)।

उस सदा स्थिर रहने वाले की रज़ा मान के सत्संग में मिल के उसको ढूँढ सकते हैं। हे नानक! उस प्रभू की शरण आ, उससे सदा ही कुर्बान हो।1।

सलोक मः ५ ॥ चेता ई तां चेति साहिबु सचा सो धणी ॥ नानक सतिगुरु सेवि चड़ि बोहिथि भउजलु पारि पउ ॥१॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: चेता ई = अगर तुझे याद है। चेति = सिमर। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। धणी = मालिक। बोहिथि = जहाज पर। पारि पउ = पार हो, तैर।

अर्थ: हे नानक! अगर तुझे याद है कि वह प्रभू सालिक सदा स्थिर रहने वाला है तो उस मालिक को सदा सिमर (भाव, तुझे पता भी है कि सिर्फ वह प्रभू मालिक ही सदा स्थिर रहने वाला है, फिर उसे क्यूँ नहीं सिमरता?), गुरू के हुकम में चल (गुरू के हुकम रूप) जहाज में चढ़ के संसार समुंद्र को पार कर।1।

मः ५ ॥ वाऊ संदे कपड़े पहिरहि गरबि गवार ॥ नानक नालि न चलनी जलि बलि होए छारु ॥२॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: संदे = के। वाउ संदे = हवा के, हवा जैसे बारीक, सुंदर सुंदर बारीक। पहिरहि = पहनते हैं। गरबि = अहंकार में, अकड़ में। गवार = मूर्ख मनुष्य। छारु = राख।

अर्थ: मूर्ख मनुष्य सुंदर-सुंदर बारीक कपड़े बड़ी अकड़ से पहनते हैं, पर हे नानक! (मरने पर ये कपड़े जीव के) साथ नहीं जाते, (यहीं) जल के राख हो जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ सेई उबरे जगै विचि जो सचै रखे ॥ मुहि डिठै तिन कै जीवीऐ हरि अम्रितु चखे ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु संगि साधा भखे ॥ करि किरपा प्रभि आपणी हरि आपि परखे ॥ नानक चलत न जापनी को सकै न लखे ॥२॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: मुहि = (अधिकरणकारक, एकवचन)। मुहि डिठै तिन कै = (पूरब पूरन कारदंतक) अगर उनके मुँह देख लें। भखे = खाए जाते है। प्रभि = प्रभू ने। परखे = परख लिए हैं, प्रवान कर लिए हैं। चलत = करिश्मा, तमाशे। न जापनी = समझे नहीं जा सकते।

अर्थ: (कामादिक विकारों से) जगत में वही मनुष्य बचे हैं जिन्हें सच्चे प्रभू ने (बचा के) रखा है, ऐसे मनुष्यों का दर्शन करके हरी-नाम अमृत चख सकते हैं और (असल) जिंदगी मिलती है। ऐसे साधु-जनों की संगति में (रहने से) काम-क्रोध-लोभ-मोह (आदि विकार) नाश हो जाते हैं। जिन पर प्रभू ने अपनी मेहर की है, उनको उसने खुद ही प्रवान कर लिया है।

हे नानक! परमात्मा के करिश्मे समझे नहीं जा सकते, कोई जीव समझ नहीं सकता।

सलोक मः ५ ॥ नानक सोई दिनसु सुहावड़ा जितु प्रभु आवै चिति ॥ जितु दिनि विसरै पारब्रहमु फिटु भलेरी रुति ॥१॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: जितु = जिस में। चिति = चिक्त में। जितु दिनि = जिस दिन में। (शब्द ‘जितु’ सर्वनाम ‘जिसु’ से अधिकरण कारक, एकवचन है)। भलेरी = भली से उलट, मंदी। रुति = समय।

(संस्कृत में एक शब्द है ‘इत्र’, इसका अर्थ है ‘अन्य’ उलट। जिस ‘विशेषण’ के साथ इसका प्रयोग किया जाए, उस सारे शब्द का अर्थ असल शब्द के ‘उलट’ विलोम हो जाता है। ‘इत्र’ का प्राकृत रूप है ‘एर’ या ‘इर’; भला+एरा = ‘भलेरा’)।

अर्थ: हे नानक! वही दिन अच्छा सोहाना है जिस दिन परमात्मा मन में बसे। जिस दिन परमात्मा बिसर जाता है, वह समय खराब जानो, वह वक्त धिक्कारयोग्य है।1।

मः ५ ॥ नानक मित्राई तिसु सिउ सभ किछु जिस कै हाथि ॥ कुमित्रा सेई कांढीअहि इक विख न चलहि साथि ॥२॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: कुमित्रा = बुरे मित्र। कांढीअहि = कहे जाते हैं। विख = कदम।

अर्थ: हे नानक! उस (प्रभू) से दोस्ती (डालनी चाहिए) जिसके बस में हरेक बात है, पर जो एक कदम भी (हमारे) साथ नहीं जा सकते वह कुमित्र कहे जाते हैं (उनके साथ मोह ना बढ़ाते फिरो)।2।

पउड़ी ॥ अम्रितु नामु निधानु है मिलि पीवहु भाई ॥ जिसु सिमरत सुखु पाईऐ सभ तिखा बुझाई ॥ करि सेवा पारब्रहम गुर भुख रहै न काई ॥ सगल मनोरथ पुंनिआ अमरा पदु पाई ॥ तुधु जेवडु तूहै पारब्रहम नानक सरणाई ॥३॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। मिलि = मिल के। जिसु = जिस को। तिखा = प्यास, माया की प्यास। काई = कोई। पुंनिआ = पूरे हो जाते हैं। अमरा पदु = अॅटल दर्जा, वह उच्च अवस्था जो कभी नाश नहीं होती। जेवडु = जितना, बराबर का।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम अमृत (-रूप) खजाना है, (इस अमृत को सत्संग में) मिल के पीयो। उस नाम को सिमरने से सुख मिलता है, और (माया की) सारी तृष्णा मिट जाती है। (हे भाई!) गुरू अकाल-पुरख की सेवा कर, (माया की) कोई भूख नहीं रह जाएगी। (नाम सिमरने से) सो मनोरथ पूरे हो जाते हैं, वह उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है जो कभी नाश नहीं होती। हे पारब्रहम! तेरे बराबर का तू खुद ही है। हे नानक! उस पारब्रहम की शरण पड़ो।3।

सलोक मः ५ ॥ डिठड़ो हभ ठाइ ऊण न काई जाइ ॥ नानक लधा तिन सुआउ जिना सतिगुरु भेटिआ ॥१॥ {पन्ना 318}

पद्अर्थ: हभ ठाइ = सारी जगहें। ठाउ = जगह। ठाइ = जगह में। ऊण = खाली। जाइ = जगह। सुआउ = जीवन का मनोरथ।

अर्थ: मैंने (प्रभू को) हर जगह मौजूद देखा है, कोई भी जगह (प्रभू से) खाली नहीं है (भाव, हरेक जीव में प्रभू है) पर, हे नानक! जीवन का मनोरथ (भाव, प्रभू का नाम सिमरन) उन मनुष्यों को ही मिला है जिन्हें सतिगुरू मिला है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh