श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी बैरागणि तिपदे३ ॥ उलटत पवन चक्र खटु भेदे सुरति सुंन अनरागी ॥ आवै न जाइ मरै न जीवै तासु खोजु बैरागी ॥१॥ मेरे मन मन ही उलटि समाना ॥ गुर परसादि अकलि भई अवरै नातरु था बेगाना ॥१॥ रहाउ ॥ निवरै दूरि दूरि फुनि निवरै जिनि जैसा करि मानिआ ॥ अलउती का जैसे भइआ बरेडा जिनि पीआ तिनि जानिआ ॥२॥ तेरी निरगुन कथा काइ सिउ कहीऐ ऐसा कोइ बिबेकी ॥ कहु कबीर जिनि दीआ पलीता तिनि तैसी झल देखी ॥३॥३॥४७॥ {पन्ना 333}

पद्अर्थ: उलटत = उलटते ही, पलटते ही। पवन = हवा, (मन की) हवा, मन की चंचलता, विकारों की दौड़। खटु = छे। चक्र खटु = छे चक्र (जोगी लोग शरीर में छह चक्र मानते हैं– 1. मूलाधार: गुदा मण्डल का चक्र; 2. स्वाध्षि्ठान: लिंग की जड़ में; 3. मणिपुर चक्र: नाभि के पास; 4. अनाहत चक्र: हृदय के पास; 5. विशुद्ध चक्र: गले में; 6. आज्ञा चक्र: भौहों के बीच)। जब जोगी लोग समाधि लगाने लगते हैं, तो प्राणयाम से शुद्ध की हुई पवन को गुदा के नजदीक एक कुण्डलनी नाड़ी में चढ़ाते हैं, वह नाड़ी गुदा के चक्र से ले के दसम द्वार तक पहुँचती है। बीच के चक्रों के साथ भी उस नाड़ी का मेल होता है। सो, जोगी पवन को मूलाधार चक्र से खींच के, बीच के चक्रों में से गुजार के दसम-द्वार में ले जाते हैं और वहाँ रोक लेते हैं। जितना समय समाधि लगाए रखनी हो, उतनी देर तक प्राणों को नीचे उतरने नहीं देते।) भेदे = भेद दिए जाते हैं। सुंन = शून्य, सुन अवस्था, मन की वह हालत जहाँ इसमें कोई मायावी फुरना नहीं उठता। अनुरागी = अनुराग करने वाला, प्रेम करने वाला, प्रेमी, आशिक। सुंन अनुरागी = सुंन का प्रेमी। जीवै = पैदा होता है। तासु = उस (प्रभू) को। खोजु = ढूँढ। बैरागी = वैरागवान (हो के), विकारों से उपराम हो के, नफ़सानी ख्वाहिशों से हट के।1।

मेरे मन = हे मेरे मन! मन ही उलटि = मन (की पवन) को उलटा के ही, मन की विकारों की तरफ की दौड़ को पलटा के ही। समाना = (प्रभू में) लीन हो सकते हैं। परसादि = कृपा से। भई अवरै = और हो जाती है, बदल जाती है। नातरु = नहीं तो, इससे पहले तो। था = था। बेगाना = पराया, (प्रभू से) अलग।1। रहाउ।

निवरै = नजदीक, नियरे। जिनि = जिस मनुष्य ने। जैसा करि = ज्यों का त्यों समझ के, सही तरीके से, असल रूप को। अलउती = मिश्री। बरेडा = शर्बत।2।

निरगुन कथा = उस स्वरूप (के दीदार) का बयान जो माया के तीन गुणों से परे है; उस स्वरूप का जिक्र जिस की उपमा मायावी जगत में से किसी चीज के साथ ना दी जा सके। काइ सिउ = किस आदमी से? कोइ = कोई विरला। बिबेकी = विचारवान। जिनि = जिस मनुष्य ने। पलीता = (प्रेम का) पलीता। तिनि = उसी मनुष्य ने। झल = झलक, चमत्कार।3।

नोट: ‘रहाउ’ की पंक्ति में और पहले ‘बंद’ में ‘मन’ को संबोधन किया गया है।

अर्थ: हे मेरे मन! जीव पहले तो प्रभू से बेगाना-बेगाना सा रहता है (भाव, परमात्मा के बारे में इसे कोई सूझ नहीं होती, पर) सतिगुरू की कृपा से जिस की समझ और तरह की हो जाती है, वह मन की विकारों की ओर की दौड़ को ही उलटा के प्रभू में लीन हो जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई! वैरागी हो के) माया की तरफ से उपराम हो के उस प्रभू को तलाश, जो ना आता है, ना जाता है, ना मरता है, ना पैदा होता है। मन की भटकना को पलटाते ही, (मानो,) (जोगियों के बताए हुए) छहों चक्र (एक साथ ही) भेदित हो जाते हैं, और सुरति उस अवस्था की आशिक हो जाती है जहाँ विकारों का कोई फुरना पैदा ही नहीं होता।1।

(इस तरह) जिस मनुष्य ने प्रभू को सही स्वरूप में समझ लिया है, उससे (वह कामादिक) जो पहले नजदीक थे, दूर हो जाते हैं, और जो प्रभू पहले कहीं दूर था (भाव, कभी याद ही नहीं था आता) अब अंग-संग प्रतीत होता है (पर ये एक ऐसा अनुभव है जो बयान नहीं किया जा सकता, सिर्फ इसकी अनुभूति ही की जा सकती है) जैसे मिश्री की शर्बत हो, उसका आनंद उसी मनुष्य ने जाना है जिसने (वह शर्बत) पीया है।2।

हे कबीर! कह– (हे प्रभू!) तेरे उस स्वरूप की बातें किससे की जाएं जिस (स्वरूप) जैसा कहीं कुछ है ही नहीं? (क्योंकि एक तो) कोई विरला ही ऐसा विचारवान है (जो तेरी ऐसी बातें सुनने का चाहवान हो, और दूसरा, ये आनंद लिया ही जा सकता है, बयान से परे है) जिसने (जितना) प्रेम का पलीता लगाया है, उसने उतनी ही झलक देखी है।3।3।47।

शबद का भाव: जब सतिगुरू के उपदेश की बरकति से मनुष्य की समझ में तबदीली आती है, तो उसका मन विकारों की ओर से हटता है, और सुरति प्रभू की सिफत सालाह में जुड़ती है। ज्यों-ज्यों प्रभू की याद और प्रभू का प्यार हृदय में बढ़ता है, जीवन में एक अजीब सरूर पैदा होता है। पर वह सरूर बयान नहीं हो सकता।47।

नोट: शबद का मुख्य भाव ‘रहाउ’ तुक में हुआ करता है। पहली तुक में दिए हुए छे चक्रों के भेदने से ये मतलब कत्तई नहीं निकल सकता कि कबीर जी योग–समाधि की प्रोढ़ता कर रहे हैं। वे तो बल्कि कह रहे हैं कि गुरू की शरण आ के मन को माया की ओर से रोकने वाले मनुष्य के छे चक्र भेदे गए समझो। नर्म शब्दों कह दिया है कि इन छे चक्रों को भेदने की जरूरत ही नहीं है।

गउड़ी ॥ तह पावस सिंधु धूप नही छहीआ तह उतपति परलउ नाही ॥ जीवन मिरतु न दुखु सुखु बिआपै सुंन समाधि दोऊ तह नाही ॥१॥ सहज की अकथ कथा है निरारी ॥ तुलि नही चढै जाइ न मुकाती हलुकी लगै न भारी ॥१॥ रहाउ ॥ अरध उरध दोऊ तह नाही राति दिनसु तह नाही ॥ जलु नही पवनु पावकु फुनि नाही सतिगुर तहा समाही ॥२॥ अगम अगोचरु रहै निरंतरि गुर किरपा ते लहीऐ ॥ कहु कबीर बलि जाउ गुर अपुने सतसंगति मिलि रहीऐ ॥३॥४॥४८॥ {पन्ना 333}

नोट: टीकाकार सज्जनों ने इस शबद के बारे में दो अलग–अलग ख्याल दिए हैं। किसी ने लिया है कि यहां गुरू के रहने के स्थान का जिक्र है; किसी ने इस शबद में सहज रूप परमात्मा का बयान समझा है; और कई सज्जन यहाँ सहज अथवा चौथी अवस्था के हाल का बयान किया हुआ मानते हैं।

पर शबद का अर्थ करते समय किसी सज्जन ने भी हरेक शब्द के अर्थ देने से आगे कबीर जी का भाव समझने की कोशिश नहीं की। सारे टीकाकार ऐसा ही लिखते चले गए है;

“वहाँ बरखा ऋतु नहीं है, ना समुंद्र है, ना धूप है, ना छाँव। ....वह ना हल्की लगती है ना भारी। नीचे ऊपर दिशा का वहाँ विचार नहीं है। ना रात है ना दिन, ना पानी है ना हवा। सतिगुरू वहां बसता है।.....”

इस अर्थ में से ये समझ नहीं पड़ सकती कि कबीर जी का असल भाव क्या है, और असली जीवन में ये शबद हमारी क्या अगुवाई कर सकता है।

हरेक शबद का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुकों में होता है। यहाँ साफ तौर पर ‘सहज’ अवस्था का जिक्र है। सो ये कहना गलत है, कि इस शबद में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है, या गुरू साहिबानों के रहने के स्थान का बयान है।

फिर भी सहज अवस्था बाबत ये कहना कि ‘वहाँ धूप नहीं, वहां छाया नहीं, वहां बरसात नहीं, वह हल्की नहीं वह भारी नहीं, वहाँ दिन नहीं वहाँ रात नहीं, वहां हवा नही, वहां पानी नहीं, वहां आग नहीं।” ये एक अजीब सी बात लगती है। महापुरुषों की ये बाणी हरेक मनुष्य की जीवन–यात्रा में रहिबर का काम करती है। कविता के दृष्टिकोण से चाहे कितनी भी ऊँची व गहरी आत्म–उड़ान हो, फिर भी इसे पढ़ने वाले ने पहली बात ये देखनी है कि मुझे इस में से जीवन–राह के लिए क्या संदेश मिलता है।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब में जगह–जगह पर ‘सहज’ अवस्था का जिक्र है। नाम–सिमरन और सिफत सालाह की बरकति से ये अवस्था मिलती है; जैसे:

‘रसना गुण गोपाल निधि गाइण॥ सांति सहजु रहसु मनि उपजिओ सगले दूख पलाइण॥1। रहाउ। (टोडी महला ५)

भाव: प्रभू की सिफत सालाह करने से मनुष्य के मन में सहज अवस्था पैदा होती है, मन में शांति उपजती है, मन में रहस (खिड़ाव) पैदा होता है।

यहां से ये बात स्पष्ट हो गई है सहज अवस्था कोई ऐसी अवस्था है जिसमें शांति और आनंद की अनुभूति (खिड़ाव) होना लाजमी है।

इसी तरह:ससू ते पिरि कीनी वाखि। देर जिठाणी मुई दूखि संतापि॥ घर के जिठेरे की चूकी काणि। पिरि रखिआ कीनी सुघड़ सुजाणि।१। सुनहु लोका मै प्रेम रसु पाइआ। दुरजन मारे वैरी संघारे, सतिगुरि मोकउ हरि नामु दिवाइआ। रहाउ। प्रथमै तिआगी हउमै प्रीति। दुतीआ तिआगी लोगा रीति। त्रैगुण तिआगि दुरजन मीत समाने। तुरीआ गुण मिलि साध पछाने।2। सहज गुफा महि आसणु बाधिआ। जोति सरूप अनाहदु वाजिआ। महा अनंदु गुर सबदु वीचारि। प्रिअ सिउ राती धन सुहागणि नारि॥३।४। (आसा महला ५)

भाव:जब सतिगुरू ने नाम की दाति बख्शी तो प्रभू से प्रेम करने का ऐसा स्वाद आया कि माया की ओर से मोह टूट गया; अहंकार और लोकलाज समाप्त हो गए, मन सहज अवस्था में टिक गया। ज्यो–ज्यों सतिगुरू के शबद में चित्त जोड़ा, आनंद ही आनंद पैदा होता गया।

सिरे की बात ये कि जिस किसी भी शबद में ‘सहज’ अवस्था की खिंची हुई तस्वीर देखोगे, वहां शांति, ठंड, अहम् के त्याग, खिड़ाव आदि का जिक्र दिखाई देगा। वरना और वह कौन सा स्वरूप है ‘सहज’ का, जो इन्सानी समझ में आ सके और मनुष्य के अमली जीवन में काम आ सके? सतिगुरू की बाणी ने इन्सान के जीवन में तबदीली पैदा करनी है; निरा दिमाग़ी तौर पर ही नहीं बल्कि अमली जीवन में भी। साधारण तौर पर आसा–तृष्णा का मारा हुआ जीव दर–दर पर भटकता है, चंचल मन इसको हर तरफ दौड़ाए फिरता है। यहां की तमन्नाएं अभी खत्म नहीं होती, परलोक के भी कई नक्शे खड़े कर लेता है। स्वर्ग आदि की आशाएं बना के कई देवी–देवताओं की पूजा करता है। उन देवताओं के रहने के अजीबो–गरीब ठिकाने इसने मान रखे हैं। कई ‘लोक’ और कई ‘पुरीयां’ इसके मन को आकर्षित करती हैं। कभी ब्राहमणों–पंडितों से कहानियां सुन के देखो, इन्द्रपुरी, शिवपुरी, ब्रहमपुरी, विष्णुपुरी, सूर्य लोक, चंद्र लोक, पित्र लोक आदि के ही जिक्र होंगे। सुन–सुन के श्रोता के मुँह में पानी भर आता कि कैसे हमें भी वहाँ पहुँचना नसीब हो। तीर्थ यात्रा, दान–पुंन आदि सारे कर्म–काण्डों का निशाना यही ‘पुरीयां’ व ‘लोक’ ही तो हैं। ये बात वहां कोई दुर्लभ व्यक्ति ही सोचता है कि कौन सा जीवन जी रहे हैं, इसका क्या हाल है, यहां मन को कोई ठंड–शांति मिलती है कि नहीं? और जो निशाने इन धार्मिक लोगों ने बनाए होते हैं उनकी अस्लियत ऐसे बताई जा रही है:

“इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो॥ ओछे तप करि बाहरि अैबो॥१॥ किआ मांगउ किछु थिरु नाही॥ राम नाम रखु मन माही॥१॥ रहाउ॥ ...कहत कबीर अवर नाही कामा॥ हमरै मन धन राम को नामा॥ (धनासरी कबीर जी)

भाव:तप आदि करके इन्द्रपुरी शिवपुरी आदि में पहुँचने की चाहत त्याग दो। तुम्हारे शास्त्र ही कहते हैं कि तपों का असर समाप्त होने पर इन पुरियों से भी निकाल दिए जाओगे। जबकि सदा साथ निभाने वाली राशि–पूंजी प्रभू का नाम ही है। और;

कवन असथानु जो कबहु न टरै॥ कवनु सबदु जितु दुरमति हरै॥१॥ रहाउ॥ इंद्रपुरी महि सरपर मरणा॥ ब्रहमपुरी निहचलु नही रहिणा॥ सिवपुरी का होइगा काला॥ त्रैगुण माइआ बिनसि बिताला॥२॥ ...सहज सिफति भगति ततु गिआना॥ सदा अनंदु निहचलु सचु थाना॥ तहा संगति साध गुण रसै॥ अनभउ नगरु तहा सद वसै॥६॥४॥ (गउड़ी महला ५, असटपदीआं)

भाव: सहज अवस्था में पहुँच के प्रभू की सिफत सालाह करनी– ये सदा अटॅल रहने वाली बख्शिश है। इसके मुकाबले पर इंद्रपुरी, ब्रहमपुरी, शिवपुरी आदि सब तुच्छ हैं।

“सहज” इन्सानी मन की एक खास अवस्था का नाम है, पूर्ण खिड़ाव व अडोलता का नाम है, जहां पहुँच के दुनिया के बड़े से बड़े लालच आदमी को गिरा नहीं सकते। सो, कबीर जी के इस शबद में चुँकि ‘सहज’ अवस्था का ही जिक्र है, इसका अर्थ करते समय यही ख्याल रखना है कि यहां मनुष्य की एक उच्च आत्मिक अवस्था का हाल है, जो पूरे तौर पर बयान नहीं की जा सकती। शबद में जो पावस, सिंध आदि शब्द बरते गए हैं, इनके कोई और गहरे अर्थ हैं, जो ‘सहज’ के साथ दरुस्त बैठते हों।

पद्अर्थ: तह = वहां, उस अवस्था में, सहज अवस्था में। पावस = बरखा (वर्षा का राजा इंद्र माना गया है। इस वास्ते यहां इसका सटीक अर्थ है ‘इंद्रपुरी’, जहां बरसात की कोई कमी ही नहीं हो सकती) इन्द्रपुरी। सिंधु = समुंद्, खीर समुंदर, विष्णुपुरी।

(नोट: पुराणों के अनुसार विष्णु भगवान खीर समुंद्र में निवास रखते हैं)।

धूप = धूप, धूप का श्रोत, सूरज, सूर्यलोक। छहीआ = छाया, चंद्रलोक। उतपति = पैदाइश।

(नोट: सृष्टि को पैदा करने वाला ब्रहमा को माना गया है, सो) ब्रहमपुरी।

परलउ = नाश (शिव, सारी सृष्टि को नाश करने वाला है, सो) शिवपुरी। समाधि = टिकाव, जुड़ी हुई सुरति। सुंन = शून्य, मन की वह अवस्था जहां कोई विचार ना उठे, मायावी विचारों से शून्य वाली आत्मिक अवस्था। सुंन समाधि = मन की वह ठहराव वाली हालत जहां विकारों वाले कोई फुरने नहीं उठते। दोऊ = द्वैत, भेदभाव, मेर तेर।1।

सहज = (सह जायते इति सहजं) जो जीव के साथ ही पैदा होता है, जो आत्मा का अपना असल है, ईश्वरीय सत्य, शांति, अडोलता। अकथ = जो मुकम्मल तौर पर बयान ना की जा सके। निरारी = निराली, अनोखी। तुलि = तुला पर, तराजू पर। तुलि नही चढै = तोली नहीं जा सकती, नापी नहीं जा सकती। जाइ न मुकाती = खत्म नहीं की जा सकती, उसका अंत नहीं पाया जा सकता।1। रहाउ।

अरध = नीचा। उरध = ऊँचा। अरध उरध दोऊ = अर्ध उर्ध का भेद, नीच ऊच का भेदभाव, ये ख्याल कि फलाना उच्च जाति का है ओर फलाना नीच जाति का। राति दिनसु तह नाही = उस सहज अवस्था मेंजीवों की रात वाली हालत भी नहीं और दिन वाली भी नहीं। जीव रात सो के गुजार देते हैं और दिन माया की भटकना में = ये दोनों बातें सहज अवस्था में नहीं होती। गफ़लत की नींद और माया की तरफ भटकना = इन दोनों का वहां अभाव है। जलु = पानी, (संसार समुंदर के विकारों का) जल। पवनु = हवा, मन की चंचलता। पावकु = आग, तृष्णा की आग।2।

अगम = जिस तक पहुँच ना हो सके, अपहुँच। अगोचरु = अ+गो+चरु, जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच ना हो। निरंतरि = (अंतर+विथ) अंतर के बिना, एक रस, सदा ही।3।

अर्थ: मनुष्य के मन की अडोलता एक ऐसी हालत है जो (निराली) अपने जैसी खुद ही है, (इस वास्ते) उसका सही रूप बयान नहीं किया जा सकता। ये अवस्था किसी बढ़िया से बढ़िया सुख के बदले भी नापी-तोली नहीं जा सकती। (दुनिया में कोई ऐसा सुख-ऐश्वर्य नहीं है जिसके मुकाबले में ये कहा जा सके कि ‘सहज’ अवस्था इससे घटिया है या बढ़िया है)। ये नहीं कहा जा सकता कि (दुनिया के बढ़िया से बढ़िया किसी सुख से) ये हलके मेल की है अथपा ठीक है (भाव, दुनिया का कोई भी सुख इस अवस्था से बराबरी नहीं कर सकता)।1। रहाउ।

(वह अडोल अवस्था ऐसी है कि) उस में (पहुँच के मनुष्य को) इंद्रपुरी, विष्णुपुरी, सूर्यलोक, चंद्रलोक, ब्रहमपुरी, शिवपुरी - (किसी की भी चाहत) नहीं रहती। ना (और ज्यादा) जीने (की लालसा), ना मौत (का डर), ना कोई दुख, ना सुख (भाव, दुख से घबराहट अथवा सुख की चाहत), सहज अवस्था में पहुँच के कुछ भी नहीं सताता। वह मन की एक ऐसी ठहराव वाली हालत होती है कि उसमें विकारों का कोई विचार उठता ही नहीं, ना ही कोई मेर-तेर रह जाती है।1।

‘सहज’ में पहुँच के नीच-ऊँच वाला कोई भेद-भाव नहीं रहता; (यहां पहुँचा मनुष्य) ना गफ़लत की नींद (सोता है), ना माया की भटकना (में भटकता है) (क्योंकि) उस अवस्था में विषौ-विकार, चंचलता और तृष्णा - इनका नामो निशान नहीं रहता। (बस!) सतिगुरू ही सतिगुरू उस अवस्था में (मनुष्य के हृदय में) टिके होते हैं।2।

तब अपहुँच और अगोचर परमात्मा (भी मनुष्य के हृदय में) एक-रस सदा (प्रगट हुआ) रहता है, (पर) वह मिलता सतिगुरू की मेहर से ही है।

हे कबीर! (तू भी) कह– मैं अपने गुरू से सदके हूँ, मैं (अपने गुरू की) सोहानी संगत में ही जुड़ा रहूँ।3।4।48।

गउड़ी२ ॥ पापु पुंनु दुइ बैल बिसाहे पवनु पूजी परगासिओ ॥ त्रिसना गूणि भरी घट भीतरि इन बिधि टांड बिसाहिओ ॥१॥ ऐसा नाइकु रामु हमारा ॥ सगल संसारु कीओ बनजारा ॥१॥ रहाउ ॥ कामु क्रोधु दुइ भए जगाती मन तरंग बटवारा ॥ पंच ततु मिलि दानु निबेरहि टांडा उतरिओ पारा ॥२॥ कहत कबीरु सुनहु रे संतहु अब ऐसी बनि आई ॥ घाटी चढत बैलु इकु थाका चलो गोनि छिटकाई ॥३॥५॥४९॥ {पन्ना 333}

पद्अर्थ: बैल = बल्द। बिसाहे = खरीदे हैं। पवनु = स्वास। पूजी = रास। परगासिओ = (‘सारा संसार’) प्रगट हुआ है, पैदा हुआ है। गूणि = छॅट, जिसका सौदा हुआ होता है। घट भीतरि = हृदय में। इन बिधि = इस तरीके से। टांड = माल, सौदा, व्यापार के माल से लादा हुआ बैलों का कारवाँ। बिसाहिओ = खरीदा है।1।

नाइकु = नायक, शाह।1। रहाउ।

जगाती = महसूलिए। मन तरंग = मन की तरंगे, मन की लहरें। बटवारा = डाकू, लुटेरे। पंच ततु = पाँच तत्वी शरीर। दानु = बख्शिश, ईश्वर से मिली हुई स्वासों की पूँजी रूपी कृपा। निबेरहि = निपटाता है। टांडा = लादा हुआ व्यापार का माल। उतरिओ पारा = उस पार लांघ जाता है।2।

अब = अब (जब राम के नाम की घाटी चढ़नी शुरू की)। अैसी बनि आई = ऐसी हालत बन गई है। बैलु इकु = (पाप और पुंन दो बैलों में से) एक बैल, पाप रूपी बैल। चलो = चल पड़ा । गोनि = (तृष्णा की) छॅट। छिटकाई = फेंक के, बिखरा के।3।

(–चलो, नोट: अक्षर ‘ल’ के नीचे आधा ‘य’ पढ़ना है– यह शब्द ‘हुकमी भविष्यत्’ imperative mood नहीं है, उसका जोड़ ‘चलहु’ होता है)।

अर्थ: (सारे संसारी जीव-रूपी बंजारों ने) पाप और पुन्य दो बैल मूल्य लिए हैं, श्वासों की पूँजी ले के पैदा हुए हैं (भाव, मानो, जगत में व्यापार करने आए हैं)। (हरेक के) हृदय में तृष्णा की छॅट लदी हुई है। सो, इस तरह (इन जीवों ने) माल लादा है।1।

हमारा प्रभू कुछ ऐसा शाह है कि उसने सारे जगत (भाव, सारे संसारी जीवों) को व्यापारी बना (के जगत में) भेजा है।1। रहाउ।

काम क्रोध दोनों (इन जीव-व्यापारियों के) राह में महसूलिए बने बैठे हैं (भाव,श्वासों की पूँजी का कुछ हिस्सा काम और क्रोध में फंसने के कारण खत्म होता जा रहा है), जीवों के मनों की तरंगे लुटेरे बन रही हैं (भाव, मन की कई किस्म की तरंगे उम्र का काफी हिस्सा खर्च किए जा रही हैं)। ये काम-क्रोध और मन की लहरें, शरीर के साथ मिल के सारी की सारी उम्र-रूपी राशि पूँजी को खत्म किए जा रहे हैं, और तृष्णा रूपी माल-असबाब (जो जीवों ने लादा हुआ है, हू-ब-हू) उस पार लांघता जा रहा है (भाव, जीव जगत से निरी तृष्णा ही अपने साथ लिए जाते हैं)।2।

कबीर कहता है– हे संत जनो! सुनो, अब ऐसी हालत बन रही है कि प्रभू का सिमरन रूपी चढ़ाई का मुश्किल रास्ता तय करने वाले जीव-बनजारों का पाप-रूपी एक बैल थक गया है। वह बैल तृष्णा वाला माल असबाब फेंक के भाग गया है (भाव, जो जीव वणजारे नाम सिमरन वाले मुश्किल राह पर चलते हैं, वे पाप करने छोड़ देते हैं और उनकी तृष्णा समाप्त हो जाती है)।3।5।49।

शबद का भाव: ये जगत व्यापार की मण्डी है, जीव व्यापारी हैं, हरेक जीव को स्वासों की राशि मिली हुई है। पर आम तौर पर हर कोई तृष्णा वाला माल असबाब उठाए घूम रहा है; काम-क्रोध और अन्य मन की तरंगों में जीव की उम्र खत्म हो जाती है और तृष्णा में बंधे हुए ही यहाँ से चले जाते हैं। जिस किसी दुर्लभ जीव ने प्रभू के नाम-सिमरन का मुश्किल राह अपनाया है, वह पापों से बच जाता है और उसकी तृष्णा यहीं समाप्त हो जाती है।49।

गउड़ी३ पंचपदा ॥ पेवकड़ै दिन चारि है साहुरड़ै जाणा ॥ अंधा लोकु न जाणई मूरखु एआणा ॥१॥ कहु डडीआ बाधै धन खड़ी ॥ पाहू घरि आए मुकलाऊ आए ॥१॥ रहाउ ॥ ओह जि दिसै खूहड़ी कउन लाजु वहारी ॥ लाजु घड़ी सिउ तूटि पड़ी उठि चली पनिहारी ॥२॥ साहिबु होइ दइआलु क्रिपा करे अपुना कारजु सवारे ॥ ता सोहागणि जाणीऐ गुर सबदु बीचारे ॥३॥ किरत की बांधी सभ फिरै देखहु बीचारी ॥ एस नो किआ आखीऐ किआ करे विचारी ॥४॥ भई निरासी उठि चली चित बंधि न धीरा ॥ हरि की चरणी लागि रहु भजु सरणि कबीरा ॥५॥६॥५०॥ {पन्ना 333-334}

पद्अर्थ: पेवकड़ै = (पेवका = पिता का) घर, पिता के घर में, इस संसार में। साहुरड़ै = ससुर के घर में, परलोक में। ऐआणा = अंजान।1।

कहु = बताओ। डडीआ = आधी धोती जो घर में काम-काज करते समय बाँधी जाती है। धन = स्त्री। डडीआ...खड़ी = स्त्री अभी घर के काम काज वाली धोती ही बाँध के खड़ी हुई है, जीव-स्त्री अभी लापरवाह ही है। पाहू = प्राहुणे। घरि = घर में। मुकलाऊ = मुकलावा ले के जाने वाले (गउना ले के आने वाले)।1। रहाउ।

ओह खूहड़ी = वह सुंदर सी कूई (छोटा कूआँ)। जि दिसै = जो दिखाई दे रही है। उह...खूहड़ी = ये जो सुंदर सी कूई दिख रही है, जो सुहाना जगत दिख रहा है। कउन = कौन सी जीव स्त्री? लाजु = रस्सी (शब्द ‘लाजु’ और ‘लाज’ में फर्क है। ‘लाजु’ संस्कृत के शब्द ‘रज्जु’ से बना है, जिसके आखिर में ‘ु’ की मात्रा है। संस्कृत में यह पुलिंग था, पुरानी और नई पंजाबी में स्त्रीलिंग है। शब्द ‘लाज’ का अर्थ है ‘शर्म, हया’; इसके अंत में ‘ु’ मात्रा नहीं है)। वहारी = डाल रही है। सिउ = समेत। पनिहारी = पानी भरने वाली, विषौ भोगने वाले जीव।2।

सोहागणि = सोहाग वाली, पति वाली, पति को याद रखने वाली।3।

किरत = किए हुए (काम)। किरत की बाँधी = पिछले किए हुए कर्मों के संस्कारों की बंधी हुई। सभ = सारी सृष्टि। बीचारी = विचार के। ऐस नो = इस जीव को। विचारी = बेचारी जीव स्त्री।4।

निरासी = आशाएं पूरी होने के बिना ही। न बंधि = ना बंधे, नहीं बंधती। धीरा = धैर्य, टिकाव। भजु = पड़।

अर्थ: अंजान मूर्ख अंधा जगत नहीं जानता कि (जीव-स्त्री ने इस संसार-रूपी) पिता के घर में चार दिन (भाव, थोड़े दिन) ही रहना है, (हरेक ने परलोक रूपी) ससुराल घर (जरूर) जाना है।1।

बताओ! (ये कैसी आश्चर्यजनक खेल है?) मुकलावा (गउना) ले के जाने वाले मेहमान (भाव, जिंद को ले जाने वाले जम) घर में आए बैठे हैं, और स्त्री अभी घर के काम-काज वाली आधी धोती ही बाँध के खड़ी है, तैयार हुए बगैर ही घूम रही है (भाव, जीव-स्त्री इस संसार के मोह में ही लापरवाह है)।1। रहाउ।

ये जो सुंदर कूंई दिखाई दे रही है (भाव, ये जो सुंदर जगत दिख रहा है) इस में कौन सी स्त्री लॅज (रस्सी) बहा रही है (भाव, यहाँ जो भी आता है, अपनी उम्र संसारिक भोगों में गुजारने लग पड़ता है)। जिसकी रस्सी घड़े समेत टूट जाती है (भाव, जिसकी उम्र खत्म हो जाती है, और शरीर गिर पड़ता है) वह पानी भरने वाली (पनिहारिन) (भाव, भोगों में प्रवृत्त) यहाँ से उठ के (परलोक को) चल पड़ती है।2।

अगर प्रभू मालिक दयाल हो जाए, (जीव स्त्री पर) मेहर करे तो वह (जीव-स्त्री को संसार-कूप में से भोगों का पानी निकालने से बचाने का) काम अपना जान के खुद ही सिरे चढ़ाता है; (उसकी मेहर से जीव स्त्री जब) गुरू के शबद को विचारती है (भाव, चित्त में बसाती है) तो वह पति वाली समझी जाती है।3।

(पर, हे भाई!) अगर विचार के देखो, तो इस जीव-स्त्री का क्या दोश? ये बिचारी क्या कर सकती है? (यहां तो) सारी दुनिया पिछले किए कर्मों के संस्कारों में बंधी हुई भटक रही है।4।

आशाएं सिरे नहीं चढ़ रहीं (नहीं पूरी हो रहीं), मन धीरज नहीं धरता और (जीव-स्त्री यहाँ से) उॅठ चलती है। हे कबीर! (इस निराशता से बचने के लिए) तू प्रभू के चरणों में लगा रह, प्रभू का आसरा लिए रख।5।6।50।

शबद का भाव: आश्चर्यजनक खेल बनी हुई है। जो भी जीव यहाँ आता है, मालिक प्रभू से गाफिल हो के (टूट के) दुनियां के भोगों में उलझ जाता है। पर फिर भी मौजों की मिथी हुई उम्मीदें पूरी नहीं होती। उम्र खत्म हो जाती है और निराशता में ही चलना पड़ता है। जिस जीव पर प्रभू मेहर करता है वह गुरू के बताए हुए राह पर चल के प्रभू की याद में जुड़ता है।50।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh