श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 338 रागु गउड़ी ॥ पंथु निहारै कामनी लोचन भरी ले उसासा ॥ उर न भीजै पगु ना खिसै हरि दरसन की आसा ॥१॥ उडहु न कागा कारे ॥ बेगि मिलीजै अपुने राम पिआरे ॥१॥ रहाउ ॥ कहि कबीर जीवन पद कारनि हरि की भगति करीजै ॥ एकु आधारु नामु नाराइन रसना रामु रवीजै ॥२॥१॥१४॥६५॥ {पन्ना 338} पद्अर्थ: पंथु = रास्ता। निहारै = देखती है। कामनी = स्त्री। लोचन = आँखें। भरीले = (आँसूओं से) भरे हुए। उसासा = हौके, सिसकियां। उर = दिल, हृदय। न भीजै = नहीं भीगता, नहीं तृप्त होता। पगु = पैर। खिसै = खिसकता है।1। कागा कारे = हे काले कौए! उडहु न = उड़, मैं सदके जाऊँ (देखो ना, करो ना, खाओ ना; ऐसे वाक्यों में शब्द ‘ना’ प्यार और लाभ प्रगट करने के लिए प्रयोग किया जाता है)। बेगि = वेग से, जल्दी से।1। रहाउ। कहि = कहता है। जीवन पद = असल जिंदगी का दर्जा। आधारु = आसरा। रसना = जीभ (से)। रवीजै = सिमरना चाहिए।2। अर्थ: (जैसे परदेस गए पति के इंतजार में) स्त्री (उसका) राह निहारती है, (उसकी) आँखें आँसूओं से भरी हैं और वह सिसक रही है। (राह देखते उसका) दिल भरता नहीं, पैर खिसकते नहीं (भाव, खड़ी खड़ी थकती नहीं), (इसी तरह की हालत होती है) उस विरह भरे जीअड़े की, (जिसे) प्रभू के दीदार का इन्तजार होता है।1। (विछुड़ी हुई विहवल नारि की तरह ही वैरागणि जीव-स्त्री कहती है) हे काले कौए! उड़, मैं सदके जाऊँ उड़, (भला) मैं अपने प्यारे प्रभू को जल्दी मिल जाऊँ।1। रहाउ। कबीर कहता है– (जैसे परदेस गए पति की राह निहारती नारि बिरह अवस्था में तरले लेती है, मिन्नतें करती है, वैसे ही) जिंदगी का असल दर्जा हासिल करने के लिए प्रभू की भक्ति करनी चाहिए, प्रभू के नाम का ही एक आसरा होना चाहिए और जीभ से उसे याद करना चाहिए।2।1।14।65। शबद का भाव: असल जीवन उन्हें ही मिला है जिन्हें प्रभू के याद की तलब लग गई है और जो उसके दीदार के लिए यूँ तड़फते हैं जैसे परदेस गए हुए पति के लिए की इंतजार में राह निहारती नारी मुंडेर से कौए उड़ाती है।65। नोट: किसी अति प्यारे के इंतजार में औंसीयां डाली जाती हैं (लकीरें डाल–डाल के देखते हैं कि औंसी राह देती है या नहीं), बनेरे (मुंडेर) पर आ के बैठे कौए को कहते हैं– हे कौए! उड़ मेरा प्यारा आ रहा है कि नहीं, अगर कौआ उड़ जाए तो मानते हैं कि आ रहा है। रागु गउड़ी ११ ॥ आस पास घन तुरसी का बिरवा माझ बना रसि गाऊं रे ॥ उआ का सरूपु देखि मोही गुआरनि मो कउ छोडि न आउ न जाहू रे ॥१॥ तोहि चरन मनु लागो सारिंगधर ॥ सो मिलै जो बडभागो ॥१॥ रहाउ ॥ बिंद्राबन मन हरन मनोहर क्रिसन चरावत गाऊ रे ॥ जा का ठाकुरु तुही सारिंगधर मोहि कबीरा नाऊ रे ॥२॥२॥१५॥६६॥ {पन्ना 338} किसी भी बोली का वर्णनात्मक रूप समझने के लिए जरूरी है कि उसके व्याकरण और कोश की जहाँ तक वे मदद कर सकते हों सहायता ली जाए। जिन भाग्यशालियों को प्रभू के दर से ऊँची उड़ानें भरने की दाति मिली हुई है, वे जी सदके भरें, पर ये उड़ाने लगाते हुए भी बाणी के बाहरी रूप (वर्णनात्मक) को आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता। सृजनहार ने हरेक जीव को जगत के करिश्मे देखने के लिए शरीरिक इंद्रियां दी हुई हैं, पर हरेक जीव के अपने–अपने असल अनुसार इन करिश्मों का भिन्न–भिन्न असर हरेक पर पड़ता है। धरती पर उगे हुए एक छोटे से फूल को, इस फूल की सार ना जानने वाला मनुष्य तो शायद पैरों के नीचे कुचल के लांघ जाता है, पर एक कोमल हृदय वाला शायर इसे देख के मस्त हो जाता है, और विचारों के समुंद्र में कई लहरें चला देता है। यही हाल ‘रॅबी शायरों’ का है, उनके अंदर तो बल्कि ज्यादा गहिराईयों से ये तरंगें उठती हैं। जेठ के महीने में धतूरे (अॅक) की खखड़ियों को हम सभी देखते हैं, पर जब ‘रॅबी शायर’ प्रीतम की आँखें उन खखड़ियों पर पड़ती हैं, तो खुद उन्हें देख के एक गहरे बिरह के रंग में आते हैं, और गाते हैं; खखड़ीआ सुहावीआ, लगड़ीआ अक कंठि॥ सतिगुरू मेहर करे, उसके नाम–लेवा सिखों के हृदय में भी इस दिखते जगत–नजारे को देख के भी यही उद्वेग उठें, यही ‘विरह’ वाली लहर चले। पर यदि कोई विद्वान सज्जन ‘अक खखड़ियों’ की जगह निरी मति, बुद्धि, अंतहकरण आदि शब्दों का इस्तेमाल करके आत्मज्ञान वाले अर्थ करने आरम्भ कर दे, तो पाठकजन स्वयं ही समझ लें कि जो उद्वेग उस खूबसूरत अलंकार ने पैदा करना था, वह कितना मद्यम पड़ जाता है। ये बिरह अवस्था मनुष्य के हृदय में पैदा करने के लिए, प्रीतम जी कहीं चकवी के विछोड़े वाला दर्दनाक नजारा पेश कर रहे हैं, कहीं समुंद्र में से विछुड़े हुए शंख के विरलाप का हाल बताते हैं और जलाशय से टूटे हुए पोखर (सरोवर) से पूछ रहे हैं कि तेरा रंग क्यूँ काला पड़ गया है, और तेरे में लय–लय करने वाले कमल फूल क्यूँ जल गए हैं। ये जिंदगी–दाती ‘बिरहो’ अवस्था पैदा करने के लिए कभी–कभी विरह में ग्रस्त स्त्री के मनोवेग बयान करते हैं, और कबीर जी की रसना द्वारा यूँ कहते है; पंथु निहारै कामनी, लोचन भरीले उसासा॥ उर न भीजै, पगु ना खिसै, हरि दरसन की आसा॥१॥ उडहु न कागा कारे॥ बेगि मिलीजै अपुने राम पिआरे॥१॥ रहाउ॥ कहि कबीर जीवन पद कारनि हरि की भगति करीजै॥ ऐकु आधारु नाम नाराइन रसना रामु रवीजै॥2॥1॥14॥65॥ इस गहरे मिन्नतों वाले दिली दर्द की सार वही जाने, जो सच–मुच अपने प्यारे प्राणनाथ पति से विछुड़ी हुई कौए उड़ा रही है और औसियां डाल रही है। ‘यह रॅबी बाण’ उस विरहणी के लिए सचमुच कारगर बाण है। दुनिया के समझदार से समझदार विद्वानों के ‘पतिब्रता’ पर दिए लैक्चर उस पर इतना असर नहीं कर सकते, जितनी ये एक अकेली पंक्ति– “उडहु न कागा कारे”। पर अगर कोई विद्वान सज्जन उस विरह–मारी को ये कह दे कि इसका अर्थ ये है– ‘हे काले पापो, दूर हो जाओ’, तो पूछ के देखो उस विरही हृदय से कि ‘कौओं’ को उड़ा के जो उद्वेग उसके अंदर से आता था, वह अब ‘काले पापों’ का नाम सुन के कहाँ गया। श्री कृष्ण जी की बाल–लीला को ‘विरह’ और ‘प्यार’ के रंग में सुनाने वाले सज्जन एक साखी इस तरह सुनाया करते हैं; “श्याम जी गोकुल की ग्वालिनों को बिलकती छोड़ के कंस को ‘कृतार्थ’ करने के लिए मथुरा आ गए, और दुबारा गोकुल जाने का समय ना मिला। जब विछोड़े में वो बहुत विहवल हुई, तो कृष्ण जी ने अपने भक्त ‘ऊधव’ को भेजा कि गोकुल जा के गोपियों को धीरज दे आए। पर अपने प्राण–प्यारे के बिना बिरही–हृदयों को कैसे धैर्य आए? जब और उपदेश कारगर ना हुआ, तब ‘ऊधव’ ने समझाया कि अब ‘जगदीश’ का सिमरन करो, श्याम जी यहाँ नहीं आ सकते। इस का उत्तर उनके दर्द भरे हृदयों में से इस प्रकार निकला; “ऊधउ! मन नही दस बीस॥ इस दिल–चीरवें उत्तर का रस भी कोई वही जीव ले सकता है, जो स्वयं प्रेम नईया में तैर रहा है। आओ, हम भी उसी प्रेम–नईया में पहुँच के ‘गोकुल’ की ‘ग्वालिन’ की तरह प्रीतम का पल्लू पकड़ के कहें, लाल! सुहणे लाल! छोड़ के ना जाना। जैसे गोकुल से चलते श्याम जी के आगे ‘ग्वालिन’ तरले–मिन्नतें करती थी, वैसे ही कबीर जी के साथ मिल के भी हम भी उसी अवस्था में पहुँच के कहें– दाता! “मो कउ छोडि न आउ न जाहू रे” “मो कउ छोडि न आउ न जाहू रे” क्या अजीब तरला है! कैसी गहरी बिरह–नदी में से लहिर उठ रही है! खुद–ब–खुद चित्त यहीं गोते खाने को करता है। जगत–अखाड़े में से गुजर चुके विरही–हृदयों के ऐसे नाट इसी ही नईया के सवारों के लिए प्रकाश–स्तम्भ हुआ करते हैं। चाहे ये रौशन–मीनार सदियों के फासले पे कहीं दूर ठिकाने पर होता है, पर इसकी चोटी पर ये विरही–तरले वाली लाट (ज्वाला) लट–लट कर रही होती है, जो सदियों बाद भी आए पतंगों को अपनी ओर खींचे बगैर नहीं रह सकती। ऊँचे वलवलों में पहुँचे हुए रॅबी आशिकों के विरह भीगे वचनों का आनंद भी पूर्ण तौर पे तभी आता है, जब उस आनंद का चाहवान सज्जन उसी वलवले में पहुँचने का प्रयत्न करे। कई विद्वान सज्जन शबद ‘गुआरनि’ का अर्थ “बुद्धि” रूपी गुआरिन करके उस विरह वाले चित्रण को आँखों से काफी धुंधला या मद्यम कर देते हैं। पहली तुक के बीच के शब्द “बना रसि” का अर्थ कई सज्जन “बरसाना” गाँव करते हैं और कुछ सज्जन इसे “बनारसि” शहर समझते हैं। इसका ‘पाठ’ और “अर्थ” तजवीज करने से पहले पाठकों का ध्यान इस शबद की दूसरी तुक के शब्द “उआ का” की ओर दिलाया जाता है। इस “उआ का” अर्थ किस तरह करना है? इसके वास्ते श्री गुरू ग्रंथ साहिब में से कुछ प्रमाण नीचे दिए जा रहे हैं; उआ अउसर कै हउ बलि जाई॥ भाव, “जब” आठों पहर अपना प्रभू सिमरूँ, ‘उआ अउसर कै’। याहू जतन करि होत छुटारा॥ उआहू जतन साध संगारा॥४३॥ (गउड़ी बावन अखरी) भाव, ‘जिस’ यतन करके...‘उआहू जतन’। उपरोक्त प्रमाणों से पाठक जन देख चुके हैं कि जहाँ कहीं किेसी तुक में शबद ‘उआ’ आया है, उसके साथ संबंध रखने वाला सर्वनाम (co-relative pronoun) ‘जो’ या ‘जिस ने’ आदि भी गुप्त या प्रकट रूप में साथ की तुक में मिलता है। इस तरह इस शबद की दूसरी तुक में के ‘उआ का’ के साथ संबंध रखने वाला ‘सर्वनाम’ भी ढूँढें और ऐसे पढ़ें; “(जिसके) आस पास घन तुरसी का बिरवा... अर्थ:ग्वारन उसका सरूप देख के मस्त हो गई, जिसके आस–पास तुलसी के संघने पौधे थे। और (‘जो’) ‘माझ बना रसि गाऊ रे’। भाव, और ‘जो’ (तुलसी के) बन में रस से (प्रेम से) गा रहा था। अब फिर दोनों तुकों को मिला के पढ़ें और अर्थ करें तो यूँ बनता है; (‘सिस’ कृष्णा जी के) आस–पास तुलसी के संघने पौधे थे (और जो) (तुलसी के) बनों में प्रेम से गा रहा था । (नोट: यहां कृष्ण जी की बाँसुरी की ओर इशारा है), उसका स्वरूप देख के ग्वालनि मोहित हो गई (और कहने लगी– प्रीतम!) मुझे छोड़ के किसी और जगह ना जाना–आना।1। चर्चा पहले ही काफी लंबी हो चुकी है। अब पाठक जन खुद विचार कर लें कि पहली तुक में पाठ ‘बना’ और ‘रस’ अलग–अलग है। व्याकरण अनुसार शबद ‘रसि’ का अर्थ है रस से, प्रेम से, जैसे ‘रसि रसि चोग चुगहि नित फासहि।’ पद्अर्थ: ११ ‘घर’ गियारहवाँ। घन = संघने। तुरसी = तुलसी। बिरवा = पौधा। माझ बना = बनों में, तुलसी के जंगल में। रसि = रस से, प्रेम से। गाऊ = गाता है। उआ का = उस का। रे = हे प्रीतम!।1। तेहि चरन = तेरे चरणों में। सारिंगधर = हे सारिंगधर! हे धनुषधारी!।1। रहाउ। बिंद्राबन = (बिंद्रा+बन। संस्कृत: बिंद्रा = तुलसी) तुलसी का जंगल। मन हरन = मन को हर लेने वाला। गाऊ = गाएं, गाईयां। जा का = जिस का। मोहि नाउ = मेरा नाम। रे = हे सज्जन!।2। अर्थ: (जिस कृष्ण जी के) आस-पास तुलसी के संघने पौधे थे (और जो) तुलसी के जंगल में प्रेम से गा रहा था उसका दर्शन करके (गोकुल की) ग्वालिनें मोहित हो गई (और कहने लगीं-) हे प्रीतम! मुझे छोड़ के किसी और जगह नहीं आना जाना।1। हे धर्नुधारी प्रभू! (जैसे वह ग्वालिन कृष्ण जी पर से वारने जाती थी वैसे ही मेरा भी) मन तेरे चरनों में परोया गया है, पर तुझे वही मिलता है जो बड़ा भाग्यशाली हो।1। रहाउ। हे प्रभू! बिंद्रावन में कृष्ण गाईयां चराता था (और वह गोकुल की ग्वालिनों का) मन मोहने वाला था, मन की खींच डालने वाला था और हे धर्नुधारी सज्जन! जिस का तू सांई है उस का नाम कबीर (जुलाहा) है (भाव, जिनका मन कृष्ण जी ने बिंद्राबन में गाईयां चरा के मोहा था उन्हें लोग गोकुल की गरीब गुआलिनें कहते हैं। हे सांई! मेरे पर तू मेहर कर, मुझे भी लोग गरीब जुलाहा कहते हैं। तू गरीबों पर जरूर मेहर करता है)।2।15।66। गउड़ी पूरबी १२ ॥ बिपल बसत्र केते है पहिरे किआ बन मधे बासा ॥ कहा भइआ नर देवा धोखे किआ जलि बोरिओ गिआता ॥१॥ जीअरे जाहिगा मै जानां ॥ अबिगत समझु इआना ॥ जत जत देखउ बहुरि न पेखउ संगि माइआ लपटाना ॥१॥ रहाउ ॥ गिआनी धिआनी बहु उपदेसी इहु जगु सगलो धंधा ॥ कहि कबीर इक राम नाम बिनु इआ जगु माइआ अंधा ॥२॥१॥१६॥६७॥ {पन्ना 338} पद्अर्थ: 12 = ‘घर’ बारहवाँ। बिपल = (संस्कृत: विपुल = लंबे खुले) लंबे चौड़े, खुले। केते = कई। पहिरे = पहन लिए। किआ = क्या लाभ हुआ? मधे = में। नर = हे नर! हे भाई! धोखे = (संस्कृत: धुक्ष = धुखाना, सुलगाना) धूप सुलगाना, पूजा की। देवा = देवता। जलि = पानी में। बोरिओ = डुबोया। गिआता = ज्ञाता, जानबूझ के।1। जीअ रे = हे जीव! हे जिंदे! मैं समझता हूँ। जाहिगा = तू भी जनम व्यर्थ गवा लेगा। अबिगतु = (संस्कृत: अव्यक्त = अदृश्य प्रभू) परमात्मा। इआना = हे अंजान! जत कत = जिधर किधर, हर तरफ। बहुरि = दुबारा (उसी रंग में)। न पेखउ = मैं नहीं देखता। संगि = संग में।1। रहाउ। गिआनी = ज्ञान चर्चा करने वाले। धिआनी = समाधियां लगाने वाले। बहु उपदेसी = औरों को बड़ी शिक्षा देने वाले। धंधा = जंजाल।2। अर्थ: कई लोग लम्बे-चौड़े चोले पहनते हैं (इसका क्या लाभ?) जंगलों में भी जा बसने के क्या गुण? हे भाई! अगर धूप आदि सुलगा के देवतों की पूजा कर ली तो भी क्या बना? और अगर जान-बूझ के (किसी तीर्थ आदि के) जल में शरीर डुबो लिया तो भी क्या हुआ?।1। हे जीव! तू (उस) माया में लिपट रहा है (जो) जिधर भी मैं देखता हूँ दुबारा (पहले रूप में) मैं नहीं देखता (जिधर देखता हूँ, माया नाशवंत ही है, एक-रंग रहने वाली नहीं है)। हे अंजान जीव! एक परमात्मा को खोज। नहीं तो मैं समझता हूँ (इस माया के साथ) तू भी अपना आप व्यर्थ गवाता है।1। रहाउ। कोई ज्ञान-चर्चा कर रहा है, कोई समाधि लगाए बैठा है, कोई औरों को उपदेश कर रहा है (पर असल में) ये सारा जगत माया का जंजाल ही है (भाव, माया के जंजाल में ही ये जीवन ग्रसे हुए हैं)। कबीर कहता है– परमात्मा का नाम सिमरे बिना यह जगत माया में अंधा हुआ पड़ा है।2।1।16।67। शबद का भाव: लंबे-लंबे चोले पहने फिरना, जंगलों में डेरे लगाने, देवताओं की पूजा, तीर्थों पर शरीर त्यागना, ज्ञान-चर्चाएं करनीं, समाधियां लगानी, लोगों को धार्मिक उपदेश करने - ये सब माया के ही आडंबर है। जीवन का सही रास्ता एक ही है; वह है परमात्मा का सिमरन।67। गउड़ी १२ ॥ मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे ॥ सूरु कि सनमुख रन ते डरपै सती कि सांचै भांडे ॥१॥ डगमग छाडि रे मन बउरा ॥ अब तउ जरे मरे सिधि पाईऐ लीनो हाथि संधउरा ॥१॥ रहाउ ॥ काम क्रोध माइआ के लीने इआ बिधि जगतु बिगूता ॥ कहि कबीर राजा राम न छोडउ सगल ऊच ते ऊचा ॥२॥२॥१७॥६८॥ {पन्ना 338} पद्अर्थ: भरमु = भटकना, विकारों के पीछे दौड़ भाग। प्रगट होइ = प्रगट हो के, निडर हो के, विकारों का सहम दूर करके। नाचहु = नाच, दलेर हो के प्रभू की शरण आ। डांडे = डंन, ठॅगी। सूरु की = वह कैसा शूरवीर? (भाव, वह मनुष्य सूरमा नहीं)। रन = मैदाने जंग, रण भूमि। सती कि = (वह स्त्री) कैसी सती? सांचै = संचित किए, इकट्ठे करे।1। डगमग = डावाँ डोल अवस्था, निर्णय हीन अवस्था। जरे = (चिता में) जलने से। मरे = रण भूमि में शहीद होने से। सिधि = सिद्धि, सफलता। हाथि = हाथ में। संधउरा = सिंदूर लगाया हुआ नारीयल, (जो स्त्री अपने मरे पति के साथ चिता पर जलने के लिए सती होने के लिए तैयार होती थी, वह हाथ में नारीयल लेती थी और उस नारीयल पर सिंदूर लगा लेती थी; ये सिंदूरी नारीयल एक बार हाथ में लेने पर उसे जरूर सती होना पड़ता था, वरना लोग जबरदस्ती उसे जलती चिखा में फेंक के जला देते थे)।1। रहाउ। लीने = ठॅगे हुए। इआ बिधि = इन तरीकों से। बिगूता = ख्वार हो रहा है। न छोडउ = मैं नहीं छोड़ूंगा।2। अर्थ: हे मन! विकारों के पीछे दौड़ भाग छोड़ दे, ये (काम-क्रोध आदि) सब माया की ठॅगियां हैं (जब तू सब से ऊँचे प्रभू की शरण आ गया, तो इनसे क्यों डरे? अब निडर हो के उत्साहित रह)। वह शूरवीर कैसा जो सामने दिखाई देती रण-भूमि से डर जाए? वह स्त्री सती नहीं हो सकती जो (घर के) बरतन संभालने लग जाए (शूरवीर की तरह और सती की तरह, हे मन! तूने भी काम आदि का सामना करना है और स्वैभाव जलाना है)।1। हे कमले मन! (सबसे ऊँचे मालिक की शरण आ के अब) डावाँडोल होना छोड़ दे। (जिस स्त्री ने) हाथ में सिंदूरा हुआ नारीयल ले लिया, उसे तो अब मर के ही सिद्धि मिलेगी (भाव, सती वाला मरतबा मिलेगा), वैसे ही, हे मन! तूने प्रभू की ओट ली है, अब काम आदि के सामने डोलना छोड़ दे, अब तो स्वैभाव मार के ही ये प्रीति निभेगी ।1। रहाउ। किसी को काम ने ठॅग लिया, किसी को क्रोध ने ठॅगा है, किसी को माया (की किसी और तरंग) ने- इस तरह सारा जग ख्वार हो रहा है। (इनसे बचने के लिए) कबीर (तो यही) कहता है (भाव, अरदास करता है) कि मैं सबसे ऊँचे मालिक परमात्मा को ना विसारूँ।2।2।17।68। शबद का भाव: जिस मनुष्य ने परमात्मा के सिमरन का राह पकड़ा है, वह, मानो, किसी शूरवीर व सती के पद्-चिन्हों पर चलने लगा है, उसने निडर हो के कामादिक विकारों का मुकाबला करना है और अहंकार का नाश करना है।68। गउड़ी १३ ॥ फुरमानु तेरा सिरै ऊपरि फिरि न करत बीचार ॥ तुही दरीआ तुही करीआ तुझै ते निसतार ॥१॥ बंदे बंदगी इकतीआर ॥ साहिबु रोसु धरउ कि पिआरु ॥१॥ रहाउ ॥ नामु तेरा आधारु मेरा जिउ फूलु जई है नारि ॥ कहि कबीर गुलामु घर का जीआइ भावै मारि ॥२॥१८॥६९॥ {पन्ना 338} पद्अर्थ: 13 = ‘घर’ तेरहवाँ। फुरमानु = हुकम। सिरै ऊपरि = सिर पे ही, सदा सिर माथे पे। फिरि = फिर के, उलट के, उसके उलट। दरीआ = (भाव, संसार समुंद्र)। करीआ = मल्लाह। तूझै ते = तूझ से ही। निसतार = निस्तारा, पार उतारा, संसार समुंद्र की विकारी लहरों से बचाव।1। बंदे = हे बंदे! इकतीआर = एख्तियार कर, कबूल कर। धरउ = (व्याकरण के अनुसार ये शब्द ‘हुकमी भविष्यत्’ imperative mood, अंन पूरुष, एक वचन है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’ का अंक ‘हुकमी भविखत’) चाहे धरे, बेशक धरे। कि = या। रोसु = गुस्सा।1। रहाउ। आधारु = आसरा। जई है = जी पड़ता है, खिल जाता है। नारि = नार में, पानी में (संस्कृत: आपो नारा इति प्रोक्ता। शब्द ‘नराइण’ भी शब्द ‘नार’ और ‘अयन’ से बना है; नार = जल; अयन = घर, जिसका घर जल में है)। जीआइ = जिआए, जिंदा रखे। भावै = चाहे। नोट: ‘फूलु जई है’ का इकट्ठा अर्थ ‘फूल जाती है’ गलत है, क्योंकि शब्द ‘फूलु’ व्याकरण अनुसार संज्ञा (noun) है, क्रिया (verb) नहीं है।2। अर्थ: (हे प्रभू!) तेरा हुकम मेरे सिर माथे पर है, मैं इसमें कोई ना-नुकर नहीं करता। ये संसार समुंद्र तू खुद ही है, (इसमें से पार लंघाने वाला) मल्लाह भी तू खुद ही है। तेरी मेहर से ही मैं इसमें से पार लांघ सकता हूँ।1। हे बंदे! तू (प्रभू की) भगती कबूल कर, (प्रभू-) मालिक चाहे (तेरे साथ) प्यार करे चाहे गुस्सा करे (तू इस बात की परवाह ना कर)।1। रहाउ। (हे प्रभू!) तेरा नाम मेरा आसरा है (इसी तरह) जैसे फूल पानी में खिला रहता है (जैसे फूल को पानी का आसरा है)। कबीर कहता है– (हे प्रभू!) मैं तेरे घर का चाकर हूँ, (ये तेरी मर्जी है) चाहे जीवित रख चाहे मार दे।2।18।69। शबद का भाव: असल सेवक अपने प्रभू की रजा में पूरी तौर पर राजी रहता है। जैसे पानी फूल की जिंदगी का आसरा है, वैसे ही प्रभू का नाम सेवक के जीवन का आधार है। दुख और सुख दोनों ही उसे प्रभू की मेहर ही दिखाई देते हैं “भावै धीरक भावै धके ऐक वडाई देइ”।69। गउड़ी५ ॥ लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे ॥ भगति हेति अवतारु लीओ है भागु बडो बपुरा को रे ॥१॥ तुम्ह जु कहत हउ नंद को नंदनु नंद सु नंदनु का को रे ॥ धरनि अकासु दसो दिस नाही तब इहु नंदु कहा थो रे ॥१॥ रहाउ ॥ संकटि नही परै जोनि नही आवै नामु निरंजन जा को रे ॥ कबीर को सुआमी ऐसो ठाकुरु जा कै माई न बापो रे ॥२॥१९॥७०॥ {पन्ना 338-339} पद्अर्थ: नोट: शब्द ‘गउड़ी’ के नीचे छोटा अंक ५ बताता है इस शबद के समेत आगे कबीर जी के पाँच शबद है। जीअ जोनि महि = जीवों की जूनियों में। भ्रमत = भटकता। रे = हे भाई! भगति हेति = भक्ति की खातिर, उसकी भगती पे प्रसन्न हो के। अवतारु = जनम। बपुरा को = बिचारे का। जु = जो ये बात। नंदनु = पुत्र। नंद = ये गोकुल का एक ग्वाला था, इसकी पत्नी का नाम यशोधा था। जब कंस ने अपनी बहन देवकी के घर जनमें बालक कृष्ण को मारना चाहता था तो इनके पिता वासुदेव ने इनको मथुरा से रातो-रात ले जा के नंद के हवाले किया था। नंद और यशोदा ने कृष्ण जी को पाला था। सु = वह। का को = किसका? धरनि = धरती। दसो दिस = दसों दिशाओं में (भाव, ये सारा जगत)।1। रहाउ। संकटि = संकट में, दुख में। निरंजन = अंजन रहित, माया के प्रभाव से ऊपर।2। अर्थ: हे भाई! (तुम कहते हो कि जब) चौरासी लाख जीवों में भटक-भटक के नंद बहुत थक गया (तो उसे मानस जनम मिला तो उसने परमात्मा की भगती की), उसकी भगती से प्रसन्न हो के (परमात्मा ने उसके घर) जनम लिया, उस बिचारे नंद की बड़ी किस्मत जागी।1। पर, हे भाई! तुम जो ये कहते हो कि (परमात्मा नंद के घर अवतार ले के) नंद का पुत्र बना, (ये बताओ कि) वह नंद किसका पुत्र था? और जब ना ये धरती ना आकाश था, तब ये नंद (जिसे तुम परमात्मा का पिता कह रहे हो) कहाँ था।1। रहाउ। हे भाई! (दरअसल बात ये है कि जिस प्रभू) का नाम है निरंजन (भाव, जो प्रभू कभी माया के असर तले नहीं आ सकता), वह जूनियों में भी नहीं आता, वह (जनम-मरण के) दुख में नहीं पड़ता। कबीर का स्वामी (सारे जगत का) पालनहार ऐसा है जिसकी ना कोई माँ है, ओर ना ही पिता।2।19।70। शबद का भाव: परमात्मा खुद सारे जगत को रचने वाला है। माया के खेल को वह खुद ही बनाने वाला है; वह जनम मरन में नहीं आता, उसका कोई माता-पिता नहीं है। गोकुल के ग्वाले नंद को परमातमा का पिता कहना भारी भूल है।70। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |