श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 409 आसा महला ५ ॥ हरख सोग बैराग अनंदी खेलु री दिखाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ खिनहूं भै निरभै खिनहूं खिनहूं उठि धाइओ ॥ खिनहूं रस भोगन खिनहूं खिनहू तजि जाइओ ॥१॥ खिनहूं जोग ताप बहु पूजा खिनहूं भरमाइओ ॥ खिनहूं किरपा साधू संग नानक हरि रंगु लाइओ ॥२॥५॥१५६॥ {पन्ना 409} पद्अर्थ: हरख = खुशी। सोग = गम। बैराग = उपरामता। अनंदी = आनंद स्व्रूप् परमात्मा ने। खेल = जगत तमाशा। री = हे सखी! ।1। रहाउ। खिन हूं = एक छिन में। भै = (शब्द ‘भव’ का बहुवचन)। निरभै = निर्भैता। उठि धाइओ = उठ के दौड़ता है। रस = स्वादिष्ट पदार्थ। तजि जाइओ = छोड़ जाता है।1। ताप = धूणिआं आदि तपानी। साधू = गुरू। रंगु = प्रेम।2। अर्थ: हे सहेली! (हे सत्संगी!) आनंद-रूप परमात्मा ने मुझे ये जगत-तमाशा दिखा दिया है (इस जगत-तमाशे की अस्लियत दिखा दी है)। (इसमें कहीं) खुशी है (कहीं) ग़म है (कहीं) वैराग है।1। रहाउ। (हे सत्संगी! इस जगत-तमाशे में कहीं) एक पल में अनेकों डर (आ घेरते हैं, कहीं) निडरता है (कहीं कोई दुनियावी पदार्थों की ओर) उठ के भागता है, कहीं एक पल में स्वादिष्ट पदार्थ भोगे जा रहे हैं कहीं कोई एक पल में इन भोगों को त्याग जाता है।1। (हे सखी! इस जगत-तमाशे में कहीं) जोग-साधना की जा रही है, कहीं धूणियां तपाई जा रही हैं, कहीं अनेकों देव-पूजा हो रहीं हैं, कहीं और की ओर भटकनें भटकी जा रही हैं। हे नानक! (कह–हे सखी!) कहीं साध-संगति में रख के एक पल में परमात्मा की मेहर हो रही है, और परमात्मा का प्रेम रंग बख्शा जा रहा है।2।4।156। रागु आसा महला ५ घरु १७ आसावरी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गोबिंद गोबिंद करि हां ॥ हरि हरि मनि पिआरि हां ॥ गुरि कहिआ सु चिति धरि हां ॥ अन सिउ तोरि फेरि हां ॥ ऐसे लालनु पाइओ री सखी ॥१॥ रहाउ ॥ पंकज मोह सरि हां ॥ पगु नही चलै हरि हां ॥ गहडिओ मूड़ नरि हां ॥ अनिन उपाव करि हां ॥ तउ निकसै सरनि पै री सखी ॥१॥ थिर थिर चित थिर हां ॥ बनु ग्रिहु समसरि हां ॥ अंतरि एक पिर हां ॥ बाहरि अनेक धरि हां ॥ राजन जोगु करि हां ॥ कहु नानक लोग अलोगी री सखी ॥२॥१॥१५७॥ {पन्ना 409} नोट: ये शबद आसा और आसावरी दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने हैं। पद्अर्थ: करि = कह, जप। मनि = मन में। पिआरि = प्यार कर। गुरि = गुरू ने। चिति = चिक्त कर। धरि = रख। अन सिउ = (परमात्मा के बिना) और से। तोरी = (प्रेम) तोड़ के। फेरि = (औरों से मन को) मोड़ ले। अैसे = इस तरह। लालनु = प्यारा प्रभू। री सखी = हे सहेली!।1। रहाउ। पंकज = कीचड़ (पंक = कीचड़)। सरि = सर में, संसार सरोवर में। पगु = पैर। गहडिओ = गडा हुआ, फसा हुआ। मूढ़ नरि = मूर्ख मनुष्य ने। अनिन = अनन्य, केवल एक । तउ = तब। निकसै = निकल आता है।1। थिर = अडोल, स्थिर। बनु = जंगल। ग्रिह = घर। समसरि = बराबर। अंतरि = हृदय में। बाहरि = जगत में। अनेक धरि = अनेकों काम काज कर। राजन जोगु = राज जोग। लोग अलोगी = संसार से निराला।2। अर्थ: (हे सखी!) सदा परमात्मा का सिमरन करती रह, (इस तरह अपने) मन में परमात्मा से प्यार बना। जो कुछ गुरू ने बताया वह अपने चिक्त में बसा। परमात्मा के बिना औरों के साथ बनाई प्रीति तोड़ दे, औरों से अपने मन को फेर ले। हे सहेली! (जिसने भी) परमात्मा को (पाया है) इस तरीके से ही पाया है।1। रहाउ। हे सहेली! संसार समुंद्र में मोह का कीचड़ है (इसमें फसा हुआ) पैर परमात्मा की ओर नहीं चल सकता। मूर्ख मनुष्य ने (अपना पैर मोह के कीचड़ में) फंसाया हुआ है। हे सखी! केवल एक परमात्मा के सिमरन का ही आहर कर, और परमात्मा की शरण पड़, तभी (मोह के कीचड़ में फंसा हुआ पैर) निकल सकता है।1। हे सहेली! अपने चिक्त को (माया के मोह से) अडोल बना ले (इतना स्थिर कि) जंगल और घर एक समान प्रतीत हों। अपने दिल में एक परमात्मा की याद टिकाए रख, और, जगत में बेशक कई तरह के काम-काज किए जा (इस तरह) राज भी कर और जोग भी कमा। (पर) हे नानक! कह– हे सखी! (काम-काज करते हुए ही निर्लिप रहना-ये) संसार से निराला रास्ता है।2।1।157। नोट: घर 17 के शबदों का आरम्भ। आसावरी महला ५ ॥ मनसा एक मानि हां ॥ गुर सिउ नेत धिआनि हां ॥ द्रिड़ु संत मंत गिआनि हां ॥ सेवा गुर चरानि हां ॥ तउ मिलीऐ गुर क्रिपानि मेरे मना ॥१॥ रहाउ ॥ टूटे अन भरानि हां ॥ रविओ सरब थानि हां ॥ लहिओ जम भइआनि हां ॥ पाइओ पेड थानि हां ॥ तउ चूकी सगल कानि ॥१॥ लहनो जिसु मथानि हां ॥ भै पावक पारि परानि हां ॥ निज घरि तिसहि थानि हां ॥ हरि रस रसहि मानि हां ॥ लाथी तिस भुखानि हां ॥ नानक सहजि समाइओ रे मना ॥२॥२॥१५८॥ {पन्ना 409} पद्अर्थ: मनसा = (मनीषा) इच्छा। मनि = मान, पक्की कर। सिउ = साथ। नेड़ = नित्य, सदा। धिआनि = ध्यान में। गिआनि = गहरी सांझ में। चरानि = चरण में। तउ = तभी। क्रिपानि = कृपा से।1। रहाउ। भरानि = भरांति, भटकना। अन = अन्य, और। थानि = स्थान में। सरब थानि = हरेक जगह में। भइआनि = भयानक, डरावनी। लहिओ = उतर जाता है। पेड थानि = संसार रूपी वृक्ष के आदि हरी के हजूरी में। कानि = मुथाजी।1। लहनो = लेना, भाग्य। मथानि = माथे पर। पावक = आग। पारि परानि = पार पड़ जाता है। निज घरि = अपने (असल) घर में। तिसहि = उस को। रसहि = रस को। मानि = माणता है, भोगता है। तिस = प्यास, तृष्णा ।2। (नोट: शब्द ‘तिसु’ सर्वनाम है जबकि ‘तिस’ संज्ञा है) सहजि = आत्मिक अडोलता में। अर्थ: (हे मेरे मन!) एक (परमात्मा के मिलाप) की तमन्ना (अपने अंदर) कायम कर। गुरू के चरणों में जुड़ के सदा (परमात्मा के) ध्यान में टिका रह। गुरू के उपदेश की जान-पहिचान में मजबूत-चिक्त हो। गुरू चरणों में (रहके) सेवा-भक्ति कर। हे मेरे मन! तब ही गुरू की कृपा से (परमात्मा को) मिल सकते हैं।1। रहाउ। हे मेरे मन! जब और भटकनें खत्म हो जाती हैं, तब हरेक जगह में परमात्मा ही व्यापक दिखता है, तब डरावने जम का सहम उतर जाता है, संसार-वृक्ष के आदि-हरी के चरणों में ठिकाना मिल जाता है, तब हरेक किस्म की मुहताजी खत्म हो जाती है।1। हे नानक! (कह–) हे मेरे मन! जिस मनुष्य के माथे पर भाग्य जागते हैं वह विकारों की आग के खतरे से पार लांघ जाता है, उसको अपने असल घर (प्रभू चरणों में) जगह मिल जाती है, वह रसों में श्रेष्ठ हरि-नाम रस को हमेशा भोगता है, उसकी (माया की) प्यास भूख दूर हो जाती है, और वह सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।2।2।158। आसावरी महला ५ ॥ हरि हरि हरि गुनी हां ॥ जपीऐ सहज धुनी हां ॥ साधू रसन भनी हां ॥ छूटन बिधि सुनी हां ॥ पाईऐ वड पुनी मेरे मना ॥१॥ रहाउ ॥ खोजहि जन मुनी हां ॥ स्रब का प्रभ धनी हां ॥ दुलभ कलि दुनी हां ॥ दूख बिनासनी हां ॥ प्रभ पूरन आसनी मेरे मना ॥१॥ मन सो सेवीऐ हां ॥ अलख अभेवीऐ हां ॥ तां सिउ प्रीति करि हां ॥ बिनसि न जाइ मरि हां ॥ गुर ते जानिआ हां ॥ नानक मनु मानिआ मेरे मना ॥२॥३॥१५९॥ {पन्ना 409-410} पद्अर्थ: गुनी = सारे गुणों का मालिक। सहज धुनी = आत्मिक अडोलता की रोंअ में। साधू = गुरू (की शरण पड़ के)। रसन = जीभ (से)। भनी = भणि, उचार के। बिधि = ढंग। सुनी = सुन के। वड पुनी = भाग्यों से।1। रहाउ। खोजहि = खोजते हैं। जन मुनी = मुनि जन। स्रब = सरब। धनी = मालिक। कलि दुनी = कलियुगी दुनिया में। दुख बिनासनी = दुखों का नाश करने वाला। पूरन आसनी = आशाएं पूरी करने वाला।1। मन = हे मन! सो = उस प्रभू को। अलख = जिस का सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। अभेवीअै = अभेव, जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। सिउ = साथ। न जाइ = पैदा नहीं होता। ते = से। मानिआ = पतीज जाता है।2। अर्थ: हे मेरे मन! आत्मिक अडोलता की लहर में लीन हो के उस परमात्मा का नाम सदा जपना चाहिए जो सारे गुणों का मालिक है। (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ कर (अपनी) जीभ से परमात्मा के गुण उचार। हे मेरे मन! सुन, यही है विकारों से बचने का तरीका, पर ये बडे़ भाग्यों से प्राप्त होता है।1। रहाउ। हे मेरे मन! सारे ऋषि मुनि उस परमात्मा को खोजते आ रहे हैं, जो सारे जीवों का मालिक है जो इस माया-ग्रसित दुनिया में ढूँढना मुश्किल है, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है, और जो सबकी आशाएं पूरी करने वाला है।1। हे (मेरे) मन! उस परमात्मा की सेवा-भक्ति करनी चाहिए, जिसका सही स्वरूप बताया नहीं जा सकता, जिसका भेद पाया नहीं जा सकता। हे मेरे मन! उस परमात्मा से प्यार डाल, जो कभी नाश नहीं होता जो ना पैदा होता है ना मरता है। हे नानक! (कह–) हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने गुरू के जरिएउस परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली, उसका मन सदा (उसकी याद में) रमा रहता है।2।3।159। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |