श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 411 आसावरी महला ५ इकतुका ॥ ओइ परदेसीआ हां ॥ सुनत संदेसिआ हां ॥१॥ रहाउ ॥ जा सिउ रचि रहे हां ॥ सभ कउ तजि गए हां ॥ सुपना जिउ भए हां ॥ हरि नामु जिन्हि लए ॥१॥ हरि तजि अन लगे हां ॥ जनमहि मरि भगे हां ॥ हरि हरि जनि लहे हां ॥ जीवत से रहे हां ॥ जिसहि क्रिपालु होइ हां ॥ नानक भगतु सोइ ॥२॥७॥१६३॥२३२॥ {पन्ना 411} पद्अर्थ: ओइ परदेसीआ = हे परदेसी! हे जगत में चार दिन के लिए आए जीव! सुनत = सुनता है?।1। रहाउ। जा सिउ = जिस (माया) से। रचि रहे = मस्त रहे। सभ कउ = उस सारी को। सुपना जिउ = सपने जैसा। जिनि् लऐ = (तू) कयूँ नहीं लेता?।1। तजि = त्याग के। अन = अन्य (पदार्थ)। जनमहि = जनम में। मरि = मर के। भगे = दौड़ते रहे। जनि = जन के, जिस जिस जन ने। से = वह लोग। जिसहि = जिस पर।2। अर्थ: जगत में चार दिनों के लिए आए हे जीव! ये संदेश ध्यान से सुन।1। रहाउ। (हे भाई! तुझसे पहले यहाँ पर आए हुए जीव) जिस माया के मोह में फंसे रहे, आखिर उस सारी को छोड़ के यहाँ से चले गए, (अब वह) सपने की तरह हो गए हैं (कोई उन्हें याद भी नहीं करता)। (फिर) तू क्यों (माया का मोह छोड़ के) परमात्मा का नाम नहीं याद करता?।1। (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा को भुला के अन्य पदार्थों के मोह में फसे रहते हैं वह जनम-मरण के चक्कर में भटकते फिरते हैं। जिस मनुष्य ने परमात्मा को पा लिया है वे आत्मिक जीवन के मालिक बन गए। (पर) हे नानक! (जीव के अपने वश के बात नहीं) जिस मनुष्य पर प्रभू दयावान होता है वही उसका भक्त बनता है।2।7।163।232। नोट: इक तुका–हरेक बंद में एक–एक तुक वाला। नोट: अंक ७ का भाव है कि घर १७ में कुल ७ शबद है। आसा राग में महला ५ के कुल 163 शबद हैं; महला १---------------39 नोट: इस संग्रह (230) में महला १ का ‘सोदरु’ वाला शबद और महला ४ का ‘सो पुरखु’ वाला शबद शामिल नहीं। इन दोनों को मिला के कुल जोड़ 232 बनता है जो सारे शबदों के खत्म होने पर ऊपर दिया गया है। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला ९ ॥ बिरथा कहउ कउन सिउ मन की ॥ लोभि ग्रसिओ दस हू दिस धावत आसा लागिओ धन की ॥१॥ रहाउ ॥ सुख कै हेति बहुतु दुखु पावत सेव करत जन जन की ॥ दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत नह सुध राम भजन की ॥१॥ मानस जनम अकारथ खोवत लाज न लोक हसन की ॥ नानक हरि जसु किउ नही गावत कुमति बिनासै तन की ॥२॥१॥२३३॥ {पन्ना 411} पद्अर्थ: बिरथा = पीड़ा, दुख, बुरी हालत, व्यथा। कहउ = कहूँ, मैं बताऊँ। कउन सिउ = किस को? लोभि = लोभ में। ग्रसिओ = फसा हुआ। दिस = दिशा। आसा = तमन्ना, तृष्णा।1। रहाउ। हेति = वास्ते। सेव = सेवा, खुशामद। जन जन की = हरेक जन की, जगह जगह की। दुआरहि दुआरि = हरेक दरवाजे पर। सुआन = कुक्ता। सुधि = सूझ।1। अकारथ = व्यर्थ। खोवत = गवाता है। लाज = शर्म। हसन की = हँसी मजाक की। नानक = हे नानक! जसु = सिफत सलाह, यश। कुमति = खोटी मति। तन की = शरीर की।2। अर्थ: (हे भाई!) मैं इस (मानस) मन की बुरी हालत किसे बताऊँ? (हरेक मनुष्य का यही हाल है), लोभ में फसा हुआ ये मन दसों दिशाओं में दौड़ता है, इसे धन जोड़ने की तृष्णा लगी रहती है।1। रहाउ। (हे भाई!) सुख हासिल करने के लिए (ये मन) जगह जगह की खुशामद करता फिरता है (और इस तरह सुख की जगह बल्कि) दुख सहता है। कुत्ते की तरह हरेक के दर पर भटकता फिरता है, इसे परमात्मा का भजन करने की कभी नहीं सूझती।1। (हे भाई! लोभ में फसा हुआ जीव) अपना मानस जनम व्यर्थ ही गवा लेता है, (इसके लालच के कारण) लोगों द्वारा किए जा रहे हँसी-मजाक से भी इसे शर्म नहीं आती। हे नानक! (कह–हे जीव!) तू परमात्मा की सिफत सालाह क्यूँ नही करता? (सिफतसालाह की बरकति से ही) तेरी ये खोटी मति दूर हो सकेगी।2।1।233। रागु आसा महला १ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ उतरि अवघटि सरवरि न्हावै ॥ बकै न बोलै हरि गुण गावै ॥ जलु आकासी सुंनि समावै ॥ रसु सतु झोलि महा रसु पावै ॥१॥ ऐसा गिआनु सुनहु अभ मोरे ॥ भरिपुरि धारि रहिआ सभ ठउरे ॥१॥ रहाउ ॥ सचु ब्रतु नेमु न कालु संतावै ॥ सतिगुर सबदि करोधु जलावै ॥ गगनि निवासि समाधि लगावै ॥ पारसु परसि परम पदु पावै ॥२॥ सचु मन कारणि ततु बिलोवै ॥ सुभर सरवरि मैलु न धोवै ॥ जै सिउ राता तैसो होवै ॥ आपे करता करे सु होवै ॥३॥ गुर हिव सीतलु अगनि बुझावै ॥ सेवा सुरति बिभूत चड़ावै ॥ दरसनु आपि सहज घरि आवै ॥ निरमल बाणी नादु वजावै ॥४॥ अंतरि गिआनु महा रसु सारा ॥ तीरथ मजनु गुर वीचारा ॥ अंतरि पूजा थानु मुरारा ॥ जोती जोति मिलावणहारा ॥५॥ रसि रसिआ मति एकै भाइ ॥ तखत निवासी पंच समाइ ॥ कार कमाई खसम रजाइ ॥ अविगत नाथु न लखिआ जाइ ॥६॥ जल महि उपजै जल ते दूरि ॥ जल महि जोति रहिआ भरपूरि ॥ किसु नेड़ै किसु आखा दूरि ॥ निधि गुण गावा देखि हदूरि ॥७॥ अंतरि बाहरि अवरु न कोइ ॥ जो तिसु भावै सो फुनि होइ ॥ सुणि भरथरि नानकु कहै बीचारु ॥ निरमल नामु मेरा आधारु ॥८॥१॥ {पन्ना 411} पद्अर्थ: उतरि = उतर के, नीचे आ के। अवघटि = मुश्किल घाटी से, पहाड़ी से। सरवरि = सरोवर में। बकै न बोलै = व्यर्थ ना बोले। आकासी = आकाशों में। सुंनि = शून्य में, वह अवस्था जहाँ मायावी फुरनों से सुन्न हो। रसु सतु = शांत रस। झोलि = हिला के। पावै = पाता है।1। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ की बात। अभ मोरे = हे मेरे मन! भरि पुरि = भर के पूरा पूरा, भरपूर। धार रहिआ = आसरा दे रहा है।1। रहाउ। कालु = मौत का सहम। सबदि = शबद के द्वारा। गगनि = गगन में,चिदाकाश में, चित्त रूप आकाश में, ऊँचे विचार मण्डल में। निवासि = निवास से। परसि = परस के, स्पर्श के, छू के।2। मन कारणि = मन (को वश करने) की खातिर। सुभर = नाकोनाक भरा हुआ। जै सिउ = जिस (परमात्मा) से।3। हिव = हिम, बरफ। सीतल = ठंडा। बिभूत = स्वाह, राख। चढ़ावै = शरीर पे मलता है। दरसनु = (छे भेषों में से कोई) भेष। सहज घरि = सहज के घर में, अडोलता के घर में। नादु = बाजा, सिंञीं।4। अंतरि = अपने अंदर। सारा = सार, श्रेष्ठ। मजनु = स्नान। थानु मुरारा = मुरारी का स्थान, परमात्मा का निवास स्थान। जोती = परमात्मा की ज्योति में।5। रसि = नाम के रस में। रसिआ = भीगा हुआ। ऐके भाइ = एक के ही प्रेम में। पंच = कामादिक पाँच विकारों को। अविगत = अव्यक्त, अदृष्ट प्रभू।6। उपजै = प्रगट होता है, चमकता है। जोति = प्रकाश। निधि गुण = गुण निधि, गुणों का खजाना प्रभू। देखि = देख के।7। भरथहि = हे भरथरी जोगी! आधारु = आसरा।8। (नोट: किसी योगी को संबोधन करते हैं, जिसने अपना नाम अपने से पहले हो चुके भरथरी के नाम पर रखा हुआ है। सब धर्मों में ऐसा रिवाज आम तौर पर देखने को मिलता है)। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाली ये बात सुन, (कि) परमात्मा हर जगह भरपूर है, और हर ज्रगह सहारा दे रहा है।1। रहाउ। (हे भरथरी जोगी! जोगी किसी टीले से पहाड़ से उतर के किसी तीर्थ-सरोवर में स्नान करता है, तो इसे पुंन्य-कर्म समझता है, पर) जो मनुष्य अहंकार आदि की मुश्किल घाटी से उतर के (सत्संग के) सरोवर में (आत्मिक) स्नान करता है, जो बहुत व्यर्थ नहीं बोलता और परमात्मा के गुण गाता है, वह मनुष्य ऐसे उस आत्मिक अवस्था में टिका रहता है जहाँ कोई मायावी फुरना नहीं उठता जैसे (समुंद्र का) जल (सूरज की मदद से ऊँचा उठ के भाप बन के) आकाशों में (बादल बन के उड़ानें भरता) है, वह मनुष्य शांति रस को हिला के (ले के) नाम-महा-रस पीता है।1। (हे जोगी!) जिस मनुष्य ने सदा स्थिर प्रभू (के नाम) को अपना नित्य प्रण बना लिया है, नित्य की कार बना ली है, उसे मौत का सहम नहीं सताता (आत्मिक मौत का खतरा नहीं रहता), गुरू के शबद में जुड़ के वह (अपने अंदर से) क्रोध को जला लेता है, उच्च आत्मिक मण्डल में निवास करके वह प्रभू चरणों से जुड़ा रहता है (समाधि लगाए रखता है)। (हे जोगी! गुरू) पारस (के चरणों) को छू के वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।2। (हे जोगी! जो मनुष्य) अपने मन को वश करने के लिए सदा-स्थिर प्रभू को (याद रखता है) बार बार चेते करता है (जैसे दूध रिड़कते, बिलोते हैं) और अपने मूल, प्रभू की तलाश करता है, जो मनुष्य (नाम अमृत से) नाको नाक भरे हुए सरोवर में से (जिसमें कोई विकारों आदि की) मैल नहीं है अपने आप को धोता है, वह मनुष्य वैसा ही हो जाता है जैसे प्रभू के साथ वह प्यार डालता है। (उसे फिर ये समझ आ जाती है कि) जगत में वही कुछ होता है जो करतार आप ही कर रहा है।3। (हे जोगी! तुम बर्फानी पहाड़ों की गुफाओं में रहते हो, शरीर पे विभूति मलते हो, सिंञीं बजाते हो, पर) बर्फ जैसें ठण्डे-ठार जिगरे वाले गुरू को मिल के जो मनुष्य (अपने अंदर की तृष्णा की) आग बुझाता है, जो मनुष्य गुरू की बताई हुई सेवा में अपनी सुरति रखता है, जो, मानो, ये राख विभूति शरीर पे मलता है, जो मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह से भरपूरगुरू की पवित्र बाणी सदा अपने अंदर बसाता है, जो मानो, ये नाद बजाता है, उसने (असल) भेष धारण कर लिया है, वह सदा अडोल आत्मिक अवस्था में टिका रहता है।4। (हे जोगी!) जिस मनुष्य ने अपने अंदर प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल ली है, जो सदा श्रेष्ठ नाम महा रस पी रहा है, जिसने सतिगुरू की बाणी की विचार को (अठारह) तीर्थों का स्नान बना लिया है, जिसने अपने हृदय को परमात्मा के रहने के लिए मंदिर बनाया है, और अंतरात्मे उसकी पूजा करता है, वह अपनी ज्योति को परमात्मा की ज्सोति में मिला लेता है।5। (हे जोगी!) जिस मनुष्य का मन नाम-रस में भीग जाता है; जिसकी मति एक प्रभू के प्रेम में पसीज जाती है, वह कामादिक पाँचों को समाप्त करके अंदरात्मे अडोल हो जाता है। पति-प्रभू की रजा में चलना उसकी नित्य की कार, नित्य की कमाई हो जाती है। वह मनुष्य उस ‘नाथ’ का रूप हो जाता है जो अदृश्य है और जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।6। (हे जोगी! सूर्य व चंद्रमा सरोवर आदि के) पानी में चमकता है, पर उस पानी से वह बहुत ही दूर है, पानी में उसकी ज्योति चमक मारती है, इसी तरह परमात्मा की ज्योति सब जीवों में हर जगह व्यापक है (पर वह परमात्मा निर्लिप भी है, सबके नजदीक भी है और दूर भी है)। मैं ये नहीं बता सकता कि वह किसके नजदीक है किसके दूर है। उसको हर जगह मौजूद देख के मैं उस गुणों के खजाने प्रभू के गुण गाता हूँ।7। हे भरथरी जोगी! सुन, नानक तुझे विचार की बात बताता है कि हर जगह जीवों के अंदर और बाहर सारी सृष्टि में परमात्मा के बिना और कोई नहीं है, जगत में वही कुछ हो रहा है जो उसको अच्छा लगता है। उस (सर्व-व्यापक) परमात्मा का पवित्र नाम मेरी जिंदगी का आसरा है।8।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |