श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 414 आसा महला १ ॥ गुरमुखि गिआनु धिआनु मनि मानु ॥ गुरमुखि महली महलु पछानु ॥ गुरमुखि सुरति सबदु नीसानु ॥१॥ ऐसे प्रेम भगति वीचारी ॥ गुरमुखि साचा नामु मुरारी ॥१॥ रहाउ ॥ अहिनिसि निरमलु थानि सुथानु ॥ तीन भवन निहकेवल गिआनु ॥ साचे गुर ते हुकमु पछानु ॥२॥ साचा हरखु नाही तिसु सोगु ॥ अम्रितु गिआनु महा रसु भोगु ॥ पंच समाई सुखी सभु लोगु ॥३॥ सगली जोति तेरा सभु कोई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े सोई ॥ आपे करता करे सु होई ॥४॥ ढाहि उसारे हुकमि समावै ॥ हुकमो वरतै जो तिसु भावै ॥ गुर बिनु पूरा कोइ न पावै ॥५॥ बालक बिरधि न सुरति परानि ॥ भरि जोबनि बूडै अभिमानि ॥ बिनु नावै किआ लहसि निदानि ॥६॥ जिस का अनु धनु सहजि न जाना ॥ भरमि भुलाना फिरि पछुताना ॥ गलि फाही बउरा बउराना ॥७॥ बूडत जगु देखिआ तउ डरि भागे ॥ सतिगुरि राखे से वडभागे ॥ नानक गुर की चरणी लागे ॥८॥६॥ {पन्ना 414} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की ओर मुंह करके, गुरू के सन्मुख हो के, गुरू की शरण पड़ के। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। धिआनु = परमात्मा में सुरति का टिकाव। मानु = (हे भाई!) तू माण। महली = महल का मालिक, परमात्मा। महलु = घर, ठिकाना। नीसानु = (जीवन यात्रा के लिए) राहदारी।1। अैसे = इस तरह। वीचारी = विचारवान। मुरारी = परमात्मा।1। रहाउ। अहि = दिन। निसि = रात। थानि = (अपने हृदय-) स्थल में। सुथानु = (परमातमा का) श्रेष्ठ ठिकाना। निहकेवल = वासना रहित प्रभू का। ते = से। पछानु = (हे भाई!) तू पहचान।2। हरखु = खुशी। सोगु = चिंता। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। भोगु = आत्मिक खुराक। पंच = कामादिक पाँचों विकार।3। सगली = सारी सृष्टि में। सभु कोई = हरेक जीव। जोड़ि = जोड़ के, संजोग बना के।4। हुकमि = प्रभू के हुकम के अनुसार। हुकमो = हुकम ही। तिसु = उस प्रभू को।5। परानि = प्राणी (को)। भरि जोबनि = भरी जवानी के समय। अभिमानि = अहंकार में। निदानि = आखिर को, अंत को।6। अनु = अंन। सहजि = सहज अवस्था में टिक के। गलि = गले में। बउरा = झल्ला।7। डरि = डर के। सतिगुरि = सतिगुरू ने। से = वह लोग।8। अर्थ: (हे भाई! तू) गुरू के सन्मुख हो के अपने मन में परमात्मा के साथ गहरी सांझ और परमात्मा में जुड़ी सुरति (का आनंद) ले, गुरू की शरण पड़ के तू अपने अंदर प्रभू का ठिकाना पहचान। गुरू के सन्मुख रहके तू गुरू के शबद को अपने सोच-मण्डल में टिका, (ये तेरी जीवन-यात्रा के लिए) राहदारी है।1। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम प्राप्त हो जाता है, और इस तरह प्रभू चरणों से प्रेम और परमात्मा की भक्ति करके वह ऊँचे विचारों का मालिक बन जाता है।1। रहाउ। (जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है वह) दिन-रात अपने हृदय-स्थल में परमात्मा का पवित्र श्रेष्ठ डेरा बनाए रखता है, तीनों भवनों में व्यापक और वासना-रहित प्रभू के साथ उसकी गहरी सांझ पड़ जाती है। (हे भाई! तू भी) अभॅुल गुरू से (भाव, शरण पड़ के) परमात्मा की रजा को समझ।2। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है उसके) अंदर स्थिर आनंद बनारहता है, उसे कभी कोई चिंता नहीं छूती। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाले श्रेष्ठ रस का नाम और परमात्मा के साथ गहरी सांझ उस मनुष्य का आत्मिक भोजन बन जाता है। (अगर गुरू की शरण पड़ के) जगत कामादिक पाँचों को खत्म कर दे तो सारा जगत ही सुखी हो जाए।3। (गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य इस प्रकार अरदास करता है– हे प्रभू!) सारी सृष्टि में तेरी ही ज्योति (प्रकाश कर रही है, हरेक जीव तेरा ही पैदा किया हुआ) है। (गुरमुखि को ये पक्का निश्चय होता है कि) परमात्मा स्वयं ही जीवों के संजोग बनाता है, और स्वयं ही फिर विछोड़े डाल देता है। जो कुछ करतार स्वयं ही करता है वही होता है।4। (गुरमुखि को यकीन हो जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही सारी सृष्टि को गिरा के स्वयं ही दुबारा उसकी सृजना करता है, उसके हुकम के अनुसार ही जगत दुबारा उसमें लीन हो जाता है। जो उसको अच्छा लगता है उसके अनुसार उसका हुकम चलता है। गुरू की शरण आए बिना कोई भी जीव पूरन परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।5। (जिस प्राणी की सुरति) ना बाल अवस्था में ना वृद्ध अवस्था में (और ना ही जवानी के समय) कभी भी परमात्मा में नहीं जुड़ती, (बल्कि) भरी-जवानी में वह (जवानी के) अहंकार में डूबा रहता है, वह परमात्मा के नाम से टूट के आखिर (यहाँ से) क्या कमाएगा?।6। जिस परमात्मा का दिया हुआ अंन्न और धन जीव इस्तेमाल करता रहता है, अगर अडोल अवस्था में टिक के उससे कभी भी सांझ भी नहीं डालता और माया की भटकना में असल जीवन-राह भटका रहता है, तो आखिर पछताता है। उसके गले में मोह की फांसी लगी रहती है, मोह में ही वह सदा झल्ला हुआ फिरता है।7। हे नानक! जो मनुष्य गुरू के चरणों में लगते हैं, वह जगत को (मोह में) डूबता देख के (मोह से) डर के भाग जाते हैं। वह बड़े भाग्यशाली हैं, सतिगुरू ने उन्हें (मोह की कैद से) बचा लिया है।8।6। आसा महला १ ॥ गावहि गीते चीति अनीते ॥ राग सुणाइ कहावहि बीते ॥ बिनु नावै मनि झूठु अनीते ॥१॥ कहा चलहु मन रहहु घरे ॥ गुरमुखि राम नामि त्रिपतासे खोजत पावहु सहजि हरे ॥१॥ रहाउ ॥ कामु क्रोधु मनि मोहु सरीरा ॥ लबु लोभु अहंकारु सु पीरा ॥ राम नाम बिनु किउ मनु धीरा ॥२॥ अंतरि नावणु साचु पछाणै ॥ अंतर की गति गुरमुखि जाणै ॥ साच सबद बिनु महलु न पछाणै ॥३॥ निरंकार महि आकारु समावै ॥ अकल कला सचु साचि टिकावै ॥ सो नरु गरभ जोनि नही आवै ॥४॥ जहां नामु मिलै तह जाउ ॥ गुर परसादी करम कमाउ ॥ नामे राता हरि गुण गाउ ॥५॥ गुर सेवा ते आपु पछाता ॥ अम्रित नामु वसिआ सुखदाता ॥ अनदिनु बाणी नामे राता ॥६॥ मेरा प्रभु लाए ता को लागै ॥ हउमै मारे सबदे जागै ॥ ऐथै ओथै सदा सुखु आगै ॥७॥ मनु चंचलु बिधि नाही जाणै ॥ मनमुखि मैला सबदु न पछाणै ॥ गुरमुखि निरमलु नामु वखाणै ॥८॥ हरि जीउ आगै करी अरदासि ॥ साधू जन संगति होइ निवासु ॥ किलविख दुख काटे हरि नामु प्रगासु ॥९॥ करि बीचारु आचारु पराता ॥ सतिगुर बचनी एको जाता ॥ नानक राम नामि मनु राता ॥१०॥७॥ {पन्ना 414-415} पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। चीति = चित्त में। अनीते = कुकर्म। राग = राग द्वैष की बातें। सुणाइ = सुना के। कहावहि = लोगों से कहलवाते हैं। बीते = राग द्वैष से परे। मनि = मन में।1। मन = हे मन! घरे = घर में ही, अंदर ही। त्रिपतासे = (माया की ओर से) तृप्त। पावहु = (हे मन!) तू ढूँढ लेगा। सहजि = अडोल अवस्था में टिक के।1। रहाउ। मनि = मन में। सरीरा = शरीर में। पीरा = पीड़ा। धीरा = धीरज वाला, हौसले वाला।2। नावणु = स्नान। गति = आत्मिक अवस्था। महलु = परमात्मा का ठिकाना।3। आकारु = बाहर दिखता जगत। समावै = लीन करे। अकल कला = जिसकी कला गिनती से परे है। साचि = सदा स्थिर प्रभू में जुड़ के।4। जाउ = मैं जाऊँ। परसादी = प्रसादि, कृपा से। कमाउ = मैं कमाऊँ। गाउ = मैं गाऊँ।5। आपु = अपने आप को, अपने असल को, अपने आत्मिक जीवन को। अनदिनु = हर रोज। नामे = नाम में ही।6। ता = तब। को = कोई जीव। सबदे = शबद के द्वारा। आगै = सामने।7। बिधि = (अहंकार को मारने की) बिधि।8। करी = करता हूँ। किलविख = पाप। प्रगासु = प्रकाश।9। करि = कर के। आचारु = शुभ आचरण। पराता = पहचाना। बचनी = वचनों पर चल के। नामि = नाम में। राता = रंगा हुआ।10। अर्थ: जो मनुष्य (दूसरों को सुनाने के लिए ही भक्ति के) गीत गाते हैं, पर उनके चित्त में बुरे ख्याल (मौजूद) हैं; जो (औरों को) राग (द्वैष से बचने की बातें) सुना के कहलवाते हैं कि हम राग-द्वैष से बचे हुए हैं, परमात्मा का नाम सिमरन के बिना उनके मन में झूठ (बसता) है, उनके मन में कुकर्म (टिके हुए) हैं।1। (औरों को समझ देने वाले) हे मन! तू (कुकर्मों में) क्यूँ भटक रहा है? अपने अंदर ही टिका रह। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होते हैं वे परमात्मा के नाम में जुड़ के (विकारों की ओर से) हट जाते हैं। हे मन! तू भी गुरू के द्वारा तलाश करके सहज अवस्था में टिक के परमात्मा को पा लेगा।1। रहाउ। जिस मनुष्य के मन में शरीर में काम है, क्रोध है मोह है, जिसके अंदर लब (लालच) है, लोभ है अहंकार है (जिसके अंदर इन विकारों का) कलेश है, परमात्मा का नाम सिमरन के बिना उसका मन (इनका मुकाबला करने का) कैसे हौसला कर सकता है?।2। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के अपनी अंदरूनी आत्मिक अवस्था को समझ लेता है, जो मनुष्य अपने अंदर सदा स्थिर प्रभू के साथ सांझ पा लेता है, वह अपनी आत्मा में (तीर्थ-) स्नान कर रहा है। (पर गुरू के) सच्चे शबद के बिना परमात्मा का ठिकाना कोई मनुष्य नहीं पहचान सकता।3। जो मनुष्य दिखाई देते संसार को अदृश्य प्रभू में लीन कर लेता है (भाव, अपनी बिरती को बाहर से रोक के अंदर ले आता है;) जिस प्रभू की सत्ता गिनती-मिनती से परे है वह सदा स्थिर प्रभू को जो मनुष्य सिमरन द्वारा अपने हृदय में टिकाता है, वह मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में नहीं आता।4। (इस वास्ते मेरी ये अरदास है कि) जहाँ (गुरू की संगति में से) मुझे परमातमा का नाम मिल जाए, मैं वहीं जाऊँ, गुरू की कृपा से मैं वही काम करूँ (जिनसे मुझे परमात्मा का नाम प्राप्त हो), और परमात्मा के नाम रंग में रंगा हुआ मैं परमात्मा के गुण गाता रहूँ।5। गुरू की बताई हुई सेवा के द्वारा जिस मनुष्य ने अपना आंतरिक आत्मिक जीवन पहचान लिया, उसके मन में आत्मिक जीवन देने वाला आत्मिक आनंद देने वाला हरी-नाम बस गया (समझो)। वह मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह की बाणी के द्वारा हर रोज हरी के नाम-रंग में रंगा रहता है।6। (पर ये खेल जीव के बस की नहीं) जब प्यारा प्रभू किसी जीव को अपने नाम में लगाता है तब ही कोई लगता है, तब ही गुरू शबद के द्वारा वह अहंकार को मार के (इस और से सदा) सचेत रहता है। फिर लोक-परलोक में सदा आत्मिक आनंद उसके सामने मौजूद रहता है।7। पर चंचल मन (अहंकार को मारने का) तरीका नहीं जान सकता, क्योंकि मनमुख का मन (विकारों से सदा) मैला रहता है, वह गुरू के शबद से सांझ नहीं डाल सकता। गुरू के बताए राह पर चलने वाला मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है और पवित्र जीवन वाला होता है।8। मैं प्रभू जी के आगे ये अरदास करता हूँ कि गुरमुखों की संगति में मेरा निवास बना रहे, मेरे अंदर परमात्मा का नाम चमक पड़े, और वह नाम मेरे पाप-कलेशों को काट दे।9। हे नानक! जो मनुष्य गुरू के बचनों पर चल के एक परमात्मा के साथ सांझ डालता है, वह गुरू की बाणी को विचार केअच्छा आचरण बनाना समझ लेता है। उसका मन परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है।10।7। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |