श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 418 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा काफी महला १ घरु ८ असटपदीआ ॥ जैसे गोइलि गोइली तैसे संसारा ॥ कूड़ु कमावहि आदमी बांधहि घर बारा ॥१॥ जागहु जागहु सूतिहो चलिआ वणजारा ॥१॥ रहाउ ॥ नीत नीत घर बांधीअहि जे रहणा होई ॥ पिंडु पवै जीउ चलसी जे जाणै कोई ॥२॥ ओही ओही किआ करहु है होसी सोई ॥ तुम रोवहुगे ओस नो तुम्ह कउ कउणु रोई ॥३॥ धंधा पिटिहु भाईहो तुम्ह कूड़ु कमावहु ॥ ओहु न सुणई कत ही तुम्ह लोक सुणावहु ॥४॥ जिस ते सुता नानका जागाए सोई ॥ जे घरु बूझै आपणा तां नीद न होई ॥५॥ जे चलदा लै चलिआ किछु स्मपै नाले ॥ ता धनु संचहु देखि कै बूझहु बीचारे ॥६॥ वणजु करहु मखसूदु लैहु मत पछोतावहु ॥ अउगण छोडहु गुण करहु ऐसे ततु परावहु ॥७॥ धरमु भूमि सतु बीजु करि ऐसी किरस कमावहु ॥ तां वापारी जाणीअहु लाहा लै जावहु ॥८॥ करमु होवै सतिगुरु मिलै बूझै बीचारा ॥ नामु वखाणै सुणे नामु नामे बिउहारा ॥९॥ जिउ लाहा तोटा तिवै वाट चलदी आई ॥ जो तिसु भावै नानका साई वडिआई ॥१०॥१३॥ {पन्ना 418} नोट: ‘घरु’ 8 की आठ अष्टपदियां आसा और काफी दो मिश्रित रागों में गाई जानी हैं। पद्अर्थ: गोइलि = गोइल में, पराए इलाके की चरागाह में। (नोट: मुश्किल के समय कई बार लोग अपना माल-पशु चराने के लिए दरिया के किनारे ले जाते हैं। उस अल्प अवधि की चरागाह को गोइल कहते हैं)। गोइल = ग्वाला। बांधहि = बाँधते हैं, पक्के बनाते हैं।1। सूतिहो = माया के मोह में ईश्वर से गाफिल हुए प्राणियो! वणजारा = जीव।1। रहाउ। नीत नीत = नित्य टिके रहने वाले। बांधीअहि = बाँधे जाएं, बनाए जायं। पिंडु = शरीर। पवै = गिर जाता है। जीउ = जीवात्मा।2। ओही ओही = हाय! हाय! सोई = वह परमात्मा ही। है = अब मौजूद है। होसी = सदा रहेगा।3। पिटिहु = रोते हो, चीखते हो। कत ही = किसी भी हालत में।4। जिस ते = जिस (प्रभू के हुकम) से। नीद = रब्ब की याद से गफलत।5। चलदा = मरने के वक्त। संपै = धन। संचहु = इकट्ठा करो। बीचारे = विचार के।6। मखसूद = लाभ। ततु = अस्लियत। परावहु = प्राप्त करो।7। सत = ऊँचा आचरण। किरस = खेती।8। करमु = बख्शिश।9। तोटा = घाटा। लाहा = लाभ। वाट = रास्ता। तिसु = उस (प्रभू) को।10। अर्थ: (माया के मोह की नींद में) सोए हुए जीवो! होश करो, होश करो। (तुम्हारे सामने तुम्हारा साथी) जीव-वणजारा (दुनिया से सदा के लिए) जा रहा है (इसी तरह) तुम्हारी बारी भी आएगी। परमात्मा को याद (रखो)।1। रहाउ। जैसे कोई ग्वाला पराए चरागाह में (अपना माल-पशू चराने के लिए ले जाता है) वैसे ही इस जगत का काम है। जो आदमी (मौत को भुला के) पक्के घर मकान बनाते हैं, वे व्यर्थ उद्यम करते हैं।1। सदा टिके रहने वाले घर तभी बनाए जाते हैं अगर यहाँ सदा टिके रहना हो। पर अगर कोई मनुष्य विचार करे (तो अस्लियत ये है कि) जब जीवात्मा यहाँ से चल पड़ती है तो शरीर भी गिर जाता है (ना शरीर रहता है ना जीवात्मा)।2। (हे भाई! किसी संबंधी के मरने पर) क्यूँ बेकार में ‘हाय! हाय!’ करते हो। सदा-स्थिर तो परमात्मा ही है जो अब भी मौजूद है और सदा मौजूद रहेगा। यदि तुम (अपने) उस मरने वाले के मरने पर रोते हो तो (मरना तो तुमने भी है) तुम्हें भी कोई रोएगा।3। हे भाई! तुम (किसी के मरने पर रोने का) व्यर्थ चीख-चिहाड़ा डालते हो, व्यर्थ काम करते हो। जो मर गया है, वह तो तुम्हारा रोना बिल्कुल ही नहीं सुनता। तुम (लोकाचारी) सिर्फ लोगों को सुना रहे हो।4। (जीव के भी क्या वश?) हे नानक! जिस परमात्मा के हुकम से जीव (माया के मोह में) सो रहा है, वही इसे जगाता है। (प्रभू की मेहर से) अगर जीव ये समझ ले कि मेरा असल घर कौन सा है तो उसे माया के मोह की नींद नहीं व्याप्ती।5। हे भाई! देख के विचार के समझो। यदि कोई मरने वाला मनुष्य मरने के समय अपने साथ कुछ धन ले के जाता है, तो तुम भी धन बेशक जोड़े चलो।6। (हे भाई! नाम सिमरन का ऐसा) वणज-व्यापार करो, जिससे जीवन मनोरथ का लाभ कमा सको, नहीं तो पछताना ही पड़ेगा। बुरे काम छोड़ो, गुण ग्रहण करो। इस तरह असल (कमाई) कमाओ।7। (हे भाई!) धर्म को धरती बनाओ, उसमें स्वच्छ आचरण के बीज बीजो। बस! इस तरह की ही (आत्मिक जीवन को प्रफुल्लित करने वाली) खेती करो। अगर तुम (यहाँ से ऊँचे आत्मिक जीवन का) लाभ कमा के ले के जाओगे तो (समझदार) व्यापारी समझे जाओगे।8। (जिस मनुष्य पर परमात्मा की) बख्शिश हो उसे गुरू मिलता है और वह इस विचार को समझता है। वह परमात्मा का नाम उचारता है, नाम सुनता है, और नाम में ही व्यवहार करता है।9। संसार की ये यही रीति (सदा से) चली आई है, कोई (नाम में जुड़ के आत्मिक) लाभ कमाता है, (तो, कोई माया के मोह में फस के आत्मिक जीवन में) घाटा खाता है। हे नानक! परमात्मा को जो अच्छा लगता है (वही होता है), यही उसकी बुजुर्गीयत है।10।13। आसा महला १ ॥ चारे कुंडा ढूढीआ को नीम्ही मैडा ॥ जे तुधु भावै साहिबा तू मै हउ तैडा ॥१॥ दरु बीभा मै नीम्हि को कै करी सलामु ॥ हिको मैडा तू धणी साचा मुखि नामु ॥१॥ रहाउ ॥ सिधा सेवनि सिध पीर मागहि रिधि सिधि ॥ मै इकु नामु न वीसरै साचे गुर बुधि ॥२॥ जोगी भोगी कापड़ी किआ भवहि दिसंतर ॥ गुर का सबदु न चीन्हही ततु सारु निरंतर ॥३॥ पंडित पाधे जोइसी नित पड़्हहि पुराणा ॥ अंतरि वसतु न जाणन्ही घटि ब्रहमु लुकाणा ॥४॥ इकि तपसी बन महि तपु करहि नित तीरथ वासा ॥ आपु न चीनहि तामसी काहे भए उदासा ॥५॥ इकि बिंदु जतन करि राखदे से जती कहावहि ॥ बिनु गुर सबद न छूटही भ्रमि आवहि जावहि ॥६॥ इकि गिरही सेवक साधिका गुरमती लागे ॥ नामु दानु इसनानु द्रिड़ु हरि भगति सु जागे ॥७॥ गुर ते दरु घरु जाणीऐ सो जाइ सिञाणै ॥ नानक नामु न वीसरै साचे मनु मानै ॥८॥१४॥ {पन्ना 418-419} पद्अर्थ: कुंडा = कूटें, कोनें, तरफ। चारे कुंडा = सारी सृष्टि। को = कोई जीव। नीमी = नहीं। मैडा = मेरा (सच्चा सहयोगी)। मै = मेरा। हउ = मैं। तैडा = तेरा।1। बीभा = बीआ, दूसरा, (तेरे बिना) कोई और। नीमि् = नहीं। को = कोई। को बीभा = कोई दूसरा। के = किसे? करीं = मैं करूँ। हिको = एक ही। धणी = मालिक। साचा = सदा-स्थिर।1। रहाउ। सेवनि = सेवा करते हैं। रिधि सिधि = रिद्धियां सिद्धियां, करामाती ताकतें। गुर बुधि = गुरू की दी हुई मति से।2। भोगी = भोगों में प्रर्वित रहने वाले। कापड़ी = कटे फटे लीर बने वस्त्र पहनने वाले फकीर। किआ = किस लिए, व्यर्थ। दिसंतर = अन्य देशों में। न चीनही = नहीं पहचानते, नहीं खोजते। निरंतर = (निर+अंतर) अंतर के बिना, एक रस, लगातार।3। पाधे = पढ़ाने वाले। जोइसी = ज्योतिषी। घटि = घट में, हृदय में। ब्रहमु = परमात्मा।4। इकि = कई (‘इक’ का बहुवचन)। तीरथ = तीर्थों पर। आपु = अपने आप को। तामसी = क्रोधी। तमस = अंधेरा, तमोगुण। उदासा = त्यागी।5। बिंदु = वीर्य। राखदे = संभालते, रोकते। से = वह लोग। छूटही = छुटकारा पाते हैं। भ्रमि = भटकना में पड़ के।6। गिरही = गृहस्ती। साधिका = (सेवा के) साधन करने वाले। दानु = सेवा, दूसरों को नाम जपने के लिए प्रेरित करना। इसनानु = पवित्रता, स्वच्छ आचारण।7। ते = से। जाणीअै = जानी जाती है। सो सिञाणै = वह मनुष्य पहचानता है। जाइ = (जो गुरू के पास) जाता है। साचे = सच में ही, सदा स्थिर प्रभू में ही। मानै = रम जाता है।8। अर्थ: मैंने सारी सृष्टि तलाश के देख ली है, मुझे कोई भी अपना (सच्चा दर्दी) नहीं मिला। हे मेरे साहिब! अगर तुझे (मेरी विनती) पसंद आए (तो मेहर कर) तू मेरा (रक्षक बन), मैं तेरा (सेवक) बना रहूँ।1। मुझे (तेरे दर के बिना) कोई और दर नहीं मिलता। और किसके आगे मैं सलाम करूँ? (और किससे मैं मांगूँ?) सिर्फ एक तू ही मेरा मालिक है (मैं तुझसे ही ये दान माँगता हूँ कि) तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम मेरे मुंह में (टिका रहे)।1। रहाउ। (लोग) सिद्ध और पीर (बनने के लिए) पहुँचे हुए जोगियों की सेवा करते हैं, और उनसे रिद्धियों-सिद्धियों (की ताकत) मांगते हैं। (मेरी एक तेरे आगे ही ये अरदास है कि) अभॅुल गुरू की बख्शी बुद्धि के अनुसार मुझे तेरा नाम कभी ना भूले।2। जोगी और लीरें पहनने वाले फकीर बेकार में ही देश-देशांतरों का रटन करते हैं। वे सतिगुरू के शबद को नहीं खोजते, वे एक रस श्रेष्ठ अस्लियत को नहीं खोजते।3। पण्डित, पांधे (शिक्षक) और ज्योतिषी नित्य पुराण आदि पुस्तकें ही पढ़ते रहते हैं। परमात्मा हृदय में छुपा हुआ है, ये लोग अंदर बसती नाम-वस्तु को नहीं पहचानते।4। अनेकों लोग तपी बने हुए हैं, जंगलों में (जा के) तप साध रहे हैं, और सदा तीर्थों पर निवास रखते हैं। (तपों के कारण वे) क्रोध से भरे रहते हैं, अपने आत्मिक जीवन को नहीं खोजते। त्यागी बनने का उनहें कोई लाभ नहीं होता।5। अनेकों लोग ऐसे हैं जो यतन करके वीर्य को रोक के रखते हैं, और अपने आप को जती कहलाते हैं। पर गुरू के शबद के बिना वे भी (क्रोधादिक तामसी स्वभाव से) निजात नहीं पाते। (जती होने की ही) भटकना में पड़ कर जनम-मरन के चक्कर में पड़े रहते हैं।6। (पर) अनेकों गृहस्ती ऐसे हैं जो सेवा करते हैं सेवा के साधन करते हैं, और गुरू की दी हुई मति पर चलते हैं वे नाम जपते हैं, औरों को नाम जपने के लिए प्रेरित करते हैं, अपना आचरण पवित्र रखते हैं। वे परमात्मा की भक्ति में अपने आप को द्ढ़ करके (विकारों के हमलों की ओर से) सुचेत रहते हैं।7। हे नानक! परमात्मा का दर परमात्मा का घर गुरू के द्वारा (गुरू की शरण पड़ के ही) पहचाना जा सकता है। वही मनुष्य पहचानता है जो गुरू के पास जाता है। उसे परमात्मा का नाम नहीं बिसरता, उसका मन सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में रम जाता है।8।14। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |