श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 439 मेरे जीअड़िआ परदेसीआ कितु पवहि जंजाले राम ॥ साचा साहिबु मनि वसै की फासहि जम जाले राम ॥ मछुली विछुंनी नैण रुंनी जालु बधिकि पाइआ ॥ संसारु माइआ मोहु मीठा अंति भरमु चुकाइआ ॥ भगति करि चितु लाइ हरि सिउ छोडि मनहु अंदेसिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन जीअड़िआ परदेसीआ ॥३॥ नदीआ वाह विछुंनिआ मेला संजोगी राम ॥ जुगु जुगु मीठा विसु भरे को जाणै जोगी राम ॥ कोई सहजि जाणै हरि पछाणै सतिगुरू जिनि चेतिआ ॥ बिनु नाम हरि के भरमि भूले पचहि मुगध अचेतिआ ॥ हरि नामु भगति न रिदै साचा से अंति धाही रुंनिआ ॥ सचु कहै नानकु सबदि साचै मेलि चिरी विछुंनिआ ॥४॥१॥५॥ {पन्ना 439} पद्अर्थ: कितु = किस लिए? साचा = सदा स्थिर रहने वाला। मनि = मन में। की = क्यूँ? नैण रुंनी = आंखें (भर के) रोई। बधिकि = बधिक ने, शिकारी ने। भरमु = भुलेखा। अंति = आखिर में। सिउ = साथ।3। वाहु = बहाव। संजोगी = सौभाग्यों से। जुग जुग = सदा ही। विसु = जहर। को = कोई विरला। जोगी = विरक्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जिनि = जिस मनुष्य ने। भरमि = भटकना में। पचहि = ख्वार होते हैं। मुगध = मूर्ख लोग। अचेतिआ = गाफिल। रिदै = हृदय में। धाही = ढाहें मार के। चिरी विछुंनिआ = चिरों से बिछुड़े हुओं को।4। अर्थ: हे मेरी परदेसी जीवात्मा! तू क्यूँ (माया के) जंजाल में फंस रही है? अगर सदा-स्थिर रहने वाला मालिक तेरे मन में बसता हो तो तू (माया के मोह रूपी) जम के पसरे हुए जाल में क्यूँ फसे? (हे मेरी जीवात्मा! देख) जब शिकारी ने (पानी में) जाल डाला होता है और मछली (चारे की लालच में फस कर जाल में फंस जाती है और पानी से) विछुड़ जाती है तब आँखें भर के रोती है (इसी तरह जीव को) ये जगत मीठा लगता है, माया का मोह मीठा लगता है, पर (फस के) अंत में ये भुलेखा दूर होता है (जब जीवात्मा दुखों के चुंगल में आती है तो मायावी पदार्थ साथ छोड़ जाते हैं)। हे मेरी जीवात्मा! परमात्मा के चरनों में चित्त जोड़ के भक्ति करके इस तरह अपने मन में से फिक्र-अंदेशे दूर कर ले। नानक कहता है– हे मेरे परदेसी जीयड़े! हे मेरे मन! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को सिमर।3। नदियों से विछुड़ी हुई धाराओं का (नदियों से दुबारा) मेल बड़े भाग्यों से ही होता है (इसी तरह माया के मोह में फस के प्रभू से विछुड़े हुए जीव दुबारा सौभाग्य से ही मिलते हैं)। जो कोई विरला (एक आध) मनुष्य प्रभू-चरणों में जुड़ता है वही समझ लेता है कि माया का मोह है तो मीठा पर सदा जहर से भरा रहता है (और जीव को आत्मिक मौत मार देता है)। ऐसा कोई विरला आदमी जिसने अपने गुरू को याद रखा है आत्मिक अडोलता में टिक के इसी अस्लियत को समझता है और परमात्मा से सांझ डालता है। परमात्मा के नाम के बिना माया के मोह की भटकना में गलत रास्ते पर पड़ कर अनेकों मूर्ख गाफिल जीव दुखी होते हैं। जो लोग परमात्मा का नाम नहीं सिमरते, प्रभू की भक्ति नहीं करते, अपने हृदय में सदा-स्थिर प्रभू को नहीं बसाते, वे आखिर जोर-जोर से रोते हैं। नानक कहता है– सदा-स्थिर प्रभू अपनी सिफत सालाह के शबद में जोड़ के चिरों से विछुड़े हुए जीवों को (अपने चरणों में) मिला देता है।4। नोट: ये छंत ‘घरु 3– का है। कुल जोड़ है 5। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ३ छंत घरु १ ॥ हम घरे साचा सोहिला साचै सबदि सुहाइआ राम ॥ धन पिर मेलु भइआ प्रभि आपि मिलाइआ राम ॥ प्रभि आपि मिलाइआ सचु मंनि वसाइआ कामणि सहजे माती ॥ गुर सबदि सीगारी सचि सवारी सदा रावे रंगि राती ॥ आपु गवाए हरि वरु पाए ता हरि रसु मंनि वसाइआ ॥ कहु नानक गुर सबदि सवारी सफलिउ जनमु सबाइआ ॥१॥ {पन्ना 439-440} नोट: इसी राग में गुरू नानक देव जी के पहले छंत का चौथा बंद ध्यान से पढ़ें। हरेक शब्द को ध्यान से देखें। महले तीसरे का भी पहला बंद पढ़ें। शब्दों की सांझ तुकों की सांझ बताती है कि गुरू नानक देव जी की बाणी गुरू अमरदास जी के पास मौजूद थी। पद्अर्थ: हम घरे = मेरे (हृदय) घर में। साचा सोहिला = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह का गीत। साचै सबदि = सदा स्थिर हरी की सिफत सालाह वाले शबद (की बरकति) से। सुहाइआ = (हृदय घर) सोहाना बन गया। धन = जीव स्त्री। पिर = प्रभू पति। प्रभि = प्रभू ने। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। मंनि = मनि, मन में। कामणि = कामिनी, जीव स्त्री। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माती = मस्त। सबदि = शबद ने। सचि = सदा स्थिर हरि नाम ने। रावै = माणती है। रंगि = रंग में। राती = रंगी हुई। आपु = स्वै भाव। वरु = पति। सबाइआ = सारा।1। अर्थ: (हे सखी!) मेरे (हृदय-) घर में सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह का गीत चल रहा है, सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाले गुर-शबद ने (मेरे हृदय-घर को) सोहाना बना दिया है। (हे सखी! उस) जीव-स्त्री का प्रभू पति के साथ मिलाप होता है जिसे प्रभू ने स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लिया। प्रभू ने जिस जीव-स्त्री को खुद (अपने चरणों में) जोड़ा, अपना सदा-स्थिर नाम उसके मन में बसा दिया, वह जीव-स्त्री (फिर) आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है। गुरू के शबद ने (उस जीव स्त्री के जीवन को) श्रृंगार दिया, सदा-स्थिर हरी नाम ने (उसके जीवन को) सुंदर बना दिया, वह (फिर) प्रभू के प्रेम रंग में रंगी हुई सदा ही (प्रभू-मिलाप का आनंद) लेती है। (जब जीव-स्त्री अपने अंदर से) अहंकार दूर करती है (और अपने अंदर) प्रभू-पति को ढूँढ लेती है तब वह प्रभू के नाम का स्वाद अपने मन में (सदा के लिए) बसा लेती है। हे नानक! कह–गुरू के शबद की बरकति से जिस जीव-स्त्री का आत्मिक जीवन सोहाना बन जाता है उसकी सारी जिंदगी कामयाब हो जाती है।1। दूजड़ै कामणि भरमि भुली हरि वरु न पाए राम ॥ कामणि गुणु नाही बिरथा जनमु गवाए राम ॥ बिरथा जनमु गवाए मनमुखि इआणी अउगणवंती झूरे ॥ आपणा सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ ता पिरु मिलिआ हदूरे ॥ देखि पिरु विगसी अंदरहु सरसी सचै सबदि सुभाए ॥ नानक विणु नावै कामणि भरमि भुलाणी मिलि प्रीतम सुखु पाए ॥२॥ {पन्ना 439-440} पद्अर्थ: दूजड़ै = (प्रभू के बिना) किसी और (कोझे प्यार) में। भरमि = भटकना में (पड़ के)। भुली = गलत रास्ते पड़ जाती है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। झूरे = अंदर ही अंदर दुखी होती है। सेवि = सेवा करके। हदूरे = अंग संग बसने वाला। देखि = देख के। विगसी = खिल उठी। सरसी = रस सहित हो गई, आनंदित हो गई। सबदि = शबद में। सुभाऐ = प्रेम में (मगन हो गई)। मिलि = मिल के।2। अर्थ: (हे सखी!) जो जीव-स्त्री (प्रभू के बिना माया आदि की) और ही भटकनों में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ जाती है उसे प्रभू-पति का मिलाप नहीं होता। वह जीव-स्त्री (अपने अंदर कोई आत्मिक) गुण पैदा नहीं करती, वह अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा देती है। अपने मन के पीछे चलने वाली वह मूर्ख जीव-स्त्री जीवन व्यर्थ गवा देती है अवगुणों से भरी होने के कारण वह अपने अंदर ही अंदर दुखी होती रहती है। पर जब उसने अपने गुरू के द्वारा बताई सेवा करके सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद ढूँढा तब उसे प्रभू-पति अंग-संग बसता ही मिल गया। (अपने अंदर) प्रभू-पति को देख के वह खिल गई, वह अंतरात्मे आनंद-मगन हो गई, वह सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाले गुरू-शबद में प्रभू-प्रेम में लीन हो गई। हे नानक! प्रभू के नाम से विछुड़ के जीव-स्त्री भटकने के कारण गलत राह पर पड़ी रहती है प्रीतम प्रभू को मिल के आत्मिक आनंद पाती है।2। पिरु संगि कामणि जाणिआ गुरि मेलि मिलाई राम ॥ अंतरि सबदि मिली सहजे तपति बुझाई राम ॥ सबदि तपति बुझाई अंतरि सांति आई सहजे हरि रसु चाखिआ ॥ मिलि प्रीतम अपणे सदा रंगु माणे सचै सबदि सुभाखिआ ॥ पड़ि पड़ि पंडित मोनी थाके भेखी मुकति न पाई ॥ नानक बिनु भगती जगु बउराना सचै सबदि मिलाई ॥३॥ {पन्ना 439-440} पद्अर्थ: संगि = साथ। गुरि = गुरू ने। मेलि = प्रभू मिलाप में। अंतरि = हृदय में। सबदि = शबद द्वारा। सहजे = आत्मिक अडोलता में। तपति = तपस, जलन। सुभाखिआ = मीठी बोली। पढ़ि = पढ़ के। मोनी = सदा चुप रहने वाले साधू। भेखी = अलग अलग भेषों वाले साधू (जोगी जंगम आदि)। मुकति = (विकारों से) मुक्ति। बउराना = झल्ला।3। अर्थ: (हे सखी!) जिस जीव-स्त्री को गुरू ने प्रभू चरणों में जोड़ दिया उसने प्रभू-पति को अपने अंग-संग बसता पहचान लिया, वह अंतरात्मे गुरू के शबद की बरकति से प्रभू के साथ एक-मेक हो गई। आत्मिक अडोलता में टिक के उसने (अपने अंदर से विकारों वाली) तपश बुझा ली। (हे सखी! जिस जीव-स्त्री ने) गुरू के शबद की सहायता से अपने अंदर से विकारों वाली तपश बुझा ली, उसके अंदर ठंड पड़ गई, आत्मिक अडोलता में टिक के उसने हरि नाम का स्वाद चख लिया। अपने प्रभू-प्रीतम को मिल के वह सदा प्रेम-रंग भोगती है, सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाले गुर-शबद में जुड़ के उसकी बोली मीठी हो जाती है। (हे सखी!) पण्डित (धार्मिक पुस्तकें) पढ़-पढ़ के, मौनधारी (समाधियां लगा लगा के) (जोगी जंगम आदि साधु) भेष धार-धार के थक गए (इन तरीकों से किसी ने माया के बंधनों से) निजात हासिल नहीं की। हे नानक! परमात्मा की भक्ति के बिना जगत (माया के मोह में) झल्ला हुआ फिरता है, सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाले गुर-शबद की बरकति से प्रभू चरणों में मिलाप हासिल कर लेता है।3। सा धन मनि अनदु भइआ हरि जीउ मेलि पिआरे राम ॥ सा धन हरि कै रसि रसी गुर कै सबदि अपारे राम ॥ सबदि अपारे मिले पिआरे सदा गुण सारे मनि वसे ॥ सेज सुहावी जा पिरि रावी मिलि प्रीतम अवगण नसे ॥ जितु घरि नामु हरि सदा धिआईऐ सोहिलड़ा जुग चारे ॥ नानक नामि रते सदा अनदु है हरि मिलिआ कारज सारे ॥४॥१॥६॥ {पन्ना 439-440} पद्अर्थ: सा धन मनि = जीव स्त्री के मन में। मेलि = मिलाप में। हरि कै रसि = प्रभू के प्रेम रस में। रसी = भीग गई। सबदि = शबद द्वारा। सारे = संभालती है (हृदय में)। मनि = मन में। सेज = हृदय सेज। सुहावी = सोहानी। पिरि = पिर ने। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के। जितु घरि = जिस (हृदय) घर में। सोहिलड़ा = खुशी के गीत। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। नामि = नाम में। कारज सारे = काम सफल होते हैं।4। अर्थ: (हे सखी!) जिस जीव-स्त्री को प्यारे हरी प्रभू ने अपने चरणों में जोड़ लिया उसके मन में उमंग पैदा हो जाती है, वह जीव-स्त्री अपार प्रभू की सिफत सालाह वाले गुरू-शबद के द्वारा परमात्मा के प्रेम-रस में भीगी रहती है। अपार प्रभू की सिफत सालाह वाले शबद की बरकति से वह जीव-स्त्री प्यारे प्रभू को मिल जाती है, सदा उसके गुण अपने हृदय में संभाल के रखती है, प्रभू के गुण उसके मन में टिके रहते हैं, जब से प्रभू-पति ने उसे अपने चरणों से जोड़ लिया उस (के हृदय) की सेज सुंदर बन गई। प्रीतम प्रभू को मिल के उसके सारे अवगुण दूर हो गए। (हे सखी!) जिस (हृदय-) घर में परमात्मा का नाम सदा सिमरा जाता है वहाँ सदा ही (जैसे) खुशियों के गीत गाए जा रहे होते हैं। हे नानक! जो जीव परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं उनके अंदर सदा आनंद बना रहता है, प्रभू-चरणों में मिल के वह अपने सारे काम संवार लेते हैं।4।1।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |